Blogs Home / Blogs / राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति / राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति-3
  • राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति-3

     01.06.2020
    राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति-3

    राजस्थान में मानव सभ्यता का उदय एवं पुरा-संस्कृतियों का विकास(1)



    पाषाण कालीन सभ्यताएँ

    राजस्थान में आदि मानव द्वारा प्रयुक्त लगभग डेढ़ लाख वर्ष पुराने प्राचीनतम पाषाण उपकरण उपलब्ध हुए हैं। इस भू-प्रदेश में मानव सभ्यता उससे भी पुरानी हो सकती है। राजस्थान में मानव सभ्यता पुरा-पाषाण, मध्य-पाषाण तथा उत्तर-पाषाण युग से होकर गुजरी। अतः राजस्थान में मानव अधिवास उस समय से है जब सभ्यता अपने प्रारम्भिक चरण धरना सीख रही थी। पुरा-पाषाण युग डेढ़ लाख वर्ष पूर्व से पचास हजार वर्ष पूर्व तक का काल समेटे हुए है। इस काल में हैण्ड एक्स, क्लीवर तथा चॉपर आदि का प्रयोग करने वाला मानव बनास, गंभीरी, बेड़च, बाधन तथा चम्बल नदियों की घाटियों (बांसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर, भीलवाड़ा, बूंदी, कोटा, झालावाड़ तथा जयपुर जिले) में रहता था। इस युग के भद्दे तथा भौंडे हथियार अनेक स्थानों से मिले हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि इस युग का मानव लगभग पूरे प्रदेश में फैल गया था।

    पुरा पाषाण युग का मनुष्य, सभ्यता के उषा काल पर खड़ा था। उसका आहार शिकार से प्राप्त वन्य पशु, प्राकृतिक रूप से प्राप्त कन्द, मूल, फल, पक्षी, मछली आदि थे। नगरी, खोर, ब्यावर, खेड़ा, बड़ी, अनचर, ऊणचा, देवड़ी, हीराजी का खेड़ा, बल्लू खेड़ा (चित्तौड़ जिले में गंभीरी नदी के तट पर), भैंसरोड़गढ़, नगघाट (चम्बल और बामनी के तट पर) हमीरगढ़, सरूपगंज, बीगोद, जहाजपुर, खुरियास, देवली, मंगरोप, दुरिया, गोगाखेड़ा, पुर, पटला, संद, कुंवारिया, गिलूंड (भीलवाड़ा जिले में बनास के तट पर), लूणी (जोधपुर जिले में लूनी के तट पर), सिंगारी और पाली (गुड़िया और बांडी नदी की घाटी में), समदड़ी, शिकारपुरा, भावल, पीचक, भांडेल, धनवासनी, सोजत, धनेरी, भेटान्दा, धुंधाड़ा, गोलियो, पीपाड़, खींवसर, उम्मेदनगर (मारवाड़ में), गागरोन (झालवाड़), गोविंदगढ़ (अजमेर जिले में सागरमती के तट पर), कोकानी, (कोटा जिले में परवानी नदी के तट पर), भुवाणा, हीरो, जगन्नाथपुरा, सियालपुरा, पच्चर, तारावट, गोगासला, भरनी (टोंक जिले में बनास तट पर) आदि स्थानों से उस काल के पत्थर के हथियार प्राप्त हुए हैं।

    मध्य-पाषाण युग लगभग 50 हजार वर्ष पूर्व आरंभ हुआ। इस काल के उपकरणों में स्क्रैपर तथा पाइंट विशेष उल्लेखनीय हैं। ये औजार लूनी और उसकी सहायक नदियों की घाटियों में, चित्तौड़गढ़ जिले की बेड़च नदी की घाटी में और विराटनगर में भी प्राप्त हुए हैं। इस समय तक भी मानव को पशुपालन तथा कृषि का ज्ञान नहीं था। उत्तर-पाषाण काल का आरंभ लगभग 10 हजार वर्ष पूर्व हुआ। इस काल में पहले हाथ से और फिर से चाक से बर्तन बनाये गये। इस युग के औजार चित्तौड़गढ़ जिले में बेड़च व गंभीरी नदियों के तट पर, चम्बल और वामनी नदी के तट पर भैंसरोड़गढ़ व नवाघाट, बनास के तट पर हमीरगढ़, जहाजपुर, देवली व गिलूंड, लूनी नदी के तट पर पाली, समदड़ी, बनास नदी के तट पर टौंक जिले में भरनी, उदयपुर के बागोर तथा मारवाड़ के तिलवाड़ा आदि अनेक स्थानों से मिले हैं। इस काल में कपास की खेती होने लगी थी। समाज का वर्गीकरण आरंभ हो गया था तथा व्यवसायों के आधार पर जाति व्यवस्था का सूत्रपात हो गया था।

    ताम्र, कांस्य एवं लौह युगीन सभ्यताएँ

    राज्य में गणेश्वर (सीकर), आहड़ (उदयपुर), गिलूण्ड (राजसमंद), बागोर (भीलवाड़ा) तथा कालीबंगा (हनुमानगढ़) से ताम्र-पाषाण कालीन, ताम्रयुगीन एवं कांस्य कालीन सभ्यताएं प्रकाश में आयी हैं। ताम्रयुगीन प्राचीन स्थलों में पिण्डपाड़लिया (चित्तौड़), बालाथल एवं झाड़ौल (उदयपुर), कुराड़ा (नागौर), साबणिया एवं पूगल (बीकानेर), नन्दलालपुरा, किराड़ोत व चीथवाड़ी (जयपुर), ऐलाना (जालोर), बूढ़ा पुष्कर (अजमेर), कोल- माहोली (सवाईमाधोपुर) तथा मलाह (भरतपुर) विशेष उल्लेखनीय हैं। इन सभी स्थलों पर ताम्र उपकरणों के भण्डार मिले हैं। लौह युगीन सभ्यताओं में नोह (भरतपुर), जोधपुरा (जयपुर) एवं सुनारी (झुंझुनूं) प्रमुख हैं।

    सरस्वती नदी सभ्यता

    वैदिक काल में तथा उससे भी पूर्व के काल-खण्ड में इस प्रदेश में सरस्वती नदी प्रवाहित होती थी जिसके किनारे पर आर्यों ने अनेक यज्ञ व युद्ध किये। सरस्वती नदी की उत्त्पत्ति तुषार क्षेत्र से मानी गयी है। यह स्थान मीरपुर पर्वत है जिसे ऋग्वेद में सारस्वान क्षेत्र कहा गया है। ऋग्वेद के 10वें मण्डल में सूत्र 53 के मंत्र 8 में दृषद्वती तथा अश्वन्वती नदियों का उल्लेख है। माना जाता है कि सरस्वती एवं दृषद्वती का प्रवाह क्षेत्र आज के मरू प्रदेश में था। दसवीं सदी के आसपास दक्षिणी-पश्चिमी राजस्थान की गणना सारस्वत मण्डल में की जाती थी। यह पूरा क्षेत्र लूणी नदी बेसिन का एक भाग है। लूनी नदी सरस्वती की सहायक नदी थी। सरस्वती आज भी राजस्थान में भूमिगत होकर बह रही है। कुछ विद्वान घग्घर (हनुमानगढ़-सूरतगढ़ क्षेत्र में बहने वाली नदी) को भी सरस्वती का परवर्ती रूप मानते हैं।

    हनुमानगढ़ जिले में घग्घर को नाली कहा जाता है। यहाँ पर एक दूसरी धारा जिसे नाईवाला कहते हैं, घग्घर में मिलती है, जो सतलज का प्राचीन बहाव क्षेत्र है। यह सरस्वती नदी का पुराना हिस्सा था। तब तक सिंधु में मिलने के लिये सतलज में व्यास का समावेश नहीं हो पाया था। हनुमानगढ़ के दक्षिण पूर्व की ओर नाली के दोनों किनारे ऊंचे-ऊंचे दिखायी देते हैं। सूरतगढ़ से तीन मील पहले एक और सूखी धारा घग्घर में मिलती है। यह सूखी धारा वास्तव में दृशद्वती है। सूरतगढ़ से आगे अनूपगढ़ तक तीन मील की चौड़ाई रखते हुए नदी के दोनों किनारे और भी ऊंचे दिखायी देते हैं जिनके बीच में गंगनहर की सिंचाई से खूब हरा-भरा भाग है। यहीं पर अनेक गाँव बसे हैं। बीकानेर जिले में पहुँच कर घग्घर जल रहित हो जाती है। दृशद्वती, हिमालय की निचली पहाड़ियों से कुछ दक्षिण से निकलती है। पंजाब में इसे चितांग कहते हैं। भादरा में फिरोजशाह की बनवाई हुई पश्चिमी यमुना नहर, दृशद्वती के कुछ भाग में दिखायी पड़ती है। भादरा के आगे नोहर तथा दक्षिण में रावतसर के पास इसके रेतीले किनारे दिखते हैं।

    सिंधु घाटी सभ्यता

    सिंधु नदी हिमालय पर्वत से निकल कर पंजाब तथा सिंध प्रदेशों में बहती हुई अरब सागर में मिलती है। इस नदी के दोनों तटों पर तथा इसकी सहायक नदियों के तटों पर जो सभ्यता विकसित हुई उसे सिंधु सभ्यता, हड़प्पा सभ्यता एवं मोहेनजोदड़ो सभ्यता कहा जाता है। यह तृतीय कांस्यकालीन सभ्यता थी तथा इसका काल ईसा से 5000 वर्ष पूर्व से लेकर ईसा से 1750 वर्ष पूर्व तक माना जाता है। इस सभ्यता की दो प्रमुख राजधानियां हड़प्पा (पंजाब में) तथा मोहेनजोदड़ो (सिंध में) मानी जाती हैं। अब ये दोनों स्थल पाकिस्तान में हैं। मोहेनजोदड़ो शब्द का निर्माण सिन्धी भाषा के 'मुएन जो दड़ो' शब्दों से हुआ है जिनका अर्थ है- मृतकों का टीला।

    राजस्थान में इस सभ्यता के अवशेष कालीबंगा एवं रंगमहल आदि में प्राप्त हुए हैं। गंगानगर जिले में रायसिंहनगर से अनूपगढ़ के दक्षिण का भाग तथा हनुमानगढ़ से हरियाणा की सीमा तक के सर्वेक्षण में पाया गया है कि नाईवाला की सूखी धारा में स्थित 4-5 टीलों के नीचे सिंधु घाटी सभ्यता की बस्तियां दबी हुई हैं। इन टीलों पर अब नये गाँव बस चुके हैं। दृषद्वती के सूखे तल में काफी दूर तक टीले स्थित हैं। इस तल में स्थित 7-8 थेड़ों में हड़प्पाकालीन किंतु खुरदरे व कलात्मक कारीगरी रहित मिट्टी के बरतन के टुकड़ों की बहुतायत थी। सरस्वती तल में हड़प्पाकालीन छोटे-छोटे व उन्हीं के पास स्लेटी मिट्टी के बरतनों वाले उतने ही थेड़ मौजूद थे। हरियाणा की सीमा पर ऐसे थेड़ भी पाये गये जिन पर रोपड़ की तरह दोनों प्रकार के हड़प्पा व स्लेटी मिट्टी के ठीकरे मौजूद थे। हनुमानगढ़ किले की दीवार के पास खुदाई करने पर रंगमहल जैसे ठीकरों के साथ कुषाण राजा हुविश्क का तांबे का सिक्का भी मिला है जो इस बात की पुष्टि करता है कि भाटियों का यह किला व अंदर का नगर कुषाण कालीन टीले पर बना है। बीकानेर के उत्तरी भाग की सूखी नदियों के तल में 4-5 तरह के थेड़ पाये गये।

    हमारी नई वैबसाइट - भारत का इतिहास - www.bharatkaitihas.com


  • Share On Social Media:
Categories
SIGN IN
Or sign in with
×
Forgot Password
×
SIGN UP
Already a user ?
×