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  • अजमेर का इतिहास - 9

     03.06.2020
    अजमेर का इतिहास - 9

    अजमेर के चौहान शासक (6)


    विग्रहराज चतुर्थ (वीसलदेव)

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    कुमारपाल के हाथों अर्णोराज की पराजय के बाद ई.1150 अथवा ई.1151 में राजकुमार जगदेव ने अपने पिता अर्णोराज की हत्या कर दी और स्वयं अजमेर की गद्दी पर बैठ गया किन्तु शीघ्र ही ई.1152 में उसे उसके छोटे भ्राता विग्रहराज (चतुर्थ) द्वारा हटा दिया गया। विग्रहराज (चतुर्थ) को बीसलदेव अथवा वीसलदेव के नाम से भी जाना जाता है। वह ई.1152 से ई.1163 तक अजमेर का राजा रहा। उसका शासन न केवल अजमेर के इतिहास के लिये अपितु सम्पूर्ण भारत के इतिहास के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

    वीसलदेव ने ई.1155 से 1163 के बीच तोमरों से दिल्ली तथा हॉंसी छीन लिए। (नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग-1, पृ. 405 पाद टिप्पणी 43 के अनुसार वीसलदेव ने ई.1150 के आसपास तंवर अनंगपाल से दिल्ली छीनी। इसी अनंगपाल ने दिल्ली में विष्णुपाद पहाड़ी पर लोहे का लाट लगावाया था जिस पर आज तक जंग नहीं लगा। यह लाट विष्णु की ध्वजा के रूप में स्थापित करवाया था। इसे कीली भी कहते हैं तथा यह कुतुब मीनार के पास महरौली गांव में स्थित है। पृथ्वीराज रासो ने इसी अनंगपाल की पुत्री कमला का विवाह अजमेर के चौहान राजा सोमेश्वर के साथ होना तथा उसी से पृथ्वीराज चौहान का उत्पन्न होना बताया है किंतु यह मनगढ़ंत है। पृथ्वीराज की माता चेदि देश की राजकुमारी कर्पूर देवी थी न कि तंवर राजकुमारी कमला।)

    वीसलदेव ने चौलुक्यों और उनके अधीन परमार राजाओं से भारी युद्ध किये तथा उन्हें पराजित कर उनसे नाडोल, पाली और जालोर नगर एवं आसपास के क्षेत्र छीन लिए। उसने जालोर के परमार सामन्त को दण्ड देने के लिए जालोर नगर को जलाकर राख कर दिया। चौलुक्य कुमारपाल को परास्त करके उसने अपने पिता की पराजय का बदला लिया।

    मुसलमानों से भी बीसलदेव ने अनेक युद्ध लड़े। वीसलदेव के समय वव्वेरा (यह जयपुर रियासत के शेखावाटी क्षेत्र का बबेरा गांव होना चाहिये जिसके खण्डहर दूर-दूर तक फैले हुए हैं।) तक मुसलमानों की सेना पहुँच गई। वीसलदेव उस सेना को परास्त कर मुसलमानों को आर्यावर्त्त से बाहर निकालने के लिये उत्तर की तरफ बढ़ा दिल्ली से अशोक का एक स्तंभ लेख मिला है जिस पर वीसलदेव के समय में एक और शिलालेख उत्कीर्ण किया गया। यह शिलालेख 9 अप्रेल 1163 का है तथा इसे शिवालिक स्तंभ लेख कहते हैं। इस शिलालेख के अनुसार वीसलदेव ने देश से मुसलमानों का सफाया कर दिया तथा अपने उत्तराधिकारियों को निर्देश दिया कि वे मुसलमानों को अटक नदी के उस पार तक सीमित रखें।

    वीसलदेव के राज्य की सीमायें शिवालिक पहाड़ी, सहारनपुर तथा उत्तर प्रदेश तक प्रसारित थीं। शिलालेखों के अनुसार जयपुर और उदयपुर जिले के कुछ भाग उसके राज्य के अंतर्गत थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि अपनी शक्ति और बल से विग्रहराज ने म्लेच्छों का दमन कर आर्यावर्त्त को वास्तव में आर्य भूमि बना दिया था। जिस मुस्लिम शासक हम्मीर को परास्त करने का उल्लेख ललितविग्रह नाटक में किया गया है, वह गजनी का अमीर खुशरूशाह था।

    शिवालिक लेख के अनुसार वीसलदेव के राज्य की सीमायें हिमालय से लेकर विंध्याचल पर्वत तक थीं। इस पूरे क्षेत्र से उसने मुस्लिम गवर्नरों को परास्त करके अटक के उस पार तक मार भगाया था। प्रबन्ध कोष उसे तुरुष्कों का विजेता बताता है। इस काल में दिल्ली केवल ठिकाणा बन कर रह गई जिसकी राजधानी अजमेर थी। वह भारत का प्रथम चौहान सम्राट था और उसका भतीजा पृथ्वीराज चौहान भारत का अंतिम चौहान सम्राट था। उसकी विशाल सेना में एक हजार हाथी, एक सौ हजार घुड़सवार तथा उससे भी अधिक संख्या में पैदल सिपाही थे।

    विग्रहराज (चतुर्थ) साहित्य प्रेमी राजा था और साहित्यकारों का आश्रयदाता भी। उसके समय के लोग उसे कविबांधव कहते थे। वह स्वयं हरकेलि नाटक का रचयिता था। उसके दरबारी कवि सोमदेव ने ललित विग्रहराज नामक सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक नाटक की रचना की।

    अजमेर में उसने धार की ही तरह का एक संस्कृत विद्यालय एवं सरस्वती मंदिर बनवाया जो अब अढ़ाई दिन का झौंपड़ा के नाम से अवशेष रूप में रह गया है। इस विद्यालय परिसर से 75 पंक्तियों का एक विस्तृत शिलालेख प्राप्त हुआ है जो इस बात की घोषणा करता है कि इस विद्यालय का निर्माण वीसलदेव ने करवाया था। सरस्वती कण्ठाभरण मंदिर परिसर से विग्रहराज द्वारा संस्कृत में लिखित हरकेलि नाटक के छः चौके मिले हैं जो 22 नवम्बर 1153 की तिथि के हैं। राजपूताना संग्रहालय में रखा उसका शिलालेख घोषणा करता है कि चौहान शासक सूर्यवंशी क्षत्रिय हैं। उसने अपने नाम पर अजमेर में वीसलसर झील बनवाई जिसके बीच उसके रहने के प्रासाद और उसके चारों ओर अनेक मंदिर बनवाये। उसने वीसलपुर नामक कस्बे की स्थापना की तथा कई दुर्गों का निर्माण करवाया। धर्मघोष सूरी के कहने पर उसने एकादशी के दिन पशुवध पर प्रतिबन्ध लगाया।

    विग्रहराज के समय में चौहान राज्य की चहुंमुखी प्रगति हुई। हिमालय से लेकर नर्मदा तक उसका नाम बड़े आदर से लिया जाता था। डॉ. दशरथ शर्मा ने उसके बारे में लिखा है कि उसकी महत्ता निर्विवाद है क्योंकि वह सेनाध्यक्ष के साथ-साथ विजेता, साहित्य का संरक्षक, अच्छा कवि और सूझ-बूझ वाला निर्माता था। पृथ्वीराज विजय का लेखक कहता है कि जब विग्रहराज की मृत्यु हो गई तो कविबांधव की उपाधि निरर्थक हो गई क्योंकि इस उपाधि को धारण करने की क्षमता किसी में नहीं रह गई थी। कीलहॉर्न ने भी उसकी विद्वता को स्वीकार करते हुए लिखा है कि वह उन हिन्दू शासकों में से था जो कालिदास और भवभूति की होड़ कर सकते थे। विग्रहराज का समय सपादलक्ष का सुवर्ण काल था।

    वीसलदेव के कार्यकाल में ई.1154 में प्रसिद्ध जैन आचार्य जिनदत्त सूरि की अजमेर में मृत्यु हुई। दादाबाड़ी में उसका स्मारक बना हुआ है। इस जैनाचार्य ने अहिंसा के सिद्धांत का प्रचार किया तथा क्षत्रियों को तलवार छोड़कर वैश्य धर्म अपनाने के लिये प्रेरित किया। यह एक आश्चर्य की ही बात है कि जिन दिनों में अजमेर पर मुस्लिम आक्रांताओं के प्रबल आक्रमण हो रहे थे, उन दिनों में यह जैन आचार्य क्षत्रियों को शस्त्र के स्थान पर शास्त्र अपनाने का उपदेश दे रहा था।

    ई.1157 में गूजरों ने पुष्कर झील तथा उसके किनारों पर बने हुए मंदिरों पर अधिकार कर लिया तथा वहाँ से ब्राह्मणों को मार भगाया। इस पर उसी वर्ष दीपावली के दिन संन्यासियों ने पुष्कर पर अधिकार जमाये बैठे गूजरों पर आक्रमण किया तथा उन्हें पुष्कर से निकाल दिया और मुख्य मंदिरों में अपने प्रतिनिधि नियुक्त किये।

    दो वीसलदेवों में उलझा इतिहास

    जिस प्रकार दो शासकों के नाम अजयदेव, अजयपाल अथवा अजयराज होने से अजमेर का इतिहास उलझ गया है, उसी प्रकार दो वीसलदेवों के नामों से भी अजमेर का इतिहास उलझा हुआ है। विग्रहराज (तृतीय) एवं विग्रहराज (चतुर्थ) दोनों को इतिहासकारों ने वीसलदेव कहा है। दोनों के काल की कुछ घटनायें बिल्कुल एक जैसी बताई गई हैं। इससे संशय होता है कि दोनों के इतिहास परस्पर उलझ गये हैं।

    अमरगंगेय

    ई.1163 में विग्रहराज (चतुर्थ) की मृत्यु के बाद उसका अवयस्क पुत्र अमरगंगेय अथवा अपरगंगेय अजमेर की गद्दी पर बैठा। वह मात्र 5-6 वर्ष ही शासन कर सका और चचेरे भाई पृथ्वीराज (द्वितीय) द्वारा हटा दिया गया। पृथ्वीराज (द्वितीय), जगदेव का पुत्र था। उसके समय का ई.1167 का एक अभिलेख हांसी से मिला है जिसमें कहा गया है कि चौहान शासक चंद्रवंशी हैं।

    पृथ्वीराज (द्वितीय)

    मेवाड़ के जहाजपुर परगने के धौड़ गांव के रूठी रानी के मंदिर से ई.1168 (ज्येष्ठ वदि 13, वि.सं.1224) का एक शिलालेख मिला है जिसमें कहा गया है कि पृथ्वीभट्ट (पृथ्वीराज द्वितीय) ने अपनी भुजाओं के बल से शाकम्भरी नरेश पर विजय प्राप्त की। इस शिलालेख का आशय यह है कि जिस राज्य को विग्रहराज (चतुर्थ) ने, पृथ्वीराज (द्वितीय) के पिता जगदेव से छीन लिया था, उस राज्य को जगदेव के पुत्र पृथ्वीराज (द्वितीय) ने अपनी भुजाओं के बल से पुनः प्राप्त कर लिया। इस शिलालेख में पृथ्वीभट्ट (पृथ्वीराज द्वितीय) की रानी का नाम सुहावदेवी बताया गया है।

    पृथ्वीराज (द्वितीय) उपकार कार्यों के लिये जाना गया। उसने राजा वास्तुपाल को हराया, मुसलमानों को पराजित किया तथा उसने हांसी के दुर्ग में एक महल बनवाया। (इस महल को ई.1801 में मॉन्स पैरॉन ने अपनी तोपों से नष्ट किया। हांसी दुर्ग में जॉर्ज थॉमस एक राज्य की स्थापना करना चाहता था।) पृथ्वीराज ने मुसलमानों को अपने राज्य से दूर रखने के लिये अपने मामा गुहिल किल्हण को हांसी का अधिकारी नियुक्त किया। उसका राज्य अजमेर और शाकम्भरी के साथ-साथ थोड़े (जहाजपुर के निकट), मेनाल (चित्तौड़ के निकट) तथा हांसी (पंजाब में) तक विस्तृत था। ई.1169 में पृथ्वीराज (द्वितीय) की निःसंतान अवस्था में ही मृत्यु हो गई।

    सोमेश्वर

    सोमेश्वर, चौलुक्य राजा सिद्धराज जयसिंह की पुत्री कंचनदेवी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। उसका बचपन गुजरात में सिद्धराज जयसिंह तथा कुमारपाल के दरबार में बीता था। अपने ननिहाल में रहने के दौरान ही उसने चौलुक्यराज कुमारपाल के शत्रु कोंकण नरेश मल्लिकार्जुन का युद्ध में सिर काटकर ख्याति प्राप्त कर ली थी। कोंकण विजय के समय ही सोमेश्वर ने कलचुरी की राजकुमारी कर्पूरदेवी से विवाह किया। कर्पूरदेवी का पिता अचलराज चेदि देश (जबलपुर के आसपास ) का राजा था जिससे उसे दो पुत्र- पृथ्वीराज तथा हरिराज हुए।

    ई.1169 में पृथ्वीराज (द्वितीय) के निःसंतान मरने पर, उसके पितामह अर्णोराज का अब एक पुत्र सोमेश्वर ही जीवित बचा था। अतः अजमेर के सामंतों द्वारा सोमेश्वर को अजमेर का शासक बनने के लिये आमंत्रित किया गया। सोमेश्वर अपनी रानी कर्पूरदेवी तथा दो पुत्रों पृथ्वीराज एवं हरिराज के साथ अजमेर आया। उसके साथ नागरवंशी, स्कंद, बामन तथा सोढ़ नामक व्यक्ति भी अजमेर आये। ये गुजरात के सम्मानित व्यक्ति अथवा उच्चाधिकारी रहे होंगे।

    सोमेश्वर प्रतापी राजा हुआ। उसके राज्य में बीजोलिया, रेवासा, थोड़, अणवाक आदि भाग सम्मिलित थे। सोमेश्वर के समय का एक लेख बिजौलिया में मिला है जिसे बिजौलिया अभिलेख कहते हैं। यह लेख 5 फरवरी 1170 का है। इसमें चौहान शासकों की वंशावली दी गयी है। उसके समय की एक छतरी अजमेर में मिली है। यह छतरी राजकीर्ति जैनाचार्य की है। इस पर एक अभिलेख उत्कीर्ण है जिसमें वि.सं. 1228 (ई.1171) की तिथि अंकित है।

    सोमेश्वर ने भी अपने पूर्वजों की भांति नगर, मंदिर और प्रासादों के निर्माण में रुचि ली। उसने अपने पिता अर्णोराज की मूर्ति बनवाकर तथा अपनी स्वयं की मूर्ति बनवाकर उत्तरी भारत में मूर्ति निर्माण कला को बढ़ावा दिया। उसके समय के सिक्के अजमेर की समृद्धि की कहानी कहते हैं। शैव धर्मावलम्बी होते हुए भी उसने जैन धर्म के प्रति सहिष्णुतापूर्ण नीति का अवलम्बन किया। उसने वैद्यनाथ का विशाल मंदिर बनवाया जो वीसलदेव के महलों से भी ऊँचा था। इस मंदिर में उसने ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश की मूर्तियाँ स्थापित करवाईं तथा अपने पिता की अश्वारूढ़ प्रतिमा बनवाकर लगवाईं। उसने अजमेर में पांच मंदिर बनवाये जो ऊँचाई में, पहाड़ों से प्रतिस्पर्धा करते थे। इन मंदिरों को वह पांच कल्पवृक्ष कहता था। उसने अजमेर से 9 मील दूर गौगनक (गंगवाना) तथा अन्य स्थानों पर कई मंदिर बनवाये। बिजौलिया अभिलेख के अनुसार उसका राशि नाम प्रताप लंकेश्वर था। वह शक्तिशाली राजा था, उसने अपने समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त की। उसके समय में फिर से चौलुक्य-चौहान संघर्ष छिड़ गया जिससे उसे हानि उठानी पड़ी। ई.1179 में सोमेश्वर की मृत्यु हो गई।

    पृथ्वीराज रासो के अनुसार सोमेश्वर के भाई कानराई ने अजमेर के भरे दरबार में एक गलतफहमी के कारण अन्हिलवाड़ा के राजा प्रतापसिंह सोलंकी की हत्या कर दी। इस पर अन्हिलवाड़ा के सोलंकी शासक भोला भीम (ई.1179-1242) ने अपने पिता प्रतापसिंह सोलंकी की हत्या का बदला लेने के लिये अजमेर पर आक्रमण किया। भोला भीम के आक्रमण में सोमेश्वर मारा गया। रासमाला कानराई के हाथों प्रतापसिंह की मृत्यु की घटना का उल्लेख तो करती है किंतु यह भी कहती है कि भोला भीम ने अजमेर पर आक्रमण का निश्चय त्याग दिया क्योंकि उस समय एक मुस्लिम आक्रांता अन्हिलवाड़ा के विरुद्ध अभियान पर था। पृथ्वीराज रासो के अनुसार पृथ्वीराज ने अपने पिता सोमेश्वर की हत्या का बदला लेने के लिये गुजरात पर आक्रमण किया तथा भोला भीम को मार डाला। पृथ्वीराज विजय में न तो भोला भीम के अजमेर अभियान का उल्लेख है और न ही पृथ्वीराज द्वारा भोला भीम पर आक्रमण करने का उल्लेख है।

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