ललित विग्रहराज तथा हरकेलि नाटक अजमेर से प्राप्त दो प्रमुख शिलालेख हैं जिनका परिचय इससे पूर्व के अध्याय में दिया गया है। अजमेर से और भी कई चौहानकालीन शिलालेख मिले हैं जिनमें से कुछ शिलालेखों का परिचय यहाँ दिया जा रहा है।
अज्ञात काव्य लेख
सरस्वती पाठशाला से प्राप्त चौहानों के किसी ऐतिहासिक काव्य (नाम नहीं दिया गया है) की पहली शिला भी अजमेर के राजपूताना संग्रहालय में प्रदर्शित है जिसमें विभिन्न देवताओं की वंदना के उपरान्त सूर्य की स्तुति की गई है जिससे चौहानों का उद्भव बताते हुए इस राजवंश के आदि पुरुष चाहमान से विग्रहराज चतुर्थ तक के चौहान नरेशों की गौरव गाथा शिलांकित है।
हर्ष शिलालेख
यह शिलालेख विग्रहराज (द्वितीय) के समय का है। इसके अंकन की तिथि वि.सं.1030 आषाढ़ सुदि 15 (ई.973) है। यह शिलालेख सीकर जिले में स्थित हर्षनाथ की पहाड़ी पर स्थित शिवमंदिर से प्राप्त हुआ है। हर्ष शिलालेख के अनुसार चौहानों की वंशावली इस प्रकार से है- 1. गूवक, 2. चंद्रराज, 3. गूवक (द्वितीय), 4. चंदन, 5. वाक्पतिराज, 6. सिंहराज, 7. विग्रहराज 7/1. दुर्लभराज 7/2. गोविंदराज।
शिवालिक स्तम्भ लेख
दिल्ली से अशोक का एक स्तंभ लेख मिला है जिस पर विग्रहराज चतुर्थ (वीसलदेव) के समय में एक और शिलालेख उत्कीर्ण किया गया है। यह शिलालेख 9 अप्रेल 1163 का है तथा इसे शिवालिक स्तंभ लेख कहते हैं। इस शिलालेख के अनुसार वीसलदेव ने देश से मुसलमानों का सफाया कर दिया तथा अपने उत्तराधिकारियों को निर्देश दिया कि वे मुसलमानों को अटक नदी के उस पार तक सीमित रखें।
सरस्वती कण्ठाभरण मंदिर शिलालेख
सरस्वती कण्ठाभरण मंदिर अजमेर परिसर से 75 पंक्तियों का एक विस्तृत शिलालेख प्राप्त हुआ है जो इस बात की घोषणा करता है कि इस मंदिर तथा विद्यालय का निर्माण विग्रहराज चतुर्थ (वीसलदेव) ने करवाया था।
धौड़ गांव का शिलालेख
मेवाड़ के जहाजपुर परगने के धौड़ गांव के रूठी रानी के मंदिर से ज्येष्ठ वदि 13, वि.सं.1224 (ई.1168) का एक शिलालेख मिला है जिसमें कहा गया है कि पृथ्वीभट्ट (पृथ्वीराज द्वितीय) ने अपनी भुजाओं के बल से शाकम्भरी नरेश पर विजय प्राप्त की। इस शिलालेख का आशय यह है कि जिस राज्य को विग्रहराज (चतुर्थ) ने, पृथ्वीराज (द्वितीय) के पिता जगदेव से छीन लिया था, उस राज्य को जगदेव के पुत्र पृथ्वीराज (द्वितीय) ने अपनी भुजाओं के बल से पुनः प्राप्त कर लिया। इस शिलालेख में पृथ्वीभट्ट (पृथ्वीराज द्वितीय) की रानी का नाम सुहावदेवी बताया गया है।
बिजौलिया के अभिलेख
मेवाड़ के बिजोलिया (प्राचीन विन्ध्यवल्ली) की चट्टानों पर सोमेश्वर के दो अभिलेख उत्कीर्ण हैं जिनकी तिथि वि.सं. 1226 (ई.1169) है। उसमें एक तो सोमेश्वर की वृहत् प्रशस्ति है जिसमें चाहमानों की वंशावली और इतिहास दिया गया है। इस महत्त्वपूर्ण प्रशस्ति के रचयिता माथुर संघ के जैन महामुनि गुणभद्र हैं जिन्हें कवियों के गले के आभूषण की संज्ञा दी गई है। इस अभिलेख के श्लोक संख्या 90 में स्थानीय पार्श्वनाथ मंदिर के निर्माता सूत्रधार हरसिंग, उनके पुत्र पाल्हण और पौत्र आहड़ का भी उल्लेख है। प्रशस्ति को खोदने का काम नानिग पुत्र गोविन्द तथा पाल्हण पुत्र देल्हण द्वारा सम्पन्न हुआ था। इस शिलालेख के अनुसार सांभर के चौहानों की वंशावली इस प्रकार से है- 1. सामंत, 2. जयराज, 3. विग्रहराज, 4. चंद्र, 5. गोपेन्द्र, 6. दुर्लभ, 7. गूवक 8. शशिनृप, 9. गूवक द्वितीय, 10. चंदन, 11. बप्पराज, 12. सिंहराज, 13. विग्रह, 13/1. दुर्लभ 13/2. गंदु 14. वाक्पति 15. वीर्यराम, 16. चामुण्डराय, 17. सिंहट, 18. दुशल, 18/1. विशल 19. पृथ्वीराज, 20. अजयदेव, 21. अर्णोराज, 22/1. विग्रहराज, 22/2. सोमेश्वर, 23. पृथ्वीराज द्वितीय।
शाकाम्भरी के चौहानों की वंशावलियां, शिलालेखों के साथ-साथ कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथों से भी प्राप्त हुई हैं। इनमें पृथ्वीराज विजय, प्रबंध कोश, हम्मीर महाकाव्य, सुर्जन चरित्र, वंश भास्कर आदि ग्रंथ प्रमुख हैं। इन समस्त ग्रंथों एवं शिलालेखों में वर्णित वंशावलियों में अंतर है। लल्लू भाई देसाई की चौहान कुल कल्पद्रुम, गौरी शंकर हीराचंद ओझा की सिरोही राज्य का इतिहास तथा दशरथ शर्मा की पुस्तक अर्ली चौहान डाइनेस्टीज में दी गई वंशावलियां इन्हीं प्राचीन ग्रंथों के आधार पर तैयार की गई हैं। डॉ. दशरथ शर्मा द्वारा प्रबंधकोश के आधार पर प्रस्तुत वंशावली इस प्रकार से दी गई है-
सोमेश्वर के लेखों की चट्टान के निकट स्थित एक चट्टान पर पोरवाड़ सेठ लोलिग (प्राग्वाट श्रेष्ठि लोलार्क) जो श्रीधर के पुत्र थे, ने सिद्धसूरि विरचित उत्तम शिखर पुराण नामक जैन दिगम्बर ग्रंथ वि.सं.1226 में चित्रसुत केसव द्वारा शिलांकित करवाया था। यह ग्रंथ अद्यावधि अप्रकाशित है। इस ग्रंथ में पांच सर्ग और 293 श्लोक है। अभिलेख के अंत का अंश इस प्रकार है- बति सिद्ध सूरि रचितै उत्त्म शिखर पुराणे पंचमः सर्गः। लिखायितं श्रेष्ठि श्रीधर पुत्र लालार्केन लिखितं श्री चिससुत केसवेनं।