कैबीनेट मिशन ने 16 मई 1946 को अपनी योजना प्रकाशित की। इसे कैबीनेट मिशन प्लान तथा संयुक्त भारत योजना भी कहते हैं। इसके द्वारा संघीय संविधान का निर्माण किया जाना प्रस्तावित किया गया जिसके तहत भारत संघ की व्यवस्था जानी थी। प्रस्तावित संघ में सरकार के तीनों अंग- विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका रखे जाने थे। संघ में ब्रिटिश भारत के 11 प्रांत और समस्त देशी रियासतें शामिल होनी थीं। केन्द्रीय सरकार का अधिकार क्षेत्र रक्षा, वैदेशिक मामले और संचार तक सीमित होना था। शेष सभी विषय और अधिकार रियासतों के पास रहने थे। विधान निर्मात्री परिषद में रियासतों के प्रतिनिधियों की संख्या 93 से अधिक नहीं होनी थी जो बातचीत के द्वारा तय की जानी थी। साम्प्रदायिक प्रश्न उस सम्प्रदाय के सदस्यों द्वारा ही निर्धारित किया जाना था। शेष विषयों पर राज्यों का अधिकार होना था।
योजना में प्रांतों को 'ए’, 'बी’ और 'सी’ श्रेणियों में बांटने का प्रस्ताव था। पहली श्रेणी में हिन्दू बहुसंख्यक प्रांत- मद्रास, बम्बई, मध्यप्रांत व बरार, संयुक्त प्रांत, व बिहार थे। दूसरी श्रेणी में पंजाब, सिंध बलूचिस्तान और उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत थे जहाँ मुसलमानों का बहुमत था। तीसरी श्रेणी में बंगाल और असम थे जहाँ मुसलमानों का हल्का बहुमत था। ये तीनों ही संविभाग अपने समूह के लिये संविधान बनाने के अधिकारी थे। यह प्रावधान भी किया गया था कि ये प्रांत आपस में मिलकर गुट बना सकेंगे। इस योजना के तहत की गयी व्यवस्था की प्रत्येक 10 वर्षों के बाद समीक्षा करने का प्रावधान किया गया था।
राज्यों के सम्बन्ध में कैबीनेट मिशन ने कहा कि ब्रिटिश भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही, ब्रिटिश ताज और देशी राज्यों के विद्यमान सम्बन्ध समाप्त हो जायेंगे। ब्रिटिश सरकार न तो अपने हाथ में सर्वोच्च सत्ता रखेगी न ही उसे नई सरकार को हस्तांतरित करेगी। राज्यों को उनके अधिकार वापिस कर दिये जायेंगे। अतः देशी राज्यों को चाहिये कि वे अपने भविष्य की स्थिति उत्तराधिकारी भारतीय सरकार से बातचीत करके व्यवस्थित करें। अर्थात् रजवाड़े अपनी शर्तों पर भारतीय संघ में शामिल हो सकते थे या भारत से बाहर रह सकते थे। कैबीनेट मिशन का विचार था कि यदि एक सत्तात्मक भारत बना तो रजवाड़े शक्तिशाली तीसरी शक्ति बन जायेंगे। मिशन ने कहा कि शासकों ने भारत में होने वाले नवीन संवैधानिक परिवर्तनों के दौरान पूर्ण सहयोग देने का आश्वासन दिया है किंतु यह सहयोग नवीन संवैधानिक ढांचे के निर्माण के दौरान समझौता वार्ता से ही प्राप्त हो सकेगा तथा यह समस्त राज्यों के मामले में एक जैसा नहीं होगा। प्रारंभिक अवस्था में संविधान सभा में राज्यों का प्रतिनिधित्व वार्ता समिति द्वारा किया जायेगा। विचार-विमर्श के अंतिम चरण में राज्यों के वास्तविक प्रतिनिधि भाग लेंगे जिनकी संख्या 93 से अधिक नहीं होगी। राज्यों के प्रतिनिधियों के चयन की प्रक्रिया सम्बद्ध पक्षों के आपसी विचार-विमर्श से निश्चित की जायेगी। परमोच्च सत्ता की समाप्ति के बाद रियासतों को पूर्ण अधिकार होगा कि वे अपना भविष्य निश्चत करें परंतु उनसे यह आशा की जाती है कि वे संघीय सरकार के साथ कुछ समझौता अवश्य कर लेंगी।
17 मई 1946 को एक प्रेस वार्ता में लॉर्ड पैथिक लॉरेंस ने स्वीकार किया कि राज्यों के साथ महामना सम्राट की सरकार के सम्बन्ध, ब्रिटिश भारतीय प्रांतों के साथ सम्बन्धों से नितांत भिन्न थे। उन्होंने योजना के प्रस्तावों के बाहर जाने से इन्कार कर दिया। उन्होंने कहा कि राज्यों के प्रति सख्त रवैया अपनाने से न तो राज्यों की जनता का भला होगा और न ही ब्रिटिश प्रांतों की जनता का। उन्होंने कहा कि अंतरिम काल में राज्यों के साथ ब्रिटिश सम्बन्ध वैसे ही बने रहेंगे जैसे कि वे वर्तमान में हैं।
17 मई को नवाब भोपाल ने लॉर्ड वेवेल को एक पत्र लिखकर कुछ बिंदुओं पर स्पष्टीकरण मांगा कि रक्षा मामलों में, प्रस्तावित संघीय सरकार एवं संविधान के अधिकार का प्रावधान, राज्यों की अपनी सशस्त्र सेनाओं को तो प्रभावित नहीं करेगा? वित्त के मामले में भी संघ का अधिकार केवल उन्हीं राजस्व स्रोतों तक सीमित होना चाहिये जिन पर सहमति बनती है। किसी अन्य माध्यम से कर उगाहने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिये। संचार के सम्बन्ध में वर्तमान में राज्यों को प्राप्त अधिकारों का उल्लंघन नहीं होना चाहिये। संविधान सभा में राज्यों के प्रतिनिधित्व का तरीका राज्यों की सरकारों या समूहों के अधीन होना चाहये। संविधान सभा में सांप्रदायिकता का बड़ा प्रकरण, सभा में राज्यों के प्रतिनिधियों की बहुसंख्य उपस्थिति के दौरान मतदान से निर्धारित किया जाना चाहिये।
नवाब ने मिशन से आश्वासान मांगा कि सांप्रदायिकता के प्रश्न पर राज्य अपनी शर्तों पर एक अथवा एक से अधिक समूह बना सकेंगे। राज्यों को यह अधिकार होगा कि वे प्रत्येक 10 वर्ष के अंतराल पर संघीय संविधान के पुनरीक्षण के लिये कह सकेंगे। संविधान सभा को यह अधिकार नहीं होना चाहिये कि वह राज्यों में सरकार के प्रकार अथवा शासक वंश के सम्बन्ध में किसी तरह का विचार विमर्श करे या उसके ऊपर अपनी कोई अभिशंसा दे। संविधान सभा में राज्यों के सम्बन्ध में लिया गया निर्णय या अभिशंसा को लागू करने से पूर्व उसकी अभिपुष्टि की जानी आवश्यक होगी।
29 मई को लॉर्ड वेवेल ने एक पत्र भोपाल नवाब को भिजवाया जिसमें उन्होंने कहा कि नवाब द्वारा उठायी गयी अधिकतर बातें संविधान सभा में राज्यों और ब्रिटिश भारत के सदस्यों के मध्य होने वाले विचार-विमर्श के मुद्दे हैं। नवाब का यह तर्क काफी वजन रखता है कि संविधान सभा में प्रतिनिधि का चुनाव केवल शासकों के विवेकाधीन होना चाहिये किंतु मिशन का उद्देश्य ब्रिटिश भारत और रियासती भारत के मध्य स्वतंत्र सहलग्नता को बढ़ावा देने का है। नवाब को वेवेल का पत्र निराश करने वाला प्रतीत हुआ। उन्होंने 2 जून 1946 को फिर से वायसराय को पत्र लिखा- राज्यों को यह अधिकार है कि वे इस बात की मांग करें कि ब्रिटिश ताज राज्यों को ब्रिटिश भारत की दया पर न छोड़ दे, कम से कम राज्यों को संविधान सभा या संघीय संविधान में खराब स्थिति में तो न छोड़ें। नवाब विशेषतः इस मुद्दे पर परेशान थे कि कम से कम संघीय संविधान सभा में राज्यों को प्रभावित करने वाले मुद्दों को सांप्रदायिक मुद्दों के समकक्ष रखा जाये तथा संविधान सभा में राज्यों के प्रतिनिधि का चुनाव पूर्णतः राज्यों पर छोड़ा जाये।
नवाब ने विश्वास व्यक्त किया कि सम्राट की सरकार की यह इच्छा तो कभी नहीं रही होगी कि राज्यों को उनकी वैधानिक एवं उचित मांगों तथा प्रभुसत्ता पूर्ण निकायों के रूप में उनके स्थापित और स्वीकृत अधिकारों को संरक्षित करने के लिये ताज की तरफ से कोई प्रयास किये बिना लावारिस बालक की भांति छोड़ दिया जाये। उन्होंने वायसराय से अपील की कि अपने उन मित्रों के विरुद्ध पक्ष न बनें जिन मित्रों ने अच्छे और बुरे समय में आपका साथ निभाया है तथा जो अपने शब्दों एवं आश्वासनों के प्रति वफादार रहे हैं। 4 जून 1946 को वायसराय ने नवाब के पत्र का जवाब दिया तथा शासकों की ओर से प्रकट की गयी उनकी चिंता की प्रशंसा की तथा लिखा कि नवाब राजनीतिक सलाहकार कोरफील्ड से इस पृष्ठभूमि पर किये गये विचार विमर्श के उपरांत दूसरा दृष्टिकोण अपना सकते थे। ये बातें बम्बई में होने वाली स्थायी समिति की बैठक में रखनी चाहिये।