जाट एक अत्यंत प्राचीन भारतीय समुदाय है। यह प्रायः कृषि एवं पशुपालन से जुड़ा हुआ, सम्पन्न, परिश्रमी एवं जनजातीय विशेषताओं से युक्त समुदाय है जो उत्तर भारत के उपाजाऊ मैदानों एवं मध्य भारत के उपाजाऊ पठार में बड़ी संख्या में निवास करता आया है। महाभारत में सर्वप्रथम जाटतृक अथवा जर्तिका नामक जाति का उल्लेख होता है जो पंजाब में निवास करती थी, ऐसा प्रतीत होता है कि महाभारत युद्ध के पश्चात् हुई उथल-पुथल के बाद के किसी काल में जाट जाति ने पंजाब के उपजाऊ मैदानों से बाहर निकलकर दूर-दूर तक अपना विस्तार किया। उपजाऊ प्रदेशों में मुक्त रूप से कृषि एवं पशुपालन जैसे कठिन कार्य को करने के कारण तथा प्राचीन वैदिक सभ्यता का अनुसरण करने के कारण ही जाट जाति में सम्पन्नता एवं स्वातंत्र्य प्रियता सहज रूप से दिखाई पड़ती है।
ऐसा भी माना जाता है कि जनमेजय के नागयज्ञ के बाद बचे हुए नाग इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) से निकलकर नागपुर (महाराष्ट्र) तथा उसके नीचे तक फैल गये। यही कारण है कि दिल्ली, भरतपुर, धौलपुर, आगरा, मथुरा, मेरठ हिसार, सीकर, चूरू, झुंझुनूं, बीकानेर, नागौर, जोधपुर तथा बाड़मेर आदि जिलों में बड़ी संख्या में जाट निवास करते हैं।
ब्रज क्षेत्र के जाटों का संघर्ष
गंगा-यमुना का दो-आब, दिल्ली के मुस्लिम शासकों के अत्याचारों से सर्वाधिक उत्पीड़ित रहा। दिल्ली के सुल्तानों द्वारा अपनाई गई भू-राजस्व की अधिकाधिक वसूली की प्रवृत्ति ने दो-आब के किसानों पर भयानक अत्याचार किये। अनेक सुल्तानों ने मुसलमान किसानों से लगान नहीं लेने तथा हिन्दू किसानों से अत्यधिक भूराजस्व लेने की नीति अपनाई इस कारण हिन्दू किसानों में विद्रोही प्रवृत्ति का जन्म लेना स्वाभाविक ही था। दो-आब के सम्पन्न प्रदेश के निवासी होने के कारण इस क्षेत्र के किसान अत्यधिक स्वातंत्र्य-प्रिय भी थे, इस कारण इस क्षेत्र के किसानों ने दिल्ली सल्तनत की सेनाओं और राजस्व वसूलने वाले अधिकारियों का प्रतिरोध किया, परिणामतः इस क्षेत्र के किसानों पर अत्याचार भी अधिक परिमाण में हुए। बहुत से किसानों को प्रायः शाही सेनाओं के भय से, अपने खेत छोड़कर जंगलों में भाग जाना पड़ता था। शांति स्थापित होने पर ये किसान फिर से अपनी जमीनों पर लौट आते थे। बहुत से किसानों को सिपाहियों के हाथों मिली दर्दनाक एवं भयानक मृत्यु का सामना करना पड़ता था। फिर भी ब्रज क्षेत्र के जाट अपनी जमीनों पर अपना नियंत्रण बनाये रहे। इस कारण उनमें लड़ाकू प्रवृत्ति बनी रही। वे छोटे-छोटे समूहों में संगठित होकर आतताइयों का सामना करने लगे। मुस्लिम सेनाओं के विरुद्ध अपनाई गई यही लड़ाका प्रवृत्ति, जाटों के उत्थान के लिये वरदायिनी शक्ति सिद्ध हुई।
अकबर के समय में बयाना, बाड़ी, टोडाभीम, खानुआ तथा धौलपुर महाल, आगरा सूबे में स्थित आगरा सरकार के अधीन थे जबकि गोपालगढ़, नगर, पहाड़ी तथा कामां जयपुर रियासत के अधीन थे। रूपबास के आसपास उन दिनों विशाल जंगल खड़ा था जहाँ अकबर प्रायः शिकार खेलने आया करता था। इस क्षेत्र की शासन व्यवस्था औरंगजेब के समय तक वैसी ही चलती रही।
सत्रहवीं शताब्दी के आते-आते आगरा, मथुरा, कोयल (अलीगढ़), मेवात की पहाड़ियां तथा आमेर राज्य की सीमाओं से लेकर उत्तर में दिल्ली से 20 मील दूर मेरठ, होडल, पलवल तथा फरीदाबाद से लेकर दक्षिण में चम्बल नदी के तट के पार गोहद तक जाट जाति का खूब प्रसार हो गया। इस कारण यह विशाल क्षेत्र जटवाड़ा के नाम से प्रसिद्ध होने लगा। इस क्षेत्र पर नियंत्रण रख पाना शाहजहां के लिये भारी चुनौती का काम हो गया। शाहजहां के काल में जाटों को घोड़े की सवारी करने, बन्दूक रखने तथा दुर्ग बनाने पर प्रतिबंध था।
मुर्शीद कुली खां का वध
ई.1636 में शाहजहां ने ब्रजमण्डल के जाटों को कुचलने के लिये मुर्शीद कुली खां तुर्कमान को कामा, पहाड़ी, मथुरा और महाबन परगनों का फौजदार नियुक्त किया। उसने जाटों के साथ बड़ी नीचता का व्यवहार किया जिससे जाट मुर्शीद कुली खां के प्राणों के पीछे हाथ धोकर पड़ गये। हुआ यूं कि कृष्ण जन्माष्टमी को मथुरा के पास यमुना के पार गोवर्धन में हिन्दुओं का बड़ा भारी मेला लगता था। मुर्शीद कुली खां भी हिन्दुओं का छद्म वेश धारण करके सिर पर तिलक लगाकर और धोती बांधकर उस मेले में आ पहुंचा। उसके पीछे-पीछे उसके सिपाही चलने लगे। उस मेले में जितनी सुंदर स्त्रियां थीं, उन्हें छांट-छांटकर उसने अपने सिपाहियों के हवाले कर दिया। उसके सिपाही उन स्त्रियों को पकड़कर नाव में बैठा ले गये। उन स्त्रियों का क्या हुआ, किसी को पता नहीं लगा। उस समय तो मुर्शीद कुली खां से कोई कुछ नहीं कह सका किंतु कुछ दिन बाद ई.1638 में जाटवाड़ नामक स्थान पर (सम्भल के निकट) जाटों ने उसकी हत्या कर दी।
आम्बेर नरेश जयसिंह की नियुक्ति
इस पर शाहजहां ने जाटों को कुचलने के लिये आम्बेर नरेश जयसिंह को नियुक्त किया। जयसिंह ने सफलता पूर्वक जाटों का दमन किया और उनसे राजस्व वसूल किया। जयसिंह ने जाटों, मेवों तथा गूजरों का बड़ी संख्या में सफाया किया तथा अपने विश्वस्त राजपूत परिवार इस क्षेत्र में बसाये।
गोकुला का नेतृत्व
ई.1699 के आसपास जाट गोकुला के नेतृत्व में संगठित हुए। गोकुला तिलपत गांव का जमींदार था। औरंगजेब के अत्याचारों से तंग होकर वह महावन आ गया। उसने जाटों, मेवों, मीणों, अहीरों, गूजरों, नरूकों तथा पवारों को अपनी ओर मिला लिया तथा उन्हें इस बात के लिये उकसाया कि वे मुगलों को कर न दें। मुगल सेनापति अब्दुल नबी खां ने गोकुला पर आक्रमण किया। उस समय गोकुला' सहोर गांव में था। जाटों ने अब्दुल नबी खां को मार डाला तथा मुगल सेना को लूट लिया। इसके बाद गोकुला ने सादाबाद गांव को जला दिया और उस क्षेत्र में भारी लूट-पाट की। अंत में औरंगजेब स्वयं मोर्चे पर आया और उसने जाटों को घेर लिया। जाटों की स्त्रियों ने जौहर किया तथा जाट वीर मुगलों पर टूट पड़े। हजारों हिन्दू मारे गये। गोकुला को हथकड़ियों में जकड़कर औरंगजेब के समक्ष ले जाया गया। औरंगजेब ने उससे कहा कि वह इस्लाम स्वीकार कर ले। गोकुला ने इस्लाम मानने से मना कर दिया। इस पर औरंगजेब ने आगरा की कोतवाली के समक्ष गोकुला का एक-एक अंग कटवाकर फिंकवा दिया। पराजय, पीड़ा और अपमान का विष पीकर तिल-तिल मरता हुआ गोकुला अपनी स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिये विमल कीर्ति के अमल-धवल अमृत पथ पर चला गया।
राजाराम का नेतृत्व
इस्लाम स्वीकार करने से इन्कार कर देने के कारण गोकुला को औरंगजेब के हाथों जिस प्रकार की दर्दनाक और अपमान जनक मृत्यु प्राप्त हुई थी, वैसी ही दर्दनाक और अपमान जनक मृत्यु औरंगजेब ने कई और लोगों को भी दी थी। इस कारण देश में चारों ओर मुगलों के विरुद्ध वातावरण बन गया। गोकुला के अंत से जाट बुरी तरह झल्ला गये। इस बार वे ब्रजराज, ब्रजराज के भाई भज्जासिंह तथा भज्जासिंह के पुत्र राजाराम के नेतृत्व में एकत्रित हुए। ब्रजराज मुगलों से युद्ध करता हुआ मारा गया। उसकी मृत्यु के कुछ समय बाद उसकी पत्नी के गर्भ से एक पुत्र ने जन्म लिया जिसका नाम बदनसिंह रखा गया। आगे चलकर बदनसिंह भी जाटों का नेता बना। ब्रजराज का छोटा भाई भज्जासिंह एक साधारण किसान था। यह परिवार सिनसिनी गांव का रहने वाला था। भज्जासिंह का पुत्र राजाराम भी अपने बाप-दादों की तरह विद्रोही प्रवृत्ति का था। कहते हैं एक बार लालबेग नामक एक व्यक्ति मऊ का थानेदार था। उसने एक अहीर की स्त्री का बलात् शील भंग किया। जब यह बात राजाराम को ज्ञात हुई तो उसने लालबेग की हत्या कर दी। उसकी इस वीरता से प्रसन्न होकर जाट उसके पीछे हो लिये और राजाराम निर्विवाद रूप से उनका नेता बन गया। शीघ्र ही राजाराम ने मिट्टी के परकोटों से घिरी पक्की गढ़ैयां (छोटे दुर्ग) बनाने आरम्भ कर दिये। जब राजाराम की स्थिति काफी मजबूत हो गई तो उसने आगरा सूबे पर आक्रमण करने शुरू कर दिये। इस पर औरंगजेब ने राजाराज को दिल्ली बुलवाया तथा मथुरा की सरदारी और 575 गांवों की जागीर प्रदान कर दी।
राजाराम ने अपनी जागीर अपने भाई-बंधुओं में बन्दूकची सवार की नियमित शर्त पर वितरित कर दी तथा इस प्रकार अपनी नियमित सेना खड़ी कर ली। औरंगजेब ने सोचा था कि जागीर प्राप्त करके राजाराम मुगलों के साथ हो जायेगा तथा जाटों को नियंत्रण में रखेगा किंतु राजाराम ने मुगलों की बिल्कुल भी परवाह नहीं की। इस कारण पूरे जाट क्षेत्र में जाटों ने सरकारी खजानों, व्यापारियों तथा सैनिक चौकियों को लूटना आरम्भ कर दिया। चारों ओर लुटेरे ही लुटेरे दिखाई देने लगे। आगरा और दिल्ली के बीच सरकारी माल तथा व्यापारियों का निकलना दुष्कर हो गया। इस लूटपाट से जाटों की गढ़ियां माल से भरने लगीं। इस पर औरंगजेब ने शफी खां को आगरा का सूबेदार बनाकर जाटों का दमन करने के लिये भेजा। राजाराम ने आगरा के दुर्ग पर चढ़ाई कर दी। शफी खां डरकर किले में बंद हो गया। राजाराम और उसके साथियों ने जी भरकर आगरा परगने को लूटा। इस पर औरंगजेब ने कोकलतास जफरजंग को आगरा भेजा किंतु वह भी राजाराम को दबाने में असफल रहा। ई.1687 में औरंगजेब ने अपने पोते शहजादा बेदार बख्त को विशाल सेना देकर जाटों के विरुद्ध भेजा। बेदार बख्त के आगरा पहुंचने से पहले ही मार्च 1688 के अंतिम सप्ताह में राजाराम ने रात्रि के समय सिकन्दरा स्थित अकबर की कब्र को घेर लिया। उसने अकबर की कब्र खुदवाकर उसकी हड्डियां आग में झौंक दीं तथा मकबरे की छत पर लगे सोने-चांदी के पतरों को उतार लिया। मकबरे के मुख्य द्वार पर लगे कांसे के किवाड़ों को तोड़ डाला। वहाँ से चलकर उसने मुगलों के गांवों को लूटा। खुर्जा परगना भी उसके द्वारा बुरी तरह से लूटा गया। पलवल का थानेदार गिरफ्तार कर लिया गया।
जब बेदार बख्त जाटों के विरुद्ध अप्रभावी सिद्ध हुआ तो औरंगजेब ने आम्बेर नरेश बिशनसिंह को जाटों के विरुद्ध भेजा। उसने राजाराम को युद्ध क्षेत्र में मार गिराया तथा उसका सिर काटकर औरंगजेब को भेज दिया। राजाराम का प्रबल सहायक रामचेहर भी इस युद्ध में पकड़ा गया। उसका सिर काटकर आगरा के किले के सामने लटका दिया गया। राजाराम के कटे हुए सिर को देखकर औरंगजेब ने बड़ा उत्सव मनाया। राजाराम की मृत्यु से भी औरंगजेब संतुष्ट नहीं हो सका। उसने राजा बिशनसिंह से कहा कि वह जाट जाति को ही समाप्त कर दे। बिशनसिंह जाटों का जन्मजात शत्रु था क्योंकि जाट उसके राज्य में लूटपाट किया करते थे। उसने जाटों के विरुद्ध भयानक अभियान चलाया जिसमें बहुत बड़ी संख्या में जाट मारे गये।