स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत में कुल 562 देशी राज्य थे जिन्हें रियासतें भी कहा जाता था। ब्रिटिश सरकार ने इन्हें तीन श्रेणियों में विभक्त कर रखा था। पहली श्रेणी में 108 रियासतें थीं जो स्वाधिकार से नरेन्द्र मण्डल की सदस्य थीं। दूसरी श्रेणी में 127 रियासतें थीं जिनके 13 प्रतिनिधि नरेन्द्र मण्डल के सदस्य होते थे। तीसरी श्रेणी में 327 छोटी एवं अत्यंत छोटी रियासतें थीं। आकार, जनसंख्या, राजस्व, न्याय व्यवस्था, संचार, परिवहन व्यवस्था तथा सामरिक क्षमता के मामले में इन रियासतों में इतनी भिन्नता थी कि साइमन कमीशन ने भारतीय रियासतों की तीनों श्रेणियों के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा था- एक विशेषता सभी में समान है, वे ब्रिटिश क्षेत्र नहीं हैं तथा उनकी प्रजा ब्रिटिश प्रजा नहीं है। कहने का अर्थ ये कि इन राज्यों में किसी तरह की कोई समानता नहीं थी।
भारत में स्थित 562 देशी राज्यों में भारत का 2/5 क्षेत्र और 25 प्रतिशत जनसंख्या सम्मिलित थी। देशी राज्यों का क्षेत्र ब्रिटिश भारत के प्रांतों के क्षेत्रों में घुला मिला था। सारे राज्यों का संयुक्त क्षेत्र 7 लाख 20 हजार वर्ग मील था और उनकी आबादी 9 करोड़़ 30 लाख थी। आबादी कहीं अधिक और कहीं कम थी। 2/3 या 6 करोड़़ 20 लाख आबादी केवल 20 राज्यों में थी। शेष 3 करोड़़ 10 लाख आबादी 542 राज्यों में थी।
देश में मात्र 15 रियासतें ऐसी थीं जिनका क्षेत्रफल 10,000 वर्ग मील अथवा उससे अधिक था। 202 रियासतों का क्षेत्रफल 10 वर्ग किलोमीटर से भी कम था। कुछ ही रियासतों का वार्षिक राजस्व एक करोड़ अथवा उससे अधिक था। कुछ रियासतें तो ऐसी थीं जिनका वार्षिक राजस्व एक दस्तकार के औसत पारिश्रमिक के बराबर था। कुछ राज्य इतने छोटे भी थे जिनकी आमदनी एक सामान्य होटल से भी कम थी। कई देशी शासक इतने विशाल क्षेत्रों पर शासन चलाते थे, जो आकार या आबादी में पश्चिमी यूरोप के अनेक राष्ट्रों की बराबरी कर सकते थे। ठीक इसके विपरीत कई रजवाड़े इतने पिद्दी थे कि लंदन का रिकमण्ड पार्क भी उनसे बड़ा बैठ सकता था। उनके शासक महलों में नहीं, मकानों में रहते थे। काठियावाड़ में उसके अनेक उदाहरण थे। कुछ राजा इतने धनी थे कि विश्व भर में प्रसिद्ध हो जायें। कुछ इतने निर्धन कि उनके राज्य की आय केवल खेत खलिहानों की आय जैसी ज्ञात हो। चार सौ से भी अधिक रजवाड़े ऐसे थे, जिनका क्षेत्रफल बीस वर्ग मील से अधिक नहीं था। केवल 8 रियासतों में सिक्के ढालने की अपनी टकसाल थी, 6 रियासतों में निजी डाक व्यवस्था थी, काठियावाड़ में 286 छोटी-छोटी रियासतें ऐसी थीं जिनका वर्गीकरण सामान्य पुलिस चौकी क्षेत्रों में था और जहाँ की शासन व्यवस्था ब्रिटिश सरकार के स्थानीय प्रतिनिधियों द्वारा नियुक्त अधिकारी चलाया करते थे।
हैदराबाद तथा काश्मीर जैसी रियासतें क्षेत्रफल और महत्व दोनों ही दृष्टि से अंग्रेजी प्रांतों के समकक्ष थीं जिनकी तुलना फ्रांस जैसे देशों के बराबर की जा सकती थी और कुछ काठियावाड़ की जागीर के समान इतनी छोटी कि उनका विस्तार कुछ एकड़ तक ही सीमित था तथा उनमें एक हजार से भी कम आदमी रहते थे। दीवान जरमनी दास ने लिखा है- कुछ रियासतें तो इतनी बड़ी थीं जितने फ्रांस और इंगलैण्ड जैसे देश हैं। कुछ इतनी छोटी थीं कि उनको ''नाखूनी राज्य" अथवा ''बौनी रियासतें" कहा जा सकता है जिनका क्षेत्रफल 1 वर्ग मील से भी कम था।
वी. बी. कुलकर्णी ने काठियावाड़ को महत्वहीन छोटी रियासतों का संग्रहालय कहा है। वे लिखते हैं कि ऐसे राज्य भी थे जहाँ चीतों, घोड़ों, कुत्तों और अन्य पशुओं का महत्व मनुष्यों से अधिक था तथा एक सुंदर चेहरा राजनीतिक प्रभाव स्थापित करने का पासपोर्ट सिद्ध हो सकता था। निश्चित रूप से इन छोटी रियासतों का कोई भविष्य नहीं था। वे केवल अंग्रेजी अनुकम्पा से अस्तित्व में आयी थीं तथा विकासशील प्रजातांत्रिक व्यवस्था में स्वयं को आत्मनिर्भर इकाई के रूप में स्थापित नहीं कर सकती थीं। यही कारण था कि कांग्रेस तथा लोक परिषद जैसी संस्थायें लगातार इन रियासतों को एक दूसरे में मिलाने की मांग करती रही थीं।
ई.1939 में भारतीय देशी राज्य लोक परिषद के लुधियाना अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसके अनुसार देशी राज्यों के पृथक अस्तित्व बनाये रखने हेतु आवश्यक सक्षमता के मानदण्ड के रूप में 20 लाख जनसंख्या और 50 लाख आय का होना आवश्यक समझा गया। इन राज्यों को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की सिफारिश की गयी। 6 अगस्त से 8 अगस्त 1945 के मध्य अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद की स्थायी समिति ने श्रीनगर की बैठक में, लुधियाना अधिवेशन में पारित प्रस्ताव की पुष्टि करते हुए निर्णय लिया कि उन सभी छोटी रियासतों को जिनकी जनसंख्या 20 लाख और आय 50 लाख से कम है, उन्हें या तो प्रांतों में मिल जाना चाहिए अथवा आपस में मिलकर बड़े संघ का निर्माण कर लेना चाहिये ताकि वे भारतीय संघ में एक प्रभावी इकाई के रूप में भाग ले सकें।
31 दिसम्बर 1945 से 2 जनवरी 1946 तक पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में अखिल भारतीय देशी राज्य प्रजा परिषद के उदयपुर अधिवेशन में राज्यों की सक्षमता के मापदण्ड पर विचार किया गया। 20 लाख जनसंख्या के स्थान पर 50 लाख जनसंख्या तथा 50 लाख वार्षिक आय के स्थान पर 5 करोड़ वार्षिक आय सम्बन्धी प्रस्ताव पर चर्चा हुई किंतु इस सम्बन्ध में कोई निर्णय नहीं लिया जा सका। 18 व 19 सितम्बर 1946 को दिल्ली की बैठक में परिषद की स्थायी समिति ने राज्यों के स्वतंत्र इकाई रहने योग्य सक्षमता के लिये 50 लाख जनसंख्या और तीन करोड़ वार्षिक आय का होना आवश्यक बताया। इस सिलसिले में अखिल भारतीय प्रजा परिषद की राजस्थान प्रांतीय शाखा की कार्यकारिणी ने 3 नवम्बर 1946 की बैठक में प्रस्ताव पारित किया कि राजस्थान की कोई भी रियासत आधुनिक प्रगतिशील राज्यों की श्रेणी में नहीं आंकी जा सकती।
16-17 नवम्बर 1946 को इसी समिति ने एक अन्य प्रस्ताव में भारतीय सरकार से अनुरोध किया कि वह राजस्थान के राज्यों के किसी भी संघ को यहाँ के लोकप्रिय प्रतिनिधियों का समर्थन प्राप्त करने के पश्चात् ही मान्यता प्रदान करें।
जवाहरलाल नेहरू की अंतरिम सरकार ने घोषणा की कि स्वतंत्र भारत में 1 करोड़ वार्षिक आय और 10 लाख जनसंख्या वाली रियासत पृथक अस्तित्व रखने योग्य समझी जायेगी। इन्हें पूर्ण राज्य, तथा पूर्ण अधिकार प्राप्त रियासतें भी कहा गया। राज्यों के जीव्यता संबंधी रियासती मंत्रालय की इस भावना की पुष्टि 16 दिसम्बर 1947 को सरदार पटेल ने राज्यों के विलय तथा उनके एकीकरण और संगठन संबंधी विस्तृत व्याख्या में की थी। इसमें स्पष्ट किया गया कि प्रशासन के प्रजातांत्रिकीकरण के पश्चात् यह स्वाभाविक है कि छोटे-छोटे राज्य विकसित प्रशासन स्थापित करने में असमर्थ रहते हैं। इसलिए प्रशासन की इकाई काफी बड़ी होनी चाहिये जिससे वहाँ स्वायत्तता सफल हो सके। छोटे राज्यों के समक्ष विलीनीकरण के अतिरिक्त अन्य उपाय नहीं है। राजपूताना के केवल 4 राज्य- उदयपुर, जयपुर, जोधपुर तथा बीकानेर ही ऐसे थे जिनकी जनसंख्या 10 लाख से ऊपर थी तथा जिनका वार्षिक राजस्व एक करोड़ रुपये से अधिक था।