ये तो कमाल हो गया! जयपुर-अजमेर टोल नाके पर ऐसी विचित्र घटना घटी कि दुकादार तो मेले में लुटे और तमाशबीन अपना सामान बेच गये। राज्य में कानून के मालिक तो हैं विधायक लोग किंतु टोल नाके के कर्मचारियों ने, इन मालिकों से ही लगातार दो दिन तक दो-दो बार गैरकानूनी बदतमीजी करके यह जता दिया कि देश में कानून कैसा और किसका चल रहा है! जो विधायक जनता को उसका अधिकार दिलाने के लिये बने हैं, वे अपने अधिकारों की रक्षा नहीं कर सके। कबीर ने शायद इसीलिये कहा था- पानी में मीन पियासी, मोहे सुन-सुन आवत हांसी!!!!
यह घटना पहली बार नहीं घटी है। जयपुर और कोटा के बीच पड़ने वाले एक टोल नाके पर लगभग डेढ़-दो साल पहले राज्य के परिवहन मंत्री से ही टोल ले लिया गया। मंत्रीजी चिल्लाते रहे कि मैं परिवहन मंत्री हूँ किंतु किसी ने न सुनी। अंत में बेचारे विधानसभा में जाकर चिल्लाये किंतु उस टोल नाके पर अंधेरगर्दी आज भी राज्य कर रही है। अंधेरा कायम रहे!!!!
टोल नाकों पर सामान्यतः यह नहीं लिखा रहता कि यहां कौन-कौन फ्री में निकलेगा! केवल इतना लिखा रहता है कि यहां इस-इस वाहन से इतने-इतने रुपये लिये जायेंगे। सारे सरकारी अधिकारी जिनके पास लाल रेखा खिंची हुई नम्बर प्लेट का वाहन नहीं है और उनके विभागों ने अनुबंध के वाहन लगा रखे हैं, दिन-रात इन टोलनाके वालों से परेशान रहते हैं। बेचारों का अपने ही जिले में सरकारी दौरे पर जाना किसी सर दर्द से कम नहीं होता। करें भी तो करें क्या, जीना यहां, मरना यहां!!!!
टोल नाके भी क्या अजीब सी चीज हैं। न जाने किसने इनका आविष्कार किया होगा। कुछ पढ़े-लिखे से दिखने वाले अनपढ़ टाइप के कर्मचारी बहुत कम सैलेरी में इन नाकों पर तैनात किये जाते हैं। ये कर्मचारी तो केबिन में बैठकर पर्चियां फाड़ते रहते हैं किंतु नाके के पास ही सड़क पर खटिया बिछाकर कुछ बेफिक्रे से लोग ताश खेलते और चाय पीते रहते हैं। जब कभी केबिन वालों को जरूरत पड़ती है तो ये बेफिक्रे से लोग अचानक फिक्रमंद हो जाते हैं। ऐसा लगता है कि जैसे सरकार ने असामाजिक तत्वों को खास तरह का रोजगार दे दिया है। सैंया भये कोतवाल, अब डर काहे का!!!!
लगे हाथों टोल टैक्स की फिलोसोफी पर भी बात कर लें। टोल हर उस आम आदमी को देना होता है जो सड़क पर कम से कम चार पहिया वाहन लेकर निकलता है लेकिन क्यों???? यह समझ में नहीं आता।
सरकार ने हर उस आदमी से पहले ही टैक्स ले लिया है जिसने भी वाहन खरीदा है। हर उस आदमी से टैक्स ले लिया है जिसने भी पैट्रोल या डीजल खरीदा है। हर उस आदमी से फीस ले रखी है जिसने भी ड्राइविंग लाइसेंस बनवाया है। हर उस आदमी से टैक्स ले रखा है जिसने भी आयकर चुकाया है। हर उस आदमी से सर्विस टैक्स ले रखा है जिसने अपने वाहन की मरम्मत करवाई है। हर उस आदमी से वैट ले रखा है जिसने भी अपने वाहन में कोई ऐसेसरी लगवाई है। हर उस आदमी से एज्यूकेशन सैस सहित दूसरे सैस ले रखे हैं जिन्होंने इनकम टैक्स भरा है। कहने का अर्थ ये कि सरकार ने सड़क पर वाहन चलाने वाले हर व्यक्ति से अच्छा-खासा टैक्स कई-कई बार ले रखा है। फिर टोल टैक्स किस बात का ?????
क्या सड़क बनाना सरकार की ड्यूटी नहीं है?? क्या सड़क पर निर्बाध यातायात सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी नहीं है??? क्या आम जनता से टोल लिया जाना और खास जनता को टोल से मुक्त रखा जाना, नागरिकों के बीच भेदभाव करने जैसा नहीं है ???? भारत के टोलनाके अंग्रेजी के इस पुराने जुमले को चरितार्थ करते हुए प्रतीत होते हैं, जिसे जवाहरलाल नेहरू भी दोहराया करते थे- सम पीपुल आर मोर ईक्वल इन डेमोक्रेसी!!!!
टोल का एक गणित यह भी है कि लगभग हर 50 किलोमीटर पर एक टोल नाका है। हर टोल नाके पर एक वाहन कम से कम 15 मिनट तक व्यर्थ ही खड़ा रहकर धुआं छोड़ता है जिससे पर्यावरण प्रदूषित होता है। इस दौरान जलने वाले पैट्रोल एवं डीजल पर जो विदेशी मुद्रा चुकाई जाती है, वह व्यर्थ जाती है। यदि सरकार टोल नाकों को बंद कर दे तो देश को लगभग उतने ही रुपये की बचत हो जायेगी, जितनी कमाई टोल के माध्यम से की जा रही है।
कोढ़ में खाज की स्थिति तो तब बनती है जब जनता से टोल के माध्यम से सड़क की पूरी लागत वसूल कर ली जाती है और टोल फिर भी जारी रहता है। तुलसीदासजी ने लिखा है कि राजा जब पुल बनाता है तो चींटियां भी उस पर चढ़कर नदी के पार चली जाती हैं। यहां तो सारी वसूली ही चींटियों से की जाती है।