जिस समय जोधपुर, जयपुर, मेवाड़ और बीकानेर आपस में संघर्षरत थे तथा मराठों और पिण्डारियों का शिकार बन रहे थे उस समय जैसलमेर का भाटी राज्य भयानक आंतरिक कलह में उलझा हुआ था। मरूस्थलीय एवं अनुपजाऊ क्षेत्र में स्थित होने के कारण मराठों और पिण्डारियों को इस राज्य में कोई रुचि नहीं थी। इस काल में एक ओर तो राज्य के दीवान और सामंतों के मध्य शक्ति परीक्षण चल रहा था दूसरी ओर जैसलमेर के शासक मूलराज द्वितीय का अपने ही पुत्र रायसिंह से वैर बंध गया था।
महारावल मूलराज ने मेहता टावरी (माहेश्वरी) स्वरूपसिंह को अपना दीवान नियुक्त किया। वह कुशाग्र बुद्धि वाला चतुर आदमी था। महारावल ने राज्य का सारा काम उसके भरोसे छोड़ दिया। जैसलमेर राज्य के सामंत लूटपाट करने के इतने आदी थे कि वे अपने ही राज्य के दूसरे सामंत के क्षेत्र में लूटपाट करने में नहीं हिचकिचाते थे। जब मेहता स्वरूपसिंह ने सामंतों को ऐसा करने से रोकने का प्रयास किया तो सामंत उसकी जान के दुश्मन बन गये। जब सामंतों ने स्वरूपसिंह के विरुद्ध शिकायत की तो महारवाल ने स्वरूपसिंह के विरुद्ध कोई भी शिकायत सुनने से मना कर दिया।
इस पर सामंतों ने महारावल के पुत्र राजकुमार रायसिंह को स्वरूपसिंह के विरुद्ध षड़यंत्र में शामिल कर लिया। दीवान स्वरूपसिंह एक वेश्या पर आसक्त था परंतु वह वेश्या सामंत सरदारसिंह पर आसक्त थी। इससे स्वरूपसिंह खिन्न रहता था। अपनी खीझ निकालने के लिये उसने सरदारसिंह को बहुत तंग किया। सरदारसिंह ने युवराज रायसिंह से स्वरूपसिंह की शिकायत की। रायसिंह पहले से ही स्वरूपसिंह से रुष्ट था क्योंकि स्वरूपसिंह ने युवराज का दैनिक भत्ता कम कर दिया था।
युवराज को दीवान से रुष्ट जानकर, दीवान से असंतुष्ट सामंत रायसिंह की शरण में आ गये तथा स्वरूपसिंह को पद से हटाने का षड़यंत्र करने लगे। 10 जनवरी 1784 को युवराज रायसिंह ने भरे दरबार में दीवान स्वरूपसिंह का सिर काट डाला। अपने पुत्र का यह दुःसाहस देखकर महारावल रायसिंह दरबार छोड़कर भाग खड़ा हुआ और रनिवास में जाकर छुप गया। महारावल को इस प्रकार भयभीत देखकर सामंतों ने रायसिंह को सलाह दी कि वह महारावल की भी हत्या कर दे और स्वयं जैसलमेर के सिंहासन पर बैठ जाये।
युवराज ने पिता की हत्या करना उचित नहीं समझा किंतु सामंतों के दबाव में उसने महारावल को अंतःपुर में ही बंदी बनाकर राज्यकार्य अपने हाथ में ले लिया। अपने पिता के प्रति आदर भाव होने के कारण युवराज स्वयं राजगद्दी पर नहीं बैठा। लगभग तीन माह तक महारावल रनिवास में बंदी की तरह रहा। एक दिन अवसर पाकर महारावल के विश्वस्त सामंतों ने अंतःपुर पर आक्रमण कर दिया तथा महारावल मूलराज को मुक्त करवा लिया।
महारावल को उसी समय फिर से राजगद्दी पर बैठा दिया गया। उस समय युवराज रायसिंह अपने महल में विश्राम कर रहा था। जब महारावल का दूत युवराज के राज्य से निष्कासन का पत्र लेकर युवराज के पास पहुँचा तो युवराज को स्थिति के पलट जाने का ज्ञान हुआ। महारावल ने क्षत्रिय परम्परा के अनुसार राज्य से निष्कासित किये जाने वाले युवराज के लिये काले कपड़े, काली पगड़ी, काली म्यान, काली ढाल तथा काला घोड़ा भी भिजवाया। युवराज ने अपने पिता की आज्ञा को शिरोधार्य किया तथा काला वेश धारण कर अपने साथियों सहित चुपचाप राज्य से निकल गया। उसने जोधपुर के राजा विजयसिंह के यहाँ शरण प्राप्त की। महारावल मूलराज ने फिर से राजगद्दी पर बैठकर पूर्व दीवान स्वरूपसिंह के 11 वर्षीय पुत्र सालिमसिंह को राज्य का दीवान बनाया। मेहता सालिमसिंह ने कुछ समय तक बड़ी शांति से राज्य कार्य का संचालन किया। जैसलमेर के इतिहास में मेहता सालिमसिंह का बड़ा नाम है। जैसे ही सालिमसिंह वयस्क हुआ, उसके और सामंत जोरावरसिंह के बीच शक्ति परीक्षण होने लगा। जोरावरसिंह ने ही महारावल को अंतःपुर से मुक्त करवाकर फिर से राजगद्दी पर बैठाया था।
सालिमसिंह ने महारावल से कहकर जोरावरसिंह को भी राज्य से निष्कासित करवा दिया। जोरावरसिंह युवराज रायसिंह के पास चला गया। जैसलमेर को अंतर्कलह में फंसा हुआ जानकर ई.1783 में बीकानेर के राजा ने पूगल पर अधिकार कर लिया और उसे अपने राज्य में मिला लिया। उन दिनों जोधपुर राज्य में भी शासनाधिकार को लेकर कलह मचा हुआ था। राजा विजयसिंह अपने पौत्र मानसिंह को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था किंतु विजयसिंह का दूसरा पौत्र पोकरण ठाकुर सवाईसिंह के साथ मिलकर राज्य हड़पने का षड़यंत्र कर रहा था। भीमसिंह को जोधपुर राज्य छोड़कर जैसलमेर में शरण लेनी पड़ी। इस दौरान जैसलमेर के महारावल मूलराज तथा जोधपुर के राजकुमार भीमसिंह के मध्य एक संधि हुई तथा महारावल ने युवराज रायसिंह की पुत्री का विवाह भीमसिंह के साथ कर दिया।
कुछ समय बाद परिस्थितियों ने पलटा खाया तथा विजयसिंह की मृत्यु होने पर भीमसिंह जोधपुर का राजा बना। मानसिंह को जोधपुर से भागकर जालोर के किले में शरण लेनी पड़ी। जब भीमसिंह जोधपुर का राजा बना तो जैसलमेर के युवराज रायसिंह को जोधपुर में रहना कठिन हो गया। वह अपने पिता से क्षमा याचना करने के लिये जैसलमेर राज्य में लौट आया। जोरावरसिंह तथा उसके अन्य साथी भी जैलसमेर आ चुके थे। महारावल ने युवराज के समस्त साथियों तथा जोरावरसिंह को तो क्षमा कर दिया किंतु अपने पुत्र को क्षमा नहीं कर सका और उसे देवा के दुर्ग में नजरबंद कर दिया।
रायसिंह के दो पुत्र अभयसिंह और धोकलसिंह बाड़मेर में थे। महारावल ने उन्हें कई बार बुलाया किंतु सामंतों ने डर के कारण राजकुमारों को समर्पित नहीं किया। महारावल ने रुष्ट होकर बाड़मेर को घेर लिया। 6 माह की घेरेबंदी के बाद सामंतों ने इस शर्त पर दोनों राजकुमारों को महारावल को सौंप दिया कि राजकुमारों के प्राण नहीं लये जायेंगे। महारावल ने जोरावरसिंह से दोनों राजकुमारों के प्राणों की सुरक्षा की गारण्टी दिलवायी। दीवान सालिमसिंह के दबाव पर महारावल मूलराज ने युवराज रायसिंह के दोनों पुत्रों को रायसिंह के साथ ही देवा के दुर्ग में नजरबंद कर दिया। सालिमसिंह अपने पिता की हत्या करने वालों से बदला लेना चाहता था किंतु जोरावरसिंह उन सब सामंतों को महारावल से माफी दिलवाकर फिर से राज्य में लौटा लाया था। इसलिये सालिमसिंह ने जोरावरसिंह को जहर देकर उसकी हत्या करवा दी। कुछ ही दिनों बाद मेहता सालिमसिंह ने जोरावरसिंह के छोटे भाई खेतसी की भी हत्या करवा दी।
सालिमसिंह का प्रतिशोध यहाँ पर आकर भी समाप्त नहीं हुआ। उसने कुछ दिन बाद देवा के दुर्ग में आग लगवा दी जिसमें युवराज रायसिंह तथा उसकी रानी जलकर मर गये। रायसिंह के दोनों पुत्र अभयसिंह तथा धोकलसिंह इस आग में जीवित बच गये थे। उन्हें रामगढ़ में लाकर बंद किया गया। कुछ समय बाद वहीं परा उन दोनों की हत्या कर दी गयी। इस प्रकार जब राजपूताना मराठों और पिण्डारियों से त्रस्त था और अंग्रेज बंगाल की ओर से चलकर राजपूताने की ओर बढ़े चले आ रहे थे, जैसलमेर का राज्य अपनी ही कलह से नष्ट हुआ जा रहा था। बीकानेर का राजा जैसलमेर राज्य के पूगल क्षेत्र को हड़प गया था तो जोधपुर राज्य ने उसके शिव, कोटड़ा तथा दीनगढ़ को डकार लिया था। महारावल ने दीवान सालिमसिंह तथा अपने पड़ौसी राज्यों के अत्याचारों से घबरा कर अंग्रेज बहादुर से दोस्ती गांठने का मन बनाया।