यह एक नया जुमला था जो मैंने अचानक एक दिन टी.वी. पर सुना। मैं दुविधा में था कि मैंने ठीक से सुना या कुछ गलत सुन लिया! क्या यह बात उसी दुनिया के लिये कही गयी थी जिसके लिये एक कवि ने कुछ बरस पहले कुछ इस तरह के शब्द कहे थे- 'दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है, मिल जाये तो मिट्टी है खो जाये तो सोना है!' कहीं कोई सचमुच इसे जादू का खिलौना तो नहीं समझ बैठा है! कुछ ही देर में दूरदर्शन पर यह विज्ञापन दोहराया गया, उसके बाद तीसरी, चौथी, पाँचवी बार और फिर बार-बार। हर बार वही शब्द दोहराये गये- 'कर लो दुनिया मुट्ठी में।'
मैंने कई बरस पहले सुना तो था कि दुनिया अब पहले की अपेक्षा छोटी हो गयी है लेकिन यह विश्वास नहीं हुआ कि दुनिया पिछले कुछ दिनों में इतनी छोटी हो गयी है कि इसे मुट्ठी में किया जा सकता है!
कहते हैं कि किसी प्रश्न का सबसे सही हल ढूंढने के लिये आवश्यक है कि उस प्रश्न को बार-बार सुना जाये। इसलिये मैंने भी इस संदेश को बार-बार सुना। मेरी समझ में आया कि विज्ञापन के आरंभ में 'कमऑन इण्डिया' भी है, मैंने अनुमान लगाया कि विज्ञापन बनाते समय 'इण्डिया' कहीं चली गयी थी, या चला गया था, दुनिया को मुटठी में करने से पहले उसे बुला लेना जरूरी था अन्यथा उसके मुट्ठी से बाहर रह जाने का खतरा था।
जाने यह कैसा आह्वान था? कहने वाला क्या कहना चाहता था? बहुत से पुराने श्लोक, बहुत से पुराने गीत और बहुत सी पुरानी बातें मेरे मस्तिष्क में चक्कर लगाने लगीं। संभवतः यह बात उसी दुनिया के लिये कही गयी थी जिसके लिये हमारे बाप-दादे 'वसुधैवम् कुटुम्बकम' और 'सबै भूमि गोपाल की' कहते आये थे।!
बचपन में इसी दुनिया के लिये रेडियो पर एक गीत बजता था- 'दुनिया रंग-रंगीली बाबा, दुनिया रंग-रंगीली।' उनमें से कुछ रंग आगे चलकर मैंने देखे और अनुभव भी किये। इसी दुनिया में कुछ ऐसे प्राणी भी देखे जो पल-पल रंग बदलने के लिये मशहूर थे। और तो और जानने समझने पर, पूरे के पूरे देश भी ऐसे निकल आये जो पलक झपते ही रंग बदल लेते थे।
मुझे मालूम हुआ कि क्या तो बित्ते भर के गिरगिट की औकात और क्या उसके रंग! यदि किसी को रंग बदलने की कला सीखनी हो तो अमरीका से सीखे। उसी अमरीका से जिसने पिछले पचास सालों से दुनिया को मुट्ठी में कर लेने का अभियान छेड़ा हुआ है। इस अभियान के चलते वह दुनिया की हर चीज का पेटेण्ट करवा रहा है। मुझे तो यह भी ज्ञात हुआ है कि अमरीका ने साँपों की कई प्रजातियों का पेटेण्ट करवा लिया है।
जब तक बात मेरी समझ में नहीं आई थी तब तक तो मुझे अमरीका का यह आईडिया कुछ बेतुका सा लगा था किंतु अब इस विज्ञापन को सुनने के बाद मेरी समझ में आ गया कि साँपों का पेटेण्ट हासिल करने का आईडिया बेतुका नहीं अपितु बड़ा ही तुकदार था। एक बार यदि दुनिया भर के साँप मुट्ठी में आ जायें तो फिर बाकी के प्राणियों को मुट्ठी में करने में कितना समय लगेगा!
दुनिया जानती है कि अमरीका ने हमेशा अपनी आस्तीन में साँप पाले हैं और गाहे-बगाहे वह उन्हीं साँपों द्वारा डसा जाता रहा है। इन्हीं साँपों के बल पर अमरीका अपने आपको चाहे कितना समझदार समझता आया हो किंतु उसका खुफिया तंत्र बार-बार नकारा साबित होता रहा है। संभवतः साँपों का पेटेण्ट करवाने का आईडिया इसी खुफिया विभाग ने दिया हो!
मैं अनुमान लगा सकता हूँ कि भले ही अमरीका की आस्तीन में पाकिस्तान बैठा हो जिसके बल पर वह ओसामा बिन लादेन तथा सद्दाम हुसैन से छेड़खानी करके अपने आप को तीस मार खाँ समझ ले किंतु इससे दुनिया मुट्ठी में नहीं होने वाली। जाने क्यों अमरीका दुनिया को जहर देकर मारना चाहता है जबकि दुनिया तो अंकल चिप्स खाकर ही मरने को तैयार है।
अमरीका को संभवतः पता नहीं कि दुनिया को मुट्ठी में करने के लिये आस्तीन में पाकिस्तान पालने की आवश्यकता नहीं है। दुनिया में ऐसे 'भोले-भाले' देश भी हैं जहाँ के लोग अंकल चिप्स और पैप्सी कोला के सेवन से प्राप्त ऊर्जा के बल पर क्रिकेट मैच जीतकर दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने का सपना देख रहे हैं! कुछ देशों के नागरिक तो क्रिकेट खिलाड़ियों और अभिनेत्रियों के अण्डरवीयर बनियान खरीद कर दुनिया को मुट्ठी में करना चाहते हैं।
ऐसे भोले-भाले देशों वाली दुनिया को तो अमरीका जब चाहे तब अपनी मुट्ठी में कर सकता है। ऐसे देशों के सामने इतनी कठिन शर्त रखने की क्या आवश्यकता है कि या तो मेरी बनाई हुई 'केंटुकी फ्राइड चिकन' खाओ या फिर एक कलस्टर बम खाओ! क्यों नहीं वह भोली-भाली दुनिया के साथ क्रिकेट खेले और जीत-जात कर दुनिया को मुट्ठी में कर ले!
मैं अनुमान लगा सकता हूँ कि दुनिया को मुट्ठी में करने की धुन में अमरीका ओसामा और सद्दाम को तो जीत सकता है किंतु क्रिकेट के मैच में तो उसके कलस्टर बम काम नहीं आयेंगे! यही कारण है कि अमरीका कभी क्रिकेट नहीं खेलता। क्रिकेट के मैदान से लेकर सपने तक में अमरीका किसी दूसरे मुल्क से हारना नहीं चाहता।
यह सही है कि दुनिया को मुट्ठी में करने का सपना देखने वाले कभी हारा नहीं करते लेकिन अमरीका को यह कौन समझायेगा कि हमारे यहाँ साहिर लुधियानवी नाम का एक गीतकार हुआ था जिसने लिखा था- 'ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?'