जॉर्ज टॉमस राजपूताने में जाझ फिरंगी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसका जन्म ई.1756 में आयरलैण्ड में हुआ था। वह ई.1782 में एक अंग्रेजी जहाज से मद्रास आया। वह उन अंग्रेजों में से था जो ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेवा के लिये नहीं अपितु भारत में अपनी रोजी-रोटी की तलाश में स्वतंत्र रूप से आया करते थे। ये लोग कभी किसी रियासत की नौकरी पा लेते तो कभी किसी सैनिक कमाण्डर के नीचे रहकर छोटी-मोटी लड़ाईयां लड़ते थे।
जॉर्ज टॉमस पाँच वर्षों तक कनार्टक में पोलिगरों के साथ रहा। फिर कुछ समय तक हैदराबाद निजाम की सेना में रहकर ई.1787 में दिल्ली चला आया और बेगम समरू की सेवा में रहा। वहीं से उसे प्रसिद्धि मिलनी आरंभ हुई। ई.1793 से 1797 तक वह मराठा सेनापति खांडेराव की सेवा में रहा। खांडेराव की मृत्यु होने पर जॉर्ज टॉमस को मराठों का साथ छोड़ देना पड़ा क्योंकि वह वामनराव के व्यवहार से संतुष्ट नहीं था। जॉर्ज टॉमस पंजाब की ओर चला आया और वहाँ एक सेना का निर्माण कर उसने अपने लिये एक दुर्ग बनाकर रहने लगा जिसका नाम उसने जॉर्ज गढ़ रखा। दुर्गपति बनने के बाद उसके हौंसले बुलंद हो गये और वह धन प्राप्ति के लिये योजनाएं बनाकर बड़े-बड़े युद्ध करने लगा। जॉर्ज टॉमस की सफलताएं अद्भुत थीं, उसने हिसार, हांसी तथा सिरसा पर भी अधिकार कर लिया।
ई.1799 में सिंधिया के सेनापति लकवा दादा ने जयपुर पर आक्रमण किया। लकवादादा के कमाण्डर वामनराव ने जॉर्ज टॉमस को भी इस लड़ाई में आमंत्रित किया। जॉर्ज टॉमस ने वामनराव से कुछ रुपये प्राप्त करने की शर्त पर लड़ाई में भाग लेना स्वीकार किया। जैसे ही जयपुर राज्य की सेना को ज्ञात हुआ कि मराठों की सहायता के लिये जाझ फिरंगी आ गया है तो कच्छवाहे सैनिक मैदान छोड़कर जयपुर की तरफ भाग छूटे। मैदान साफ देखकर लकवा दादा ने स्थान-स्थान से चौथ वसूली करते हुए फतहपुर की ओर बढ़ना आरंभ किया। उन दिनों जल की अत्यधिक कमी होने के कारण युद्धरत सेनाओं में से पराजित होने वाली सेना मार्ग में पड़ने वाले कुओं को पाटती हुई भागती थी ताकि शत्रु आसानी से उसका पीछा न कर सके जबकि विजयी सेना का यह प्रयास रहता था कि वह शीघ्र से शीघ्र अपने शत्रु तक पहुँच कर कुंए को पाटे जाने से पहले ही उस पर अधिकार कर ले।
जॉर्ज टॉमस जयपुर राज्य की सेना के पीछे भागता हुआ इसी प्रयास में था कि किसी तरह एक कुंआँ हाथ लग जाये। दोनों सेनाओं में काफी अंतर था इसलिये जयपुर की सेना कुंओं को पाटने में सफल हो रही थी और जॉर्ज किसी कुएँ पर अधिकार नहीं कर पा रहा था। अंत में बड़ी कठिनाई से वह एक कुएँ पर अधिकार कर सका।
ठीक उसी समय पीछे भागती हुई जयपुर की सेना को जयपुर से आई नई सेना की सहायता मिल गयी और जयपुर की सेना कांटों की बाड़ आदि लगाकर जॉर्ज तथा लकवा दादा का सामना करने के लिये तैयार हो गयी। दोनों सेनाओं के बीच जमकर युद्ध हुआ जिसमें जयपुर की सेना परास्त हो गयी तथा जयपुर के सेनापति ने संधि की बात चलाई। जयपुर की सेना ने लकवा दादा तथा जॉर्ज टॉमस को बहुत ही कम राशि देने का प्रस्ताव किया जिससे दोनों पक्षों के मध्य संधि नहीं हो सकी। इस समय जॉर्ज की सेना घोड़ों की घास की कमी से परेशान थी फिर उसने लड़ाई आरंभ करने का निर्णय लिया।
इसी बीच बीकानेर राज्य की सेना जयपुर राज्य के समर्थन में आ जुटी। इससे युद्ध का पलड़ा बदल गया तथा जॉर्ज ने युद्ध का मैदान छोड़ने का निर्णय लिया। जयपुर की सेना ने दो दिनों तक जॉर्ज की भागती हुई सेना का पीछा किया तथा उसके बहुत से सैनिकों को मार डाला।
कुछ दिन बाद अपनी स्थिति को ठीक करके उसने बीकानेर को दण्डित करने का निर्णय लिया क्योंकि बीकानेर के कारण ही वह जीती हुई लड़ाई हार गया था। जॉर्ज ने इस बार दो काम किये। एक तो उसने अपने तोपखाने को मजबूत बनाया तथा दूसरे उसने पानी का प्रबंध किया। उसने बड़ी बड़ी पखालों में पानी भरवाकर अपने साथ रख लिया तथा वर्षा ऋतु प्रारंभ होने पर बीकानेर राज्य की ओर कूच किया। बीकानेर का राजा सूरतसिंह जॉर्ज के तोपखाने का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं था। इसलिये उसने खुले मैदान के स्थान पर नगरों और कस्बों के भीतर जॉर्ज से निबटने की योजना बनायी ताकि जॉर्ज का तोपखाना काम न आ सके। सूरतसिंह ने बीकानेर राज्य की सीमा पर आने वाले प्रत्येक गाँव में अपनी पैदल सेना छिपा दी।
जॉर्ज ने सर्वप्रथम जैतपुर गाँव पर चढ़ाई की। इस युद्ध में उसके दो सौ सिपाही मारे गये। जैतपुर के लोगों ने जॉर्ज को रुपये देकर अपने जान व माल की रक्षा की। इसके बाद जॉर्ज गाँव दर गाँव जीतता हुआ बीकानेर की ओर बढ़ने लगा। बीकानेर के अधिकांश सामंत राजा सूरतसिंह से रुष्ट चल रहे थे क्योंकि सूरतसिंह ने बीकानेर के बालक महाराजा प्रतापसिंह की हत्या करके बीकानेर की गद्दी हथियाई थी। इसलिये वे जॉर्ज की सेना के साथ आ खड़े हुए।
सूरतसिंह ने अपने सरदारों को शत्रुपक्ष में गया देखकर हथियार डाल दिये। उसने जॉर्ज को दो लाख रुपये देने का वचन दिया। महाराजा ने एक लाख रुपये तो उसी समय चुका दिये तथा शेष एक लाख रुपये की हुण्डियां जयपुर के व्यापारियों के नाम लिख कर दे दी। व्यापारियों ने जॉर्ज को इन हुण्डियों के रुपये नहीं दिये जिससे जॉर्ज फिर से बीकानेर पर चढ़कर आया। इस बार बीकानेर की सहायता के लिये पटियाला की सेना आ पहुँची। इससे जॉर्ज की हालत पतली हो गयी किंतु ठीक उसी समय भट्टियों ने फतहगढ़ पर अधिकार करने के लिये बीकानेर राज्य के विरुद्ध जॉर्ज की सहायता मांगी तथा उसे 40 हजार रुपये प्रदान किये। जॉर्ज ने फतहगढ़ पहुँच कर उस पर भट्टियों का अधिकार करवा दिया।
इस क्षेत्र के विषम जलवायु की चपेट में आ जाने से जॉर्ज की दो तिहाई सेना नष्ट हो गयी जिसके कारण जॉर्ज इस क्षेत्र को छोड़कर फिर से अपने दुर्ग जॉर्जगढ़ में चला गया। जॉर्ज को दुर्बल हुआ जानकर उसके प्रतिस्पर्धी पैरन तथा कप्तान स्मिथ ने भी जॉर्जगढ़ पर आक्रमण कर दिया।
इस युद्ध में जॉर्ज की पराजय हो गयी और वह दुर्ग छोड़कर ब्रिटिश सीमा प्रांत की तरफ भागा ताकि वहाँ उसे शरण मिल सके। राजपूताने में कोई भी राजा जॉर्ज के लिये विश्वसनीय नहीं था जो संकट में उसकी सहायता कर सके। अगस्त 1802 में कलकत्ता जाते समय उसकी मृत्यु हो गयी तथा जाझ फिरंगी सदैव के लिये इतिहास के नेपथ्य में चला गया।