लिंग विहीन समाज आधुनिक रसायन प्रयोगशालाओं में जब बालक घुसता है तो उसे पदार्थों और उनके गुणधर्मां से परिचय करवाया जाता है। उसे कुछ पदार्थ ऐसे भी बताये जाते हैं जो रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन होते हैं।
जब पहली-पहली बार मुझे बताया गया कि शुद्ध जल रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन पदार्थों की श्रेणी में आता है तो मन ने विद्रोह कर दिया। कैसे यह रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन हो सकता है!
मन ने कहा- जो दिख जाता है, वह रंगहीन नहीं हो सकता। जिसकी चार बूंदें हवा में भी सुगंध भर देती हैं वह गंधहीन नहीं हो सकता और जो जीभ पर धरते ही अपनी उपस्थिति दर्शाता है, वह स्वादहीन नही हो सकता।
अध्यापकजी ने बालमन के संशय को समझा और बतलाया कि जल प्रकाश से रंग ग्रहण करके दिखलायी देता है, वायु में उपस्थित सूक्ष्मकणों को ग्रहण करके गंधाता है और धरती में घुले लवणों को ग्रहण करके स्वादिष्ट हो जाता है। अन्यथा शुद्धजल तो रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन पदार्थ है। अशुद्धियाँ उसे रंग, गंध और स्वाद प्रदान करती हैं।
अध्यापकजी भले ही कुछ भी कहते रहे किंतु मन ने कहा- रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन जल किस काम का! इससे तो अशुद्ध जल ही अधिक श्रेयस्कर है। उन्हीं दिनों मुझे यह भी ज्ञात हुआ कि शुद्धजल पीने के काम नहीं आता। लवणयुक्त जल अर्थात् रसायनशास्त्री की भाषा में अशुद्ध जल ही पिया जा सकता है। अतः स्वाभाविक था कि अशुद्धियों के प्रति मेरे मन में श्रद्धा का भाव जाग्रत हो जाता।
बड़े होने पर ज्ञात हुआ कि पूरे देश में अशुद्धियों को लेकर एक अनवरत चर्चा छिड़ी हुई है। यह चर्चा आजादी पाने के पहले आरंभ हुई थी और तभी से बहुत जोर-शोर से चल रही है। देश का हर नागरिक इस चर्चा में सम्मिलित है। पता करने पर मालूम हुआ कि राष्ट्र रूपी जल में जाति, धर्म और लिंग नामक तीन भयानक अशुद्धियाँ बड़ी मात्रा में घुली हुई हैं और इन अशुद्धियों का गुणगान 'अनेकता में एकता, हिन्द की विशेषता' तथा 'कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है' कहके किया जाता है। हम भी जल में घुली अशुद्धियों के गुणों के कायल थे इसलिये जाति, धर्म और लिंग नामक बुराइयों को राष्ट्र की विविध संस्कृति कहकर गर्व किया करते थे। क्योंकि इनके अभाव में राष्ट्र रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन जल हो जाता।
कुछ दिनों बाद मालूम हुआ कि राष्ट्र को इन तीनों अशुद्धियों के कुप्रभाव से बचाने के लिये संविधान में विशेष रूप से व्यवस्था की गयी है कि स्वतंत्र भारत में किसी भी व्यक्ति के साथ जाति, धर्म और लिंग के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जायेगा तथा सभी को समान अवसर उपलब्ध करवाये जायेंगे।
समाज से भेदभाव समाप्त करने तथा सबको समान अवसर उपलब्ध करवाने के लिये कई तरह के उपाय किये गये। आरक्षण की व्यवस्था की गयी ताकि सबल, निर्बल का हक न मार सके। अल्पसंख्यकों के हितों का विशेष रूप से ध्यान रखा गया ताकि बहुसंख्यक अल्पसंख्यकों पर दादागिरि न स्थापित कर लें।
ये उपाय कुछ काम नहीं आये। राष्ट्र में घुली तीनों बुराइयाँ अपना कुप्रभाव लगातार छोड़ती ही रहीं। धर्म के नाम पर कट्टरता बढ़ी। जाति की दीवारें और मजबूत हुईं। लिंग के आधार पर समाज में और अधिक टूटन पैदा हुई। दूसरे शब्दों में कहें तो मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की। इसलिये बुद्धिवादियों ने जाति विहीन और धर्मविहीन समाज की स्थापना के प्रयास आरंभ किये। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।
मैं बुद्धिवादियों के इस प्रयास पर हैरान था। यदि इस उपाय से जाति और धर्म नामक अशुद्धियों का उपचार तो हो भी गया तो लिंग नामक बुराई का क्या होगा? जब तक देश में एक से अधिक लिंग होंगे तब तक ताकतवर लिंग कमजोर लिंग पर अत्याचार करता ही रहेगा।
क्या देश में लिंग विहीन समाज की स्थापना नहीं हो सकती! यदि ऐसा होता तो जाने कितनी सारी समस्याओं का हल स्वतः ही निकल गया होता। देश में बलात्कार नहीं होते! वेश्यावृत्ति नहीं होती! छेड़छाड़ की कितनी ही घटनायें घटित होने से रुक जातीं। सड़कों पर कितने ही मजनूओं की पिटाई होने से बच गयी होती! कितनी ही लैलाओं की किडनैपिंग नहीं होती! जाने कितनी हत्यायें होने से बच गयी होतीं। लिंग को आधार बनाकर कोई भेदभाव भी नहीं होता। लिंग के आधार पर आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं रह गयी होती।
एक-लिंग आधारित व्यवस्था के आरंभ हो जाने पर कचहरी और थानों में उन मुकदमों के अम्बार नहीं लगते जो आज दहेज मांगने के आरोप की आड़ में धड़ाधड़ लग रहे हैं जिनके कारण समाज के निर्दोष और मासूम व्यक्ति भी डरे-डरे, सहमे-सहमे से रह रहे हैं क्योंकि लिंग आधारित व्यवस्था में नितांत एकतरफा कार्यवाही के कानून बने हुए हैं।
यहाँ तक कि लिंग के आधार पर सार्वजनिक स्थलों पर अलग से टायॅलेट, नगरों में अलग से थाने तथा रेलगाड़ियों में अलग से डिब्बों की व्यवस्था नहीं करनी पड़ती। नदियों पर अलग घाट नहीं बनाने पड़ते। विज्ञापनों और फिल्मी पोस्टरों के माध्यम से अश्लील और अदर्शनीय चित्र स्वतः ही हट जाते।
लिंग विहीन समाज के और भी कई सारे लाभ हो सकते हैं, उन सबको यहाँ गिनाया जाना संभव नहीं है। फिलहाल तो मेरी चिंता यह है कि कहीं जाति, धर्म और लिंग विहीन शुद्ध समाज रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन जल की भांति अनुपयोगी तो नहीं हो जायेगा!