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किसी भी भाषा में साहित्य की रचना प्रायः पद्य विधा से आरम्भ होती है तथा बाद में गद्य विधा को अपनाया जाता है। यही कारण है कि राजस्थानी भाषा में ई.788 में जालोर में उद्योतन सूरि द्वारा रचित ‘कुवलयमाला’ (प्राकृत ग्रंथ) से लेकर, 12वीं शताब्दी ईस्वी में सिरोही में सिंह कवि द्वारा रचित ‘पज्जुन्न कहा’ (अपभ्रंश गं्रथ), 15वीं शताब्दी में श्रीधर व्यास द्वारा रचित ‘रणमल्ल छंद’ (प्राचीन राजस्थानी ग्रंथ) आदि समस्त महत्वपूर्ण रचनाएं पद्य विद्या में हैं। ये रचनाएं मुख्यतः ब्राह्मण एवं जैन कवियों द्वारा लिखी गई थीं। गद्य साहित्य की रचना परम्परा संस्कृत भाषा एवं उससे निःसृत समस्त भाषाओं में पद्य के बाद ही गद्य आया। यह एक सुखद घटना थी कि भारतीय साहित्य में गद्य लेखन का प्रस्फुटन वैदिक संहिताओं में ही हो गया था। संस्कृत में गद्य साहित्य के शीघ्र अवतरण का एक बड़ा कारण यह प्रतीत होता है कि संस्कृत भााषा का पद्य अतुकांत है। यजुर्वेद में गद्य संहिताएं पर्याप्त संख्या में देखने को मिलती हैं। ब्राह्मणों, आरण्यकों एवं उपनिषदों ने गद्य लेखन परम्परा को आगे बढ़ाया। महाभारत, विष्णु पुराण एवं भागवत पुराण में भी गद्य का यत्र-तत्र प्रयोग हुआ है। बौद्धों एवं जैनों ने भी गद्य परम्परा को स्वीकार किया और पालि, प्राकृत, शौरशैनी, महाराष्ट्रीय तथा मागधी आदि भाषाओं में भी गद्य लेखन प्रचुर मात्रा में हुआ। राजस्थानी गद्य विधा का अवतरण इस प्रकार यद्यपि राजस्थानी भाषा का विकास होने से पहले ही भारत में गद्य लेखन विधा पर्याप्त परिपक्व हो चुकी थी तथापि पद्य लेखन से आप्लावित राजस्थानी साहित्य में 13वीं शताब्दी में गद्य का विकास एक महत्वपूर्ण घटना थी। यह इसलिये महत्वपूर्ण घटना थी क्योंकि अपभ्रंश में गद्य का प्रायः अभाव है जबकि राजस्थानी भाषा को अपभ्रंश की जेठी बेटी (बड़ी पुत्री) कहा जाता है। ई.1273 में राजस्थानी गद्य की एक छोटी सी टिप्पणी मूलक रचना ‘आराधना’ शीर्षक से मिलती है तथा इसके बाद संग्रामसिंह रचित बालशिक्षा, जैन लेखकों की नवकार व्याख्यान, सर्वतीर्थ नमस्कार स्तवन, अतिचार आदि छोटी-छोटी गद्य रचनाएं मिलती हैं किंतु इनमें राजस्थानी गद्य के प्रांजल और प्रौढ़ रूप के दर्शन नहीं होते। कुछ विद्वानों का मत है कि आचार्य तरुणप्रभ सूरि रचित ‘षड़ावकबाळावबोध’ राजस्थानी भाषा की पहली प्रौढ़ गद्य रचना है। चारण परम्परा की प्रथम राजस्थानी गद्य रचना किसी चारण कवि की पहली स्वतंत्र राजस्थानी गद्य-पद्य रचना ‘अचलदास खीची री वचनिका’ के रूप में प्रकट हुई। इसे चारण कवि शिवदास गाडण ने ई.1415 के लगभग लिखा था और यह गद्य-पद्य मिश्रित रचना थी। इसके प्राकट्य से राजस्थानी साहित्य में गद्य साहित्य की धमाकेदार स्थापना हो गई। राजस्थानी गद्य साहित्य के विविध रूप राजस्थानी गद्य साहित्य बात, ख्यात, वचनिका एवं दवावैत आदि विविध रूपों में रचा गया। विगत, विलास, पीढि़यावली (वंशावली), हाल, अहवाल, हगीगत (हकीकत), गुर्वविलियां, औक्तिक, प्रश्नोत्तरी, विहारपत्री, समाचारी के लेखन में गद्य विधा अत्यंत सहायक सिद्ध हुई। परवाने, पट्टावली तथा दफ्तर बही आदि के लेखन में भी गद्य विधा को सुगमता से अपनाया गया। प्रकीर्णक साहित्य यथा शिलालेख, ताम्रपत्र, प्रशस्ति एवं पत्र में भी गद्य का प्रयोग ही अधिक सुगम माना गया। बौद्धों ने सूक्त साहित्य तथा जैनियों ने बाळावबोध एवं टब्बा लेखन करके राजस्थानी गद्य परम्परा को आगे बढ़ाया। अलंकृत गद्य साहित्य गद्य विधा में अलंकृत गद्य का विकास एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जो लगभग सभी भाषाओं में देखने को मिलता है। इसे ललित गद्य अथवा कलात्मक गद्य भी कहा जाता है। सामान्य गद्य से अलग करने के लिये इसे गद्य काव्य भी कह देते हैं, हालांकि यह काव्य नहीं होता। संस्कृत के महान आचार्य वामन ने गद्य के तीन प्रकार बताये हैं- (1.) वृत्तिगंधि गद्य- जिस गद्य में किसी छन्द के पाद एव पादार्थ मिलते हैं, (2.) उत्कलिकाप्राय गद्य- जिस गद्य में लम्बे-लम्बे समास मिलते हैं और (3.) पूर्णक गद्य- छोटे-छोटे समास-पद युक्त गद्य को पूर्णक गद्य कहते हैं। बाद में मिश्र काव्य को भी चौथा प्रकार मान लिया गया जिसे ‘चम्पू’ कहा गया। अतः कहा जा सकता है कि अलंकत गद्य का शब्द-संयोजन एवं वाक्य-रचना विशिष्ट, रसात्मक, संवेगात्मक, चमत्कृत करने वाली तथा रससिक्त होती है। इस बात को सरल शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि अलंकृत गद्य छन्द-मुक्त होकर भी साहित्य-लय की सृष्टि करता है। और भी सरल करके कहें तो तुकांत-गद्य को अलंकृत गद्य कह सकते हैं। राजस्थानी भाषा के अलंकृत गद्य साहित्य को मुख्यतः छः भागों में रखा जा सकता है- (1.) वात साहित्य: कलात्मक गद्य साहित्य की रसानुभूति वात साहित्य में ही अधिक दिखाई देती है। राजस्थानी भाषा में हजारों वातों की रचना हुई। नरोत्तमदास स्वामी ने लिखा है कि यदि राजस्थान के वात साहित्य का संकलन किया जाये तो न जाने कितने ‘कथा सरित्सागर’ एवं ‘सहस्र रजनी’ चरित्र तैयार हो जायें। ‘केहर प्रकाश’ तथा ‘सिखर वंशोत्पत्ति काव्य’ में तुकांत गद्य का प्रयोग किया गया है। (2.) वर्णक साहित्य: राजस्थानी भाषा में नाना प्रकार के वर्णन ग्रंथों की रचना हुई, यथा- नगर वर्णन, विवाह वर्णन, भोज वर्णन, ऋतु वर्णन, युद्ध वर्णन, आखेट वर्णन, राजान राउत रो वात-बणाव, खींची गंगेव नीबांवत रो दो-पहरो, मुत्कलानुप्रास, कूतुहल, सभा-शृंगार आदि इसी प्रकार के ग्रंथ हैं। (3.) दवावैत एवं वचनिका: राजस्थानी साहित्य की प्रसिद्ध लक्षण कृति ‘रघुनाथ रूपक’ में महाकवि मंछ ने राजस्थानी गद्य के दो प्रमुख भेदों दवावैत एवं वचनिका का उल्लेख किया है। रघुनाथ रूपक के टीकाकार महताबचन्द खारेड़ ने इनका अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है कि ये कोई काव्य छन्द नहीं हैं जिनमें मात्राओं, वर्णों अथवा गणों का विचार हुआ हो। ये दोनों गद्य शैलियां हैं जिनमें अंत्यानुप्रास, मध्यानुप्रास या यमक की भरमार होती है। (4.) सिलोका साहित्य: सिलोका भी राजस्थानी साहित्य की महत्वपूर्ण विधा है जिसमें देवी-देवताओं तथा प्रसिद्ध वीर पुरुषों का गुण-वर्णन अत्यंत अलंकृत शैली में हुआ है जैसे- बभूतासिद्ध रो सिलोको, राम-लक्ष्मण रो सिलोको, सूरजजी रो सिलोको, राव अमरसिंघ रो सिलोको, आदि। (5.) वैज्ञानिक साहित्य: यह साहित्य अनुवाद, टीका एवं स्वतंत्र लेखन के रूप में मिलता है। संस्कृत भाषा में आयुर्वेद, ज्योतिष, शकुनावली, सामुद्रिक शास्त्र, तंत्र-मंत्र आदि अनेक विषयों पर लिखे गये ग्रंथों का बड़े स्तर पर राजस्थानी भाषा में अनुवाद हुआ तथा उनके आधार पर कतिपय स्वतंत्र राजस्थानी ग्रंथों की भी रचना हुई। (6.) प्रकीर्णक साहित्य: इसके अंतर्गत पत्रों और अभिलेखों में प्रयुक्त गद्य को रखा जाता है। राजकीय एवं निजी पत्र व्यवहार में पद्य का प्रयोग नहीं होकर, गद्य का प्रयोग हुआ। इसी प्रकार शिलालेख, ताम्रपत्र, दानपत्र, प्रशस्ति-लेख आदि के लेखन के लिये भी गद्य विधा अधिक अनुकूल जान पड़ी। अलंकृत गद्य साहित्य की प्रसिद्ध रचनाएं ‘पृथ्वीचन्द चरित्र’ राजस्थानी भाषा की प्रसिद्ध अलंकृत गद्य कृति है। इसे ‘वाग्विलास’ भी कहते हैं। इसकी रचना ई.1421 के लगभग जैनाचार्य माणक्यसुंदर ने की थी। ई.1455 में भीनमाल में रचित ‘कान्हड़देव प्रबंध’ भी अलंकृत गद्य की महत्वपूर्ण रचना है। इसे गुजरात में प्राचीन गुजराती भाषा का तथा राजस्थान में प्राचीन राजस्थानी भाषा का ग्रंथ माना जाता है। मुत्कलानुप्रास, समयसुन्दर रचित भोजन विच्छित; सभा शृंगार, राज रूपक, तपोगच्छ गुर्वावली, अचलदास खीची री वचनिका, भोजन विच्छति, खींची गंगेव नीबांवत रो दो-पहरो, लावा रासा, वचनिका राठौड़ रतनसिंहजी री, बैताल पच्चीसी, ढोला मारू री बात, एकलगिढ डाढ़ाला सूर री बात (वीररस प्रधान हास्य-व्यंग्य रचना), करणीदान कृत सूरज प्रकाश, रूपक दीवाण भीमसिंहजी रा आदि अलंकृत गद्य साहित्य की प्रसिद्ध रचनाएं हैं। ऐसी हजारों रचनाएं आज भी प्राचीन पोथी भण्डारों में भरी पड़ी हैं जिन्हें प्रकाश में आना अभी शेष है। अलंकृत गद्य के उदाहरण लावा रासा: पुत्री जिणरे कंवलप्रसण रूपरी निधान। सुकेशियासूं सवाई साव रम्भारे समान। साहित्या शृंगार काव्य जबानी पर कहे। रमाताल परिजंत संगीत में रहे। वीणांधर सहजांई गावे किण भांत। तराज पर नहं आवे नारद वीणारी तांत। जिणने सुण्यां कोकिला मयूर लाज भाग जावे। कुंरग औ भमंग वन पातालसूं आवे। खींची गंगेव नीबांवत रो दो-पहरो: वरखा रितु लागी, विरहणी जागी। आभा झर हरै, वीजां आवास करै। नदी ठेबा खावै, समुद्रे न समावै। पाहाड़ां पाखर पड़ी, घटा ऊपड़ी। मोर सोर मंडै, इन्द्र धार न खंडै। आभो गाजै, सारंग वाजै। द्वादश मेघनै दुवो हुवौ, सु दुखियारी आंख हुवौ। झड़ लागौ, प्रथीरो दलद्र भागौ। दादुरा डहिडहै, सावण आणवैरी सिध कहै। इसौ समइयौ वण रह्यौ छै, बादलां झड़ लायौ छै। सेहरां-सेहरां बीज चम नै रही छै। तपोगच्छ गुर्वावली: जिम देव माहि इन्द्र, जिम ज्योतिश्चक्र माहि चन्द्र, जिम वृक्ष माहि कल्पदु्रम, जिम रक्त वस्तु माहि विद्रुम, जिम नरेन्द्र माहे राम, जिम रूपवंइ माहे काम, जिम स्त्री माहे रम्भा, जिम वादि माहे भंभा, जिम सती माहि सीता, जिम स्त्री माहि गीता, जिम साहसीक माहि विक्रमादित्य, जिम ग्रहगण माहि आदित्य, जिम रत्न माहि चिंतामणि, जिम आभरण माहि चूड़ामणि, जिम पर्वत माहि मेरू भूधर, जिम गजेन्द्र माहि ऐरावण सिन्धु, जिम रस माहि घृत, जिम मधुर वस्तु माहि अमृत, तिम मांप्रति कालि सकल गच्छन्तरालि, ज्ञानि विज्ञानि तपि, जपि, शमि, दमि, संयमि करि अतुच्छ, ए श्री तपोगच्छ, आचान्द्रार्क जयवंतउ वर्त्तइ। राज रूपक: औरंगसा पातसा आसुर अवतार, तपस्या के तेज पुंज एक से विस्तार। मापका मिहाई सा प्रताप का निदांन, मारतंड आगे जिसी जोतसी जिहांन। जापका पैगंबर आपका दरियाव, तापका सेस ज्वाल दापका कुरराव। सकसेका जैतवार अकसेका वाई। अरिदल समुद्र आए कुंभज के भाई। रहणी में जोगेश्वर वहणी में जगदीस, ग्रहणी में सिवनेत्र सहणी में अहीस। जाके जप तप आगे ईश्वर आधीन, ताकूं छल बांह बल कुण करै हीन। कान्हड़दे प्रबंध: वाघवालिया च्यारि विलगा छइ। किरि जाणीइ आकासि तणा गमन करसि। अथवा पाताल तणां पाणी प्रगटावसि। ते घोड़ा गंगोद कि स्नान कराव्या। तेह तणि सिरि श्री कमलि पूजा कीधी। तेह तणि पूठि बावनो चंदन तणा हाथो दीधा। तेह तणि पूठि पंच वर्ण पाखर ढाळी। किसी पखर- रणपखर, जीणपखर, गुडिपखर, लोहपखर, कातलीयालीपखर। -डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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