-हैलो! -कहिये कौन चाहिये आपको? दूसरे छोर की आवाज सवाल पूछती है।
-जी चाहिये तो कोई नहीं .....बस वैसे ही .....यूं ही .....जाने कैसे आपका नम्बर मिला लिया। क्या ये दिल्ली है?
-हाँ ये दिल्ली के ही नम्बर हैं, आप कहाँ से बोल रहे हैं?
-जी मैं तो इस समय उड़ीसा के एक गाँव से बोल रहा हूँ।
-कमाल है, उड़ीसा से बोल रहे हैं और वह भी दिल्ली के नम्बर मिला कर। आपको बात किस से करनी है?
-जी दरसल बात तो मुझे किसी से नहीं करनी और यूं मैं किसी से भी बात कर सकता हूँ। क्या आप मेरे साथ बात करना चाहेंगी?
-तो क्या आप मुझे जानते हैं?
-नहीं जानता तो नहीं हूँ, मुझे तो अब यह भी याद नहीं कि मैंने कौनसे नम्बर डायल किये थे। मैंने तो बस यूं ही ......।
-अच्छा, मैं समझ गई। आप इस समय टाइम पास करने के मूड में हैं।
-नहीं-नहीं आप मुझे गलत नहीं समझें प्लीज। मैं तो खुद ही शर्मिन्दा हूँ। जाने कैसे मैंने आपका नम्बर मिला लिया।
-शर्मिन्दा होने की कोई बात नहीं है। रौंग नम्बर तो लगभग रोज ही आते हैं। मुझे आदत सी है इनकी।
-जी यह रौंग नम्बर नहीं है। मैंने तो मिलाया ही यही नम्बर है। यह अलग बात है कि मुझे इस तरह आपका नम्बर नहीं मिलाना चाहिये था।
-ओफ्फ ओह! आप तो बड़े तकल्लुफ वाले आदमी हैं। मैंने कहा ना कि मैंने कतई बुरा नहीं माना। दूसरे छोर की आवाज में घुली झल्लाहट इस छोर तक भी चली आती है।
-नहीं-नहीं, आप नाराज मत होईये। मैं तो वैसे ही बहुत संवेदनाील आदमी हूँ। मुझसे किसी की नाराजगी बर्दात नहीं होती।
-अच्छा चलिये, नाराज नहीं होऊंगी। आप अपना नाम बताइये।
-मेरा नाम ज्ञानेन्द्र है। मैं एक चित्रकार हूँ। नहीं-नहीं माफ कीजियेगा मैं एक लेखक हूँ।
-कमाल है, क्या कोई आदमी ऐसी गलती भी कर सकता है कि अपने आप को चित्रकार बताये, जबकि वो लेखक हो? तसल्ली से सोच लीजिये, आप चित्रकार हैं कि लेखक?
-जी मैं लेखक ही हूँ, कभी कभार चित्र भी बना लेता हूँ। दरअसल मैं इस समय उड़ीसा के एक छोटे से गाँव में समुद्र के किनारे बैठा हुआ एक कहानी का प्लॉट सोच रहा हूँ।
-और जब उड़ीसा में प्लॉट नहीं मिला तो आपने दिल्ली में प्लॅाट ढूंढने का निचय कर लिया!
-हाँ, लेकिन यह निर्णय मैंने नहीं अपितु मेरे अवचेतन मस्तिष्क ने लिया है।
-कैसी अच्छी बात है! जो कार्य हमारा चौतन्य मस्तिष्क नहीं कर पाता वही कार्य कभी-कभी अवचेतन मस्तिष्क कर डालता है। सच मानिये लेखक महााय मुझसे बात करके निराश नहीं होंगे आप।
-अपना नम्बर बतायेंगी आप!
-अभी तो आपने डायल किया है।
-मैंने कहा ना कि मुझे नहीं मालूम कि मैंने कौनसा नम्बर डायल किया है।
-टू थ्री टू नाइन टू नॉट फाइव सिक्स टू। क्या फोन काट रहे हैं, और बात नहीं करेंगे?
-बात तो कुछ करने को है ही नहीं, वो तो मैंने यूं ही बस.......।
-ओफ्फ ओह! कितनी बार इस बात को दोहरायेंगे?
-माफ कीजिये मैं बहुत ही संकोची व्यक्ति हूँ। आप ही कोई बात कीजिये।
-चलिये यह जिम्मेदारी भी मुझ पर रही। अच्छा बताइये उड़ीसा कैसा है?
-बहुत सुंदर ।
-बहुत सुंदर माने?
-बहुत सुंदर माने बहुत सुंदर और क्या?
-अरे आप लेखक हैं, कहानियाँ लिखते हैं और सुंदर के मायने नहीं बता सकते?
-नहीं मैं वैसी कहानियाँ नहीं लिखता जिनमें सुंदरता का वर्णन होता हो।
-तो कैसी कहानियाँ लिखते हैं आप, जिनमें कुरूपता का वर्णन होता है?
-नहीं-नहीं वैसी भी नहीं।
-तो फिर कैसी? -मैं नहीं बता सकता कि कैसी, यह तो पढ़ने वाला ही बता सकता है।
-आप यह नहीं बता सकते कि उड़ीसा कितना सुंदर है, आप यह नहीं बता सकते कि आप कैसी कहानियाँ लिखते हैं, मुझे तो नहीं लगता कि आप लेखक हैं?
-मैंने कहा ना कि मैं लेखक तो हूँ किंतु मुझे बात करना नहीं आता।
-चलो मान लिया कि आपको बात करना नहीं आता किंतु हम लोग तो बहुत देर से बात कर रहे हैं।
-हाँ कर तो रहे हैं किंतु क्या हम वास्तव में बात कर रहे हैं?
-वही तो मैं भी सोच रही हूँ।
-मेरा मानना है कि अपरिचित के साथ बात हो ही नहीं सकती।
-क्यों नहीं हो सकती, हो तो रही है! -किंतु अब हम अपरिचित कहाँ रहे?
-तो फिर बात क्यों नहीं हो रही? -हो तो रही है।
-लेकिन क्या? क्या बात हो रही है।
-यह तो नहीं पता किंतु ऐसा लगता है कि बात हो रही है। एक बात बताऊं आपको?
-क्या?
-मुझे लगने लगा है कि आप सचमुच लेखक हैं।
-वो कैसे?
-अभी तो आपको लग रहा था कि जब मैं सुंदरता के मायने नहीं बता सकता, अपनी कहानियों के बारे में नहीं बता सकता, तो भला मैं लेखक कैसे हो सकता हूँ!
-हाँ।
-जबकि आप बिना किसी विषय के भी इतनी देर से बात किये जा रहे हैं, ऐसा तो कोई लेखक ही कर सकता है।
-लेकिन बात करने का जिम्मा तो आपका था, मुझे तो बात करना आता ही नहीं।
-हाँ! बात तो आपकी सही है, बात करने का जिम्मा तो मुझ पर था।
-अब बताइये।
-क्या?
-यही कि मैं लेखक हूँ या नहीं?
-यह जानने के लिये आपको मेरे कुछ सवालों के जवाब देने होंगे।
-ठीक है पूछिये, मैं तैयार हूँ।
-क्या इस समय उड़ीसा में धूप खिल रही है?
-हाँ।
-क्या इस समय आप समुद्र तट पर बैठे हैं?
-हाँ।
-क्या वहाँ ठण्डी हवा चल रही है?
-हाँ।
-क्या समुद्र के किनारे घास उगी हुई है?
-हाँ। -क्या घास पर लाल फूल खिले हुए हैं?
-हाँ।
-क्या आपको ऐसा लगता है कि मैं आपके सामने बैठी हुई हूँ?
-हाँ।
-और मेरा हाथ आपके हाथों में है?
-हाँ।
-और मेरी आँखों में झील जितनी गहराई है?
-हाँ।
-और आप इन झील जैसी आँखों में छलांग लगाने को तैयार हैं?
-बताशे जैसा नहीं, केार जैसा। आवाज कातर हो जाती है।
-अच्छा, वो बैलून फोड़ रहा है? वाक्य पूरा होते-होते एक सिसकी सी निकल जाती है।
-हाँ। इस ओर भी गला रुंध जाता है।
-क्या अभी-अभी आपने उसे गोल गप्पे खिलाये हैं, जबकि उसके टांसिल्स सूजे हुए हैं।
-हाँ मैंने उसे गोल गप्पे खिलाये हैं और खिलाउंगा, मेरा बेटा है। तुम्हें क्या हक है मुझसे इस तरह के सवाल करने का? वाक्य पूरा होते-होते रुलाई फूट पड़ती है।
-अच्छा छोड़ो। कोई दूसरी बात करते हैं।
-तुम्हें तो कोई दूसरी बात करनी आती ही नहीं, सारे दिन मेरे बेटे के पीछे पड़ी रहती हो। आइसक्रीम मत खाओ। टांसिल सूज जायेंगे। गुब्बारे से मत खेलो, वे गंदे होते हैं। गोल गप्पे मत खाओ गला खराब हो जायेगा। तुम कुछ नहीं करने दोगी मेरे बेटे को।
-अच्छा बाबा सॉरी। मैंने कहा ना, कोई दूसरी बात करते हैं।
-तो फिर करो न कोई दूसरी बात, कौन मना करता है।
-क्या आपका नाम ज्ञानेन्द्र है?
-हाँ लेकिन आपको कैसे मालूम हुआ? -सवाल मत पूछिये, केवल मेरे सवालों का जवाब दीजिये।
-हाँ मेरा नाम ज्ञानेन्द्र है लेकिन आपको बताना पड़ेगा कि आपको कैसे मालूम हुआ।
-वैरी सिम्पल! आप ही ने कुछ देर पहले बताया था।
-ओह! मैं तो डर ही गया था।
-क्यों इसमें डरने की क्या बात है? क्या कोई व्यक्ति अपना नाम सुन कर डर जाता है।
-नहीं-नहीं। तुम ...... माफ कीजियेगा आप ...... सही कह रही हैं। अपना नाम सुनकर डरने की क्या बात है, अभी कुछ देर पहले मैंने ही तो बताया होगा।
-बताया होगा, या बताया था?
-ठीक से याद नहीं, बताया ही होगा।
-लेकिन आपने मेरा नाम अब तक नहीं पूछा!
-हाँ, नहीं पूछा। -क्यों नहीं पूछा?
-क्योंकि मैं आपको नाम से नहीं नम्बर से याद रखना चाहता हूँ - टू थ्री टू नाइन टू नॉट फाइव सिक्स टू।
-कितना इंटेरेस्टिंग है न!
-क्या, नम्बरों का सीक्वेंस?
-नहीं, यह आइडिया कि आदमी को नाम से नहीं नम्बर से याद रखा जाये।
-चलिये मैं मान लेता हूँ कि यह आइडिया इंटेरेस्टिंग है किंतु आपने अब तक बताया नहीं!
-क्या?
-यही कि मैं लेखक हूँ या नहीं?
-आप पक्के लेखक हैं।
-कैसे जाना?
-वैरी सिम्पल।
-क्या मतलब?
-मतलब ये कि दिल्ली में इस समय रात हो चुकी है किंतु आप कह रहे हैं कि उड़ीसा में धूप खिली हुई है। आपके कमरे में पंखा चल रहा है जिसकी आवाज मुझे टेलिफोन पर सुनाई दे रही है जबकि आप को लग रहा है कि आप समुद्र के किनारे बैठे हैं। आप कह रहे हैं कि जहाँ आप बैठे हुए हैं वहाँ ठण्डी हवा चल रही है और वहाँ लाल फूलों वाली घास भी उगी हुई है जबकि समुद्री रेत पर घास नहीं उगती। आपको ऐसा लग रहा है कि मैं आपके सामने मैं बैठी हूँ और मेरी आँखों में झील जितनी गहराई है। जबकि मैं तो यहाँ दिल्ली में हूँ। आपको यह भी दिखाई दे रहा है कि मेरे माथे पर नागिन जैसी काली लटें लटक रही हैं। ऐसा केवल लेखकों के साथ ही होता है।
-आपको कैसे मालूम कि ऐसा केवल लेखकों के साथ ही होता है?
-क्योंकि लेखक महाशय मैं आपकी पत्नी बोल रही हूँ। रात बहुत हो चुकी है। कल सुबह की गाड़ी पकड़ कर आपको दिल्ली भी लौटना है। बत्ती बंद करके सो जाइये। गुडनाइट। हुंह! नाम से नहीं नम्बर से आदमी को याद रखेंगे! कितनी बार मना किया है तुम्हें, घर से बाहर जाकर ड्रिंक मत किया करो। जब भी घर से बाहर जाकर ड्रिंक करते हो, सौरभ को याद करके रोते हो। क्यों तुम याद नहीं रख पाते कि सौरभ अब चला गया है। कभी वापस न लौटने के लिये। हम नहीं खिला सकते उसे आइसक्रीम! नहीं खिला सकते उसे गोल गप्पे! सुना तुमने। तुम्हीं तो उसकी बॉडी सड़क से उठाकर घर में लाये थे। मोटर साइकिल के नीचे आकर किस तरह पिचक गयी थी! एक भी हिस्सा साबुत नहीं बचा था। कितना नाजुक था हमारा बेटा! मोटर साइकिल ने उसे ऐसे कुचल दिया जैसे किसी ने पिन चुभो कर बैलून फोड़ दिया हो। बारीक आवाज रोने लगती है। दूसरे छोर से भी सिसकियां फूट पड़ती हैं। दोनों ओर से रिसीवर रख दिया जाता है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता, 63, सरदार क्लब योजना, वायुसेना क्षेत्र, जोधपुर, 342011