मराठों और पिण्डारियों के निरंतर आक्रमणों ने राजपूताना की राजनैतिक शक्ति को तोड़कर रख दिया था जिससे त्रस्त होकर राजपूताने की रियासतों ने सिंधियों तथा पठानों को अपनी सेनाओं में जगह दी। ये नितांत अनुशासनहीन सिपाही थे जो किसी विधि-विधान को नहीं मानते थे। इस काल में अंग्रेजों, फ्रांसीसियों, पुर्तगालियों तथा डच सेनाओं के खूनी पंजे भी भारत पर अपना कब्जा जमाने के लिये जोर आजमाइश कर रहे थे।
इन सब खतरों से बेपरवाह राजपूताना के बड़े रजवाड़ों के मध्य छोटी -छोटी बातों को लेकर मन-मुटाव और संघर्ष चल रहा था। इस काल में राजपूताना की चारों बड़ी रियासतें- जोधपुर, बीकानेर, उदयपुर तथा जयपुर परस्पर खून की होली खेल रही थीं। ई.1803 में मानसिंह जोधपुर राज्य की गद्दी पर बैठा। उसके पूर्ववर्ती जोधपुर नरेश भीमसिंह की सगाई उदयपुर की राजकुमारी कृष्णाकुमारी के साथ हुई थी किंतु विवाह होने से पहले ही जोधपुर नरेश भीमसिंह की मृत्यु हो गयी। इस पर मेवाड़ नरेश भीमसिंह ने अपनी पुत्री का विवाह जयपुर के राजा जगतसिंह के साथ करना निश्चित कर दिया। जोधपुर नरेश मानसिंह ने इस सगाई का विरोध करते हुए महाराणा को लिखा कि राजकुमारी कृष्णाकुमारी का विवाह तो जोधपुर नरेश से होना निश्चित हुआ था। इसलिये राजकुमारी का विवाह मेरे साथ किया जाये।
मानसिंह की इस बात से जयपुर नरेश बिगड़ गया और उसने जोधपुर के ठाकुर सवाईसिंह के साथ मिलकर जोधपुर राज्य पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में बीकानेर नरेश सूरतसिंह भी जयपुर की तरफ से जोधपुर राज्य पर चढ़ आया। दुर्ग को चारों तरफ प्रबल शत्रुओं से घिरा हुआ जानकर जोधपुर नरेश मानसिंह ने पिण्डारी नेता अमीरखां की सेवाओं को प्राप्त किया।
अमीरखां उदयपुर गया तथा उसने महाराणा को उकसाया कि वह राजकुमारी को अपने हाथों से जहर दे दे अन्यथा उसे जोधपुर राज्य तथा पिण्डारियों की सम्मिलित सेना से निबटना पड़ेगा। महाराणा भीमसिंह के शक्तावत सरदार अजीतसिंह ने भी अमीरखां का समर्थन किया। जब राजकुमारी कृष्णाकुमारी ने देखा कि उसके कारण लाखों हिन्दू वीरों के प्राण संकट में आने वाले हैं तो उसने जहर पी लिया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि महाराणा ने अपने हाथों से राजकुमारी कृष्णाकुमारी को जहर पिला दिया। जब चूण्डावत अजीतसिंह को इस बात का पता लगा तो उसने भरे दरबार में महाराणा भीमसिंह तथा शक्तावत अजीतसिंह की लानत-मलानत की तथा शक्तावत अजीतसिंह और उसकी पत्नी को श्राप दिया कि वे भी संतान की मृत्यु का कष्ट देखें।
कहते हैं कि चूण्डावत सरदार के श्राप से कुछ दिनों बाद ही शक्तावत अजीतसिंह के पुत्र और पत्नी की मृत्यु हो गयी। शक्तावत अजीतसिंह जीवन से विरक्त होकर मंदिरों में भटकने लगा। इधर जोधपुर को जयुपर तथा बीकानेर की सेनाओं ने घेर रखा था और उधर अमीर खां अपने 60 हजार पिण्डारियों को लेकर जयपुर राज्य में घुसकर लूट मार करने लगा। इस पर विवश होकर जयपुर नरेश को अपनी सेना जोधपुर से हटा लेनी पड़ी। जोधपुर और जयपुर राज्यों के मध्य हुए इस युद्ध में जयपुर की सेनाओं ने जोधपुर को और जोधपुर की की सेनाओं ने जयपुर को खूब लूटा-खसोटा और बर्बाद किया। कहते हैं जयपुर वालों ने मारवाड़ की स्त्रियों को दो-दो पैसे में तथा जोधपुर वालों ने जयपुर की स्त्रियों को एक-एक पैसे में बेचा। यह काल राजपूताने के सर्वनाश का काल था।
धर्म, आदर्श और नैतिकता का जो पतन इस काल में राजपूताने के हिन्दुओं में देखने को मिला, वैसा उससे पहले या बाद में कभी नहीं देखा गया। मानसिंह के काल में मारवाड़ में नाथ सम्प्रदाय के जोगड़ों का प्रभाव अत्यन्त बढ़-चढ़ गया क्योंकि नाथों के गुरु आयस देवनाथ ने मानसिंह के दुर्दिनों में भविष्यवाणी की थी कि मानसिंह एक दिन जोधपुर राज्य की गद्दी पर बैठेगा। यह भविष्यवाणी सही निकली थी। इसके बाद मारवाड़ राज्य में नाथों का प्रभाव बहुत बढ़-चढ़ गया।
इन नाथों ने जन सामान्य का जीना दुष्वार कर दिया। किसी की बहू-बेटी की इज्जत उन दिनों सुरक्षित नहीं रह गयी थी। जिस स्त्री को चाहते, ये नाथ उठाकर ले जाते। मानसिंह इनसे कुछ नहीं कह पाता था। भारतीय राजाओं में दान, धर्म, क्षमा, दया तथा गौ, शरणागत, स्त्री, साधु एवं ब्राह्मणों की रक्षा की प्रवृत्ति अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही थी इसी कारण मानसिंह ने नाथ साधुओं के अत्याचारों को सहन किया।
जोधपुर नरेश मानसिंह का समकालीन मेवाड़ महाराणा भीमसिंह भी इन्हीं गुणों की खान था। उसकी दानवीरता एवं क्षमाशीलता के अनेक किस्से प्रचलित हैं। एक दिन एक सेवक महाराणा के पैर दबा रहा था। उसने महाराणा को मदिरा के प्रभाव में जानकर महाराणा के पैर में से सोने का छल्ला निकालना चाहा किंतु छल्ला कुछ छोटा होने से निकला नहीं। इस पर नौकर ने थूक लगाकर छल्ला निकाल लिया। सेवक ने तो समझा कि महाराणा मदिरा के प्रभाव में बेसुध है किंतु महाराणा सचेत था। जब सेवक छल्ला निकाल चुका तो महाराणा ने सेवक से कहा कि तुझे छल्ला चाहिये था तो मुझसे वैसे ही मांग लेता, थूक लगा कर मुझे अपवित्र क्यों किया? महाराणा ने उठकर स्नान किया और सेवक की निर्धन अवस्था देखकर उसे पर्याप्त धन प्रदान किया।
महाराणा भीमसिंह की मृत्यु पर जोधपुर नरेश मानसिंह ने यह पद लिखा-
राणे भीम न राखियो, दत्त बिन दिहाड़ोह।
हय गंद देता हयां, मुओ न मेवाड़ोह।।
अर्थात् मेवाड़ का राणा भीम, जो दान दिये बिना एक भी दिन खाली नहीं जाने देता था और हाथी-घोड़े दान किया करता था, मरा नहीं है। (वह यश रूपी शरीर से जीवित है।)
उस काल में जोधपुर नरेश मानसिंह तथा मेवाड़ नरेश भीमसिंह हिन्दू नरेशों के गौरव थे किंतु विधि का विधान ऐसा था कि ये वीर पुंगव भी राजपूताने की रक्षा न कर सके और इन दोनों ही नरेशों को अपनी रक्षा के लिये अंग्रेजों का मुँह ताकना पड़ा। मराठों एवं पिण्डारियों से त्रस्त होकर मारवाड़ ने ई.1786 तथा 1790 में, जयपुर ने ई.1787, 1795 तथा 1799 में एवं कोटा ने ई.1795 में मराठों के विरुद्ध अंगेजों से सहायता मांगी किंतु अंग्रेजों ने इन प्रस्तावों पर कोई ध्यान नहीं दिया क्योंकि उस समय अंग्रेजों की नीति राजपूताने के लिये मराठों से युद्ध करने की नहीं थी।
जब राजपूताने की रियासतें मराठों और पिण्डारियों से अपनी रक्षा करने में असफल रहीं तो मराठों और पिण्डारियों ने अंग्रेजों द्वारा विजित क्षेत्रों पर भी धावे मारने आरंभ कर दिये। इससे ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा यह अनुभव किया गया कि जब तक देशी राज्यों को अपने अधीन नहीं किया जायेगा तब तक अंग्रेजी सुरक्षा पंक्ति अंग्रेजी क्षेत्रों की रक्षा नहीं कर सकती। यही कारण है कि अंग्रेज, देशी राज्यों से संधियां करने को लालायित हुए।