कच्ची साल के आंगन में लिपा गोबर और घर की छान में लगी खींप, तेज गर्मी पाकर झुलसाये से हो चले हैं। बाहर चल रही लू के गर्म थपेड़े जब साल में घुसते हैं तो लगता है जैसे कच्ची दीवारें गर्म हो कर भट्टी बन जायेंगी। कभी हवा के बगूले के साथ ढेर सारी रेत भी आकर आंख-नाक-कान में घुस जाती है। बाहर बारने में भीड़ जमा है और भंवरी मुंह पर लूगड़ी डाले, सूखे पत्ते की तरह कांप रही है। तरह-तरह की आवाजें उसके कानों में घुसती हैं।
मंत्रीजी बूढ़े ससुर को समझा रहे हैं- ‘जीवन-मरण ईश्वर के हाथ है। इस पर किसी का जोर नहीं है। बहू को समझाइये कि जो हुआ, वह परमात्मा की मरजी थी। इसलिये सारी बातें छोड़कर केवल इस पर विचार करें कि आगे क्या करना है।’
भंवरी सुबक पड़ती है। जब मरजी परमात्मा की ही चलनी है तो फिर आगे भी जो होना है, वह भी परमात्मा की मरजी से होगा। मैं क्या विचार करूं उस पर? वह खुद से सवाल करती है।
बूढ़े ससुर यानी शहीद सिपाही अमराराम के पिता, यानी फौज के रिटायर्ड सूबेदार बीरमाराम, मंत्रीजी को कोई जवाब नहीं देते। उनकी आंखें तो जैसे पत्थर की बन गई हैं जिनमें जरा भी हरकत नहीं होती।
सूबेदार को मौन देखकर, मंत्रीजी कलक्टर को संकेत करते हैं। कलक्टर साहब एसडीएम की तरफ देखते हैं और एसडीएम बाबू के हाथों से हरे रंग का चैक लेकर मंत्रीजी को पकड़ाता है।
मंत्रीजी एसडीएम से चैक लेकर मृतक सिपाही के बूढ़े पिता, सूबेदार बीरमाराम, की ओर बढ़ाते हैं- ये लीजिये। जान की कोई कीमत नहीं होती, फिर भी स्वयं मुख्यमंत्रीजी ने सिपाही अमराराम के परिजनों के लिये आठ लाख रुपये स्वीकृत किये हैं। इसके अलावा भी सरकार से जो बन पड़ेगा, सरकार करेगी, कभी अपने आप को अकेला न समझें। आपका बेटा तो देश के लिये शहीद हुआ है।’
सूबेदार की सूखी और पथराई हुई आंखों में थोर के कांटे उगे हुए हैं। वे आंख उठाकर चैक की ओर देखते भी नहीं। एसडीएम मंत्रीजी के हाथों से चैक लेकर बाबू की ओर बढ़ाता है- ‘लो इसे अमराराम की बेवा को दे दो और उससे चैक की रसीद बनवा लो।’
बेवा शब्द हलबाणी की तरह भंवरी की छाती में चुभता है। बाबू अंगूठा लगाने के लिये इंकपैड, कच्ची रसीद और चैक लेकर भीतर साल में आ गया है। भंवरी की सास, बाबू के हाथों से चैक लेकर भंवरी से दस्तखत करने को कहती हैं। भंवरी मशीनी बुत की तरह सास के आदेश का पालन करती है। बाबू कागज पर दस्तखत लेकर साल से बाहर चला जाता है।
‘अंगूठा ले लिया ?’ एसडीएम बाबू से पूछता है। वह पूरी तरह आश्वस्त होना चाहता है कि चैक की पावती पर भंवरी का ही अंगूठा लिया है या किसी दूसरी औरत का!
‘सर अंगूठा नहीं, सिगनेचर हैं।’ बाबू जवाब देता है।
‘अच्छा ! कहां तक पढ़ी है बीनणी।’ मंत्रीजी पूछते हैं।
‘बी ए फर्स्ट ईयर के एक्जाम देकर चुकी है।’ सूबेदार के पास बैठा आदमी जवाब देता है।
‘अच्छा! वैरीगुड। तब तो हम इसे पुलिस में कांस्टेबल लगा देंगे।’
मंत्रीजी उत्साह में भरकर कहते हैं। मंत्रीजी की बात एक बार फिर से भंवरी के कलेजे में हलबाणी की तरह चुभती है।’
क्या-क्या सोचा था, भंवरी और अमराराम ने, भंवरी की पढ़ाई को लेकर! अमराराम की इच्छा थी कि भंवरी बी ए करके आरएएस का एग्जाम दे। एसडीएम बने। भंवरी थी भी पढ़ने में होशियार। इसलिये अमराराम ने अपनी मां को इस बात के लिये राजी कर लिया था कि भंवरी से केवल घर का काम करवाया जाये, ढोर-डंगर तथा खेत क्यारी का काम न करवा जाये। ताकि उसे पढ़ने के लिये पूरा समय मिल सके। अमराराम जब भी शहर से लौटता था ढेर सारी किताबें भंवरी के लिये खरीद लाता था। भंवरी बिना किसी अध्यापक की सहायता के उन पुस्तकों को पढ़ती और मस्तिष्क में जमा करती रहती थी।
‘तू पढ़। ढाणी में कोचिंग तो नहीं हो सकती किंतु तू तो खुद ही पढ़ने में होशियार है। । देख ढाणियों में पढ़ लिखकर तो कई लड़के कलक्टर बन गये। तू उनसे कम है क्या? देखना, एक दिन तू कलक्टर भी बनेगी। मेरे जैसे तो तुझे सैल्यूट मारा करेंगे। अरे मेरे जैसे क्या, मैं भी तुझे सैल्यूट मारा करूंगा। तू तो मुझे अपना अर्दली लगा लेना।’ अमराराम जोश में भरकर बोलता, तो बोलता ही चला जाता।
‘इतने ज्यादा सपने मत देखा करो, भंवरी हंसकर जवाब देती।
‘तुमने कभी राष्ट्रपति कलाम का भाषण सुना है? अमराराम तुनक कर जवाब देता।
‘कौनसा? भंवरी अमराराम को छेड़ने के लिये हर बार यही सवाल दोहराती।
फिर तो अमराराम को जैसे नशा चढ़ जाता। एक ही सांस में वह राष्ट्रपति के भाषण की पंक्तियां दोहरा देता- ‘लोग कहते हैं कि सपने देखने से क्या होता है ? किंतु मैं कहता हूँ कि सपने देखिये। सपने देखना मत छोड़िये। आगे बढ़ना है तो सपने देखने ही होंगे। बिना सपना देखे कोई आगे नहीं बढ़ सकता। न व्यक्ति, न देश। हमारा देश आज इसलिये तरक्की नहीं कर रहा क्योंकि लोग इसकी तरक्की का सपना नहीं देखते।’ इस भाषण को अमराराम ने, राष्ट्रपति के मुंह से एक सार्वजनिक सभा में सुना था, जहां अमराराम की सिक्योरिटी में ड्यूटी लगी थी।
‘किंतु सपने तो सपने ही होते हैं। उनकी कोई धरती नहीं होती, केवल आकाश होता है। ऐसा आकाश जिसकी सीमा मन के भीतर होती है और मन...........! उसके तो खुद के पास कोई सीमा नहीं होती।’ भंवरी हंसकर अमराराम की बात काट देती।
आज वे सपने किसी कटे हुए पेड़ की तरह धरती पर धड़ाम से आ गिरे थे। अमराराम को दूसरे सिपाहियों के साथ आरक्षण आंदोलन में आंदोलनकारियों को रोकने के लिये ड्यूटी पर लगाया गया था। सरकार एक-एक कदम फूंक कर रख रही थी। वह ऐसी कोई गलती नहीं करना चाहती थी जिससे आंदोलन उग्र हो और हालात हाथों से निकल जायें। फिर सरकार को विपक्ष के हो-हल्ले का भी तो डर था।
इसलिये दिन पर दिन बीतते जाते थे, न तो आंदोलनकारियों की बातें मानी जाती थीं और न आंदोलन समाप्त होने पर आता था। आंदोलनकारियों ने पंद्रह दिन से रेल लाइनें ठप्प कर रखी थीं। मानो राष्ट्र रूपी देह की रक्तवाहिनियां काट दी गई हों। पूरा देश आंदोलनकारियों के सामने लुंज-पुंज और असहाय हुआ पड़ा था किंतु सरकार कोई कार्यवाही नहीं कर पा रही थी।
अंततः एक दिन आंदोलनकारियों का धैर्य चुक गया। उन्होंने आठ-दस सिपाहियों को पकड़कर उनके हाथ-पैर काट डाले। मौके पर ही तड़प-तड़प कर मरे थे सारे सिपाही। अमराराम भी उन्हीं दुर्भाग्यशालियों में से एक था। आंदोलनकारियों ने पहले तो उसका सिर फोड़ा। फिर उसके गले में हंसिया डालकर भीड़ के बीच खींच लिया। कसाई के हाथों में पड़े मेमने की तरह मिमियाता और शक्ति भर चीखता रहा था अमराराम। आंदोलनकारियों को उसकी चीखों की कोई परवाह नहीं थी। उन्हें तो अपने बच्चों के लिये आरक्षण चाहिये था। आरक्षण का रास्ता संभवतः अमराराम जैसे निर्दोष सिपाहियों के शव बिछाकर ही खुल सकता था और सिपाहियों के शव बिछने शुरू हो गये थे।
पुलिसकर्मियों के शव देखकर सरकार को भी गोली चलाने के आदेश देने पड़े थे किंतु इसके बाद के घटनाक्रम से भंवरी का कोई लेना देना नहीं था। न ही रिटायर्ड सूबेदार बीरमा राम को बाद की खबरों से कोई लेना देना था। उनका लेना देना तो केवल अमराराम के उस शव के साथ था जिसे सरकार ने तीन दिन बाद सूबेदार की ढाणी में पहुंचा दिया था और उसी दिन राजकीय सम्मान से उसका अंतिम संस्कार भी कर दिया था।
बंदूकें झुकी थीं। मातमी धुन बजी थी। शहीद को अंतिम सलामी देने के लिये हवाई फायर भी हुए थे किंतु इनमें से एक भी बात से भंवरी का कोई सरोकार न था। अमराराम शहीद हुआ या उसकी नृशंस हत्या हुई, इस पर भी विचार करने तक की आवश्यकता न थी भंवरी को। सूबेदार का जीवन फौज में गुजरा था, उनकी बात अलग थी, वे जानते थे कि जब सिपाही शत्रु की गोली से मारा जाये तो शहीद होता है किंतु जब अपनों के ही हाथों मारा जाये तो ...........। यहां आकर सूबेदार की बुद्धि काम करना बंद कर देती थी। नहीं, नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है, मेरा बेटा तो जंग के मैदान में शहीद हुआ है। सूबेदार अपने आप को समझाते थे।
मंत्रीजी उठ खड़े हुए थे। कलक्टर, एसडीएम, बाबू सब जा रहे थे। सूबेदार अपनी जगह पर पत्थर बने बैठे थे। भंवरी जाने कब बेहोश हुई। तेज गर्म लू एक का थपेड़ा फिर से साल में घुसा। सास के हाथ में पकड़ा हुआ हरे रंग का चैक छूटकर दूर जा गिरा और जमीन पर तेजी से चक्कर लगाने लगा।
- डॉ. मोहनलाल गुप्ता 63, सरदार क्लब योजना, वायुसेना क्षेत्र, जोधपुर