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  • अंग्रेजों ने भारी मन से भारत से विदा होने का मन बनाया!

     03.06.2020
    अंग्रेजों ने भारी मन से भारत से विदा होने का मन बनाया!

    हमारी नई वैबसाइट - भारत का इतिहास - www.bharatkaitihas.com

    युद्ध समाप्ति की पृष्ठ भूमि में भेजे गये कैबीनेट मिशन की असफलता के बाद ब्रिटिश सरकार पर भारत को स्वतंत्र करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय दबाव पड़ने लगा। ब्रिटेन की संसद में विपक्ष के नेता विंस्टन चर्चिल किसी भी सूरत में भारतीय स्वतंत्रता के पक्षधर नहीं थे किंतु उन्होंने भी अमरीकी दबाव में स्वीकार किया कि भारतीयों को आजादी देनी पड़ेगी जिसकी आशा में भारतीयों ने अंग्रेजों की ओर से युद्ध में भाग लिया था। रूस और चीन भी इंग्लैण्ड पर दबाव डाल रहे थे कि इंग्लैण्ड युद्ध के समय किया गया वायदा निभाये तथा भारत को स्वतंत्रता दे। इन सब कारणों से इंगलैण्ड सरकार ने भारी मन से भारत को स्वतंत्रता देने का मन बनाया।


    20 फरवरी 1947 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने ''हाउस ऑफ कॉमन्स" में घोषणा की कि जून 1948 तक भारत की एक उत्तरदायी सरकार को सत्ता हस्तांतरित कर दी जायेगी। स्वयं ब्रिटेनवासियों के लिये यह एकदम अप्रत्याशित था कि भारत को इतनी शीघ्र आजादी दी जाये। एटली की घोषणा में कहा गया था कि महामना सम्राट की सरकार ने पक्का निश्चय कर लिया है कि वह जून 1948 तक भारत में उत्तरदायी लोगों को सत्ता हस्तांतरित कर देगी।.......सरकार भारतीय संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान जिसमें सभी भारतीयों की सहमति हो, भारत में लागू करने की संसद में संस्तुति करेगी। यदि जून 1948 तक इस प्रकार का संविधान, संविधान सभा द्वारा नहीं बनाया गया तो ब्रिटिश सरकार यह सोचने के लिये विवश होगी कि ब्रिटिश भारत में केंद्र की सत्ता किसको सौंपी जाये? क्या यह नयी केंद्रीय सरकार को या कुछ क्षेत्रों में प्रांतीय सरकारों को? या फिर किसी अन्य उचित माध्यम को भारतीय जनता के सर्वोच्च हित के लिये दी जाये.......।

    इस घोषणा में राज्यों के सम्बन्ध में कहा गया था कि महामाना सम्राट की सरकार की यह मंशा नहीं है कि परमोच्चता के अधीन राज्यों की शक्तियां तथा दायित्व ब्रिटिश भारत में किसी अन्य सरकार को सौंपी जायें। यह मंशा भी नहीं है कि सत्ता के अंतिम हस्तांतरण की तिथि के पूर्व तक परमोच्चता को बनाये रखा जाये। अपितु यह विचार किया गया है कि अंतरिम काल के लिये राज्यों के साथ ब्रिटिश ताज के सम्बन्ध किसी समझौते के द्वारा समायोजित किये जा सकते हैं।

    इस बयान का राजाओं द्वारा एक स्वर से स्वागत किया गया। नवाब भोपाल ने इस बात पर प्रसन्नता व्यक्त की कि जब अंग्रेज चले जायेंगे तो परमोच्चता समाप्त हो जायेगी तथा राज्य स्वतंत्र हो जायेंगे। त्रावाणकोर के दीवान सर सी. पी. रामास्वामी का मानना था कि प्रधानमंत्री एटली के इस बयान के अनुसार सत्ता के अंतिम हस्तांतरण के बाद राज्य स्वतंत्र राजनीतिक इकाईयां बन जायेंगे जो कि नयी सरकार के साथ वार्ताओं के माध्यम से व्यवस्थाएं करेंगे तथा नवीन भारतीय व्यवस्था में अपनी स्थिति को प्राप्त करेंगे। उन्होंने प्रधानमंत्री के बयान का इस प्रकार विश्लेषण किया कि महामना सम्राट की सरकार का मानना है कि वर्तमान संविधान सभा पूरे देश का प्रतिनिधित्व नहीं करती है तथा वह कैबीनेट मिशन की योजना के अनुसार काम नहीं कर रही है। उन्होंने एक अन्य प्रेस वार्ता में दावा किया कि एटली के बयान ने कैबीनेट मिशन योजना को आच्छादित (सुपरसीड) कर लिया है तथा उसने राज्यों को खुला छोड़ दिया है ताकि राज्य तत्काल ही अपने आंतरिक एवं बाह्य मामालों को इस प्रकार मान्यता दें कि ब्रिटिश भारत से बराबर के स्तर पर वार्ता करने के लिये 10 या 12 से अधिक इकाईयां न हों।

    मोसले ने लिखा है- विंस्टल चर्चिल (पूर्व प्रधानमंत्री एवं तत्कालीन प्रतिपक्ष के नेता) जिसके लिये कांग्रेस एक भीड़ थी और गांधी एक उपद्रवी था, इस घोषणा को सुनकर सूखी घास पर गिरे बम की तरह भड़क उठा। उसने कहा कि इन तथाकथित राजनीतिज्ञों के हाथों में हिन्दुस्तान की बागडोर देकर ऐसे लोगों के हाथों शासन सौंपा जा रहा है जिनका कुछ वर्षों में कोई चिह्न नहीं रह जायेगा। उसने सलाह दी कि एक तिथि निश्चित करने के लिये संयुक्त राष्ट्र संघ की सहायता ली जानी चाहिये। चर्चिल ने यह भी कहा कि दुश्मनों में से बहुतों ने इंगलैण्ड की रक्षा की है किंतु स्वयं अपने ही हाथों से इंगलैण्ड को कौन बचा सकता है? शर्मनाक पलायन, समय से पहले की इस भाग दौड़ में कम से कम हम उस दुख दर्द में योगदान न दें जो हममें से बहुतों को कचोट रहा है, शर्म की रेखा और रंग तो न बढ़ायें।

    भारत में आजादी का आंदोलन तथा सांप्रदायिक तनाव जिस चरम पर पहुंच चुके थे उन्हें देखते हुए अब ब्रिटिश पार्लियामेंट में और उसके बाहर चर्चिल की चिल्लाहट को सुनने वाला कोई नहीं रह गया था। भारत बारूद के ढेर पर आ खड़ा हुआ था।

    मोसले ने लिखा है कि जिन्ना और मुस्लिम लीग कांग्रेस पर अविश्वास करते थे तथा कांग्रेस वायसराय पर अविश्वास करती थी। वायसराय को भी इंगलैण्ड की सरकार पर अविश्वास था और एटली की वायसराय वेवल में आस्था नहीं रही थी। सरदार पटेल को विश्वास था कि देश में गृहयुद्ध की संभावना रोकने और हिंदू मुसलमानों के बीच सद्भावना पनपने की चिंता में वेवेल भारत को और दस वर्ष तक अंग्रेजी शासन के तले रखेगा। ऐसी स्थिति में मि. एटली और क्रिप्स ने भारत की आजादी को कार्यरूप देने के लिये वेवल के स्थान पर माउन्टबेटन को भारत का वायसराय नियुक्त किया।

    लार्ड माउंटबेटन भारत में ब्रिटिश क्राउन के बीसवें और अंतिम प्रतिनिधि थे। उनका पूरा नाम लुई फ्रांसिस एल्बर्ट विक्टर निकॉलस माउंटबेटन था। वे इंगलैण्ड की उसी महारानी के प्रपौत्र थे जिसने कैसरे हिंद की उपाधि धारण करके भारत को अपने साम्राज्य में शामिल करने का उद्घोष किया था। लुई माउंटबेटन के पिता एक जर्मन मूल के ब्रिटिश थे जो रॉयल नेवी में चीफ के पद तक पहुंच कर विश्वयुद्ध के समय अपने पद से हटाये गये थे। ये लोग जर्मनी के बेटनबर्ग के रहने वाले थे इसलिये प्रारंभ में अपना उपनाम बेटनबर्ग लिखा करते थे किंतु बाद में ये लोग माउंटबेटन उपनाम लिखने लगे। अपने पिता की तरह लुई माउंटबेटन भी रॉयल नेवी में अधिकारी बने और रीयर एडमिरल के पद तक जा पहुंचे थे। उनकी महत्वाकांक्षा थी कि वे उस पद तक पहुंचें जिस पद से उनके पिता को अपमानजनक परिस्थितियों में हटाया गया था।

    मोसले ने लिखा है कि माउंटबेटन में भारतीय रजवाड़ों के लिये न तो प्रशंसा का भाव था न धैर्य, उनमें जो सबसे अच्छे थे उन्हें वह अर्धविकसित तानाशाह समझते थे और जो सबसे खराब थे उन्हें गया-बीता और चरित्रहीन! माउंटबेटन का मानना था कि कांग्रेस की बढ़ती हुई ताकत को देखकर भी रजवाड़ों ने अपने प्रशासन में किसी तरह की प्रजातंत्रात्मक प्रणाली शुरू नहीं की। 1935 में अवसर था किंतु वे भारत संघ में सम्मिलित नहीं हुए। इन हरकतों के कारण माउंटबेटन उन्हें मूर्खों की जमात कहते थे।

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