कैबीनेट मिशन योजना में एक अंतरिम सरकार के गठन का भी प्रस्ताव किया गया था। इस सरकार में वायसराय को छोड़कर शेष सभी पदों को भारतीयों से भरा जाना था। जातीय-दलीय कोटे से 14 सदस्यों की सम्मिलित सरकार बननी थी जिसमें कांग्रेस के 5 सवर्ण हिंदू सदस्य, मुस्लिम लीग के 5 सदस्य, परिगणित हिंदू जाति का 1 सदस्य और अन्यान्य अल्पसंख्यकों के 3 सदस्य होने थे। गांधीजी ने कांग्रेस के 5 सदस्यों में 1 राष्ट्रवादी मुसलमान को शामिल करने पर जोर दिया। इस पर जिन्ना पूर्व की भांति फिर अड़ गये कि कि मुस्लिम लीग ही एकमात्र संस्था है जो मुसलमानों का नेतृत्व कर सकती है। कांग्रेस को इसका अधिकार नहीं। जिन्ना के इस दावे के सामने वायसराय वेवेल, कैबिनेट मिशन तथा कांग्रेस ने आत्मसमर्पण कर दिया।
10 जुलाई 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने एक प्रेस कांफ्रेंस में पत्रकारों से कहा कि कांग्रेस पर समझौतों का कोई बंधन नहीं है और वह हर स्थिति का सामना करने के लिये उसी तरह तैयार है जैसे कि अब तक करती आयी है। मुस्लिम लीग ने नेहरू के वक्तव्य का अर्थ यह लगाया कि एक बार सत्ता प्राप्त कर लेने के बाद कांग्रेस इस योजना में संशोधन कर देगी। अतः जिन्ना ने 27 जुलाई को ही मुस्लिम लीग की बैठक बुलाई और कैबीनेट मिशन योजना की अपनी स्वीकृति रद्द करके पाकिस्तान प्राप्त करने के लिये सीधी कार्यवाही की घोषणा कर दी। इस घोषणा में कहा गया कि आज से हम वैधानिक तरीकों से अलग होते हैं। मुस्लिम लीग के साथ-साथ अन्य राजनीतिक तत्वों ने भी इस योजना को अस्वीकार कर दिया। नेहरू की घोषणा पर मौलाना अबुल कलाम आजाद ने टिप्पणी की कि 1946 की गलती बड़ी महंगी साबित हुई।
कैबीनेट मिशन योजना में राज्यों की जनता का उल्लेख नहीं किया गया था, उसमें केवल नरेशों को प्रधानता दी गयी थी। जयनारायण व्यास ने इसका विरोध किया और दिल्ली में एक विराट सम्मेलन का आयोजन कर ऐसा वातावरण पैदा कर दिया कि नेहरू और पटेल को भी उसमें उपस्थित होकर आश्वासन देना पड़ा कि ऐसी कोई योजना स्वीकार नहीं की जायेगी जिसमें देशी राज्यों की जनता की उपेक्षा हो। अंत में गांधी के यह विश्वास दिलाने पर कि देशी राज्यों की जनता के हितों की उपेक्षा नहीं की जायेगी, व्यास चुप हुए।
इस प्रकार चारों ओर कैबीनेट मिशन योजना के विरुद्ध घनघोर वातावरण बन गया तथापि कांग्रेस इस बात पर सहमत थी कि कैबीनेट योजना के तहत देश में एक अंतरिम सरकार का तत्काल गठन किया जाना चाहिये। 29 जून 1946 को कैबीनेट मिशन इस आशा के साथ भारत छोड़ चुका था कि और कुछ नहीं तो कम से कम संविधान सभा का गठन तो होगा ही। क्रिप्स तथा पैथिक लॉरेन्स ने ब्रिटिश संसद में घोषणा की कि मिशन अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल रहा। 16 मई 1946 की कैबिनेट मिशन योजना यद्यपि एक अभिशंषा के रूप में प्रस्तुत की गयी थी किंतु फिर भी यह किसी पंचनिर्णय से कम नहीं थी क्योंकि मिशन, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के मध्य सहमति के निर्माण में असफल रहा था। कैबिनेट मिशन योजना और उसके अनंतर गतिविधियों के सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं होगा कि क्रिप्स मिशन की ही भांति कैबीनेट मिशन की भी मौत लिखी थी।
16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग ने सीधी कार्यवाही दिवस मनाया जिसके कारण कलकत्ता में हजारों हिन्दुओं की जानें गयीं।
वायसराय चाहता था कि कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग दोनों दलों के सहमत होने पर अंतरिम सरकार का गठन हो किंतु मुस्लिम लीग सरकार में शामिल हाने के लिये सहमत नहीं हुई। अगस्त 1946 के अंत में प्रधानमंत्री एटली ने वायसराय लॉर्ड वेवेल को व्यक्तिगत तार भेजकर निर्देशित किया कि मुस्लिम लीग के बिना ही अंतरिम सरकार का गठन किया जाये। वेवेल ने कैबीनेट मिशन के प्रस्तावों के अनुसार 2 सितम्बर 1946 को दिल्ली में अंतरिम सरकार का गठन किया। इसमें केवल कांग्रेसी नेता शामिल हुए। इसलिये पाँच पद स्थानापन्न रखे गये जो कि मुस्लिम लीग के लिये थे। 15 अक्टूबर 1946 को मुस्लिम लीग भी अंतरिम सरकार में शामिल हो गयी।
कैबीनेट मिशन योजना के प्रस्तावों के तहत कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग दोनों ने संविधान सभा में भाग लेने पर अपनी सहमति दी थी किंतु बाद में कुछ बिंदुओं की व्याख्या पर दोनों दलों में विवाद हो गया तथा मुस्लिम लीग ने अपनी सहमति वापिस ले ली। जुलाई 1946 में संविधान निर्मात्री समिति के सदस्यों का चुनाव संपन्न हुआ जिसमें कांग्रेस के 212 सदस्यों के मुकाबले मुस्लिम लीग के मात्र 73 सदस्य ही हो पाये। इसलिये मुस्लिम लीग संविधान सभा के जाल में फंसना नहीं चाहती थी। मुस्लिम लीग ने अपने आप को इससे अलग कर लिया। गांधीजी की टिप्पणी थी कि हो सकता है कि केवल कांग्रेस प्रांत और देशी नरेश ही इसमें सम्मिलित हों। मेरे विचार से यह शोभनीय और पूर्णतः तथ्यसंगत होगा। 9 दिसम्बर 1946 को तनाव, निराशा एवं अनिश्चितता के वातावरण में विधान निर्मात्री समिति ने कार्य करना आरंभ कर दिया।
21 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा ने नरेन्द्र मण्डल द्वारा गठित राज्य संविधान वार्ता समिति से वार्ता करने के लिये संविधान वार्ता समिति नियुक्त की। इसके प्रस्ताव पर जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि मैं स्पष्ट कहता हूँ कि मुझे खेद है कि हमें राजाओं की समिति से वार्ता करनी पड़ेगी। मैं सोचता हूँ कि राज्यों की तरफ से हमें राज्यों के लोगों से बात करनी चाहिये थी। मैं अब भी यह सोचता हूँ कि यदि वार्ता समिति सही कार्य करना चाहती है तो उसे समिति में ऐसे प्रतिनिधि सम्मिलित करने चाहिये किंतु मैं अनुभव करता हूँ कि इस स्तर पर आकर हम इसके लिये जोर नहीं डाल सकते।
इस प्रकार 1940 से लेकर 1946 तक के काल में राजपूताना के राज्यों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के लिये अपने राज्य के संसधान ब्रिटिश सरकार को सौंपकर स्वामिभक्ति का प्रदर्शन किया किंतु संघ के निर्माण की दिशा में ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रस्तुत क्रिप्स प्रस्ताव तथा कैबिनेट मिशन प्रस्ताव में रुचि का प्रदर्शन नहीं किया। जयपुर, जोधपुर एवं बीकानेर राज्यों ने नरेन्द्र मण्डल के माध्यम से क्रिप्स एवं कैबीनेट मिशन के साथ हुई वार्ताओं में भाग लिया किंतु उदयपुर लगभग अनुपस्थित दिखायी दिया। जयपुर एवं जोधपुर राज्य ब्रिटिश प्रधानमंत्रियों एवं पुलिस अधिकारियों के माध्यम से प्रत्यक्ष ब्रिटिश नियंत्रण में थे तो उदयपुर राज्य भी ब्रिटिश साम्राज्य के हाथों की कठपुतली बना रहा। इतना अंतर अवश्य था कि जयपुर, जोधपुर एवं बीकानेर सहित राजपूताना के समस्त राज्य अपनी इच्छा से अंग्रेजों के वफादार चाकर बने रहे किंतु उदयपुर ने विवश होकर अंग्रेजों की चाकरी की।