1 नवम्बर 1858 को ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया ने एक घोषणा की जिसे भारत के प्रत्येक शहर में पढ़कर सुनाया गया। इस घोषणा में ब्रिटिश सरकार ने उन मुख्य सिद्धान्तों का विवरण दिया जिनके आधार पर भारत का भविष्य का शासन निर्भर करता था। घोषणा में कहा गया कि भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा प्रशासित क्षेत्रों का शासन अब प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटेन के राजमुकुट द्वारा किया जायेगा। कम्पनी के सभी असैनिक और सैनिक पदाधिकारियों को ब्रिटेन के राजमुकुट की सेवा में ले लिया गया तथा उनके सम्बन्ध में बने हुए सभी नियमों को स्वीकार कर लिया गया।
भारतीय नरेशों के साथ कम्पनी द्वारा की गयी समस्त संधियों और समझौतों को ब्रिटिश क्राउन द्वारा यथावत् स्वीकार कर लिया गया। यह आश्वासन भी दिया गया कि ब्रिटिश क्राउन अब भारत में राज्य विस्तार की आकांक्षा नहीं करता और भारतीय नरेशों के अधिकारों, गौरव एवं सम्मान का उतना ही आदर करेगा जितना वह स्वयं का करता है। महारानी ने अपनी भारतीय प्रजा को आश्वासन दिया कि उनके धार्मिक विश्वासों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जायेगा। भारतीयों को जाति या धर्म के भेदभाव के बिना उनकी योग्यता, शिक्षा, निष्ठा और क्षमता के आधार पर सरकारी पदों पर नियुक्त किये जाने हेतु समान अवसर प्रदान किया जायेगा। रानी की सरकार सार्वजनिक भलाई, लाभ और उन्नति के प्रयत्न करेगी तथा शासन इस प्रकार चलायेगी जिससे उसकी समस्त प्रजा का हित साधन हो।
शासन में चतुराई का समावेश
महारानी विक्टोरिया की घोषणा का मूल लक्ष्य भारत में स्थापित ब्रिटिश साम्राज्य को सुरक्षा प्रदान करना था। इस उद्देश्य को लेकर भारतीय नरेशों के सम्मान और अधिकारों की सुरक्षा का आश्वासन दिया गया। महारानी की घोषणा में योग्यतानुसार पद की प्राप्ति का आश्वासन भारतीय शिक्षित वर्ग का समर्थन प्राप्त करने के लिए दिया गया था किंतु इस आश्वासन की पूर्ति ब्रिटिश सरकार ने कभी नहीं की।
भारतीयों को उनके धर्म, परम्पराओं आदि में हस्तक्षेप न करने का आश्वासन भारतीय जन साधारण को संतुष्ट करने के लिए दिया गया था क्योंकि इस प्रकार के हस्तक्षेप को विद्रोह के कारणों में से प्रमुख कारण समझा गया था जबकि इस घोषणा के पश्चात् ब्रिटिश सरकार ने भारत में धर्मान्धता, अंधविश्वास, जातीयता, क्षेत्रीयता आदि को खूब बढ़ावा दिया जिससे कि भारतीय आपस में बंटे रहें और प्रगतिशील विचारों के सम्पर्क में न आयें। नयी व्यवस्था के तहत गवर्नर जनरल को ब्रिटिश भारत में गवर्नर जनरल कहा गया किंतु देशी राज्यों से सम्बन्ध स्थापित करते समय उसे वायसराय कहा गया। 12 जुलाई 1859 को अजमेर का डिप्टी कमिश्नर मेजर लॉयड, अवकाश से लौट आया।
यातायात एवं संचार साधनों का विकास
ई.1857 की घटना के बाद अंग्रेज सरकार सतर्क हो गई। उसे यातायात एवं संचार के तीव्र साधनों की आवश्यकता अनुभव हुई। ई.1960 में सरकार ने सड़कों के विकास की तरफ ध्यान दिया। उसने ई.1860 के पश्चात् यातायात के ऐसे मार्गों के निर्माण पर जोर दिया जो अजमेर को राजस्थान की सीमा पर स्थित अंग्रेजी प्रांतों यथा गुजरात, मध्यभारत तथा उत्तर पश्चिमी प्रदेश से जोड़ सकें। इन सड़कों के निर्माण के लिये अंग्रेज सरकार ने मार्ग में पड़ने वाले देशी राज्यों को 50 प्रतिशत तक खर्च उपलब्ध करवाना आरंभ किया। जयपुर, जोधपुर, उदयपुर तथा भरतपुर रियासतों ने इस कार्य में अच्छी रुचि दिखाई।
ई.1862 में अजमेर में 548 पुलिस कर्मियों की एक स्थायी टुकड़ी तैनात की गयी। ई.1863 में मैगजीन में शस्त्र रखने बंद कर दिये गये तथा वहाँ पर तहसील कार्यालय स्थापित किया गया। ई.1864 में पुरातत्त्व विभाग के महानिदेशक जनरल कनिंघम ने अजमेर स्थित अढ़ाई दिन का झौंपड़ा की यात्रा की। जून 1864 में अजमेर-आगरा को टेलीग्राफ सेवाओं से जोड़ा गया। सितम्बर 1864 में टेलिग्राफ लाइनों को डीसा तक बढ़ाया गया। ई.1864 में डिप्टी कमिश्नर के पद पर मेजर लॉयड के स्थान पर मेजर डेविडसन की नियुक्ति की गई। ई.1865 से अंग्रेजी सरकार ने राजस्थान के राज्यों के राजनीतिक प्रशासन पर एक वार्षिक प्रतिवेदन तैयार करने की शुरुआत की ताकि प्रत्येक राज्य में प्रशासनिक गति का अनुमान लगाया जा सके। इस प्रतिवेदन की समीक्षा का काम एजीजी को दिया गया।
ई.1868 में दिल्ली-अहमदाबाद रेलमार्ग का निर्माण करना निश्चित हुआ। रेल निर्माण के लिये नीमच तथा नसीराबाद को कम महत्त्व दिया गया और उनके स्थान पर अजमेर और सांभर पर अधिक ध्यान दिया गया। ई.1868 में अंग्रेज सरकार ने विभिन्न राज्यों में चल रही टकसालों को बंद करने की गूढ़ नीति अपनाई। एजीजी को निर्देश दिये गये कि स्थानीय टकसालें केवल राजदरबार के नियंत्रण में ही प्रचलित रहनी चाहिये जिससे किसी भी राज्य में नकली सिक्के न गढ़े जा सकें। इसका सीधा परिणाम यह निकला कि विभिन्न राज्यों में राजधानी को छोड़कर शेष टकसालें बंद हो गईं।
ई.1868 में वन महानिरीक्षक सर डी. ब्राण्डिस ने अजमेर की यात्रा की तथा अजमेर के वनों की एक रिपोर्ट तैयार की। अप्रेल 1868 में कैप्टन रैप्टन अजमेर का डिप्टी कमिश्नर बना। उसके कार्यकाल में ई.1868 से 1870 के बीच अजमेर में भयानक दुर्भिक्ष पड़ा जो 19 माह तक चला। इस दुर्भिक्ष में अजमेर-मेरवाड़ा की 25 प्रतिशत जनसंख्या कम हो गई। इसे पचीसिया काल कहा जाता है। ई.1868 में अजमेर मेरवाड़ा का टॉपोग्राफिकल सर्वेक्षण आरंभ किया गया। यह सर्वेक्षण ई.1875 में पूरा हुआ। इस सर्वेक्षण के अनुसार अजमेर जिले का क्षेत्रफल 2069.816 वर्गमील था तथा मेरवाड़ा जिले का क्षेत्रफल 640.864 वर्गमील था। 17 फरवरी 1868 को ए.जी.जी राजपूताना जनरल कीटिंग द्वारा राजकीय महाविद्यालय भवन की नींव रखी गयी। ई.1869 में अजमेर नगर में म्युनिसपलिटी की स्थापना की गई। इसमें 22 सदस्य थे। इसके प्रथम अध्यक्ष मेजर डेविडसन थे।
एजीजी कर्नल जे. सी. ब्रुक
15 जून 1870 को कर्नल ब्रुक अजमेर का चीफ कमिश्नर एवं राजपूताने का एजेण्ट टू गवर्नर जनरल बना। उन दिनों गवर्नर जनरल के एजेण्टों का ठाठ देखने लायक होता था। उनके साथ उनके दो-तीन यूरोपियन सेक्रेटरी, हैडक्लर्क, पलटन का गारद, रिसाले का गारद, चपरासी, जमादार और राजपूताने की अधिकार प्राप्त अठारहों रियासतों के वकील ठाठ से रहते थे। किसी के पास हाथी, किसी के पास पालकी, चोबदार, चरवेदार (पानी पिलाने वाले) आदि होते थे।
जिस रियासत में जाते, हजारों रुपये का मटियामेट हो जाता। मानो बादशाह की फौज आ गई हो। जब किसी रियासत का जमींदार, रईस अथवा राजा, एजीजी से भेंट करने के बाद बाहर आता तो एजीजी के अर्दली, बेरा और रसोइया उससे इनाम लेने के लिये दरवाजा रोक लेते। उनकी मांग यह रहती थी कि पिछले साल जितना दिया, इस साल उससे कम नहीं लेंगे। (मुराद अली ने एजीजी को गलती से कमिश्नर लिखा है। रियासतों के वकील एजीजी के पास नियुक्त रहते थे, न कि कमिश्नर के पास।)
मुंशी हाजी खां की हत्या
भारत के गवर्नर जनरल लौरेंस की कृपा प्राप्त करके मुंशी हाजी मुहम्मद खां राजपूताना एजेंसी का मुख्य लिपिक नियुक्त हुआ। उसके लिये मुराद अली ने लिखा है- तमाम राजपूताना में उसकी तूती बोलती थी। पेशाब में चिराग जलता था। धड़ल्ले से हुकूमत करते थे। एडिन के कार्यकाल में रियासत टोंक और लावा का झगड़ा हुआ तो मुहम्मद खां पर तीन लाख रुपये रिश्वत लेने का आरोप सिद्ध हुआ। बीकानेर रियासत से भी रिश्वत लेना पाया गया। अतः उनसे जबरदस्ती त्यागपत्र लिखवाया गया।
इसके बाद मुहम्मदखां फिर लॉरेंस की सेवा में पहुँचा। इस बार लॉरेंस ने उसे मारवाड़ रियासत में प्रधानमंत्री लगवा दिया। जोधपुर नरेश तख्तसिंह ने मुहम्मदखां को नवाब की उपाधि दी। इसके बाद मुहम्मदखां पर चंवर ढुलने लगे। उसने मारवाड़ में भी जोर शोर से राज्य किया। मुहम्मदखां की सोलह बीवियां थीं। इनमें से कोई पंजाबन थी तो कोई कश्मीरन। वह हर शाम चार बजे इन बीवियों का दरबार आयोजित करता था। इस दरबार में उसकी 16 बीवियां सजधज कर नवाब के सामने कुर्सियों पर बैठती थीं। नवाब इन्हें देखकर यह तय करता था कि आज की रात किसके साथ रहना है।
ई.1870 में मुहम्मदखां लाव-लश्कर के साथ पुष्कर का मेला देखने आया। प्रातः काल के समय वह हाथी पर बैठकर सैर को निकला तो उसके दोनों तरफ चंवर ढुलते थे। चौबदार नकीब बोलते जाते थे। सवारों का रिसाला उनके चारों तरफ चलता था। सैर के बाद डेरे पहुँचकर खाना खाया और जैसे ही लेटे, किसी ने उस पर तलवार का भरपूर वार किया और पीछे का पर्दा उठाकर भाग निकला। मुहम्मदखां ने भी उसका पीछा किया किंतु आंतड़ियां बाहर आ जाने से वहीं गिर गया। काफी उपचार के बाद भी जीवित न बचा।
सुपरिण्टेण्डेट के बेईमान कर्मचारी
एक बार कर्नल ब्रुक धौलपुर गया। वहाँ के जमादार तथा अर्दली को रियासत की ओर से 200-200 रुपया दिया गया किंतु उन्होंने यह कहकर इनाम लेने से मना कर दिया कि पिछली बार इससे अधिक मिला था। इस पर पिछले साल का हिसाब देखा गया। उसमें 350 रुपये इनाम देना लिखा हुआ था। इस पर अर्दली तथा जमादार को 350 रुपये इनाम दिया गया। जो राजा, कमिश्नर साहब की दावत करता, उसे समस्त कर्मचारियों एवं वकीलों की आवभगत करनी पड़ती थी।
ई.1875 में जब रेल आ गई तो इस परम्परा में बदलाव आया। कमिश्नर अपने साथ एक सेक्रेटरी, एक डॉक्टर, एक अर्दली और उस रियासत के वकील को लेकर ट्रेन से ही रियासतों का दौरा करने लगा। रियासतों के समस्त काम वकीलों के माध्यम से फारसी में लिखी हुई चिट्ठियों के माध्यम से होते थे। बाद में अंग्रेजी चिट्ठियां लिखी जाने लगीं तो मीर मुंशी भी धरे रह गये।