माउण्टबेटन के भारत में आने के ठीक पहले रावलपिंडी में सिक्खों का कत्ल हो चुका था। मुसलमानों के प्रति अपनी घृणा को न तो सिक्ख छिपाते थे और न मुसलमान सिक्खों को सहन करने को तैयार थे। सिक्खों की दलील थी, जब आजादी आयेगी तो हम लोगों का क्या होगा?
लैरी कांलिंस व दॉमिनिक लैपियर ने लिखा है कि जनवरी 1947 से पूरे पंजाब में मुस्लिम लीग द्वारा गुप्त रैलियां आयोजित हो रही थीं जिनमें हिन्दुओं की मक्कारी और निर्दयता के शिकार लोगों की खोपड़ियां और तस्वीरें प्रदर्शित होती थीं। जिन्दा और घायल मनुष्यों को एक रैली से दूसरी रैली में घुमाया जाता जो सबके सामने अपने घाव दिखाते और बयान करते कि वे घाव किस प्रकार मक्कार और निर्दय हिंदुओं के कारण लगे।
मार्च 1947 में मास्टर तारासिंह ने मुस्लिमलीग के झण्डे को पाकिस्तान मुर्दाबाद का नारा लगाते हुए नीचे गिरा दिया। लीग के अपमान का बदला लेने के लिये हथियार उठाकर निकलने में मुसलमानों ने कोई देरी नहीं की। इसके तुरंत बाद ही दंगे भड़क उठे। लाहौर, पेशावर, रावलपिण्डी आदि शहरों में तीन हजार लोग मारे गये जिनमें अधिकांश सिक्ख थे।
यही कारण थे कि माउंटबेटन से पहले वाले वायसराय लार्ड वेवेल ने भारत को स्वतंत्रता देने सम्बन्धी दस्तावेजों की जो पत्रावली माउंटबेटन को सौंपी, उस पर ''ऑपरेशन मैड हाउस" अंकित किया था। देश की इस स्थिति ने माउंटबेटन को निर्णायक और तुरंत कदम उठाने के लिये विवश किया, क्योंकि इसी से भारतीय उपमहाद्धीप भयानक अराजकता से बच सकता था। माउंटबेटन की नियुक्ति पर लॉर्ड इस्मे ने टिप्पणी की कि माउंटबेटन ऐसे समय में जहाज का संचालन संभाल रहे हैं जबकि जहाज समुद्र के बीच में है, उसमें बारूद भरा हुआ है और उसके ऊपरी भाग में आग लगी हुई है। देखना इतना भर है कि आग पहले बारूद तक पहुंचती है या फिर आग पर काबू पहले पाया जाता है।
स्वयं माउंटबेटन ने अपनी नियुक्ति के बारे में लिखा है- वह एक ऐसा कमाण्ड था जिसमें किसी भी प्रकार की सुविधा अथवा विजय की संभावना नहीं थी। आत्मबल डूब रहा था। भयानक मौसम, भयानक दुश्मन, भयानक पराजयों का सिलसिला.........। माउंटबेटन की नियुक्ति पर एन. बी. गाडगिल ने टिप्पणी की है कि ऐटली का अनुमान ठीक था कि हिन्दू नेतागण किसी भी दृढ़ निश्चय को लेने के लिये तैयार नहीं थे। ऐटली समझता था कि यदि एक युक्तियुक्त निर्णय इन पर थोप दिया जायेगा तो वे किसी न किसी तरह मान जायेंगे। उसने यही किया और माउंटबेटन योजना हिंदुस्तान में भेज दी। नोएल कावर्ड ने माउंटबेटन के बारे में लिखा था- जब कोई काम असंभव मालूम हो तो डिकी अर्थात् माउंटबेटन को बुलाओ।
इन्हीं गंभीर परिस्थितियों को देखते हुए माउंटबेटन का चयन भारत के उस वायसराय के रूप में किया गया था जिसे भारत से 200 वर्ष पुराना राज्य हटा लेना था। उन दिनों किसी ने माउंटबेटन के बारे में टिप्प्णी की थी कि माउंटबेटन बातों का इतना उस्ताद था कि वह गधे से उसकी दुम ही नहीं उतरवा सकता था बल्कि राजाओं से ताज भी रखवा सकता था।
माउंटबेटन के आने से पहले मुस्लिम लीग ने भारत की अंतरिम सरकार में शामिल होना स्वीकार कर लिया था। जिन्ना स्वयं सरकार में शामिल नहीं हुआ था लेकिन उसकी तरफ से उसके प्रमुख विश्वासपात्र लियाकत अली खां ने मोर्चा संभाला हुआ था। हालांकि लॉर्ड वेवेल ने लियाकतअली खां को गृहमंत्री बनाने का तथा सरदार पटेल को वित्तमंत्री बनाने का सुझाव दिया था किंतु पटेल ने इसे अस्वीकार करके मोहम्मद अली को वित्तमंत्री का पद दे दिया था। चौधरी मोहम्मद अली ने, लियाकत अली को समझाया कि यह पद अत्यंत महत्वपूर्ण है। वह ऐसा बजट बनाये कि कांग्रेस की सहायता करने वाले करोड़पतियों का दम निकल जाये। चौधरी मोहम्मद अली भारतीय अंकेक्षण और लेखा सेवा का अधिकारी था। उसने लंदन से अर्थशास्त्र तथा विधि में शिक्षा प्राप्त की थी। चौधरी के सुझाव पर लियाकत अली ने वित्तमंत्री बनने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और वित्त मंत्री के रूप में बात-बात में खर्चे के मदों पर आपत्ति उठाने लगा। ऐसा करके मुस्लिम लीग, सरकार में होते हुए भी सरकार को ठप्प कर देना चाहती थी।
मौलाना अबुल कलाम आजाद ने लिखा है- ''मंत्रीमण्डल के मुस्लिम लीगी सदस्य प्रत्येक कदम पर सरकार के कार्यों में बाधा डालते थे। वे सरकार में थे और फिर भी सरकार के खिलाफ थे। वास्तव में वे इस स्थिति में थे कि हमारे प्रत्येक कदम को ध्वस्त कर सकें। लियाकतअली खां ने जो प्रथम बजट प्रस्तुत किया, वह कांग्रेस के लिये नया झटका था। कांग्रेस कीघोषित नीति थी कि आर्थिक असमानताओं को समाप्त किया जाये और पूंजीवादी समाज के स्थान पर शनैः शनैः समाजवादी पद्धति अपनायी जाये। जवाहरलाल नेहरू और मैं भी युद्धकाल में व्यापारियों और उद्योगपतियों द्वारा कमाये जा रहे मुनाफे पर कई बार बोल चुके थे। यह भी सबको पता था कि इस आय का बहुत सा हिस्सा आयकर से छुपा लिया जाता था। आयकर वसूली के लिये भारत सरकार द्वारा सख्त कदम उठाये जाने की आवश्यकता थी। लियाकतअली ने जो बजट प्रस्तुत किया उसमें उद्योग और व्यापार पर इतने भारी कर लगाये कि उद्योगपति और व्यापारी त्राहि-त्राहि करने लगे। इससे न केवल कांग्रेस को अपितु देश के व्यापार और उद्योग को स्थायी रूप से भारी क्षति पहुंचती। लियाकत अली ने बजट भाषण में एक आयोग बैठाने का प्रस्ताव किया जो उद्योगपतियों और व्यापारियों पर आयकर न चुकाने के आरोपों की जांच करे और पुराने आयकर की वसूली करे। लियाकत अली ने यह भी घोषणा की कि ये प्रस्ताव कांग्रेसी घोषणा पत्र के आधार पर तैयार किये गये हैं। कांग्रेसी नेता उद्योगपतियों और व्यापारियों के पक्ष में खुले रूप में कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थे। लियाकत अली ने बहुत चालाकी से काम लिया था। उन्होंने मंत्रीमण्डल की स्वीकृति पहले ही प्राप्त कर ली थी कि बजट साम्यवादी नीतियों पर आधारित हो। उन्होंने करों आदि के विषय में मंत्रिमण्डल को कोई विस्तृत सूचना नहीं दी थी। जब उन्होंने बजट प्रस्तुत किया तो कांग्रेसी नेता भौंचक्के रह गये। राजगोपालाचारी और सरदार पटेल ने अत्यंत आक्रोश से इस बजट का विरोध किया।
वित्तमंत्री की हैसियत से लियाकत अलीखां को सरकार के प्रत्येक विभाग में दखल देने का अधिकार मिल गया। वह प्रत्येक प्रस्ताव को या तो अस्वीकार कर देता था या फिर उसमें बदलाव कर देता था। उसने अपने कार्यकलापों से मंत्रिमण्डल को पंगु बना दिया। मंत्रिगण लियाकत अलीखां की अनुमति के बिना एक चपरासी भी नहीं रख सकते थे। लियाकत अलीखां ने कांग्रेसी मंत्रियों को ऐसी उलझन में डाला कि वे कर्तव्यविमूढ़ हो गये। गांधीजी और जिन्ना के बीच खाई पाटने के उद्देश्य से घनश्यामदास ने लियाकत अली खां को समझाने की बहुत चेष्टा की किंतु इसका कोई परिणाम नहीं निकला। अंत में कांग्रेस के अनुरोध पर लार्ड माउंटबेटन ने लियाकत अली खां से बात की और करों की दरें काफी कम करवाईं।