जिन समुदायों में प्रकृति के प्रति जिम्मेदारी का चिंतन किया जाता है, उस क्षेत्र की संस्कृति इस प्रकार विकसित होती है कि उससे पर्यावरण को कोई हानि नहीं पहुंचती। अपितु पर्यावरण की सुरक्षा होती है। भारत में वृक्षों, नदियों, समुद्रों तथा पर्वतों की पूजा करने से लेकर गायों को रोटी देने, कबूतरों एवं चिड़ियों को दाना डालने, गर्मियों में पक्षियों के लिये पानी के परिण्डे बांधने, बच्छ बारस को बछड़ों की पूजा करने, श्राद्ध पक्ष में कौओं को ग्रास देने, नाग पंचमी पर नागों की पूजा करने जैसे धार्मिक विधान बनाये गये जिनसे मानव में प्रकृति के प्रति संवेदना, आदर और कृतज्ञता का भाव उत्पन्न होता है। भारतीय संस्कृति में सादगी पर सर्वाधिक जोर दिया गया है। सादा जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति कभी भी अपनी आवश्यकताओं को इतना नहीं बढ़ायेगा कि पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े। संत पीपा का यह दोहा इस मानसिकता को बहुत अच्छी तरह व्याख्यायित करता है-
स्वामी होना सहज है, दुरलभ होणो दास।
पीपा हरि के नाम बिन, कटे न जम की फांस।।
पर्यावरण को क्षति पहुँचाने वाली संस्कृति
जिस संस्कृति में ऊर्जा की अधिकतम खपत हो, वह संस्कृति धरती के पर्यावरण में गंभीर असंतुलन उत्पन्न करती है। पश्चिमी देशों में विकसित उपभोक्तावादी संस्कृति, ऊर्जा के अधिकतम खपत के सिद्धांत पर खड़ी हुई है। इस संस्कृति ने धरती के पर्यावरण को अत्यधिक क्षति पहुँचाई है। इस संस्कृति का आधार एक ऐसी मानसिकता है जो मनुष्य को व्यक्तिवादी होने तथा अधिकतम वस्तुओं के उपभोग के माध्यम से स्वयं को सुखी एवं भव्यतर बनाने के लिये प्रेरित करती है। ऐसी संस्कृति में इस बात पर विचार ही नहीं किया जाता कि व्यक्तिवादी होने एवं अधिकतम सुख अथवा भव्यता प्राप्त करने की दौड़ में प्रकृति एवं पर्यावरण का किस बेरहमी से शोषण किया जा रहा है तथा उसके संतुलन को किस तरह से सदैव के लिये नष्ट किया जा रहा है। पश्चिमी देशों एवं अमरीका में विकसित फास्ट फूड कल्चर, यूज एण्ड थ्रो कल्चर तथा डिस्पोजेबल कल्चर, पर्यावरण को स्थाई रूप से क्षति पहुंचाते हैं।
भारत में प्रति व्यक्ति विद्युत उपभोग 778.71 किलोवाट तथा राजस्थान में प्रति व्यक्ति विद्युत उपभोग 736.20 किलोवाट है। इसके विपरीत, कनाडा में प्रति व्यक्ति विद्युत उपभोग 17,053 किलोवाट तथा अमरीका में 13,647 किलोवाट है जो कि राजस्थान की तुलना में क्रमशः 23.16 तथा 18.54 गुना अधिक है। अमरीका में प्रति व्यक्ति विद्युत उपभोग इतना अधिक है कि यदि पूरी दुनिया के लोग उसी औसत के अनुसार बिजली खर्च करें तो पूरी दुनिया के विद्युत संसाधन (कोयला, डीजल, नेफ्था, नेचुरल गैस आदि) मात्र 50 साल में चुक जायें। जिस लिविंग स्टैण्डर्ड के लिये अमरीका के लोगों को इतना गर्व है, यदि धरती के समस्त मनुष्य उस लिविंग स्टैण्डर्ड का उपयोग करें तो पूरी धरती के संसाधन मात्र 37 साल में चुक जायेंगे। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि पूरे विश्व में प्रति व्यक्ति विद्युत उपभोग का औसत 2,782 किलोवाट है। इसकी तुलना में राजस्थान में प्रति व्यक्ति विद्युत उपभोग लगभग एक चौथाई है।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि उपभोक्तावादी संस्कृति, धरती के पर्यावरण में भयानक असंतुलन उत्पन्न करती है। इस उपभोक्तावादी संस्कृति के विरोध में ईसा मसीह द्वारा आज से दो हजार साल पहले कही गई यह बात आज भी सुसंगत है 'सुईं के छेद में से ऊँट भले ही निकल जाये किंतु एक अमीर आदमी स्वर्ग में प्रवेश नहीं पा सकता।'
पर्यावरणीय संस्कृति एवं विनाशकारी संस्कृति के उदाहरण
प्रकृति के संसाधनों को क्षति पहुंचाये बिना उनका उपयोग करना, पर्यावरणीय संस्कृति का नियम है जबकि यूज एण्ड थ्रो कल्चर, डिस्पोजेबल कल्चर, उपभोक्तावादी मानसिकता एवं बाजारीकरण की प्रवृत्तियां पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वाली एवं विनाशकारी संस्कृति की प्रवृत्ति है। कागज की थैलियों, मिट्टी के सकोरों तथा पत्तों के दोनों का उपयोग पर्यावरणीय संस्कृति का उदाहरण हैं। क्योंकि ये तीनों ही, नष्ट होने के बाद फिर से उसी रूप में धरती को प्राप्त हो जाते हैं। जबकि पॉलिथीन कैरी बैग्ज, प्लास्टिक की तश्तरियां तथा थर्मोकोल के गिलास, यूज एण्ड थ्रो कल्चर का उदाहरण हैं क्योंकि इन वस्तुओं की सामग्री फिर कभी भी अपने मूल रूप में प्राप्त नहीं की जा सकती। फाउण्टेन इंक पैन का उपयोग पर्यावरणीय संस्कृति का उदाहरण है तो बॉल पॉइण्ट पैन डिस्पोजेबल कल्चर का उदाहरण है। नीम और बबूल की दांतुन पर्यावरणीय संस्कृति का उदाहरण है तो टूथपेस्ट और माउथवॉश का उपयोग उपभोक्तावादी एवं बाजारीकरण की संस्कृति का उदाहरण हैं। मल त्याग के बाद पानी से प्रक्षालन पर्यावरणीय संस्कृति है तो कागज का प्रयोग यूज एण्ड थ्रो कल्चर है। शेविंग के बाद केवल ब्लेड बदलना, पर्यावरण के लिये कम क्षतिकारक है जबकि पूरा रेजर ही फैंक देना, पर्यावरण के लिये अधिक विनाशकारी है।
भारत में किसी इंजन या मशीन के खराब हो जाने पर उसे ठीक करवाया जाता है और ऐसा लगातार तब तक किया जाता है जब तक कि उसे ठीक करवाना असंभव अथवा अधिक खर्चीला न हो जाये किंतु अमरीका का आम आदमी, कम्पयूटर खराब होते ही कूड़े के ढेर में, कार खराब होते ही डम्पिंग यार्ड में, घड़ी, कैलकुलेटर, सिलाई मशीन आदि खराब होते ही घर से बाहर फैंक देता है जिन्हें नगरपालिका जैसी संस्थाओं द्वारा गाड़ियों में ढोकर समुद्र तक पहुुंचाया जाता है। इससे समुद्र में प्रदूषण होता है तथा बड़ी संख्या में समुद्री जीव मर जाते हैं। एक आम भारतीय अपनी कार को तब तक ठीक करवाता रहता है जब तक कि उसे बेच देने का कोई बड़ा कारण उत्पन्न नहीं हो जाता किंतु उसे कभी भी कूड़े के ढेर या समुद्र में नहीं फैंका जाता। उसका पुर्जा-पुर्जा अलग करके किसी न किसी रूप में प्रयोग में लाने लायक बना लिया जाता है या फिर उसके मैटरीयल को रीसाइकिलिंग में डाल दिया जाता है। भारत में कबाड़ियों द्वारा घर-घर जाकर खरीदी जाने वाली अखबारी रद्दी और खाली बोतलें श्रम आधारित भारतीय संस्कृति के पूंजीवादी अमरीकी कल्चर से अलग होने का सबसे बड़ा प्रमाण हैं।
भारत भर के सरकारी एवं ग्रामीण क्षेत्र के विद्यालयों में छात्रों द्वारा किताबों को बार-बार प्रयोग में लाये जाने के लिये पुस्तकालयों के साथ-साथ बुक बैंक स्थापित किये जाते हैं। ये बुक बैंक छात्रों को अपनी पढ़ाई का व्यय नियंत्रण में रखने में सहायक होते हैं। इन बुक बैंक का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि देश को उन पुस्तकों के कागज एवं मुद्रण के लिये बार-बार पूंजी व्यय नहीं करनी पड़ती। इन बुक बैंक के साथ-साथ भारत में पुरानी पुस्तकें (सैकेण्ड हैण्ड बुक्स) खरीदने-बेचने का काम भी बड़े स्तर पर होता है। बड़े से बड़े धनी व्यक्ति को यह जानकारी होती है कि उनके शहर में पुरानी किताबें कहाँ खरीदी और बेची जाती हैं।
पुरानी किताबों से पढ़ना असुविधाजनक हो सकता है किंतु उन पर कम पूंजी व्यय करनी पड़ती है तथा कागज की बचत होती है। इसके विपरीत पूंजीवादी व्यवस्था में हर छात्र को स्कूल से ही पूरा बैग तैयार मिलता है जिसमें प्रत्येक किताब नयी होती है। इस प्रकार हर अभिभावक को अपने बच्चों की पुस्तकें खरीदने के लिये हर साल अधिक पूंजी व्यय करनी पड़ती है तथा देश को पुस्तकें छापने के लिये बड़े स्तर पर कागज की आवश्यकता होती है। दुर्भाग्यवश भारत के नगरीय क्षेत्रों में इसी पूंजीवादी व्यवस्था का प्रसार हो गया है। भारतीय रोटी को प्याज, लहसुन, चटनी, मिर्च, अचार, उबले हुए आलू तथा छाछ जैसी सस्ती चीजों के साथ खाया जा सकता है जबकि ब्रेड के लिये बटर और जैम की आवश्यकता होती है जो पर्यावरणीय संस्कृति की बजाय पूंजीवादी संस्कृति के उपकरण हैं।
राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति
राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति के मर्म को जानने से पहले हमें राजस्थान के पर्यावरणीय तत्त्वों अर्थात् राजस्थान के भूगोल, जलवायु, जल संसाधन, मिट्टियाँ, खनिज, वन, कृषि, पशुधन तथा मानव अधिवास के बारे में जानना आवश्यक होगा जिनकी चर्चा हम अगले अध्यायों में करेंगे।