वायसराय के राजनीतिक सलाहकार सर कोनार्ड कोरफील्ड भारतीय राजाओं के पक्ष में थे। उन्हें भारतीय नेता फूटी आँख नहीं सुहाते थे। उन्हें भय था कि स्वतंत्र भारत में कांग्रेस, राजाओं तथा उनके राज्यों को निगल जायेगी। इसलिये राजाओं की मदद की जानी आवश्यक है। उन्होंने 8 जून 1946 को बम्बई में आयोजित नरेन्द्र मण्डल की संवैधानिक सलाहकार समिति में, 9 जून को आयोजित रियासती मंत्रियों की समिति में तथा 10 जून को आयोजित नरेन्द्र मण्डल की स्थायी समिति की बैठक में राजाओं को आश्वस्त किया कि परमोच्चता की समाप्ति के बाद के अंतरिम काल में राजनीतिक विभाग, राज्यों के हितों की सुरक्षा करने, संविधान सभा में विचार-विमर्श करने, समूहीकरण एवं सहबद्धता की व्यवहारिक योजनाएं बनाने, प्रत्येक राज्य की व्यक्तिगत संधियों के पुनरीक्षण करने, उनके आर्थिक हितों को सुरक्षित बनाने तथा अल्पसंख्यकों के प्रशासन हेतु की जानी वाली व्यवस्थाओं में राज्यों की सहायता करेगा। यदि शासक राज्यों की जनता से व्यक्तिगत संपर्क रखेंगे तो उन्हें आंतरिक समर्थन प्राप्त होगा।
कोरफील्ड ने राजाओं को सलाह दी कि वे एक संविधान वार्ता समिति का निर्माण करें जो स्वतंत्र भारत की संविधान सभा में किये जाने वाले विचार-विमर्श के लिये शर्तें तय करे। उनके द्वारा सुझाये गये बिंदुओं ने नरेन्द्र मण्डल की स्थायी समिति द्वारा 10 जून 1946 को पारित किये गये प्रस्ताव के लिये प्रचुर सामग्री प्रदान की। इस प्रस्ताव में कहा गया कि कैबीनेट मिशन योजना ने भारत की स्वतंत्रता के लिये आवश्यक तंत्र प्रदान किया है तथा भविष्य में होने वाले विचार-विमर्श के लिये भी समुचित आधार प्रदान किया है।
इस प्रस्ताव में कैबीनेट मिशन द्वारा परमोच्चता के सम्बन्ध में की गयी घोषणा का भी स्वागत किया गया तथा अंतरिम काल में की जाने वाली व्यवस्थाओं के लिये आवश्यक समायोजनों की आवश्यकता भी जताई। प्रस्ताव में कहा गया कि कैबीनेट योजना में उल्लेख किये गये आधारभूत महत्व के अनेक मामलों की व्याख्या की जानी आवश्यक है जिन्हें कि भविष्य के विचार-विमर्श के लिये छोड़ दिया गया है। नरेन्द्र मण्डल की स्थायी समिति ने कोरफील्ड की सलाह पर एक समझौता समिति का निर्माण किया तथा नरेन्द्र मण्डल के चांसलर अर्थात् भोपाल नवाब को अधिकृत किया कि वह कैबिनेट योजना में सुझाये गये प्रावधान के अनुसार संविधान सभा में ब्रिटिश भारतीय समिति से विचार विमर्श करे।
इस पर अखिल भारतीय देशी राज्य प्रजा परिषद ने नरेन्द्र मण्डल के चांसलर के अधिकारों को चुनौती दी। परिषद पूर्व में ही 21-23 अक्टूबर 1945 को जयपुर में आयोजित बैठक में मांग कर चुकी थी कि संभावित भारतीय संविधान निर्मात्री समिति में राज्यों के प्रतिनिधियों को जनता द्वारा चुनकर भेजा जाना चाहिये। नरेन्द्र मंडल को देशी राज्यों का अधिवक्ता कैसे माना जा सकता है जबकि देश की सात बड़ी रियासतें- हैदराबाद, कश्मीर, बड़ौदा, मैसूर, ट्रावनकोर, कोचीन और इन्दौर नरेन्द्र मण्डल की सदस्य कभी नहीं रहीं। कैबीनेट योजना के अंतर्गत इन सात राज्यों को जनसंख्या के आधार पर संविधान सभा में 40 प्रतिशत से भी अधिक प्रतिनिधि भेजने का अधिकार था। वार्ता समिति में जनता के प्रतिनिधियों को सम्मिलित नहीं किया गया था। अतः समिति को किसी प्रकार का निर्णय लेने का वैध अधिकार नहीं है।
भारतीय नेताओं के अनुसार कैबीनेट मिशन द्वारा घोषित प्रांतों के समूहीकरण की योजना भारतीय संघ की एकता व अखंडता के लिये अत्यधिक घातक व खतरनाक प्रमाणित हो सकती थी। इस घोषणा ने देशी शासकों को अंतरिम सरकार के साथ समानता का दर्जा दे दिया था। कांग्रेस इस स्थिति से अप्रसन्न थी तथा पहले ही कह चुकी थी कि कैबीनेट मिशन योजना ने केंद्र को केवल रक्षा, विदेश एवं संचार के अधिकारों से युक्त एक कमजोर केंद्र की प्रस्तावना की है। देश को ए, बी एवं सी क्षेत्रों में बांटकर मुस्लिम लीग द्वारा निर्धारित की गयी सीमाओं वाले पाकिस्तान की अवधारणा को पुष्ट किया गया है। कांग्रेस का मानना था कि प्रांतों के समूहीकरण में प्रांतों को छूट रहेगी कि वे अपने लिये उपयुक्त समूह का चुनाव करें अथवा समूह से बाहर रह सकें जबकि मुस्लिम लीग का मानना था कि प्रांतों को उनके लिये निर्धारित समूह में शामिल होना आवश्यक होगा। इस प्रकार कांग्रेस ने कई आपत्तियां उठाईं और कई बातों पर स्पष्टीकरण चाहा। उसकी मांग यह भी थी कि प्रतिनिधि चाहे प्रांतों के हों अथवा रियासतों के, विधान सभा के लिये एक जैसी चुनाव प्रक्रिया होनी चाहिये।
कैबीनेट योजना के प्रस्तावों पर गांधीजी का कहना था कि दुःख दर्द से भरे इस देश को अभाव और दुःख से मुक्त करने का यह बीज है। वर्तमान परिस्थिति में इससे अच्छा वे कुछ नहीं कर सकते थे। स्वयं कैबीनेट मिशन ने इस योजना के बारे में घोषणा की थी कि यह भारतीयों को शीघ्रातिशीघ्र आजादी देने का एक मार्ग है जिसमें आंतरिक उपद्रव एवं झगड़े की संभावनायें न्यूनतम हैं। 6-7 जुलाई 1946 को कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में नेहरू ने कैबीनेट योजना को स्वीकार करने का प्रस्ताव रखा जो 51 के मुकाबले 205 मतों से स्वीकृत हो गया। नेहरू को विश्वास था कि प्रांतों का कोई समूह बनेगा ही नहीं। क्योंकि संविभाग ए के सभी और बी तथा सी के कुछ राज्य समूहीकरण के विरुद्ध रहेंगे।
17 जुलाई 1946 को आयोजित नरेन्द्र मण्डल के सम्मेलन में ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें घोषणा की गयी कि नरेन्द्र मण्डल देश की इस इच्छा से पूर्ण सहमति रखता है कि भारत को तत्काल राजनीतिक महिमा प्राप्त हो। राजाओं की इच्छा संवैधानिक समास्यों के निस्तारण के कार्य में प्रत्येक संभावित योगदान देने की है। ब्रिटिश सरकार पहले ही यह कह चुकी थी कि यदि ब्रिटिश भारत स्वतंत्रता चाहता है तो उसके रास्ते में कोई बाधा नहीं आयेगी। अब राजाओं ने भी घोषणा कर दी कि वे भी बाधा नहीं बनना चाहते तथा किसी भी आवश्यक परिवर्तन के लिये दी गयी उनकी सहमति अनावश्यक रूप से वापस नहीं ली जायेगी।
बीकानेर नरेश सादूलसिंह ने कैबीनेट मिशन की घोषणा को भारत की स्वतंत्रता के लिये सबसे महान कदम बताते हुए कहा कि राजाओं को स्वतंत्र भारत में अपने पद की चिंता नहीं करनी चाहिये। उन्हें परिवर्तन का महत्व अनुभव करना चाहिये और उसी के अनुसार अपने को ढालना चाहिये।
27 जुलाई 1946 को बीकानेर नरेश ने एक बार फिर कहा कि 16 मई की योजना, जिसमें रियासतों और प्रांतों दोनों को मिलाकर संघ बनाने का प्रस्ताव है, की स्वीकृति भारत की स्वतंत्रता के लिये उठाया गया सबसे महान कदम है। मैंने यह सदा अनुभव किया है कि यदि राजा और रियासतें इस समय भारत में होने वाले परिवर्तनों की महत्ता को पूरी तरह ध्यान में रखें और अपने मन और नीति को उसके अनुसार बनायें तो स्वतंत्र भारत में अपने उपयुक्त स्थान के बारे में उन्हें कोई डर नहीं होना चाहिये। यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिये कि जो कुछ हो रहा है, वह बहुत गम्भीर है।