जब ब्रिटेन ने अंतिम रूप से भारत छोड़ने का निर्णय लिया तथा सत्ता हस्तांतरण की तिथि निश्चित की तो आश्चर्यजनक रूप से न तो व्हाइट हॉल ने और न ही भारतीय राजाओं ने संधियों का उल्लेख किया जबकि अब तक राजा इन संधियों की दुहाई देकर ही भारत की आजादी का मार्ग अवरुद्ध करते आये थे।
जिस समय माउंटबेटन को भारत का वायसराय बनाकर भेजा गया उस समय इंगलैण्ड के सम्राट जार्ज षष्ठम् ने माउंटबेटन से कहा कि मुझे हिंदुस्तानी रजवाड़ों की स्थिति के बारे में चिंता है क्योंकि उनका ब्रिटेन से सीधा संधि मूलक सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध हिंदुस्तान की आजादी के साथ समाप्त हो जायेगा। आजादी के बाद जो देश बनेंगे उनसे जब तक रजवाड़े अपना सम्बन्ध न जोड़ लें, वे अपने आप को खतरनाक स्थिति में पायेंगे। इसलिये माउंटबेटन, राजाओं को होनी पर संतोष करने के लिये समझायें ओर जो नई सरकार या सरकारें बनें, उनसे किसी न किसी तरह का समझौता कर लेने की सलाह दें।
माउंटबेटन ने सम्राट के कथन का अर्थ लगाया कि रजवाड़ों को दोनों में से किसी न किसी देश के साथ मिल जाना चाहिये। वास्तव में उस समय राजा जार्ज षष्ठम् की क्या मंशा थी, यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं था। क्या राजा के मन में कोई योजना थी? क्या वह यह चाहता था कि भारतीय रजवाड़े नयी सरकारों से मिल जायें ? या सिर्फ फेडरल संबंध ही रखें? कुछ भी स्पष्ट नहीं था।
24 मार्च 1947 को माउंटबेटन ने भारत में वायसराय का कार्यभार संभाला। प्रधानमंत्री एटली ने वायसराय को एक पत्र लिखकर ब्रिटिश सरकार की नीति का खुलासा किया। इसमें कहा कहा गया कि- महामना सम्राट की सरकार का यह निश्चित उद्देश्य है कि भारत में ब्रिटिश कॉमनवेल्थ के दायरे में विधानसभा की सहायता से एक सरकार, केबीनेट मिशन की योजना के आधार पर बने और काम करे। अपनी पूरी ताकत लगाकर आपको सभी दलों को इस लक्ष्य की ओर ले जाना चाहिये। चूंकि यह योजना प्रमुख दलों की सहमति से ही बन सकती है इसलिये किसी दल को मजबूर करने का सवाल ही नहीं उठता। अगर 1 अक्टूबर तक आप समझते हों कि हिंदुस्तानी रजवाड़ों की सहायता के साथ या उसके बिना ब्रिटिश भारत में सरकार बनाने की कोई संभावना नहीं है तो आपको इसकी खबर सरकार को देनी चाहिये और सलाह भेजनी चाहिये कि किस तरह निश्चित तिथि को सत्ता हस्तांतरित की जा सकती है।
इस पत्र में यह भी लिखा गया था कि यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि भारतीय रियासतें ब्रिटिश भारत में बनने वाली नयी सरकार से अपने सम्बन्धों का समायोजन करें लेकिन सम्राट की सरकार की मंशा यह कतई नहीं है कि परमसत्ता के अधीनस्थ शक्तियों एवं दायित्वों का स्थानांतरण नयी उत्तराधिकारी सरकार को कर दिया जाये। यह मंशा नहीं है कि सत्ता के स्थानांतरण से पूर्व की परमसत्ता को एक निर्णायक पद्धति के तौर पर लिया जाये अपितु आवश्यकता पड़ने पर वायसराय अपनी समझ के अनुसार प्रत्येक रियासत के साथ अलग से ब्रिटिश क्राउन के सम्बन्धों के समायोजन पर वार्ता कर सकते हैं। वायसराय देशी रियासतों की सहायता करेंगे ताकि रियासतें ब्रिटिश भारत के नेताओं के साथ भविष्य के लिये वाजिब एवं न्यायपूर्ण सम्बन्ध बना सकें। अंतरिम सरकार के साथ आपको किस तरह के सम्बन्ध बनाने हैं, इस सम्बन्ध में लार्ड वेवेल द्वारा 30 मई 1946 को कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष को लिखा गया पत्र आपका निर्देशन करेगा। सम्राट की सरकार भारत की अंतरिम सरकार को वह दर्जा नहीं देगी जो औपनिवेशिक सरकार को होंगे फिर भी अंतरिम सरकार के साथ वही व्यवहार किया जायेगा जो एक औपनिवेशिक सरकार के साथ किया जाना चाहिये ताकि अंतरिम सरकार अपने आप को भविष्य के लिये तैयार कर सके।
इस प्रकार माउंटबेटन का कार्य भारत में लगभग 200 वर्ष पुराने ब्रिटिश शासन का समापन करना था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये माउंटबेटन को इतनी शक्तियां दी गयीं जितनी कि तब तक भारत के किसी भी वायसराय को नहीं दी गयीं थीं।
जिस समय माउण्टबेटन ने वायसराय का कार्यभार संभाला, उस समय भारत विचित्र स्थिति में फंसा हुआ था। देश की जनसंख्या लगभग पैंतीस करोड़ थी जिसमें से 10 करोड़ मुस्लिम मतानुयायी एवं 25 करोड़ हिन्दू व अन्य मतों के अनुयायी थे। कांग्रेस, देश की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी थी जिसे विश्वास था कि वह 100 प्रतिशत हिन्दू, सिख एवं अन्य मतों के अनुयायियों का तथा 90 प्रतिशत मुस्लिम मतानुयायियों को नेतृत्व करती है और मुस्लिम लीग को देश के लगभग 10 प्रतिशत मुस्लिम मतानुयायियों का समर्थन प्राप्त है। जबकि मुस्लिम लीग मानती थी कि उसे देश के 90 प्रतिशत मुस्लिम मतानुयायियों का समर्थन प्राप्त है।
एक ओर मुस्लिम लीग पाकिस्तान की मांग को लेकर देश में खून की होली खेल रही थी तो दूसरी ओर कांग्रेसी नेता अलग मुस्लिम राष्ट्र की मांग को मानने के लिये तैयार नहीं थे। गांधीजी अपने साथियों को यह समझा रहे थे कि जिन्ना को पाकिस्तान तब तक नहीं मिलेगा, जब तक कि अंग्रेज पाकिस्तान बनाकर उसे दे न दें और अंग्रेज ऐसा तब तक नहीं करेंगे जब तक कि कांग्रेस का बहुमत इसके विरोध में खड़ा है। कांग्रेस चाहे तो इसे रोक सकती है। अंग्रेजों से कह दो कि वे चले जाएं। जो जैसा है उसे वैसा ही छोड़ कर चले जायें। उनके पीछे जो भी होगा, हम देख लेंगे, भुगत लेंगे। अगर देश में आग लगती है तो लग जाने दो। देश इस आग में तप कर कुंदन की तरह निखर कर सामने आयेगा, देश को अखण्ड रहने दो। पता नहीं गांधी किस आग में तप कर देश के कुंदन बनने की बात कर रहे थे। कांग्रेस को उनकी बातें समझ में आनी बंद हो गयी थीं। अब वे कांग्रेस के लिये एक दिगभ्रमित नेता था। एक ओर कांग्रेस का यह हाल था जबकि दूसरी ओर मुस्लिम लीग की स्पष्ट मांग थी कि अंग्रेज पहले देश का बंटवारा करें तब देश छोड़ें।
गांधीजी की मान्यता के ठीक उलट, अंग्रेजों की मान्यता थी कि जब तक हिंदुस्तान हिंदू मुस्लिम झगड़े में उलझा है तब तक हिंदुस्तान को आजादी नहीं दी जा सकती। अंग्रेजों का मानना था कि अगर अंग्रेज अपनी ओर से पाकिस्तान की मांग मान लें तो कांग्रेस पूरी ताकत से इसके विरुद्ध संघर्ष करेगी और यदि पाकिस्तान की मांग को नहीं माना गया तो मुसलमान बगावत करेंगे और गृहयुद्ध होगा।
इस प्रकार 1947 के आते-आते भारत की आजादी की लड़ाई केवल कांग्रेस और अंग्रेजों के बीच न रहकर कांग्रेस और मुस्लिम लीग तथा कांग्रेस और अंग्रेजों के दोहरे मोर्चे में बदल गयी थी। सुभाष चंद्र बोस और उनकी आजाद हिन्द फौज इतिहास के नेपथ्य में जा चुके थे तथा भारतीय राजा अब भारत की आजादी का मार्ग रोकने के लायक नहीं रह गये थे।
कांग्रेस अंग्रेजों पर आरोप लगा रही थी कि भारत के अंग्रेज जानबूझ कर मुस्लिम लीग की मदद कर रहे हैं ताकि झगड़ा बना रहे और उनका राज भी। दूसरी ओर मुस्लिम लीग ने देश की नैया मंझधार में ला खड़ी की थी। सांप्रदायिकता का ज्वार इस नैया को बेरहमी से थपेड़े मार रहा था।