पृथ्वीराज विजय हम्मीर महाकाव्य तथा हम्मीर रासो आदि ग्रंथों के अनुसार चौहान सूर्यवंशी क्षत्रिय थे। विग्रहराज चतुर्थ (ई.1152-1163) के समय के एक शिलालेख में भी चौहानों को सूर्यवंशी क्षत्रिय बताया है। यह शिलालेख राजपूताना म्यूजियम अजमेर में उपलब्ध है। ई.1167 का हांसी अभिलेख तथा माउण्ट आबू का ई.1320 का अचलेश्वर मंदिर अभिलेख चौहानों को चंद्रवंशी क्षत्रिय बताते हैं। पृथ्वीराज रासो ने चौहानों को अग्निकुल का बताया है। एक अन्य मत के अनुसार चौहानों का सम्बन्ध मोरिय शासकों से है। डॉ. ओझा के अनुसार ये सूर्यवंशी क्षत्रिय थे और गोत्रोच्चार में इन्हें चंद्रवंशीय क्षत्रिय माना जाता है। डॉ. दशरथ शर्मा चाहमानों की उत्पत्ति ब्राह्मण वंश से मानते हैं। चाहमानों का प्राचीन रायपाल का सेवाड़ी अभिलेख चाहमानों को इंद्र का वंशज बताता है।
भाटों और चारणों ने चाहमानों को अग्निवंशीय माना है। उनका मूल आधार पृथ्वीराज रासो में दिया गया एक कथानक है जिसके अनुसार जब ऋषियों ने आबू में यज्ञ करना आरंभ किया तो राक्षसों ने यज्ञ में मल-मूत्र, हड्डियां आदि अपवित्र वस्तुएं डालकर उसे अपवित्र करने की चेष्टा की। वसिष्ठ ऋषि ने यज्ञ की रक्षा के लिये मंत्र सिद्धि से चार पुरुष उत्पन्न किये जो प्रतिहार, परमार, चौलुक्य तथा चौहान कहलाये। मूथा नैणसी तथा सूर्यमल्ल मिश्रण ने भी इसी कथानक को प्रमुखता दी है। इस कारण परवर्ती ख्यातकारों ने चाहमानों को अग्निवंशीय माना। आधुनिक काल के इतिहासकारों के अनुसार चौहान सूर्यवंशी अथवा चंद्रवंशी हो सकते हैं किंतु अग्निकुल का होने की बात गलत है।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार ये सूर्यवंशी भी नहीं हो सकते क्योंकि ऐसा तभी हो सकता है जब ये इक्ष्वाकुवंशी हों जबकि किसी भी सा्रेत से इनका इक्ष्वाकुवंशी होना सिद्ध नहीं होता है। इसलिये ये सूर्यवंशी नहीं हैं किंतु प्रतापी होने के कारण इन्हें सूर्यवंशी कहा जाने लगा। कर्नल टॉड ने इन्हें विदेशी माना है तथा अपने कथन के समर्थन में कहा है कि चाहमानों के रस्म और रिवाज मध्य एशियाई जाति के रस्म और रिवाज जैसे हैं। डॉ. स्मिथ तथा क्रुक ने भी इसी मत को स्वीकार किया है किंतु ओझा इस मत को स्वीकार नहीं करते।
क्या चौहान मालवों की ही एक शाखा हैं ?
अजमेर के सरस्वती कण्ठाभरण मंदिर परिसर से विग्रहराज चतुर्थ के समय का एक शिलालेख मिला है जो अब राजपूताना म्यूजियम में सुरक्षित है। इस शिलालेख में चौहानों के आदि पुरुष चाहमान की स्तुति इन शब्दों में की गई है- 'सूर्य देव आपकी रक्षा करें......उससे (सूर्य से) मालवों (के वंश में) एवं अपने मार्ग से स्खलित मनुष्यों के लिये दण्ड विधान की व्यवस्था करने वाला उत्पन्न हुआ। वह देव वंश से उत्पन्न अन्य राजाओं के द्वारा अनुगमन किये जाने वाला था। वह घ्रुण कीट की तरह छिद्रान्वेषी नहीं था। वह सूर्य वंश के अरण्य में कदम्ब शाख पर उत्पन्न हुआ था। सबको आश्चर्य में डालने वाला यह कुश का वंश, याचकों के लिये फलप्रद था। उसकी प्रजा आधि-व्याधि, दुश्चरित्र, दुर्गति से मुक्त थी। उसके राजा इक्ष्वाकु रामादि की तरह सप्त भुजाओं वाली पृथ्वी का पालन करने वाले हुए। उसी वंश में दुश्मनों पर विजय प्राप्त कर राजाओं से अनुरंजन प्राप्त करने वाला चाहमान उत्पन्न हुआ।'
इस शिलालेख में चौहानों के मूल पुरुष एवं वंश के बारे में तीन मुख्य बातें कही गई हैं- (1.) चौहानों का आदि पुरुष मालव वंश में उत्पन्न हुआ था। (2.) चौहानों का आदि पुरुष सूर्य वंश के इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न हुआ था। (3.) चौहानों का आदि पुरुष भगवान राम के छोटे पुत्र कुश के वंश में उत्पन्न हुआ था। (4.) चौहानों का आदि पुरुष चाहमान था।
इस शिलालेख में चौहान शासकों के मूल पुरुष का मालव वंश की ओर संकेत करना अत्यंत महत्वपूर्ण जान पड़ता है। क्योंकि मालव जाति ने प्रथम शताब्दी ईस्वी के अंत तक वर्तमान अजमेर जिले की सीमा पर वर्तमान जयपुर तथा टोंक नगरों के आसपास अपना स्वतंत्र गणराज्य स्थापित किया था। अतः पर्याप्त संभव है कि पांच सौ वर्षों में मालव नागौर, सांभर तथा अजमेर आदि क्षेत्रों में विस्तृत हो गये हों। यह भी पर्याप्त संभव है कि मालवों में से ही चाहमान नाम का कोई राजा या राजकुमार हुआ हो और उसके वंशजों से चौहानों की अलग शाखा चली हो।
सातवीं शताब्दी में अजमेर
अजमेर के इतिहास का पहला चरण
सातवीं शताब्दी में अजमेर की स्थापना के साथ ही अजमेर के इतिहास का प्रथम चरण आरंभ होता है जो ई.1196 में कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा दिल्ली सल्तनत की स्थापना के साथ समाप्त होता है। इस पूरी अवधि में अजमेर शाकम्भरी राज्य की राजधानी रहा तथा अजमेर के चौहान शासक मुसलमान आक्रांताओं को दिल्ली एवं अजमेर से से बाहर रखने के लिये संघर्ष करते रहे। यह पूरी शताब्दी अजमेर के चौहान शासकों के स्वर्ण काल की गाथा कहती है।
अजयपाल
ई.683 के आसपास अजयपाल अजमेर का राजा हुआ। उसने अजमेर नगर की स्थापना की। अपने अंतिम वर्षों में वह अपना राज्य अपने पुत्र को देकर पहाड़ियों में जाकर तपस्या करने लगा। हर बिलास शारदा के अनुसार अजयपाल अपनी वृद्धावस्था में फॉय सागर से चार मील दक्षिण में अजयपाल घाटी में जाकर रहा। अजमेर में अजयपाल की पूजा अजयपाल बाबा के नाम से होती है। भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष में छठी तिथि अजयपाल बाबा की तिथि मानी जाती है। इस दिन यहाँ पर एक मेला भरता है जिसमें अजमेर नगर के लोग उस स्थान पर जाकर श्रद्धांजलि देते हैं जहाँ राजा अजयपाल के अंतिम दिन व्यतीत हुए थे। लोगों का विश्वास है कि अजयपाल बाबा, अजमेर के भाग्य के स्वामी हैं तथा बीमारियों, सर्पों एवं जानवरों से लोगों की रक्षा करते हैं।
विग्रहराज (प्रथम) से गोविंदराज (प्रथम)
अजयपाल के बाद उसका पुत्र विग्रहराज (प्रथम) अजमेर का शासक हुआ। विग्रहराज (प्रथम) के बाद विग्रहराज (प्रथम) का पुत्र चंद्रराज (प्रथम), चंद्रराज (प्रथम) के बाद विग्रहराज (प्रथम) का दूसरा पुत्र गोपेन्द्रराज अजमेर का राजा हुआ। इसे गोविंदराज (प्रथम) भी कहते हैं। यह मुसलमानों से लड़ने वाला पहला चौहान राजा था। उसने मुसलमानों की सेनाओं को परास्त करके उनके सेनापति सुल्तान बेग वारिस को बंदी बना लिया।