लॉर्ड माउण्टबेटन ने चीफ ऑफ दी स्टाफ लॉर्ड इस्मे तथा जार्ज एबेल से कैबीनेट योजना के अंतर्गत भारत विभाजन पर आधारित एक योजना बनवायी जिसमें प्रस्ताव किया गया कि हिन्दू एवं मुस्लिम बहुल जनसंख्या के आधार पर दो राष्ट्रों का निर्माण हो। यदि किसी ब्रिटिश भारतीय प्रांत की जनता चाहे तो भारत और पाकिस्तान दोनों में से किसी के भी साथ मिलने से इंकार कर अपने प्रदेश को स्वतंत्र राज्य भी बना सकती है।
ऐसा करने के पीछे माउंटबेटन का तर्क यह था कि प्रजा पर न तो भारत थोपा जाये और न ही पाकिस्तान। प्रजा अपना निर्णय स्वयं करने के लिये पूर्ण स्वतंत्र रहे। जो प्रजा पाकिस्तान में मिलना चाहे, वह पाकिस्तान में मिले, जिसे भारत के साथ मिलना हो, वह भारत का अंग बने। जिसे दोनों से अलग रहना हो, वह सहर्ष अलग रहे। ऐसा बंगाल की स्थिति को देखते हुए किया गया था। क्योंकि आबादी के अनुसार पूर्वी बंगाल को पाकिस्तान में तथा पश्चिमी बंगाल को भारत में शामिल होना था किंतु इस प्रावधान से पूर्वी बंगाल चाहता तो पाकिस्तान में न मिलकर अलग देश बन सकता था।
2 मई 1947 को लार्ड इस्मे तथा जार्ज एबेल भारत विभाजन की योजना लेकर मंत्रिमंडल की सहमति प्राप्त करने वायसराय के विशेष विमान से लंदन गये। इसी के साथ माउंटबेटन ने एटली सरकार को अपना पांचवा प्रतिवेदन भेजा जिसमें लिखा था- विभाजन केवल पागलपन है। अगर इन अविश्वसनीय कौमी दंगों ने एक-एक व्यक्ति को वहशी न बना दिया होता, अगर विभाजन का एक भी विकल्प ढूंढ सकने की स्थिति होती तो दुनिया का कोई व्यक्ति मुझे इस पागलपन को स्वीकार करने के लिये बहका न सकता। विश्व के सामने स्पष्ट रहना चाहिये कि ऐसे दीवानगी भरे फैसले की पूरी जिम्मेदारी भारतीय कंधों पर है, क्योंकि एक दिन ऐसा जरूर आयेगा जब स्वयं भारतीय अपने इस फैसले पर बुरी तरह पछतायेंगे। बड़ी विचित्र बात थी कि जिन भारतीय नेताओं को माउंटबेटन ने भारत विभाजन के लिये बड़ी मुश्किल से तैयार किया था, उन्हीं भारतीय नेताओं पर माउंटबेटन ने भारत विभाजन का आरोप रख दिया। माउंटबेटन को अपने प्रतिवेदन में ''भारतीयों" शब्द का प्रयोग न करके ''लीगी नेता" शब्द प्रयुक्त करने चाहिये थे।
यह भी विचित्र बात थी कि इंगलैण्ड भेजने से पहले यह योजना किसी भी हिंदुस्तानी नेता अथवा हिंदुस्तानी अधिकारी को नहीं दिखायी गयी थी क्योंकि माउंटबेटन का विश्वास था कि उसने इस योजना में उन सब बातों को शामिल कर लिया है जो बातें नेताओं से हुए विचार विमर्श के दौरान सामने आयीं थीं। योजना को स्वीकृति के लिये लंदन भेज दिये जाने के बाद माउंटबेटन जिन्ना की तरफ से आशंकित हो गया। उसे लगा कि जिन्ना छंटे हुए पाकिस्तान का विरोध करेगा। उसने जिन्ना से निबटने के लिये एक आपात योजना तैयार की कि यदि जिन्ना एन वक्त पर मुकर गया तो उस समय क्या किया जायेगा! इस आपात् योजना में मुख्यतः यह प्रावधान किया गया था कि चूंकि जिन्ना ने योजना को अस्वीकार कर दिया है इसलिये सत्ता वर्तमान सरकार को ही सौंपी जा रही है।
वायसराय के प्रयास से 6 मई 1947 को नई दिल्ली में जिन्ना के निवास पर गांधीजी ने भेंट की। उन दोनों के बीच भारत का वह नक्शा रखा गया जिसमें पाकिस्तान हरे रंग से दिखाया गया था। इस भेंट के बाद जिन्ना ने एक परिपत्र जारी किया जिसमें कहा गया कि मि. गांधी बंटवारे के सिद्धांत को नहीं मानते हैं, उनके लिये बंटवारा अनिवार्य नहीं है जबकि मेरी दृष्टि में वह अनिवार्य है।
10 मई 1947 को लंदन से इस्मे योजना मंत्रिमंडल की स्वीकृति के साथ तार से वापस आ गयी। वायसराय ने यह योजना जवाहरलाल नेहरू को दिखायी। नेहरू ने इस योजना को मानने से इन्कार कर दिया। माउंटबेटन योजना में देशी रियासतों के साथ-साथ ब्रिटिश भारतीय प्रांतों कों भी अपनी मर्जी से भारत या पाक में मिलने अथवा स्वतंत्र रहने की छूट दे दी गयी थी। यदि इस प्रस्ताव को मान लिया जाता तो भारत की दशा योरोप के बलकान प्रदेशों से भी अधिक गई गुजरी हो जाती। नेहरू के नाराज हो जाने पर वायसराय की हालत खराब हो गयी। वायसराय ने वी. पी. मेनन से एक ऐसी योजना बनाने को कहा जिसे इंगलैण्ड सरकार सहित सभी पक्ष स्वीकार कर लें।
वायसराय के अनुरोध पर मेनन ने एक नयी योजना बनायी। मोसले ने लिखा है कि उस समय तक दिन के दो बज चुके थे। मेनन नयी योजना बनाने के लिये बैठ गया। उसने शाम छः बजे तक अर्थात् चार घंटे में पूरी योजना को नये सिरे से तैयार कर दिया। मोसले ने लिखा है कि जिस योजना से हिंदुस्तान और दुनिया की शक्ल बदल जाने वाली थी उसे एक आदमी ने मात्र चार घण्टे में तैयार किया। इस योजना में कहा गया था कि ब्रिटिश भारतीय प्रांतों को अनिवार्यतः भारत या पाकिस्तान में मिलना पड़ेगा। देशी राज्य चाहें तो इनमें से किसी भी देश के साथ मिल जायें या फिर अपने आप को स्वतंत्र घोषित कर लें। देशी राज्यों को किसी भी संघ में मिलने पर केवल तीन विषय रक्षा, संचार एवं विदेशी मामले संघीय सरकार को सौंपने होंगे, शेष मामलों में देशी राज्य स्वतंत्र होंगे।
इस योजना को नेहरू तथा माउंटबेटन दोनों ने स्वीकार कर लिया। माउंटबेटन इस योजना को लेकर स्वयं लंदन गये और न केवल प्रधानमंत्री एटली से अपितु विपक्ष के नेता चर्चिल से भी योजना की स्वीकृति ले आये। 3 जून 1947 को माउंटबेटन ने यह योजना कांग्रेसी नेताओं, मुस्लिम लीगी नेताओं तथा देशी राज्यों के राजाओं को दिखायी तथा उनकी स्वीकृति प्राप्त कर उसी दिन रेडियो से भारत विभाजन की योजना स्वीकार कर लिये जाने की घोषणा कर दी। अगले दिन एक प्रेस कान्फ्रेंस में माउंटबेटन ने 15 अगस्त को सत्ता हस्तांतरण किये जाने की तिथि घोषित की।
माईकल एडवर्ड्स ने लिखा है कि जब स्वतंत्रता पर विचार-विमर्श चल रहे थे, तब ब्रिटिश शासकों के पास इस बात पर विचार करने के लिये कोई समय नहीं था कि जब सत्ता का अंतिम रूप से स्थानांतरण हो जाये तब राजाओं को किस तरह से कार्य करना चाहिये! गोरी सरकार इस बात पर सुस्पष्ट थी कि देशी रजवाड़ों पर से परमसत्ता का हस्तांतरण किसी अन्य सरकार को नहीं किया जाना चाहिये क्येांकि कैबिनेट मिशन यह आशा एवं अपेक्षा प्रकट कर चुका था कि सभी रियासतें प्रस्तावित भारत संघ के साथ मिल जायेंगी।
14 अगस्त के सूर्य अवसान के बाद रात्रि में 12 बजे अर्थात् 15 अगस्त को ठीक शून्य बजकर शून्य मिनट और शून्य सैकेण्ड पर भारत वर्ष आजाद हो गया। गोरे सदा से इस देश के लिये चले गये। उन्हें विश्वास नहीं था कि वे चले जायेंगे किंतु उन्हें जाना पड़ा। जाने से पहले उन्होंने भारत में रह गये अपने पाँच सौ छांसठ मित्रों के लिये एक सुरक्षित व्यवस्था स्थापित की। वे राजाओं के साथ धोखा नहीं कर सकते थे जिनके सहारे उन्होंने भारत में दो सौसाल राज्य किया था। क्या थी यह व्यवस्था! क्या हुआ भारत की आजादी के बाद उन पाँच सौ छांसठ मित्रों का! कहाँ गये उनके ताज! क्या हुआ उनके तख्तों का! इन सब की कहानी जानने के लिए पढ़िये हमारी अगली पुस्तक राजशाही का अंत।