बीसवीं सदी के आरंभ में ब्राह्मण शिक्षकों को ईसाई शिक्षकों द्वारा प्रतिस्थापित किया जाने लगा क्योंकि तब तक मिशन द्वारा बहुत से हिन्दुस्तानियों को ईसाई धर्म में परिवर्तित करके उन्हें शिक्षक नियुक्त करने योग्य बना लिया था। इससे ब्राह्मण शिक्षकों में असंतोष पनपा क्योंकि भारत में ब्राह्मण ही यह कार्य परम्परा से करते आ रहे थे। इसलिये सरकार ने ई.1913 में अजमेर मेरवाड़ा क्षेत्र में चल रहे 15 मिशनरी स्कूलों में केवल 9 स्कूलों को बंद कर दिया तथा मिशनरी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या 500 से घटाकर 160 कर दी।
सरकारी स्कूलों के खुलने एवं उनमें अंग्रेजी की शिक्षा दिये जाने से देशी स्कूलों को भी अपने पाठ्यक्रमों में अंग्रेजी की शिक्षा सम्मिलित करनी पड़ी तथा इन स्कूलों का भी तेजी से विकास हुआ। धीरे-धीरे मकतब और पोसालों का स्थान ऐसी पाठशालायें लेने लगीं जिनमें वास्तविक एवं ठोस शिक्षा दी जाती थी। ई.1931-32 में शिक्षा बोर्ड द्वारा ऐसी स्कूलों को 2000 रुपये की आर्थिक सहायता दी गई। इन पाठशालाओं में सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना के बारे में शिक्षा दी जाती थी।
वर्तमान समय में अजमेर की शिक्षण संस्थायें
अजमेर का राजकीय महाविद्यालय राजस्थान का पहला महाविद्यालय है। दयानन्द महाविद्यालय अपनी कृषि स्नातक शिक्षा के लिये प्रसिद्ध रहा है। इस महाविद्यालय में कृषि फार्म, डेयरी, तरणताल तथा कृषि विज्ञान की प्रयोगशालायें देखने योग्य हैं। इन दोनों महाविद्यालयों का उल्लेख प्रसंगानुसार पूर्व के अध्यायों में कर दिया गया है। महिला शिक्षा के लिये यहाँ का अंग्रजी माध्यम का सोफिया कॉलेज भारत के सर्वश्रेष्ठ कॉलेजो में गिना जाता है। इस महाविद्यालय की छात्रायें अपने आधुनिक विचारों एवं आधुनिकतम परिधानों के लिये प्रसिद्ध हैं। सावित्री कॉलेज महिलाओं का हिन्दी माध्यम कॉलेज है। आदर्शनगर में अन्ध विद्यालय भी अजमेर की महत्त्वपूर्ण शिक्षण संस्थाओं में से एक है। मूक एवं बधिरों के लिए भी एक विद्यालय लम्बे समय से कार्यरत है। मेयो कॉलेज भी भारत के शैक्षणिक जगत में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसका उल्लेख भी प्रसंगानुसार पूर्व के अध्याय मंू अलग से कर दिया गया है।
महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय
1 अगस्त 1987 को अजमेर विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। अपनी स्थापना के साथ ही इसके कंधों पर राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में निवास कर रहे लगभग 1.5 लाख विद्यार्थियों के लिये परीक्षाएं आयोजित करने का भार आ गया। ई.1990 में अजमेर विश्वविद्यालय में इतिहास, राजनीति विज्ञान, प्राणी शास्त्र, वनस्पति शास्त्र तथा गणित विभाग आरंभ किये गये। ई.1991 में एम.फिल. की उपाधि आरंभ की गई। इसी वर्ष पर्यावरण प्रौद्यागिकी, माइक्रोबायोलोजी आदि में पीजी डिप्लोमा तथा व्यवसायोन्मुखी पाठ्यक्रम आरंभ किये गये।
प्रयोगशालाओं की स्थापना की गई। मई 1992 में अजमेर विश्वविद्यालय का नाम बदलकर महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय किया गया। ई.1993 में इसे नये परिसर में स्थानांतरित किया गया। इस वर्ष माइक्रोबायोलॉजी विभाग, खाद्य एवं पोषण विभाग, एप्लाईड कैमिस्ट्री, प्रबंधन अध्ययन एवं कम्प्यूटर एप्लीकेशन्स विभाग आरम्भ किये गये। इसके बाद के कुछ ही वर्षों में विभिन्न विभागों में शोध कार्य, शोध पाठ्यक्रम तथा पीएचडी डिग्री हेतु प्रयोग एवं अध्ययन आरंभ किया गया। वर्तमान में इसमें 24 विभिन्न विभाग हैं।
इस विश्वविद्यालय से राज्य के 9 जिलों के 214 राजकीय एवं निजी क्षेत्र के महाविद्यालय सम्बद्ध हैं। इस विश्वविद्यालय द्वारा वर्तमान में लगभग 1.35 लाख विद्यार्थियों के लिये प्रतिवर्ष विभिन्न परीक्षायें आयोजित करवाई जाती हैं। इसका मुख्य परिसर अजमेर से सात किलोमीटर दूर घूघरा गांव के निकट अजमेर-जयपुर सड़क पर स्थित है। यह बहुत सुंदर बना हुआ है।
केन्द्रीय विश्वविद्यालय
केन्द्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना 20 मार्च 2009 को हुई। यह अजमेर-जयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर किशनगढ़ के पास बांदरा सिंदरी में मुख्य मार्ग से सात सौ मीटर दूर स्थापित की गई है। जो अजमेर से 46 किलोमीटर दूर है। इसके प्रथम चांसलर प्रो. एम. एम. सांखुले थे।
क्षेत्रीय महाविद्यालय
पुष्कर रोड पर स्थित क्षेत्रीय महाविद्यालय की स्थापना ई.1963 में हुई। इसमें देश भर से छात्र-छात्राएं पढ़ने के लिये आते हैं। इसके परिसर में डिमोंस्ट्रेशन स्कूल स्थापित हैं। इस संस्था में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा में होने वाले परिवर्तनों का परीक्षण किया जाता है।
सोफिया कॉलेज
सोफिया कॉलेज की स्थापना ई.1919 में कन्या विद्यालय के रूप में हुई। ई.1926 में इसे पब्लिक इंग्लिश स्कूल के रूप में मान्यता दे दी गई। ई.1927 में इसे शिक्षा विभाग द्वारा अनुदान देना आरंभ किया गया। ई.1935 में यह हाईस्कूल के रूप में क्रमोन्नत किया गया। ई.1942 में यह इंटर कॉलेज बना। यह राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त संस्थान है। ई.1959 में यहां त्रिवर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम आरंभ किया गया। तब इसे राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर से सम्बद्ध किया गया। वर्तमान में यह महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय से सम्बद्ध है।
सावित्री कॉलेज
सावित्री कॉलेज की स्थापना ई.1914 में प्राथमिक कन्या विद्यालय के रूप में की गई। इसे ई.1933 में हाईस्कूल के रूप में क्रमोन्नत किया गया। ई.1943 में इसे इण्टमीडियेट कॉलेज के रूप में तथा ई.1951 में डिग्री कॉलेज के रूप में क्रमोन्नत किया गया। अब यहाँ स्नातकोत्तर तक की शिक्षा होती है। संगीत एवं चित्रकला की शिक्षा भी स्नातकोत्तर स्तर पर दी जाती है।
कॉन्वेण्ट गर्ल्स कॉलेज
अजमेर का कॉन्वेण्ट गर्ल्स कॉलेज इण्टर कॉलेज के रूप में खोला गया था। बाद में इसमें डिग्री की पढ़ाई करवाई जाने लगी।
व्यावसायिक महाविद्यालय
अजमेर के व्यावसायिक महाविद्यालयों में जियालाल शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान, राजकीय शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान, हरिभाऊ उपाध्याय महिला शिक्षक महाविद्यालय के नाम प्रमुख हैं। अजमेर में जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज, राजकीय पोलिटेक्निक कॉलेज, महिला पोलिटेक्निक कॉलेज तथा औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान भी स्थित हैं।
अजमेर में महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय के नाम से यूनीवर्सिटी की भी स्थापना की गई है। संस्कृत शिक्षा के लिये राजकीय शास्त्री संस्कृत महाविद्यालय भी कार्यरत है। पश्चिम रेल्वे के कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने के लिये यहाँ का प्रशिक्षण केन्द्र पूरे हिन्दुस्तान में प्रसिद्ध रहा है। अजमेर का विजयसिंह पथिक श्रमजीवी कॉलेज भी किसी समय पूरे भारत में प्रसिद्ध था। वर्तमान में भी जिले में उच्च शिक्षण संस्थाओं का निरंतर विकास हो रहा है। वर्तमान में अजमेर जिले में एक विश्वविद्यालय, 13 स्नातकोत्तर महाविद्यालय, 18 स्नातक महाविद्यालय, 2 अभियांत्रिकी महाविद्यालय, 2 पॉलिटेक्निक कॉलेज, 6 बी. एड. कॉलेज व 3 एम. बी. ए. संस्थान कार्यरत हैं।
संगीत महाविद्यालय
19 अक्टूबर 1942 को अजमेर में एन. एन. आयंगर ने अजमेर में संगीत समाज की स्थापना की। इस संस्थान ने संगीत महाविद्यालय की स्थापना की जिसके प्रथम प्राचार्य वी. एन. इनामदार थे। प्रारंभ में यह महाविद्यालय गन्धर्व महाविद्यालय से सम्बद्ध रहा। इसके बाद माधव संगीत महाविद्यालय से जोड़ा गया। ई.1960 से यह बैरागढ़ भोपाल के इंद्रा कला संगीत विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हो गया। केन्द्रीय संगीत नाट्य अकादमी एवं राजस्थान संगीत एवं नाटक अकादमी से भी इसे सम्बद्धता प्राप्त है। यहां नृत्य शिक्षण की भी व्यवस्था है।
विजयसिंह पथिक श्रमजीवी महाविद्यालय
विजयसिंह पथिक श्रमजीवी महाविद्यालय की स्थापना राजस्थान विद्यापीठ उदयपुर द्वारा 5 अगस्त 1968 को की गई।
माध्यमिक शिक्षा बोर्ड
पूरे राजस्थान में दसवीं तथा बारहवीं कक्षाओं की परीक्षायें आयोजित करने वाला माध्यमिक शिक्षा बोर्ड अजमेर में स्थित है। इसकी स्थापना ई.1957 में हुई। यह बोर्ड ई.1958 से 1962 तक हाई स्कूल, हायर सैकेण्डरी तथा इन्टरमीडियेट की परीक्षायें आयोजित करता था। ई.1962 से इन्टरमीडियेट की परीक्षाएं बन्द कर दी गईं। ई.1964 से संस्कृत शालाओं के लिये प्रवेशिका और उपाध्याय परीक्षायें आयोजित की जाने लगीं। ई.1965 से हाई स्कूल परीक्षा के स्थान पर सैकेण्डरी परीक्षा आयोजित की जाने लगी। ई.1986 से सैकेण्डरी व सीनियर सैकेण्डरी (10 तथा 10+2) कक्षाओं की परीक्षायें आयोजित की जा रही हैं। बोर्ड द्वारा प्रतिवर्ष 25 हजार स्वयंपाठी विद्यार्थियों का शिक्षण तथा लगभग 8 लाख विद्यार्थियों की परीक्षायें आयोजित की जाती हैं।
अंध विद्यालय
अंध महाविद्यालय नेत्रहीनों की शिक्षा के लिये अंध विद्यालय की स्थापना ई.1935 में श्रीमती मनोरमा टण्डन एवं अन्य समाज सेवियों के प्रयासों से हुई। ई.1951 में इसे केन्द्र सरकार ने आदर्श बाल अंध विद्यालय का स्वरूप दे दिया। ई.1956 से यह राजस्थान सरकार के अधीन कार्य कर रहा है।
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : राजस्थान के स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं का योगदान
22.12.2021
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी - 194
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : राजस्थान के स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं का योगदान
1. प्रश्न -राजस्थान में महिलाओं में राजनीतिक चेतना का आरंभ कब हुआ?
उतर- ई.1930 के नमक सत्याग्रह से।
2. प्रश्न -प्रकाशवती सिन्हा किस नगर से सम्बन्धित हैं?
उतर- अजमेर
3. प्रश्न -राजस्थान की प्रमुख महिला स्वतंत्रता सेनानियों के नाम बताईये जिन्होंने अगस्त क्रांति में भाग लिया?
उतर- रमा देवी पाण्डे, सुमित्रा देवी खेतानी, इन्दिरा देवी शास्त्री, विद्या देवी, गौतमी देवी भार्गव, मनोरमा पण्डित, मनोरमा टण्डन, प्रियंवदा चतुर्वेदी और विजया बाई।
4. प्रश्न -राजस्थान के किन नेताओं की पत्नियों ने सत्याग्रह आंदोलन में भाग लेकर जेल की यात्रा की?3
उतर- 1. रामनारायण चौधरी की पत्नी अंजना देवी,
2. माणिक्य लाल वर्मा की पत्नी नारायण देवी,
3. हीरालाल शास्त्री की पत्नी रतन शास्त्री।
5. प्रश्न -भील बाला काली बाई 19 जून 1947 को किस संघर्ष में शहीद हुई?
उतर- रास्तापाल सत्याग्रह में।
6. प्रश्न -राजस्थान की महिला स्वतंत्रता आंदोलनकारी सावित्री देवी भाटी कहाँ की निवासी थीं?
उतर- जोधपुर की।
7. प्रश्न -महिला स्वतंत्रता आंदोलनकारी भगवती देवी कहाँ की निवासी थीं?
उतर- उदयपुर की।
8. प्रश्न -महिला स्वतंत्रता आंदोलनकारी लक्ष्मीदेवी आचार्य कहाँ की निवासी थीं?+
उतर- बीकानेर की।
9. प्रश्न -महिला स्वतंत्रता आंदोलनकारी कुसुम कुमारी गुप्ता कहाँ की निवासी थीं?
किसी क्षेत्र में मिलने वाले खनिज, उस क्षेत्र के पर्यावरण का प्रमुख अंग होते हैं। सीकर जिले के खेतड़ी क्षेत्र तथा उदयपुर जिले की जावर खान से मोहनजोदड़ो और हड़प्पा काल में भी धातुओं का खनन होता था। खेतड़ी क्षेत्र तांबा उत्पादन के लिये तथा जावर खान चांदी उत्पादन के लिये जानी जाती थी। उदयपुर जिले की जावर खान राजस्थान की प्राचीन खानों में से है। मेवाड़ रियासत की समृद्धि में इस खान का महत्त्वपूर्ण योगदान था। खनिज की उपलब्धता एवं उत्पादन की दृष्टि से राजस्थान समृद्ध राज्य है। देश में सर्वाधिक खानें तथा देश के 90 प्रतिशत खनिज भण्डार राजस्थान में उपलब्ध हैं किंतु खनिज उत्पादन की दृष्टि से राजस्थान का, झारखण्ड के बाद देश में दूसरा स्थान है। खनिज उत्पादन के मूल्य की दृष्टि से राजस्थान का पूरे देश में आठवां स्थान है। राजस्थान को खनिजों से प्रतिवर्ष औसतन 100 मिलियन अमरीकी डॉलर रॉयल्टी प्राप्त होती है। प्रदेश में कुल 65 प्रकार के खनिज उपलब्ध हैं। इनमें से 42 प्रकार के प्रधान (उंरवत) एवं 23 प्रकार के अप्रधान (उपदवत) खनिज हैं। इनके खनन में लगभग सवा तीन लाख श्रमिक लगे हुए हैं। खनिजों से राजस्थान में बीस लाख लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिलता है।
राजस्थान में खनिज उत्पादन
राज्य में प्रधान खनिजों के 2,849 खनन पट्टे तथा अप्रधान खनिजों के 11,849 खनन पट्टे एवं 16,297 उत्खनन लाईसेन्स हैं। वित्तीय वर्ष 2012-13 में भारत में 2,22,747 करोड़ रुपये मूल्य के खनिज प्राप्त किये गये जबकि राजस्थान में 23,503 करोड़ रुपये मूल्य खनिज प्राप्त किये गये जो कि देश का 10.6 प्रतिशत हैं। राजस्थान में कॉपर ओर के 35 मिलियन टन, सीसा एवं जस्ता ओर के 75 मिलियन टन, जिप्सम के 70 मिलियन टन, लाइमस्टोन के 1990 मिलियन टन तथा रॉक फॉस्फेट के 60 मिलियन टन भण्डार उपस्थित हैं। देश के कुल अधात्विक खनिजों में 24 प्रतिशत भागीदारी राजस्थान की है। गारनेट (तामड़ा), एमरल, वॉल्सोनाइट तथा जेस्पार खनिज पूरे देश में केवल राजस्थान प्रदेश में ही मिलते हैं।
संगमरमर, रॉक फॉस्फेट, जिप्सम, एस्बेस्टॉस, सिलिका, फास्फोराइट, जस्ता, सीसा, फैल्सपार, सोपस्टोन (घीया पत्थर), टंग्सटन, कैल्साइट, बिरिल, वुल्फ्रेमाइट, तम्बा तथा इमारती पत्थर की दृष्टि से राजस्थान का देश के खनिज उत्पादन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। देश का 77 प्रतिशत सीसा, 56 प्रतिशत टंगस्टन, 99 प्रतिशत जिंक, 89 प्रतिशत एस्बेस्टॉस, 80 प्रतिशत सोपस्टोन, 55 प्रतिशत बॉलक्ले, 66 प्रतिशत ऑकर, 70 प्रतिशत फेल्सपार, 50 प्रतिशत वुल्फ्रेमाइट तथा 36 प्रतिशत ताम्बा राजस्थान में निकालता है।
प्रधान खनिज
खनिज रियायती नियम 1960 के अंतर्गत आने वाले खनिज, प्रधान खनिज कहलाते हैं। इनके लिये नियमों एवं रॉयल्टी का निर्धारण केंद्र सरकार द्वारा किया जाता है। इन खनिजों का प्रयोग औद्योगिक उत्पादन में किया जाता है। इन खनिजों के खनन की पट्टा अवधि 20 या 30 वर्ष की होती है तथा अधिकतम 10 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र खनन हेतु स्वीकृत किया जाता है।
अप्रधान खनिज
अप्रधान खनिज रियायती नियम 1986 के अंतर्गत आने वाले खनिज, अप्रधान खनिज कहलाते हैं। इनके लिये नियमों एवं रॉयल्टी का निर्धारण राज्य सरकार द्वारा किया जाता है। इन खनिजों का प्रयोग भवन निर्माण में होता है।
राजस्थान के प्रमुख धात्विक खनिज
राजस्थान के धातु खनिज में तांबा, सीसा, जस्ता, लोहा तथा चांदी का प्रमुख स्थान है। इनमें से कोई भी धातु अपने शुद्ध रूप में नहीं पायी जाती अपितु इनके अयस्क प्राप्त होते हैं।
सीसा एवं जस्ता : राजस्थान में सीसा एवं जस्ता मिश्रित अवस्था में सल्फाइड्स के रूप में मिलता है। गैलेना, सिरूसाइट और एंगलीसाइट सीसे के प्रमुख अयस्क हैं। जस्ते के प्रमुख अयस्कों में सैल्फेराइट, स्मिथसोनाइट, विलेमाइट, जिन्काइट और हैमीमार्फाइट मिलते हैं। सीसे का उपयोग बैटरी, केबल कवरिंग, व्हाइटलेड और ब्रास निर्माण में तथा जस्ता का उपयोग दवाइयां और रसायन बनाने में होता है। जस्ता सांद्रण से जस्ता पिण्ड के निर्माण में चांदी और कैडमियम उप उत्पाद के रूप में प्राप्त होते हैं। राज्य में सीसा-जस्ता अयस्क के 3,330 लाख टन के भण्डार हैं। देश का 100 प्रतिशत जस्ता उत्पादन तथा 85 प्रतिशत सीसा उत्पादन राजस्थान में होता है। उदयपुर जिले के जावर, मोचिया मगरा, बलारिया, बरोड़ मगरा राजसमंद जिले के राजपुरा दरीबा, बामनियां कला, अजमेर जिले की घूघरा घाटी तथा सिरोही जिले के डेरी क्षेत्र में सीसा एवं जस्ता के अयस्क पाये जाते हैं। भीलवाड़ा जिले के रामपुर-आगूचा, पुर तथा बनेड़ा क्षेत्र में भी सीसा एवं जस्ता के बड़े भण्डार उपलब्ध हैं।
गारनेट : भीलवाड़ा के आंगुचा से गारनेट भी प्राप्त किया जाता है।
तांबा : तांबा उत्पादन की दृष्टि से राजस्थान का देश में दूसरा स्थान है। राज्य में 2008-09 में 10.5 लाख टन तांबा अयस्क का उत्पादन हुआ। झुंझुनूं जिले के खेतड़ी-सिंघाना, मदन कुदान, कोलिहां, चांदमारी, अकवाली, सतकुई, करमारी और बनवास में तांबा अयस्क मिलता है। सिरोही जिले के बसंतगढ़, पीपेला, अजारी, गोलिया, सीकर जिले के बालेसर, तेजावाला, अहीरवाला एवं अलवर जिले के प्रतापगढ़-खो, दरीबा भगोनी क्षेत्र में भी तांबा अयस्क मिलता है।
टंगस्टन : राज्य में नागौर जिले के डेगाना कस्बे के पास स्थित रावल पहाड़ी एवं सिरोही जिले के बाल्दा बड़ाबरा क्षेत्र से टंगस्टन का उत्पादन हुआ करता था किंतु डेगाना क्षेत्र में टंगस्टन की मात्रा अत्यंत कम हो जाने के कारण एवं बाल्दा-बडाबरा क्षेत्र के वन क्षेत्र में स्थित होने के कारण दोनों ही स्थानों से टंगस्टन उत्पादन बंद कर दिया गया है।
लोहा : राज्य में अच्छी किस्म के लोहे के सीमित भण्डार हैं। राज्य में अधिकांश लोहा हेमेटाइट किस्म का है जिसमें लौह तत्व 50 प्रतिशत से कम है। वर्ष 2008-09 में राज्य में 60.45 हजार टन लौह अयस्क का खनन हुआ। जयपुर, अलवर, झुंझुनूं, भीलवाड़ा एवं उदयपुर जिलों में इसके भण्डार मौजूद हैं।
सोना : राजस्थान में सोना खेतड़ी स्थित तांबा परिद्रावण संयत्र से सहउत्पाद के रूप में प्राप्त होता है। बांसवाड़ा जिले के भूखिया, आनंदपुरी, सादड़ी, सिरोही जिले के अजारी, धनवाव आदि क्षेत्रों में भी सोने की उपस्थिति का पता चला है। यहाँ प्रति टन खनिज में स्वर्ण की मात्रा 0.18 से 2.5 ग्राम मिलने के संकेत हैं।
चांदी : चांदी के अयस्क सामान्यतः प्राइरार्जिराइट, अर्जेण्टाइट, पॉलीबैसाइट, प्राउस्टाइट और सेरार्जिराइट खनिज अयस्कों से प्राप्त होती है। चांदी के अयस्क सामान्यतः तांबा, सीसा एवं जस्ता अयस्कों के साथ पाये जाते हैं। राजस्थान में चांदी हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड के परिद्रावण संयंत्रों से सह-उत्पाद के रूप में प्राप्त होती है। देश का 76 प्रतिशत चांदी उत्पादन राजस्थान में होता है।
फेल्सपार : फेल्सपार रासायनिक दृष्टि से सोडियम, पोटेशियम एवं कैल्शियम के सिलिकेट्स हैं। राज्य में इस खनिज की प्राप्ति पेग्मेटाइट चट्टानों से होती है। देश में फेल्सपार के कुल 161.38 लाख टन के भण्डार हैं जिनमें से 98.67 लाख टन के भण्डार राजस्थान में मौजूद हैं। राजस्थान में उत्पादित फेल्सपार उच्च कोटि का है। इसके उत्पादन में अजमेर जिला सर्वाग्रणी है। इसका उपयोग कांच, मीनाकारी, चीनी मिट्टी के बर्तन और सफेद सीमेंट बनाने में होता है। अजमेर के अतिरिक्त जयपुर में भी इसका खनन होता है।
राजस्थान के प्रमुख अधात्विक खनिज
रॉक फास्फेट : फास्फोरस के दो प्रमुख अयस्क हैं- एपेटाइट और रॉक फॉस्फेट। रॉक फॉस्फेट का उपयोग रासायनिक उर्वरकों तथा फास्फोरिक अम्ल को बनाने में होता है। राजस्थान में रॉक फॉस्फेट उदयपुर, जैसलमेर, बांसवाड़ा, सीकर, जयपुर और अलवर जिलों में मिलता है। के 175 मिलियन टन के भण्डार अनुमानित किये गये हैं। रॉक फॉस्फेट उत्पादन करने वाले राज्यों में राजस्थान का देश में प्रथम स्थान है। उदयपुर जिले के झामरकोटड़ा क्षेत्र में ई. 1968 में देश का सबसे बड़ा रॉक फॉस्फेट भण्डार खोजा गया। भारत के खनिज जगत में यह बीसवीं शताब्दी की महत्त्वपूर्ण घटनाओं में से एक मानी गयी।
चूना पत्थर : इसका खनिज का सर्वाधिक उपयोग सीमेंट बनाने में किया जाता है। इसके अलावा कांच, शक्कर, कागज, कैल्सियम कार्बाइड एवं चमड़ा उद्योग में भी इसका उपयोग होता है। ब्लीचिंग पाउडर, सोडा ऐश, कैल्सियम क्लोराइड तथा उर्वरकों के निर्माण में भी इसका उपयोग होता है। राजस्थान में चूना पत्थर का अनुमानित भण्डार सात हजार मिलियन टन है जो देश के कुल अनुमानित भण्डार का 10 प्रतिशत है। नागौर, सिरोही, चित्तौड़गढ़, जैसलमेर तथा कोटा जिलों में इसका अधिक उत्पादन होता है।
अभ्रक : मैग्नेटाइट और पेग्मेटाइट चट्टानों से अभ्रक प्राप्त होता है। इसका उपयोग विद्युत उपकरणों, औषधि निर्माण, तार एवं टेलिफोन, विद्युत के विभिन्न संयत्रों, रेडियो वायुयान, मोटर गाड़ियों, लालटेन की चिमनियों, प्रसाधन सामग्री, इंसुलेटर, चश्मों, मकान की खिड़कियों तथा इंसुलेटिंग ईंटों के निर्माण में होता है। राजस्थान में अभ्रक का खनन भीलवाड़ा जिले में पोटला, गंगापुर, सहाड़ा, मांडल, जामोली, रायपुर बागौर महेंद्रगढ़ आदि स्थानों पर होता है। पोटला क्षेत्र में लेपिडोलाइट तथा शेष क्षेत्रों में मस्कोवाइट (सफेद अभ्रक) मिलता है। अजमेर जिले में मांगलियावास, सरवाड़, केकड़ी, जवाजा, नसीराबाद तथा किशनगढ़ खेत्रों में मस्कोवाइट प्राप्त होता है। भीलवाड़ा राजस्थान की प्रमुख अभ्रक मण्डी के रूप में जाना जाता है। देश का 12 प्रतिशत माइका राजस्थान में उत्पादित होता है।
एस्बेस्टॉस : यह प्राकृतिक रूप से उपलब्ध रेशे वाला खनिज है। यह अघुलनशील एवं ताप अवरोधक है। इसका उपयोग ताप अवरोधक वस्तुओं, सीमेण्ट की चादरों, पाइप, बॉयलर्स, तथा सिनेमाहॉल के पर्दे के निर्माण में होता है। उदयपुर, राजसमंद, डूंगरपुर, अजमेर तथा पाली जिलों में इसकी खानें मिलती हैं। देश का 84 प्रतिशत एस्बेस्टॉस राजस्थान में उत्पादित होता है।
बेण्टोनाइट : बेण्टोनाइट खनिज क्ले की महत्त्वपूर्ण किस्म है। फूलने वाली बेण्टोनाइट क्ले को सोडियम बेण्टोनाइट तथा न फूलने वाली बेण्टोनाइट क्ले को कैल्सियम बेण्टोनाइट कहतेे हैं। इस खनिज का उपयोग तेल के कुंओं की खुदाई, तेल के शोधन, डायमण्ड ड्रिलिंग तथा फाउण्ड्रीज में होता है। राज्य में इस खनिज का एकमात्र उत्पादक जिला बाड़मेर है जहाँ गिरल, हाथी सिंह की ढाणी, सोनेरी, अकली, थुम्बली आदि क्षेत्रों में इसकी खानें मौजूद हैं।
जिप्सम : यह राज्य का प्रमुख अधात्विक खनिज है। यह चूरू-बीकानेर-श्रीगंगानगर पट्टी में बहुतायत से पाया जाता है। नागौर जिले के गोटन, खारिया खंगार, भदवासिया आदि क्षेत्रों में जिप्सम के भण्डार स्थित हैं। जैसलमेर जिले के नाचना क्षेत्र में भी जिप्सम के बड़े भण्डार हैं। इसका उपयोग उर्वरक के रूप में किया जाता है। फिल्म उद्योग तथा चिकित्सा क्षेत्र में काम आने वाला प्लास्टर ऑफ पेरिस भी जिप्सम से ही बनाया जाता है। देश का 94 प्रतिशत जिप्सम राजस्थान में उत्पादित होता है। यह अत्यंत बारीक कणों में बदलकर हवा में घुल जाता है जिससे यह पर्यावरण को प्रदूषित करता है।
राजस्थान के प्रमुख इमारती पत्थर
राजस्थान में विविध प्रकार के पत्थरों के विशाल भण्डार उपस्थित हैं। भारत का 65 प्रतिशत पत्थर उत्पादन राजस्थान में होता है।
ग्रेनाइट : यह आग्नेय चट्टानों से प्राप्त होता है। राजस्थान में ग्रेनाइट के भण्डार अरावली पर्वतीय क्षेत्र एवं पश्चिमी राजस्थान में स्थित हैं। इसकी कटाई, घिसाई एवं पॉलिश करके इसकी चमकदार टाइलें एवं स्लैब बना लिये जाते हैं जिनका उपयोग भवनों के बाहरी हिस्सों को सजाने, भीतरी हिस्सों में फर्श, अलमारी एवं चौखटें आदि बनाने में होता है। जालोर, सिरोही, बाड़मेर, भीलवाड़ा जिलों में पाया जाने वाला ग्रेनाइट अधिक प्रसिद्ध है। इसका निर्यात भी बड़े पैमाने पर किया जाता है।
संगमरमर : राजस्थान में विभिन्न रंगों वाला संगमरमर पाया जाता है। भारत में उपलब्ध कुल संगमरमर का 95 प्रतिशत राजस्थान में पाया जाता है। राज्य के नागौर, राजसमंद उदयपुर, अलवर, सिरोही, जयपुर, पाली, जैसलमेर, अजमेर, डूंगरपुर तथा बांसवाड़ा आदि 19 जिलों में विभिन्न प्रकार का संगमरमर पाया जाता है।
सैण्ड स्टोन : यह अवसादी चट्टानों से प्राप्त होता है। कोटा, बूंदी, भीलवाड़ा, करौली, धौलपुर, भरतपुर, जोधपुर, नागौर तथा चित्तौड़गढ़ जिलों में इसकी खानें स्थित हैं।
छीतर पत्थर : यह पत्थर जोधपुर के आस पास की खानों में पाया जाता है। यह हल्के गुलाबी रंग का संरंध्र पत्थर है। इससे जोधपुर शहर की अनेक इमारतें बनायी गयी हैं। जोधपुर का उम्मेद पैलेस इसी पत्थर के नाम पर छीतर पैलेस कहताता है।
घाटू पत्थर : जोधपुर के आस पास की खानों में लाल रंग का घाटू पत्थर मिलता है। मध्यकाल में बनी अनेक ऐतिहासिक इमारतें इसी पत्थर से बनी हैं।
राजस्थान का खनिज ईंधन
प्राकृतिक गैस : राज्य में प्राकृतिक गैस के विपुल भण्डार उपलब्ध हैं। जैसलमेर जिले के मनहेरा टिब्बा, तन्नोट, पूर्वी तन्नोट, डंाडेवाला और बागी टिब्बा में प्राकृतिक गैस का वाणिज्यिक उत्पादन हो रहा है। रामगढ़ में गैस आधारित विद्युत उत्पादन इकाई स्थापित की गयी है। इस क्षेत्र में प्राकृतिक गैस की खोज एवं संचालन का कार्य निजी क्षेत्र और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सौंपा गया है। बीकानेर जिले में 950 मिलियन टन कोल बैड मीथेन गैस उपलब्ध है जिससे 5500 मेगावाट क्षमता का बिजलीघर अथवा 2500 टन प्रतिदिन उत्पादन क्षमता वाला यूरिया संयंत्र लगाया जा सकता है। यह कोल बैड मीथेन 500 मीटर की गहराई पर उपलब्ध है।
कोयला : राजस्थान में टरशियरी क्रम का लिग्नाइट कोयला पाया जाता है। एक अनुमान के अनुसार राजस्थान में लिग्नाइट के 9,800 लाख टन भण्डार मौजूद हैं। देश का 40 प्रतिशत लिग्नाईट उत्पादन राजस्थान में होता है। बाड़मेर के गिरल, कपूरड़ी, जालिपा, भाड़का, बीकानेर जिले के पलाना, गुढ़ा, बिथनोक, बरसिंघसर, मांडल चारण, रानेरी हाड़ला तथा नागौर जिले में कसनऊ, मेड़ता, लूनसरा आदि क्षेत्रों में लिग्नाईट का खनन होता है।
खनिज तेल : राजस्थान ब्लॉक में 7.3 बिलियन बैरल ऑयल समतुल्य (अरब बैरल) कच्चा तेल उपलब्ध है। वर्तमान में राजस्थान ब्लॉक से 1,75,000 बैरल कच्चा तेल प्रतिदिन निकाला जा रहा है जो कि भारत के कुल प्रतिदिन उत्पादन का 23.33 प्रतिशत होता है। उपलब्धता के आधार पर राजस्थान ब्लॉक से 3 लाख बैरल कच्चा तेल प्रतिदिन निकाला जा सकता है जो कि भारत के कुल उत्पादन का 40 प्रतिशत होता है।
राजस्थान राजस्व मण्डल की स्थापना नवम्बर 1949 में जयपुर में हुई। इसके प्रथम अध्यक्ष ब्रजचंद शर्मा थे। 22 जुलाई 1958 को राजस्व मण्डल का अजमेर में हस्तांतरण किया गया। इसका प्रथम कार्यालय तोपदड़ा स्कूल के पीछे स्थित था। 26 जनवरी 1959 को इसे नये भवन में स्थानांतरित किया गया। मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाड़िया ने इसका उद्घाटन किया। वर्तमान में राजस्व मण्डल में एक अध्यक्ष तथा अधिकतम 15 सदस्य होते हैं।
राजस्थान लोक सेवा आयोग
स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले राजस्थान की विभिन्न रियासतों में अपने-अपने लो सेवा आयोग काम कर रहे थे। 16 अगस्त 1949 को जयपुर में राजस्थान लोक सेवा आयोग का गठन किया गया। सरदार पटेल ने इसका उद्घाटन किया। इसके प्रथम अध्यक्ष मुख्य न्यायाधीश सर एस. के. घोष थे। कैपिटल इन्क्वायरी कमेटी की अनुशंसा पर 1 अगस्त 1958 को इसे अजमेर में स्थानांतरित कर दिया गया।
रेलवे भर्ती बोर्ड
रेलवे भर्ती बोर्ड की स्थापना ई.1983 में रेलवे सेवा आयोग अजमेर के रूप में हुई। ई.1985 में इसका नाम बदलकर रेलवे भर्ती बोर्ड किया गया। यह उत्तर पश्चिम रेलवे के अजमेर, जयपुर, जोधपुर, बीकानेर डिवीजन और पश्चिम रेलवे के कोटा डिवीजन के गु्रप सी के वर्किंग व सुपरवाइजरी स्टाफ का चयन करता है।
आयुर्वेद निदेशालय
आयुर्वेद निदेशालय की स्थापना अजमेर के राजस्थान में विलय के पश्चात् की गई। यह राज्य के आयुर्वेद एवं यूनानी अस्पतालों का नियंत्रण करता है।
राष्ट्रीय बीजीय मसाला अनुसंधान केन्द्र
राष्ट्रीय बीजीय मसाला अनुसंधान केन्द्र राष्ट्रीय महत्व का संस्थान है जिसमें बीजीय मसालों पर अनुसंधान की जाती है।
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : भारतीय संघ में विलय
22.12.2021
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी - 195
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : भारतीय संघ में विलय
ई.1858 में भारत का शासन संभालने से पहले ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत को दो तरह की राजनीतिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत ला चुकी थी। पहल व्यवस्था के तहत वे भूभाग थे जो प्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी शासन के अधीन थे। दूसरी व्यवस्था के अंतर्गत वे क्षेत्र थे जिन पर राजाओं का शासन था तथा अंग्रेज इन क्षेत्रों पर राजाओं के माध्यम से शासन कर रहे थे। ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत पर नियुक्त गवर्नर जनरल देशी राज्यों पर वायसराय के नाम से शासन करता था। ई.1925 के आसपास इन दोनों व्यवस्थाओं को एक ही संघ में लाने की मांग आरम्भ होने लगी। यह मांग ब्रिटिश भारत से उठी तथा अंग्रेजों ने उसका समर्थन किया। ई.1927 में साइमन कमीशन की नियुक्ति से लेकर ई.1935 में गवर्नमेंट ऑफ इण्डिया एक्ट 1935 बनने तक ये प्रयास तेजी से चले। देशी राजाओं ने पहले तो इस कार्य का समर्थन किया किंतु बाद में वे समझ गये कि इससे उनकी सत्ता समाप्त हो जायेगी। इस कारण वे विरोध करने लगे। ई.1939 में द्वितीय विश्व युद्ध आरम्भ हो जाने के कारण इस कार्य को बीच में ही छोड़ दिया गया किंतु जब अंग्रेजों को युद्ध के मोर्चे पर हार दिखाई देने लगी तब उन्होंने भारतीय सहयोग को प्राप्त करने के लिये भारत को आजादी देने का वचन दोहराया। इसी के साथ भारतीय संघ के निर्माण की मांग फिर से तेज हो गई। जब देश आजाद होने लगा तो भारत दो संघों- भारत एवं पाकिस्तान के रूप में अस्तित्व में आया। कुछ देशी राजा चाहते थे कि वे अपने लिये अलग देश का निर्माण कर लें किंतु सरदार पटेल तथा माउण्टबेटन द्वारा देशी राजाओं को घेर कर इन संघों में विलय किया गया।
1. प्रश्न -भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 की धारा 8 में क्या प्रावधान किया गया था?
उतर- इस धारा के द्वारा भारत के आजाद होने पर देशी रियासतों पर से ब्रिटिश सरकार की सर्वोच्चता समाप्त हो गयी तथा यह सर्वोच्चता पुनः देशी रियासतों को हस्तांतरित कर दी गयी।
2. प्रश्न -भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 की धारा 8 से देशी रियासतों को क्या छूट मिल गई?
उतर- देशी रियासतें अपनी इच्छानुसार भारत अथवा पाकिस्तान में से किसी भी देश में सम्मिलित हो सकती थीं अथवा पृथक अस्तित्व बनाये रख सकती थीं अथवा अलग से एक या कई संघ बना सकती थीं।
3. प्रश्न -भारत अथवा पाकिस्तान में सम्मिलित होने के लिये राजाओं द्वारा सम्मिलन पत्र पर हस्ताक्षर करने की अंतिम तिथि क्या थी?
उतर- 14 अगस्त 1947
4. प्रश्न -राजाओं ने किन विषयों पर अपनी सत्ता केंद्र सरकार को सौंप दी?
उतर- रक्षा, संचार, वित्त और विदेश मामलों पर।
5. प्रश्न -किस रियासत के राजा ने अपनी रियासत को भारत संघ में मिलाने के लिये सबसे पहले हस्ताक्षर किये?
उतर- बीकानेर नरेश सादूलसिंह ने।
6. प्रश्न -महाराजा सादूलसिंह ने भारत में मिलने के लिये सम्मिलन पत्र पर हस्ताक्षर कब किये?
उतर- 7 अगस्त 1947 को।
7. प्रश्न -धौलपुर नरेश उदयभानसिंह ने जोधपुर नरेश हनवंतसिंह, उदयपुर नरेश भूपालसिंह तथा जयपुर नरेश मानसिंह से सम्पर्क क्यों किया?
उतर- इन राजाओं को पाकिस्तान में मिलने के लिये सहमत करने हेतु।
8. प्रश्न -जोधपुर नरेश हनवंतसिंह ने महाराणा भूपालसिंह को पत्र क्यों लिखा?
उतर- पाकिस्तान में शामिल होने के लिये।
9. प्रश्न -महाराणा ने इसका क्या प्रत्युत्तर दिया?
उतर- मेरी इच्छा तो मेरे पूर्वजों ने निश्चित कर दी थी। यदि वे थोड़े भी डगमगाये होते तो वे हमारे लिये हैदराबाद जितनी ही रियासत छोड़ जाते किंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया और न मैं करूंगा। मैं तो हिन्दुस्तान के साथ हूँ।
10. प्रश्न -जयपुर रियासत ने सम्मिलन पत्र पर कब हस्ताक्षर किये?
उतर- जयपुर उन रियासतों में से था जो सबसे पहले भारतीय संघ में शामिल हुईं।
11. प्रश्न -जोधपुर नरेश हनवंतसिंह ने किसके कहने पर मुहम्मद अली जिन्ना से भेंट की?
उतर- भोपाल नवाब हमीदुल्ला के कहने पर।
12. प्रश्न -हनवंतसिंह के साथ किस रियासत के राजकुमार भी जिन्ना से मिलने गये?
उतर- जैसलमेर के महाराजकुमार।
13. प्रश्न -जोधपुर नरेश तथा जैसलमेर के महाराजकुमार ने किस दिन जिन्ना से भेंट की?
उतर- 6 अगस्त 1947 को।
14. प्रश्न -जिन्ना ने कोरे कागज पर हस्ताक्षर करके अपनी कलम के साथ उसे जोधपुर नरेश को देकर क्या कहा?
उतर- आप जो भी शर्तें चाहें इसमें भर सकते हैं, मैं उन पर हस्ताक्षर कर दूंगा।
15. प्रश्न -जैसलमेर के महाराजकुमार ने जिन्ना से क्या कहा?
उतर- महाराजकुमार ने कहा कि वे एक शर्त पर हस्ताक्षर करने को तैयार हैं कि यदि कभी हिंदू और मुसलमानों में झगड़ा हुआ तो जिन्ना मुसलमानों का पक्ष नहीं लेंगे।
16. प्रश्न -जैसलमेर के महाराजकुमार की बात का हनवंतसिंह पर क्या असर हुआ?
उतर- जोधपुर नरेश ने उस समय हस्ताक्षर करने से मना कर दिया और कहा कि वे जोधपुर जायेंगे और अगले दिन वापिस लौट कर फैसला करेंगे।
17. प्रश्न -महाराजा ने किसके प्रयासों से भारत में सम्मिलन पत्र पर हस्ताक्षर किये?
उतर- वायसराय माउण्टबेटन, सरदार पटेल एवं रियासती विभाग के सचिव वी.पी. मेनन।
घूमर नृत्य समूचे राजस्थान का लोकप्रिय नृत्य है। इसे राजस्थान के लोकनृत्यों की रानी कहा जा सकता है। यह लोकनृत्य थार के रेगिस्तान से लेकर, डूंगरपुर-बांसवाड़ा के आदिवासी क्षेत्र, अलवर-भरतपुर के मेवात क्षेत्र, कोटा-बूंदी-झालावाड़ के हाड़ौती क्षेत्र एवं धौलपुर-करौली के ब्रज क्षेत्र तक में किया जाता है।
मारवाड़, मेवाड़ तथा हाड़ौती अंचल के घूमर में थोड़ा अंतर होता है। रेगिस्तानी क्षेत्र की घूमर में शृंगारिकता अधिक होती है जबकि मेवाड़ी अंचल की घूमर गुजरात के गरबा से अधिक मेल खाती है।
यह नृत्य होली, दीपावली, नवरात्रि, गणगौर जैसे बड़े त्यौहारों एवं विवाह आदि मांगलिक प्रसंगों पर घर, परिवार एवं समाज की महिलाओं द्वारा किया जाता है। यह विशुद्ध रूप से महिलाओं का नृत्य है। परम्परागत रूप से महिलाएं इस नृत्य को पुरुषों के समक्ष नहीं करती थीं किंतु अब इस परम्परा में शिथिलता आ गई है। इस नृत्य में सैंकड़ों महिलाएं एक साथ भाग ले सकती हैं। राजस्थानी महिलाएं जब घुमावदार घेर का घाघरा पहनकर चक्कर लेकर गोल घेरे में नृत्य करती हैं तो उनके लहंगों का घेर और हाथों का लचकदार संचालन देखते ही बनता है।
इस नृत्य में गोल चक्कर बनाने के बाद थोड़ा झुककर ताल ली जाती है। घूमर के साथ अष्टताल कहरवा लगाया जाता है जिसे सवाई कहते हैं। इसे अनेक घूमर गीतों के साथ मंच तथा सरकारी आयोजनों में भी प्रस्तुत किया जाता है।
घूमर नृत्य के साथ घूमर गीत गाया जाता है-
म्हारी घूमर छै नखराली ए माँ।
घूमर रमवा म्हैं जास्यां।
सागर पाणीड़ै जाऊं निजर लग जाय।
कुण जी खुदाया कुवा बावड़ी ए परिणाहरी ए लो।
सामंती काल में घूमर राजपरिवारों की महिलाओं का सर्वाधिक लोकप्रिय नृत्य था। इसे जनसामान्य द्वारा आज भी चाव से किया जाता है। भील एवं गरासिया आदि जनजातियों की महिलाएं भी घूमर करती हैं। घुड़ला, घूमर एवं पणिहारी नृत्य में महिलाओं द्वारा एक जैसे गोल चक्कर बनाए जाते हैं।
यह लोकप्रिय लोकनृत्य होने के साथ-साथ आज व्यावसायिक नृत्य का भी रूप ले चुका है। मारवाड़ में राजपरिवारों के मनोरंजन के लिए त्यौहारों एवं शादी-विवाह पर पातरियों और पेशेवर नृत्यांगनाओं की भी घूमर होती थी।
सभ्यता की पाषाणीय अवस्था में ही मानव ने बस्तियां बसाकर सीख लिया था। जैसे-जैसे कबीलाई संस्कृति का विकास हुआ, बस्तियों की बसावट में जटिलता आती गई ताकि अचानक आने वाले शत्रुओं एवं रात्रि में हमला बोलने वाले वन्य पशुओं से बस्ती की रक्षा की जा सके। जब राज्य अस्तित्त्व में आये तो राजा एवं राज्य परिवार की रक्षा के लिये नगर प्राचीरों एवं दुर्ग जैसी रचनाओं का निर्माण होने लगा। धीरे-धीरे मानव बस्तियों को सामान्यतः किसी बड़े दुर्ग के भीतर बसाया जाने लगा ताकि शत्रु सेनाओं से राजा एवं प्रजा दोनों की रक्षा हो सके। जो नगर किसी दुर्ग में नहीं होते थे, उन्हें भी ऊँची प्राचीर से घेर दिया जाता था। दुर्ग अथवा नगर में खेती, पशुपालन एवं पेयजल के लिये खेत, कुएं, तालाब एवं झीलें बनाई जाती थीं ताकि यदि शत्रु सेना घेर ले तो दुर्ग अथवा नगर के भीतर के प्राणी भूख एवं प्यास से न मरें। राजा एवं उसका परिवार दुर्ग के भीतर सबसे सुरक्षित एवं ऊँचे स्थान पर रहता था तथा उसे घेर कर चारों ओर जन सामान्य की बस्तियां होती थीं। राजस्थान की प्राचीनतम बस्तियों में इसी प्रकार की बसावट दिखाई देती है।
दसवीं शताब्दी में बसाये गये आमेर की बसावट भी इसी प्रकार की है। दोनों ओर की पहाड़ियों के ढलानों में हवेलियां तथा ऊँचे-ऊँचे भवन बनाये गये थे और नीचे के समतल भाग में पानी के कुण्ड, मंदिर, सड़कें बाजार आदि थे। पहाड़ी नाकों को संकड़ा रखा गया था जिससे सुरक्षा की व्यवस्था समुचित रूप से हो सके। ऊँची पहाड़ियों पर राजभवनों का निर्माण करवाया गया। बूंदी नगर के स्थापत्य में तथा बसावट में पानी के प्राचुर्य का बड़ा हाथ रहा। जोधपुर और बीकानेर की बसावट में गढ़, परकोटा एवं अन्य भवन की रचनाएं भौगोलिक परिस्थितियों से सम्बद्ध थीं। जोधपुर में कहीं-कहीं ऊँचाई तथा ढालों को बस्तियों के बसाने के उपयोग में लाया गया और सड़कों तथा नालियों की योजना उनके अनुकूल की गई। बीकानेर में समतल भूमि में पेशे के अनुसार नगर के भाग बनाये गये तथा हाटों और बाजारों को व्यापारिक सुविधा के अनुसार बनवाया गया। उदयपुर को झील के किनारे स्थित पहाड़ियों की घाटियों तथा पेशे के विचार से मुहल्लों में बांटा गया। बस्ती के बीच-बीच में कहीं-कहीं खेत और बगीचे देकर उसे अधिक आकर्षक बनाया गया। नगर बसाने में प्राकार, खाई तथा पहाड़ी की श्रेणियों का उपयोग किया गया। पहाड़ी ढलान, चढ़ाव एवं उतार को ध्यान में रखते हुए समस्त नगर को टेढ़ा-मेढ़ा इस तरह बसाया गया कि मध्यकालीन उदयपुर की योजना में कहीं चौड़े रास्ते या चौपड़ की व्यवस्था नहीं दीख पड़ती।
अठारहवीं शताब्दी में जब आमेर के और विस्तार की संभावना नहीं रही तो जयसिंह ने जयपुर नगर बसाया जिसमें समानांतर तथा एक दूसरे को समकोण पर काटने वाली चौड़ी सड़कें बनाई गईं तथा लोगों के पेशे के हिसाब से मौहल्ले बनाये गये। चौपड़ योजना इस नगर की योजना का मुख्य आधार बनी। इसकी रक्षा के लिये इसे चारों ओर विशाल परकोटे से घेरा गया तथा निकट की पहाड़ी पर जयगढ़ का निर्माण किया गया जिसमें विशाल सेना नियुक्त की गई। नगर परकोटे में दरवाजों का तथा चौराहों पर फव्वारों का निर्माण करवाया गया। सड़कों की ही तरह नालियों का भी योजनाबद्ध निर्माण किया गया।
12वीं सदी में जैसलमेर को भी जंगल की निकटता एवं पानी की सुविधा के अनुसार बनाया गया ताकि दुर्गम मरुस्थल को पार करके शत्रु वहाँ आसानी से नहीं पहुंच सकें तथा जैसलमेर के निवासियों को जल, लकड़ी, ईंधन तथा पशुओं के लिये चारा उपलब्ध हो सके। इस नगर की योजना को भी व्यापारिक सुविधाओं के अनुसार मौहल्लों में बांटा गया था।
गांवों का स्थापत्य
नगरों के स्थापत्य से गांवों की वास्तुकला भिन्न है। जो गांव नदी के किनारे बसे हुए हैं, वे लम्बे आकार में खुली बस्ती के रूप में स्थित हैं। पहाड़ी क्षेत्र के गांव पहाड़ी ढलान और कुछ ऊँचाई लिये हुए होते हैं। पहाड़ों और घने जंगलों में आदिवासियों की बस्तियां छोटी-छोटी टेकरियों पर दो-चार झौंपड़ियों के रूप में बसी हुई होती हैं जो चारों ओर से कांटों की बाड़ से घिरे होते हैं ताकि जंगली जानवरों से सुरक्षा बनी रहे तथा एक परिवार दूसरे परिवार से अपनी विलगता भी बनाये रखे। रेगिस्तानी गांवों को पानी की सुविधा के अनुसार बसाया जाता था। इसलिये बीकानेर और जैसलमेर के गांवों के आगे सर अर्थात् जलाशय का प्रयोग बहुधा पाया जाता है। जैसे बीकासर, जैतसर, उदासर, आदि।
राजस्थान राज्य अभिलेखागार बीकानेर में ई.1818 से 1956 तक के अभिलेख संग्रहीत हैं। ये अभिलेख अंग्रेजी भाषा (रोमन लिपि) तथा उर्दू भाषा (अरबी लिपि) में हैं। ये अभिलेख दौलतराव सिंधिया द्वारा अजमेर का शासनाधिकार ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सौंपने से प्रारंभ होते हैं।
कमिश्नर अभिलेख
अजमेर में प्रशासनिक एवं न्यायिक कार्यों के लिये ई.1818 में सुपरिण्टेण्डेण्ट का पद सृजित किया गया था। ई.1853 में सुपरिण्टेण्डेण्ट के स्थान पर कमिश्नर (अजमेर-मेरवाड़ा), ई.1857 में डिप्टी कमिश्नर (अजमेर) तथा ई.1871 में पुनः कमिश्नर (अजमेर-मेरवाड़ा) का पद सृजित किया गया। इस अधिकारी को प्रशासनिक एवं न्यायिक अधिकार प्राप्त थे। उसके अधीन इस्तेमरारदारी, जागीर तथा भूमि विभाग काम करते थे। इन अभिलेखों का आरंभ ई.1818 से आरंभ होता है। इस खण्ड में अजमेर-मेरवाड़ा प्रांत के समस्त गांवों एवं परगनों के जागीरदारों, भूमियों के उत्तराधिकार सम्बन्धी विवादों, सनदें, नजराने, भूमि सर्वेक्षण एवं बंदोबस्त आदि के अभिलेख उपलब्ध हैं।
सुरक्षा अभिलेख
इस खण्ड में अजमेर-मेरवाड़ा प्रांत की शांति एवं कानून व्यवस्था, पुलिस, स्वायत्त शासन संस्थायें, अजमेर एवं केकड़ी नगरपालिकाओं द्वारा नगरीय क्षेत्र में सफाई व्यवस्था, कर वसूली तथा छावनी सम्बन्धी अभिलेख उपलब्ध हैं।
उत्पादन एवं वितरण
इस खण्ड में अजमेर प्रांत के कृषि, व्यापार, खान, भवन निर्माण, पोस्ट एण्ड टेलिग्राफ, सिंचाई तथा वन आदि विभागों से सम्बन्धित अभिलेख संग्रहीत हैं।
राजस्व एवं वित्त
राज्य के आबकारी, आयकर, पेंशन, इम्पीरियल राजस्व, वित्त, ऋण, मुद्राकोष, नमक, क्षति पूर्ति, संधियों के भुगतान, डिस्ट्रिक्ट एण्ड लोकल फण्ड्स आदि विषयों से सम्बन्धित अभिलेख सुरक्षित हैं।
चिकित्सा एवं स्वास्थ्य
इस खण्ड में अजमेर-मेरवाड़ा प्रांत में स्वास्थ्य सम्बन्धी व्यवस्थाओं के लिये चिकित्सालय, टीकाकरण, पशु चिकित्सा सम्बन्धी अभिलेख संग्रहीत हैं।
शिक्षण एवं जन संस्थायें
इस खण्ड में शिक्षण संस्थाओं की स्थापना एवं व्यवस्था तथा प्रकाशन आदि के विवरण उपलब्ध हैं।
सामान्य प्रशासन
इस खण्ड में पुरातत्त्व, ऐतिहासिक, ब्रिटिश स्मारक, प्रकाशन, चर्च के निर्माण एवं जीर्णोद्धार, मेले, सेरीमोनियल, महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के भ्रमण सम्बन्धी अभिलेख उपलब्ध हैं।
वर्नाक्यूलर अभिलेख
ये अभिलेख उर्दू भाषा में हैं। इन अभिलेखों में ई.1818 से 1900 तक के भूमि एवं भूमि बंदोबस्त के अभिलेख संग्रहीत हैं। ई.1820 में मि. विल्डर द्वारा अजमेर का पहला रेवेन्यू बंदोबस्त किया गया। ई.1822 में मि. विल्डर द्वारा अजमेर का दूसरा सैटलमेंट किया गया। ई.1827 में मि. मिडल्टन ने अजमेर का तीसरा रेवेन्यू सैटलमेंट किया। कर्नल डिक्सन द्वारा ई.1850 में 21 वर्षीय बंदोबस्त किया गया। ला टाउच द्वारा ई.1875 में 20 वर्षीय बंदोबस्त तथा मि. व्हाइट वे द्वारा ई.1886 में 20 वर्षीय बंदोबस्त किया गया।
रजिस्ट्रेशन
इन अभिलेखों में ई.1865 से 1900 तक, भूमि के क्रय-विक्रय पंजीकरण के अभिलेख सुरक्षित हैं। इनमें मोरगेज, सेलडीड तथा प्रोपर्टी सम्बधी अभिलेख सम्मिलित हैं।
दरगाह फाइल्स
इस खण्ड में मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह की व्यवस्था, गद्दी नशीनी, दीवान, दरगाह खादिम, विभिन्न कर्मचारी, परम्परागत अधिकार, दरगाह की आय-व्यय, दरगाह के अधीन गांवों की आय, उर्स मेले की व्यवस्था आदि से सम्बन्धित अभिलेख हैं।
चीफ कमिश्नर रिकॉर्ड्स
15 जून 1870 को अजमेर के एजीजी को चीफ कमिश्नर (अजमेर-मेरवाड़ा) बनाया गया। इससे पूर्व एजीजी को कमिश्नर (अजमेर-मेरवाड़ा) कहते थे। इस खण्ड में चीफ कमिश्नर (अजमेर-मेरवाड़ा) के कार्यालय के ई.1871 से ई.1951 तक के अभिलेख सुरक्षित हैं। इस खण्ड में ई.1871 से 1926 तक के अभिलेख चीफ कमिश्नर ब्रांच के नाम से अभिहित किये गये हैं जबकि ई.1926 से 1951 तक के अभिलेख प्रशासनिक ब्रांच तथा निर्माण कार्य ब्रांच के रूप में अभिहित किये गये हैं।
चीफ कमिश्नर ब्रांच: इस ब्रांच में प्रशासनिक नियुक्तियां, पदोन्नतियां, स्थानांतरण, राजस्व एवं वित्त सम्बन्धी स्वीकृतियां, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी व्यवस्थायें, आबकारी, स्वायत्त शासन, नगर पालिका के प्रशासनिक कार्यों की देख-रेख, करों की वसूली, शिक्षण संस्थाओं सम्बन्धी आदेश, टाइटल्स-मेडल्स देने के आदेश, फॉरेन सर्विसेज आदि अभिलेख मिलते हैं।
प्रशासनिक ब्रांच: इस ब्रांच में समस्त विभागों की नियुक्तियां, पदों का सृजन, पदोन्नतियां, स्थानांतरण, नीति विषयों की स्वीकृति, शिक्षा, जेल, चिकित्सा, ई.1935 को एक्ट, सेरीमोनियल्स, फैक्ट्री, फेमीन, आदि विभागों का अभिलेख है। इस शाखा की अवधि ई.1927 से 1951 तक की है।
निर्माण कार्य ब्रांच: इस ब्रांच में झीलों, नालों, स्वायत्त संस्थायें, नव निर्माण, पुनर्निर्माण सम्बन्धी अभिलेख हैं। इसकी अविध ई.1927 से 1948 है। सामान्य शाखा के अधीन खाने, आर्म्स एण्ड एम्यूनेशन, मेले, टिड्डी, छात्रवृत्तियाँ, शिक्षा, विश्वविद्यालय, आकाशवाणी, औक्ट्राई आदि विषयों से सम्बन्धित अभिलेख हैं।
सचिवालय अभिलेख
इस खण्ड में प्रथम आम चुनाव ई.1952 से लेकर राजस्थान में विलय ई.1956 तक के अभिलेख संग्रहीत किये गये हैं। इस अवधि में अजमेर राज्य में सचिवालय प्रशासन अनुभाग, लेखा अनुभाग, विकास अनुभाग, शिक्षा अनुभाग, गृह सेवा एवं राजस्व अनुभाग, कानून एवं न्याय अनुभाग, श्रम एवं विकास अनुभाग, स्वायत्त शासन संस्थाएं अनुभाग, विधान सभा अनुभाग, चिकित्सा अनुभाग, सार्वजनिक निर्माण एवं आबकारी अनुभाग, आयोजना अनुभाग, पासपोर्ट अनुभाग, राजस्व अनुभाग तथा राहत एवं पुनर्वास अनुभाग के अभिलेख सम्मिलित हैं।
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : राजस्थान के एकीकरण की पृष्ठभूमि
22.12.2021
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी - 196
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : राजस्थान के एकीकरण की पृष्ठभूमि
जब भारत का निर्माण हुआ तब बड़े राज्यों को यह आश्वासन दिया गया था कि भारत के भीतर उनके राज्य पृथक शासन इकाई बने रहेंगे किंतु आजाद भारत में यह स्थिति अधिक दिन तक नहीं चल सकती थी इसलिये सब राजाओं को एक बार फिर घेरा गया तथा उनके राज्य राजस्थान नामक नवीन प्रशासनिक इकाई में एकीकृत किये गये। राजस्थान का निर्माण कुल सात चरणों में किया गया।
1. प्रश्न -स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व राजाओं को क्या आश्वासन दिया गया था?
उतर- बड़ी रियासतों पर उनके राजाओं का शासन बना रहेगा।
2. प्रश्न -बड़ी रियासतों के सम्बन्ध में रियासती सचिवालय ने क्या निर्णय लिया था?
उतर- स्वतंत्र भारत में वे ही रियासतें अपना पृथक अस्तित्व रख सकेंगी जिनकी आय एक करोड़ रुपये वार्षिक और जनसंख्या दस लाख या उससे अधिक हो।
3. प्रश्न -राजपूताना की कितनी रियासतें इस श्रेणी में आती थीं?
उतर- चार- बीकानेर, जोधपुर, जयपुर तथा उदयपुर।
4. प्रश्न -छोटी रियासतों के सम्बन्ध में रियासती सचिवालय ने क्या निर्णय लिया था?
उतर- छोटी-छोटी रियासतों को आपस में मिलाकर एक संघ बनाया जायेगा।
5. प्रश्न -स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् समस्त रियासतों के एकीकरण का निर्णय क्यों लिया गया?
उतर- रियासतों को अलग रखकर राष्ट्रीय अखण्डता, आर्थिक संपन्नता तथा प्रजातांत्रिक संप्रभुता के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता था।
6. प्रश्न -राजपूताने की कितनी रियासतों एवं ठिकाणों का राजस्थान प्रांत में एकीकरण किया गया?
उतर- 19 रियासतों, 3 ठिकानों तथा 1 केन्द्र शासित प्रदेश का।
7. प्रश्न -रियासतों के एकीकरण में किन बातों को ध्यान में रखा गया?
उतर- भाषा, संस्कृति और भौगोलिक सीमा की दृष्टि से एक संयुक्त राज्य में संगठित हो सकें।
8. प्रश्न -राजस्थान के राजनीतिक एकीकरण की प्रक्रिया कब आरम्भ हुई?
राजस्थान के जयपुर जिले में स्थित बिजार अथवा बीजक की पहाड़ियों में बड़ी संख्या में ऐसी कंदराएं हैं जिनमें एक रहस्यमय लिपि उत्कीर्ण है। इस लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है।
शंखलिपि के नाम से जानी जाने वाली इस लिपि के लेख बड़ी संख्या में बीजक की पहाड़ी, भीम की डूंगरी तथा गणेश डूंगरी में बनी गुफाओं में अंकित हैं। इन लेखों के अक्षर शंख की आकृति के हैं। वैज्ञानिकों को इस लिपि के अभिलेख भारतीय उपमहाद्वीप के भारत, इण्डोनेशिया, जावा तथा बोर्नियो आदि देशों से मिले हैं जिनसे यह धारणा बनती है कि- जिस तरह किसी काल खंड में सिंधु लिपि जानने वाली सभ्यता भारतीय उप महाद्वीप में विकसित हुई थी, उसी तरह शंखलिपि जानने वाली कोई सभ्यता किसी काल खण्ड में भारतीय उपमहाद्वीप में फली-फूली।
ये लोग कौन थे! इनका कालखंड क्या था! आदि प्रश्नों का उत्तर अभी तक नहीं दिया जा सका है। भारत में शंखलिपि के अभिलेख उत्तर में जम्मू कश्मीर के अखनूर से लेकर दक्षिण में सुदूर कर्नाटक तथा पश्चिमी बंगाल के सुसुनिया से लेकर पश्चिम में गुजरात के जूनागढ़ तक उपलब्ध हैं। ये अभिलेख इस लिपि के अब तक ज्ञात विशालतम भण्डार हैं।
उत्कीर्ण अभिलेखों में लिपि को अत्यंत सुसज्जित विधि से लिखा गया है। कुछ विद्वान इस लिपि को ब्राह्मी लिपि के निकट मानते हैं। विराट नगर से प्राप्त अभिलेखों की तिथि तीसरी शताब्दी ईस्वी मानी गई है। एक लेख में ‘चैल-चैतरा’ पढ़ा गया है जो संस्कृत का ‘शैल-चैत्य’ माना गया है। इसका अर्थ होता है- ‘पहाड़ी पर स्थित चैत्य।’ इससे अनुमान लगाया जाता है कि ईसा की तीसरी शताब्दी में यहां कोई पहाड़ी बौद्ध चैत्य था। विराट नगर तीसरी शताब्दी के आसपास तक बौद्ध धर्म का बड़ा केन्द्र था। मौर्य सम्राट अशोक के भब्रू तथा विराटनगर अभिलेख इसी स्थान से मिले हैं। इन पहाड़ियों में अनेक चैत्य एवं विहारों के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
प्राचीन बौद्ध ग्रंथ ललित विस्तर में उन 64 लिपियों के नाम गिनाए गए हैं जो बुद्ध को सिखाई गई थीं। उनमें नागरी लिपि का नाम नहीं है, ब्राह्मी लिपि का नाम है। ललित विस्तर का चीनी भाषा में अनुवाद ईस्वी 308 में हुआ था। जैनों के पन्नवणा सूत्र और समवायांग सूत्र में 18 लिपियों के नाम दिए गए हैं जिनमें पहला नाम बंभी (ब्राह्मी) लिपि का है। भगवतीसूत्र का आरंभ नमो बंभी लिबिए (ब्राह्मी लिपि को नमस्कार) से होता है।
यद्यपि इन लिपियों का काल निर्धारण नहीं किया जा सका है किंतु ये लिपियां महावीर स्वामी एवं गौतम बुद्ध के युग में प्रचलन में थीं। शंखलिपि भी उनमें से एक है। इस लिपि के लेख आज तक पढ़े नहीं जा सके हैं। इस लिपि के अक्षर ‘शंख’ की आकृति से साम्य रखते हैं। इसलिए इसे शंखलिपि कहा जाता है।
राजगीर की प्रसिद्ध सोनभंडा की गुफाओं में लगे दरवाजों की प्रस्तर चौखटों पर एवं भित्तियों पर शंख लिपि में कुछ संदेश लिखे हैं जिन्हें पढ़ा नहीं जा सका है। बिहार में मुण्डेश्वरी मंदिर तथा अन्य कई स्थानों पर यह लिपि देखने को मिलती है। मध्यप्रदेश में उदयागिरि की गुफाओं में, महाराष्ट्र में मनसर से तथा बंगाल एवं कनार्टक से भी इस लिपि के लेख मिले हैं। इस लिपि के लेख मंदिरों एवं चैत्यों के भीतर, शैलगुफाओं में तथा स्वतंत्र रूप से बने स्तम्भों पर उत्कीर्ण मिलते हैं।
प्राप्त शिलालेखों के आधार पर अनुमान लगाया गया है कि इस लिपि में 12 अक्षर हैं। इस लिपि के लेखों में बहुत छोटे-छोटे संदेश खुदे हुए हैं। अर्थात् इन लेखों में पवित्र शब्द, ईश्वरीय नाम, ‘शुभास्ते पंथानः संतु’ एवं ‘ऑल दी बैस्ट’ जैसे मंगल कामना करने वाले शब्द उत्कीर्ण हो सकते हैं। सोलोमन नामक एक विद्वान ने सिद्ध किया है कि इस लिपि में उतने अक्षर मौजूद हैं जिनमें संस्कृत भाषा के समस्त शब्दों को व्यक्त किया जा सके।
उत्तर प्रदेश के देवगढ़ में इस लिपि के अक्षरों का आकार ब्राह्मी लिपि के अक्षरों से कुछ ही बड़ा है जबकि उदयगिरि की गुफाओं में शंखलिपि के अक्षरों को कई मीटर की ऊंचाई वाला बनाया गया है। कुछ विद्वान इस लिपि का काल चौथी से नौंवी शताब्दी ईस्वी निर्धारित करते हैं किंतु यह काल निर्धारण सही नहीं लगता। इस लिपि को ब्राह्मी लिपि की समकालीन माना जा सकता है।
ब्राह्मी लिपि उत्तर भारत में ईसा से चार सौ साल पहले प्रचलन में आई किंतु दक्षिण भारत तथा लंका में यह लिपि ईसा से 600 साल पहले प्रचलन में थी। शंखलिपि का उद्भव भी उसी काल में माना जाना चाहिए। भरहुत स्तम्भों पर मिले इस लिपि के अभिलेख ईसा से 300 वर्ष पुराने हैं।
उदयगिरि की गुफाओं में शंखलिपि के लेख गुप्त कालीन हैं जिनके पांचवीं शताब्दी ईस्वी का होना अनुमानित है। देवगढ़ के स्तम्भों की तिथि पांचवीं शताब्दी ईस्वी की है। अतः इस पर लेखों के उत्कीर्णन की तिथि पांचवीं-छठी शताब्दी ईस्वी की होनी चाहिए। सोलोमन ने गुजरात के पठारी नामक स्थान से शंखलिपि का एक ऐसा शिलालेख ढूंढा जिसे प्रतिहार कालीन माना जाता है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि शंखलिपि प्रतिहार काल में भी मौजूद थी।
एक आख्यान के अनुसार महात्मा गौतम अपने जीवन काल के प्रारम्भ में जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी के शिष्य थे। जब वे महावीर स्वामी से अलग होकर उदयगिरि आए तो महावीर के लिए शंख लिपी में संदेश छोड़कर आए। यह एक आख्यान है जिसकी विश्वसनीयता अधिक नहीं है। - डॉ. मोहनलाल गुप्ता