अजमेर और शाकम्भरी के चौहान नरेशों का शिलांकित ग्रंथों के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। विग्रहराज चतुर्थ (1152-64) कवि बांधव तो था ही, साथ में स्वयं भी कवि था। उसने अजमेर में सरस्वती मंदिर नामक पाठशाला बनवाई। (कुतुबुद्दीन ऐबक तथा शम्सुद्दीन अल्तमश के समय में इसे मस्जिद का रूप दिया गया। अब इसे ढाई दिन का झौंपड़ा कहते हैं।) इस पाठशाला में दो महत्त्वपूर्ण संस्कृत नाटक 'हरकेलि नाटक' तथा 'ललित विग्रहराज' काले रंग के कई शिलाखण्डों पर उत्कीर्ण करवाकर लगवाये गये थे जिनमें से चार शिलांकित फलक ई.1875-76 में खोजे जाकर अजमेर के राजपूतना संग्रहालय में सुरक्षित रखे गये थे।
ये शिलालेख ऐसे स्थान से प्राप्त हुए हैं जो भवन निर्माण एवं शिल्पकला की दृष्टि से प्रशंसनीय है। साथ ही लेख लिपियुक्त होने से भवन निर्माण के काल निर्णय में भी सहायता करते हैं, जो कि ई.1153 के आसपास होनी चाहिये। प्रस्तरों पर नाटकों का उत्कीर्णन तथा इस प्रकार के भवन में उसकी स्थापना, भवन के संस्कृत पाठशाला के रूप में उपयोग होना भी सिद्ध करता है। इसका भोज की धारा स्थित पाठशाला से अनुकरण करना भी यही इंगित करता है। नाटकों के ये अंश, संस्कृत साहित्य तथा इतिहास के विविध पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं। चूंकि इन नाटकों के शेष अंश अन्यत्र कहीं प्राप्त नहीं हुए हैं, अतः अनुमान लगाया जाता है कि वे संभवतः अजमेर स्थित इसी पाठशाला के आसपास दबे हुए हैं। संस्कृत साहित्य के इतिहास में डॉ. कृष्णामाचारी ने सम्पूर्ण नाटक के अभाव में ललित विग्रहराज तथा हरकेलि नाटकों का उल्लेख मात्र किया है। सुभाषितावली में विग्रहाराजदेव का एक छन्द भी समुद्धृत किया गया है।
ललित विग्रहराज
काले पत्थर की शिलाओं पर देवनागरी में उत्कीर्ण संस्कृत एवं प्राकृत में लिखे गये 4 फलकों में से 2 फलकों पर ललित विग्रहराज नामक नाटक उत्कीर्ण है जो चाहमान राजा विग्रहराज चतुर्थ के सम्मान में राजकवि सोमदेव द्वारा विरचित है। प्रथम फलक में 37 पंक्तियां हैं। 1 से 18 तथा 21 से 32 तक की पंक्तियां पर्याप्त सुरक्षित एवं पठनीय अवस्था में हैं। प्रथम पंक्तियां कुछ अस्पष्ट हैं। 33 से 36 तक की पंक्तियों में से कुछ अक्षर छूटे हुए होने के कारण वाक्य अपूर्ण हैं।
इस नाटक में कवि ने विग्रहराज और इंद्रपुरी के वसंतपाल की राजकुमारी देसलदेवी की प्रेमकथा को लिपिबद्ध किया है। इसी प्रसंग में विग्रहराज और गजनी के तुरुष्क हम्मीर (संभवतः अमीर खुसरो शाह (ई.1153-60) का संस्कृत रूप।) के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होने का संकेत दिया है। यह नाटक त्रुटित रूप में दो शिलाफलकों पर उत्कीर्ण मिला है। पहले फलक पर प्रथम अंक का अंतिम अंश तथा द्वितीय अंक का प्रारंभिक भाग अंकित है जबकि दूसरे फलक पर तीसरे अंक का अंतिम अंश तथा चतुर्थ अंश का अधिकांश भाग उत्कीर्ण है।
प्रस्तरांकित अंश का आरम्भ शशिप्रभा तथा राजा के वार्तालाप से होता है। डॉ. कीलहॉर्न का कथन है कि इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि राजा, वसंतपाल की पुत्री देसलदेवी के प्रेम में आसक्त था। (वसंतपाल नामक कोई राजा 12वीं शती में नहीं देखा जाता है। नाम से अनुमान लगाया जाता है कि यह दिल्ली के तोमरों में से कोई राजा रहा होगा।) लेख की 20वीं पंक्ति से विदित होता है कि यह राजकुमारी उत्तर में इन्द्रपुर अथवा उसके आसपास की रहने वाली थी। दो प्रेमियों को स्वप्न में पृथक होते देखकर नायिका अपनी विश्वासपात्र सखी शशिप्रभा को राजा के विचार जानने के लिये भेजती है।
शशिप्रभा अपनी सखी के प्रेम की सीमा से अवगत होकर, उसके अभीष्ट को अभिव्यक्त करने हेतु जाना चाहती है। राजा शशिप्रभा से पृथक न होने की इच्छा प्रकट करता है और उसके स्थान पर कल्याणवती को राजकुमारी के पास भेजने को कहता है। इस प्रकार राजा ने कल्याणवती द्वारा प्रेम संदेश में नायिका को सूचित किया कि निकट भविष्य में होने वाली तुरुष्क राजाओं के विरुद्ध अभियान में राजकुमारी को उसमें सम्मिलित होने का निमंत्रण है। शशिप्रभा का राजा के साथ सुख पूर्वक आवास करने का यथावश्यक प्रबंध करने के पश्चात् राजा अपने मध्याह्न कालीन कार्यक्रमों के लिये चला जाता है। यहीं तृतीय अंक समाप्त हो जाता है।
चतुर्थ अंक का आरम्भ होने पर दो तुरुष्क कारावासी सम्मुख आते हैं जो शाही आवास की खोज करते-करते, शाकम्भरी में या उसके आसपास विग्रहराज का शिविर लगे होने की सूचना देते हैं। इसी ऊहापोह में सौभाग्य से वे तुरुष्क राजा द्वारा भेजे गये षड़यन्त्रकारी से मिलते हैं। वह बताता है कि कैसे उसने भिक्षुक वेश में राजा के दर्शन के लिये आये जन समुदाय के साथ, राजा के शिविर में प्रवेश किया। वह यह भी सूचित करता है कि चाहमान विग्रहराज की सेना में एक सहस्र हाथी, एक लक्ष घोड़े तथा दस लाख पदाति हैं। इतनी बड़ी सेना निश्चय ही एक बार समुद्र का जल भी सुखा दे। राजा के आवास को बताकर वह चला जाता है। तदनन्तर दोनों बंदी शाही आवास तक पहुँचकर राजा से मिलते हैं जो अपनी प्रिया के विषय में सोच रहे थे। वे काव्यगत छंदों में राजा को कुछ निवेदन करते हैं। बन्दी, राजा से पर्याप्त पुरस्कार पाते हैं। ये छन्द प्रस्तर बहुत खराब हो गये हैं।
विग्रहराज अपने द्वारा हम्मीर के शिविर में भेजे गये षड़यन्त्रकारी दूत के अभी तक वापिस लौटकर न आने से चिंतित होते हैं किंतु उसी समय दूत वापिस आ जाता है और अपने स्वामी को शत्रु की सेना तथा गतिविधि के विषय में जो कुछ जान सका, उसे व्यक्त करता है कि हम्मीर की सेना में अगणित हाथी, रथ, तुरंग और पैदल सेना है और उसका शिविर भी सर्वथा सुरक्षित है। पिछले दिन तो यह सेना वव्वेरण, जिस स्थान पर विग्रहराज था, उससे तीन योजन दूर थी किंतु आज केवल एक योजन दूर है। यह भी ज्ञात हुआ है कि हम्मीर सेना की पूरी तैयारी कर अपने दूत को युद्ध के आह्वान के लिये राजा विग्रहराज के पास भेजने वाला है।
षड़यन्त्रकारी के चले जाने पर विग्रहराज अपने भाई राजा सिंहबल को बुलाता है। उसे परिस्थिति से परिचित कराकर, उससे तथा प्रधान अमात्य श्रीधर से, आगे क्या करना चाहिये, इसकी सम्मति मांगता है। चतुर मंत्री, शक्तिशाली शत्रु से युद्ध न करने की मंत्रणा देता है किंतु राजा विग्रहराज, अपने मित्र राजा की रक्षा एवं सहायता करने के कर्त्तव्य की दृष्टि से शांति पूर्वक संधि नहीं करने को कहता है। विग्रहराज का भाई सिंहबल विग्रहराज की इच्छानुसार कार्य करने को उत्साहित करता है। इस मंत्रणा के समय ही हम्मीर के संदेशवाहक के आने का समाचार मिलता है। संदेशवाहक के अंदर आने पर वह राजा की कांति तथा शक्ति चिह्नों को देखकर चकित हो जाता है। वह जिस कार्य के लिये यहाँ भेजा गया था, उसे करने में असमर्थ सा अनुभव करने लगता है। यहीं लेख समाप्त हो जाता है।
लेख के अंशों से ऐसा विदित होता है कि विग्रहराज तथा हम्मीर वर्तमान परिस्थिति में आपस में नहीं लड़े और राजा विलास में लीन रहा किंतु दिल्ली सिवालिक लेख के अनुसार वीसलदेव विग्रहराज ने यथार्थ में मुसलमानों से युद्ध किया था और अंततः उन्हें परास्त कर भारत से बाहर भगा दिया था। अतः निश्चित ही युद्ध हुआ था जिसका आगे के उन फलकों पर उल्लेख होना चाहिये जो कि अभी तक प्राप्त नहीं हो सके हैं। यह नाटक, तत्कालीन युद्ध प्रणालियों में कुशल षड़यन्त्र, दूत एवं संदेश वाहकों का होना तथा अपरिमित सैन्य शक्ति रखना आदि की ओर संकेत करता है। गूढ़ मंत्रणा तथा मंत्री की सम्मति को दर्शाकर कुशल मंत्री परषिद की ओर संकेत किया गया है।
विग्रहराज केवल एक महान राजा ही नहीं, अपितु एक उद्भट विद्वान तथा प्रतिभावान कवि भी था। लेख के अध्ययन से साहित्य शास्त्र की गरिमा का बोध होता है। अपने राज्य प्रशासन में वह शिक्षा एवं ज्ञान को प्रश्रय देने वाला था। वह सदैव मुस्लिम आक्रमणकारियों से त्रस्त रहता था। उस पर भी काव्य तथा कवियों तथा सोमदेव आदि को सम्मान देना उसकी योग्यता को प्रकट करता है। नाटकों में प्रयुक्त पात्रों के अनुसार प्राकृत बोली तथा संस्कृत भाषा का प्रयोग करने से उस समय की शिक्षा पर प्रकाश पड़ता है। नाटक की भाषा ललित तथा अर्थ गौरव से ओतप्रोत है। पद्य सरस, अलंकार एवं छंदों का सुंदर सन्निवेश इसकी विशेषता है। इस नाटक के माध्यम से इस उद्भट विद्वान को संस्कृत साहित्य में सम्मानित स्थान प्राप्त है। यह नाटक परिशीलन संस्कृत तथा प्राकृत साहित्य के ऐतिहासिक महत्त्व पर पूर्ण प्रकाश डालता है।
हरकेलि
तृतीय तथा चतुर्थ शिलाखण्डों पर 'हरकेलि' नामक नाटक का कुछ अंश उत्कीर्ण है। हरकेलि नाटक के रचयिता स्वयं शाकंभरी नरेश महाराजाधिराज परमेश्वर विग्रहराज देव थे। तृतीय शिला पर द्वितीय और तृतीय अंकों के कुछ भाग अंकित हैं और चतुर्थ शिला पर क्रौंचविजय नामक पांचवे अंक का उत्तरार्द्ध उत्कीर्ण है। छठी शताब्दी के महाकवि भारवि कृत किरातार्जुनीयम् की परम्परा में लिखे गये इस नाटक के पंचम अंक क्रौंचविजय में अर्जुन की तपस्या तथा शिव के साथ हुए विग्रह का वर्णन है।
शिलाखण्ड की 32, 35, 37 तथा 40वीं पंक्ति से हरकेलि नाटक का शाकंभरी के महाराजाधिराज परमेश्वर विग्रहराज द्वारा रचे जाने का स्पष्ट भान हो जाता है। नाटक की तिथि संवत् 1210 मार्ग सुदि 5 आदित्य दिने सर्वण नक्षत्रे मकरस्थे चंद्र हर्षणयोगे वालाव कर्णे हरकेलिनाटकम् तदनुसार रविवार 22 नवम्बर 1153 है।
यह नाटक शिव पार्वती संवाद तथा विदूषक-प्रतिहार वार्ता से आरंभ होता है जैसा कि खण्डित भाग से ज्ञात होता है, रावण द्वारा शिव की उपासना की गई है। शिव तथा उनके गण, शबर अर्थात् जंगलों में घूमने वालों के रूप में सम्मुख आते हैं। कुछ लोगों को मनोहर सुगंधि युक्त यज्ञ करते हुए देखकर शिव अपने गण मूक को इसका कारण जानने के लिये भेजते हैं। मूक लौटकर बताता है कि अर्जुन एक यज्ञ कर रहा है। शिव अपने गण को अर्जुन के पास किरात का रूप धारण करके जाने का आदेश देते हैं तथा शिव के वहाँ आने तक प्रतीक्षा करने को कहते हैं। मूक अर्जुन के पास जाता है। शिव अपनी दिव्य दृष्टि से देखते हैं कि मूक और अर्जुन परस्पर लड़ रहे हैं। शिव किरात रूप धारण करके अपने गण की सहायता करने जाते हैं। अर्जुन तथा शिव के बीच भयंकर युद्ध होता है।
प्रतिहार इस युद्ध के समाचार माता गौरी को सुनाता है। शिव द्वारा अपने प्रतिद्वंद्वी अर्जुन की शक्ति का लोहा मानने के साथ ही युद्ध समाप्त होता है। तदनन्तर शिव और गौरी, अर्जुन के सन्मुख वास्तविक स्वरूप में प्रकट होते हैं। अर्जुन, शिव को अनजाने में कष्ट व हानि पहुँचाने के लिये क्षमा याचना करता है तथा शिव को परमेश्वर एवं जगन्नियंता कहकर उनकी स्तुति करता है। अर्जुन की शक्ति से प्रसन्न होकर शिव, अर्जुन को पाशुपत अस्त्र प्रदान करते हैं।
कवि ने शिव के मुख से गौरी के सामने कहलवाया है कि कवि विग्रहराज ने अपने 'हरकेलि' नाटक करने में मुझे इतना प्रसन्न कर दिया है कि मैं स्वयं इस नाटक को देखने जाउंगा। शिव, काव्य जगत् में विग्रहराज की यशः पताका चिरकाल तक बने रहने का वरदान देते हैं तथा शाकंभरी का राज्य करने के लिये विग्रहराज को पुनः वापस भेज देते हैं। शिव तथा उनके गण कैलाश पर्वत को लौट जाते हैं। चतुर्थ फलक में नाटक के द्वितीय व तृतीय अंक उत्कीर्ण हैं, लेख पर्याप्त संरक्षित है।
कथानक तथा काव्यगत विशेषताओं की दृष्टि से लेखक, कवि भारवि से प्रभावित है। नाटक में शार्दुल विक्रीड़ित, वसंततिलका, शिखरिणी, स्ग्रधरा, अनुष्टुप, पुष्पिताग्रा, हरिणी और मदाक्रांता आदि छंदों का समवेत रूप से प्रयोग होने से कवि की प्रतिभा परिलक्षित होती है। लेख में प्रयुक्त प्राकृत बोली में साधारण शौरसेनी भाषा के साथ-साथ शशिप्रभा द्वारा आर्य छंदों में महाराष्ट्री भाषा का प्रयोग किया गया है। तुरुष्क बंदी तथा तुरुष्क गुप्तचरों के संवादों के लिये मागधी भाषा प्रयुक्त की गई है। नाटक में जिन पात्रों द्वारा जो-जो प्राकृत बोलियां बुलवाई गई हैं, वे अन्य किसी नाटक की अपेक्षा, हेमचंद्र द्वारा निर्धारित नियमों के अधिक निकट होने से पर्याप्त रुचिकर हैं।
प्रस्तरांकित लेख महीपति के पुत्र तथा गोविंद (राजा भोज के परम प्रियजन) के पौत्र भास्कर द्वारा उत्कीर्ण किया गया है जो भारत में नियुक्त हुए सेनापति के परिवार से सम्बन्धित है।