एक तरफ तो बंगाल से अंग्रेज शक्ति उत्तरी भारत को दबाती हुई चली आ रही थी तथा दूसरी ओर पिण्डारी और मराठे उत्तरी भारत को रौंदने में लगे हुए थे। यह भारतीय इतिहास के मध्यकाल का अवसान था किंतु अफगानिस्तान की ओर से विगत कई शताब्दियों से आ रही मुस्लिम आक्रमणों की आंधी अभी थमी नहीं थी। ई.1757 में अफगान सरदार अदमदशाह दुर्रानी ने भारत पर चौथा आक्रमण किया। वह इतिहास में अहमदशाह अब्दाली के नाम से जाना जाता है। उसने सुन रखा था कि भारत में दो ही धनाढ्य व्यक्ति हैं- एक तो नवाब शुजाउद्दौला तथा दूसरा भरतपुर का राजा सूरजमल।
अतः वह भरतपुर के खजाने को लूटने के लिये बड़ा व्याकुल था। अहमदशाह अब्दाली ने बल्लभगढ़, कुम्हेर, डीग, भरतपुर तथा मथुरा पर आक्रमण कर दिया। उसने अपने सैनिकों को आज्ञा दी कि मथुरा में एक भी आदमी जीवित न रहे तथा जो मुसलमान किसी विधर्मी का सिर काटकर लाये उसे पाँच रुपया प्रति सिर के हिसाब से ईनाम दिया जाये। अहमदशाह की घुड़सवार सेना ने अर्ध रात्रि में बल्लभगढ़ पर आक्रमण किया गया। प्रातःकाल होने पर लोगों ने देखा कि प्रत्येक घुड़सवार एक घोड़े पर चढ़ा हुआ था। उसने उस घोड़े की पूंछ के साथ दस से बीस घोड़ों की पूंछों को बांध रखा था। सभी घोड़ों पर लूट का सामान लदा हुआ था तथा बल्लभगढ़ से पकड़े गये स्त्री-पुरुष बंधे हुए थे। प्रत्येक आदमी के सिर पर कटे हुए सिरों की गठरियां रखी हुई थीं। वजीरे आजम अहमदशाह के सामने कटे हुए सिरों की मीनार बनायी गयी। जो लोग इन सिरों को अपने सिरों पर रख कर लाये थे, उनसे पहले तो चक्की पिसवाई गयी तथा उसके बाद उनके भी सिर काटकर मीनार में चिन दिये गये।
इसके बाद अहमदशाह अब्दाली मथुरा में घुसा। उस दिन होली के त्यौहार को बीते हुए दो ही दिन हुए थे। अहमदशाह ने माताओं की छाती से दूध पीते बच्चों को छीनकर मार डाला। हिन्दू सन्यासियों के गले काटकर उनके साथ गौओं के कटे हुए गले बांध दिये गये। मथुरा के प्रत्येक स्त्री-पुरुष को नंगा किया गया। जो पुरुष मुसलमान निकले उन्हें छोड़ दिया गया, शेष को मार दिया गया। जो औरतें मुसलमान थीं उनकी इज्जत लूट कर उन्हें जीवित छोड़ दिया गया तथा हिन्दू औरतों को इज्जत लूटकर मार दिया गया। मथुरा और वंृदावन में इतना रक्त बहा कि वह यमुना का पानी लाल हो गया। अब्दाली के आदमियों को वही पानी पीना पड़ा। इससे फौज में हैजा फैल गया और सौ-डेढ़ सौ आदमी प्रतिदिन मरने लगे। अनाज की कमी के कारण सेना घोड़ों का मांस खाने लगी। इससे घोड़ों की कमी हो गयी। बचे हुए सैनिक विद्रोह पर उतारू हो गये। इस कारण अहमदशाह को भरतपुर लूटे बिना ही अफगानिस्तान लौट जाना पड़ा।
राजा सूरजमल अब्दाली की विशाल सेना के विरुद्ध कुछ नहीं कर सका। चार साल बाद अब्दाली वापस भारत आया। इस बार मराठों और जाटों ने मिलकर उसका सामना करने की योजना बनायी। उन्होंने अब्दाली का मार्ग रोकने के लिये आगे बढ़कर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। दिल्ली हाथ में आते ही मराठे तोतों की तरह आंख बदलने लगे। राजा सूरजमल के लाख मना करने पर भी मराठों ने लाल किले के दीवाने खास की छतों से चांदी के पतरे उतार लिये और नौ लाख रुपयों के सिक्के ढलवा लिये। सूरजमल स्वयं दिल्ली का शासक बनना चाहता था इसलिये उसे यह बात बुरी लगी और उसने मराठों का विरोध किया।
सूरजमल चाहता था कि दिल्ली के बादशाह आलमगीर द्वितीय को मार डाला जाये किंतु आलमगीर मराठा नेता कुशाभाऊ ठाकरे को अपना धर्मपिता कहकर उसके पांव पकड़ लेता था। सूरजमल आलमगीर से इसलिये नाराज था क्योंकि इस बार अब्दाली को भारत आने का निमंत्रण आलमगीर ने ही भेजा था ताकि सूरजमल को कुचला जा सके।
कुशाभाऊ का आलमगीर के प्रति अनुराग देखकर सूरजमल नाराज होकर दिल्ली से भरतपुर लौट आया। इसके बाद पानीपत के मैदान में इतिहास प्रसिद्ध पानीपत की पहली लड़ाई हुई। इस युद्ध में अब्दाली ने 1 लाख मराठों को काट डाला। कुशाभाऊ ठाकरे मारा गया। बचे हुए मराठा सैनिक प्राण लेकर भरतपुर की तरफ भागे। किसानों ने भागते हुए सैनिकों के हथियार, सम्पत्ति और वस्त्र छीन लिये। भूखे और नंगे मराठा सैनिक सूरजमल के राज्य में प्रविष्ठ हुए। सूरजमल ने उनकी रक्षा के लिये अपनी सेना भेजी। उन्हें भोजन, वस्त्र और शरण प्रदान की। महारानी किशोरी देवी ने देश की जनता का आह्वान किया कि वे भागते हुए मराठा सैनिकों को न लूटें। मराठा सैनिकों को मेरे बच्चे जानकर उनकी रक्षा करें। महारानी किशोरी देवी ने मराठा शरणार्थियों के लिये भरतपुर में अपना भण्डार खोल दिया। उसने सात दिन तक चालीस हजार मराठों को भोजन करवाया। ब्राह्मणों को दूध, पेड़े और मिठाइयां दीं। राजा सूरजमल ने प्रत्येक मराठा सैनिक को एक-एक रुपया, एक वस्त्र और एक सेर अन्न देकर अपनी सेना के संरक्षण में मराठों की सीमा में ग्वालिअर भेज दिया।
अहमदशाह अब्दाली ने 1757 से 1761 के बीच महाराजा सूरजमल से कई बार रुपयों की मांग की। अपने राज्य की रक्षा के लिये महाराजा ने अब्दाली को कभी दो करोड़़, कभी 65 लाख, कभी 6 लाख तथा अन्य बड़ी-बड़ी राशि देने के वचन दिये किंतु उसे कभी फूटी कौड़ी नहीं दी। 1761 में अब्दाली अड़ गया कि इस बार तो वह कुछ लेकर ही मानेगा। महाराजा ने कहा कि उसे 6 लाख रुपये दिये जायेंगे किंतु अभी हमारे पास केवल 1 लाख रुपये ही हैं। अब्दाली केवल एक लाख रुपये ही लेकर चलता बना। उसके बाद महाराजा ने उसे कभी कुछ नहीं दिया।
एक दिन अफगान सैनिकों को महाराजा सूरजमल के आगमन की सूचना मिली। वे हिण्डन नदी के कटाव में छिप कर बैठ गये। जब महाराजा वहाँ से होकर निकला तो अफगानियों ने अचानक हमला बोल दिया। सैयद मोहम्मद खां बलूच ने महाराजा के पेट में अपना खंजर दो-तीन बार मारा और एक सैनिक ने महाराजा की दांयी भुजा काट दी। भुजा के गिरते ही महाराजा धराशायी हो गया। उसी समय उसके शरीर के टुकड़े टुकड़े कर दिये गये। एक मुस्लिम सैनिक महाराजा की कटी हुई भुजा को अपने भाले की नोक में पताका की भांति उठाकर नजीबुद्दौला के पास ले गया। इस प्रकार 25 दिसम्बर 1763 को हिन्दूकुल गौरव महाराजा सूरजमल का दर्दनाक अंत हो गया।
महाराजा की मृत्यु के बाद मराठों ने आमलगीर द्वितीय के साथ मिलकर भरतपुर राज्य समाप्त करने की योजना बनायी। 1784 में शाह आलम द्वितीय की ओर से सिंधिया ने भरतपुर राज्य पर आक्रमण करके राज्य का बहुत बड़ा क्षेत्र दबा लिया। इसर पर राजमाता किशोरी देवी ने मराठों से गुहार की कि वे जाट राज्य समाप्त न करें। इस पर सिंधिया ने भरतपुर का सारा क्षेत्र जाटों को लौटा दिया। जाट मराठों को चौथ के रूप में दो लाख रुपया प्रतिवर्ष देने लगे। ई.1803 में अंग्रेजों ने भरतपुर राज्य के पास प्रस्ताव भिजवाया कि यदि जाट अंग्रेजों से संधि कर लें तो अंग्रेज मराठों के हाथों से जाटों के राज्य की रक्षा करेंगे। इसके बदले में वे जाटों से कोई राशि भी नहीं लेंगे।
इस प्रकार ई.1803 में जनरल लेक और भरतपुर के राजा रणजीतसिंह के बीच संधि हो गयी। अंग्रेजों ने मराठों से छीने हुए जाट क्षेत्र रणजीतसिंह को लौटा दिये। यह संधि अधिक दिनों तक नहीं टिक सकी। अंग्रेज सिपाही जाटों के राज्य में गाय मार कर खाने लगे। इस पर रणजीतसिंह ने अंगेजों को भरतपुर राज्य से बाहर जाने के लिये कह दिया।