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मार्च 1919 में अंग्रेजी सेना भी सालिमसिंह से आ मिली। इन दोनों सेनाओं ने मिलकर मेरों के मुख्य स्थान बोरवा, झाक और लुलुवा पर अधिकार कर लिया तथा अपने थाने बैठा दिये। इस पर मेरों ने जोधपुर राज्य की तरफ से अंग्रेजी थानों पर हमले करने आरंभ कर दिये। नवम्बर 1819 में टॉड जोधपुर आया तथा उधर से भी थानों का प्रबंध करवा दिया। इस प्रकार मेरवाड़ा चारों ओर से घिर गया। जब सालिमसिंह रूपाहेली को लौट गया तो मेरों ने थानों पर हमला करके अंग्रेजी थानेदारों को मार डाला तथा कई थाने उठा दिये। इस पर सालिमसिंह फिर लौट कर आया। उसने सैंकड़ों मेरों को मार डाला तथा टॉड के निर्देश पर फिर से थाने स्थापित करके उनमें 100-100 सिपाही तैनात कर दिये।
कर्नल टॉड ने मेरवाड़ा में अंग्रेजी सेनाएं रखने के लिये दो नये दुर्ग बनवाये। एक का नाम टॉडगढ़ तथा दूसरे का नाम महाराणा के नाम पर भीमगढ़ रखा। मेरों को लुटेरों से किसान बनाने के लिये मेवाड़ राज्य की ओर से जमीनें प्रदान की गयीं तथा कुछ मेरों को सेना में भर्ती करने के लिये मेर बटालियन का गठन किया गया। मेरों को दबाने में सफल रहने पर सालिमसिंह को कप्तॉन टॉड की ओर से प्रशंसा पत्र तथा महाराणा की ओर से अमर बेलणा घोड़ा, बाड़ी तथा सीख का सिरोपाव दिया गया। अमर बेलणा घोड़ा उस घोड़े को कहते थे जिसके बूढ़ा होने पर या मरने पर उसके स्थान पर दूसरा घोड़ा भेजा जाता था। सीख का सिरोपाव प्रतिवर्ष दशहरे पर नौकरी समाप्त कर अपने ठिकाने में लौटने वाले सरदार को दिया जाता था।
मेरवाड़ा पर तीन राज्यों का अधिकार होना ठीक न समझ कर दिल्ली के रेजीडेण्ट जनरल ऑक्रलोनी ने मारवाड़ तथा मेवाड़ के शासकों को लिखा कि वे अपने राज्य में आने वाले मेरवाड़ा प्रदेश के गाँव 10 वर्ष के लिये ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सौंप दे। मारवाड़ तो इस बात को मान गया किंतु मेवाड़ ने इन्कार कर दिया। इस पर कम्पनी ने बलपूर्वक मेवाड़ के हिस्से वाला मेरवाड़ा अपने अधीन कर लिया। इस घटना से महाराणा भीमसिंह बड़ा दुखी हुआ। महाराणा ने इसकी शिकायत गवर्नर जनरल से की। गवर्नर जनरल ने चार्ल्स मेटकाफ के माध्यम से महाराणा को पत्र लिखवाकर इस घटना के लिये खेद व्यक्त किया किंतु मेरवाड़ा के क्षेत्र पर अंग्रजों का अधिकार बना रहा। ई. 1847 में यह क्षेत्र सदा के लिये अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।
टॉड ने मेवाड़ की आय बढ़ाने के लिये कई उपाय किये। उसने ई. 1819 में झाला जालिमसिंह से जहाजपुरा का परगना फिर से प्राप्त कर मेवाड़ में मिला दिया तथा महाराणा का दैनिक व्यय 1000 रुपये स्थिर किया।
ई. 1818 में मेवाड़ राज्य की वार्षिक आय 1 लाख 20 हजार रुपये थी किंतु टॉड की व्यवस्था से ई. 1821 में यह आय बढ़कर 8 लाख 77 हजार 634 रुपये हो गयी। ई. 1822 में यह 11 से 12 लाख रुपये के बीच में अनुमानित की गयी। राज्य की आय में जबर्दस्त वृद्धि के उपरांत भी अंग्रेजी सरकार का खिराज था महाराणा को 1000 रुपये प्रतिदिन जेबखर्च दिया जाना सरल कार्य नहीं था। इस कारण टॉड ने एक साहूकार से 18 रुपये सैंकड़ा सूद की दर से कर्ज लिया।
ई. 1821 में कप्तान टॉड बीमार पड़ गया और अपने सहायक एजेंट कप्तान वॉग को कार्यभार सौंप कर इंगलैण्ड चला गया। इस पर राज्य का शासन प्रबंध फिर से महाराणा के हाथ में आ गया। वॉग ने महाराणा को 1000 रुपये रोज दिलवाने की जिम्मेदारी लेने से मना कर दिया जिससे महाराणा को निजी व्यय का प्रबंध स्वयं करना पड़ा। मार्च 1823 में कप्तान स्पीयर्स मेवाड़ का पोलिटिकल एजेण्ट होकर आया किंतु एक माह बाद ही उसके स्थान पर कप्तान कॉव आ गया। कॉव को ज्ञात हुआ कि महाराणा ने एक वर्ष के भीतर 83 गाँव विभिन्न लोगों को दे दिये हैं जिससे राज्य की आय घट गयी है तथा महाजन का कर्ज 2 लाख रुपये एवं अंग्रेज सरकार का खिराज 8 लाख रुपये चढ़ गया है। कॉव ने महाराणा को एक हजार रुपया प्रतिदिन देकर शासन कार्य अपने हाथ में ले लिया।
इस समय मेवाड़ में शासन प्रबंध महाराणा तथा अंग्रेज सरकार दोनों की ओर से होता था। महाराणा की तरफ से प्रत्येक जिले में कामदार और एजेंट की ओर से चपरासी नियुक्त था। दोनों मिलकर आय वसूल करते थे। इस द्वैध शासन से तंग आकर जनता ने अंग्रेज सरकार से शिकायत की। इस पर कॉव ने कुछ सुधार किये। कॉव के प्रबंध से राज्य की आय फिर से सुधर गयी तथा महाराणा का खर्च, अंग्रेजी सरकार का खिराज एवं महासन का सूद एवं असल सभी कुछ चुका दिये गये। ई. 1826 में कॉव के स्थान पर कप्तान सदरलैण्ड मेवाड़ का पोलिटिकल एजेण्ट बना। उसने पहले के एजेंटों द्वारा नियुक्त चपरासियों को थानों और परगनों में से बाहर निकाल दिया इस प्रकार कप्तान टॉड तथा कप्तान कॉव ने मेवाड़ राज्य में जो शासन व्यवस्था एवं आर्थिक प्रबंध लागू किये उनसे मेवाड़ राज्य की आय में तो वृद्धि हुई ही, साथ ही राजपूताना की रियासतों में अंग्रेजी शासन की धाक जम गयी।
अपने प्रशासनिक कार्यों के साथ-साथ कर्नल टॉड राजपूताना के राज्यों एवं प्राचीन राजवंशों के इतिहास को संकलित करने में संलग्न रहता था। ई. 1819 में टॉड उदयपुर से नाथद्वारा, कुंभलगढ़, घाणेराव तथा नाडोल होते हुए जोधपुर आया। नाडोल में उसने लाखण सी के समय के दो शिलालेख वि. संवत 1024 तथा 1039 के तलाश किये जिनसे अजमेर व नाडोल के चौहान, जालोर के सोनगरा चौहान तथा सिरोही के देवड़ा चौहानों का इतिहास संकलन करने में बड़ी सहायता मिली। टॉड ने वि. सं. 1218 का आल्हणदेव के समय का एक ताम्रपत्र तथा एक अन्य ताम्रपत्र भी खोज निकाले। इस यात्रा में उसने कई सिक्के, प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकें तथा शिलालेख संकलित किये। जोधपुर नरेश मानसिंह ने टॉड को विजयविलास, सूर्यविलास तथा मारवाड़ की ख्यात आदि कई पुस्तकें भेंट कीं।
जोधपुर प्रवास के दौरान टॉड प्रतिहारों की प्राचीन राजधानी मण्डोर को देखने के लिये गया। अजमेर एवं पुष्कर में भी उसने कई सिक्के एकत्रित किये। कहते हैं कि एक बार कर्नल टॉड ने जहाजपुर में मक्का की रोटी खायी जिसे खाते ही उसका सिर घूमने लगा, जीभ भारी हो गयी और कंठ रुंध गया। किसी देशी वैद्य ने टॉड को सलाह दी कि उसकी तिल्ली बढ़ी हुई है यदि वह तिल्ली पर जोंक लगवा ले तो इस रोग से मुक्ति मिल जायेगी। टॉड ने उसी समय 60 जोंकें मंगवाकर तिल्ली पर लगा दीं तथा चारपाई पर लेट गया। उसने अपने साथ चल रहे ब्राह्मणों एवं पटेलों से कहा कि वे इतिहास सुनाना जारी रखें। स्वास्थ्य के अधिक खराब हो जाने पर 1 जून 1822 को कर्नल टॉड उदयपुर से इंगलैण्ड के लिये रवाना हो गया।
इस यात्रा में भी वह सिरोही, आबू, चंद्रावती, पालनपुर, सिद्धपुर, अन्हिलवाड़ा, अहमदाबाद तथा बड़ौदा आदि कई स्थानों पर गया। इनमें से कई स्थानों पर उससे पहले कोई अंग्रेज नहीं पहुँचा था। देलवाड़ा गाँव के मंदिरों को देखकर वह बहुत प्रसन्न हुआ। 14 जनवरी 1823 को वह बंबई पहुंचा। वह अपने साथ राजपूताना रियासतों के सैंकड़ों शिलालेख, 20 हजार प्राचीन सिक्के, पुस्तकें तथा ऐतिहासिक सामग्री ले गया। इस यात्रा का वर्णन उसने अपनी पुस्तक "ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इण्डिया" में किया। तीन सप्ताह तक बम्बई में रहकर वह पानी के जहाज से अपने देश के लिये रवाना हो गया।
जब तक भारत भूमि का तट दिखाई देता रहा, वह टकटकी लगाये उदास आँखों से भारत माता को देखता रहा। वह इस देश को ही अपना देश समझने लगा था किंतु जलवायु की प्रतिकूलता के कारण उसे यह प्यारा देश छोड़ना पड़ रहा था। अंत में भीगी आँखों से उसने भारत माता को अंतिम प्रणाम किया। कर्नल टॉड 53 वर्ष तक जिया। 18 नवम्बर 1835 को इंगलैण्ड में उसने अंतिम सांस ली। उस समय भी भारत माता का प्यारा मुख उसके नेत्रों में बसा हुआ था। राजपूताना रियासतों में आधुनिक शासन की नींव रखने वाला वह पहला अंग्रेज अधिकारी था।
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झालावाड़ जिले के असनावर, रायपुर, झालरापाटन, झिरी, सुनेल, मोलक्या, देवरी तथा निकटवर्ती गांवों में 200 से अधिक बुनकर महिलाएं, महिला सशक्तीकरण की मिसाल बनकर उभरी हैं। वे अपने घरों में बैठकर साड़ी, खेस, सफेद फैब्रिक, तौलिये, बुनती हैं तथा दरी, पट्टी, गलीचे एवं एक किलो वाली रजाइयां भी बनाती हैं। इस कार्य से वे प्रतिदिन 150 से 250 रुपया कमाती हैं। इस आय के लिये उन्हें नरेगा में काम नहीं मांगना पड़ता, खेतों में चिलचिलाती धूप में फावड़ा-कुदाली नहीं चलानी पड़ती तथा सिर पर टोकरा उठाकर गलियों में सामान बेचने नहीं जाना पड़ता। न ही कमठे पर जाकर सिर पर पत्थर ढोने पड़ते हैं। इतना ही नहीं, इस आमदनी के बल पर ये महिलाएं अपनी गृहस्थी का खर्च उठाने के साथ-साथ अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में भी पढ़ा रही हैं। वे जानती हैं कि पढ़ाई का क्या महत्व है! कशीदाकारी और ब्लॉक प्रिण्टिंग भी हो रही है गांवों में गांव की महिलाएं हथकरघे पर खेस तथा चद्दर का मोटा कपड़ा बुनने तक ही सीमित नहीं रही हैं। वे बड़ी सफाई से सफेद रंग का मजबूत और महीन कपड़ा बुनती हैं जिसे देखकर कपड़ा-मिलें भी पानी मांग लें। इस कपड़े का वे मनचाहा अर्ज रखती हैं तथा रजाई के खोल, चद्दर आदि बनाने के लिये उसकी सिलाई, कशीदाकारी, ब्लॉक प्रिण्टिंग आदि भी स्वयं करती हैं। दिल्ली, भोपाल और जयपुर तक जाती हैं ये महिलाएं बहुत कम पढ़ी-लिखी हैं किंतु हिम्मत के बल पर उन्होंने अपनी सारी झिझक को पीछे छोड़ दिया है जिसके चलते वे अब केवल अपने घरों तक ही सीमित नहीं रह गई हैं, अपतिु अपने द्वारा तैयार किये गये कपड़े को जिला उद्योग केन्द्र तथा महिला एवं बाल विकास विभाग के सहयोग से दिल्ली, जयपुर, जोधपुर, अजमेर तथा भोपाल में लगने वाले हस्तशिल्प मेलों तथा प्रदर्शनियों में ले जाकर बेचती हैं। दिल्ली में 10 दिन में लगभग 5 से 6 लाख रुपये तक का माल बिक जाता है। अंतर्राष्ट्रीय फैशन डिजाइनर बीबी रसैल हैरान हुईं इन्हें देखकर बांगलादेश की अंतर्राष्ट्रीय फैशन डिजाइनर बीबी रसैल 7 मार्च 2016 को झालावाड़ जिले की यात्रा पर आईं तथा इन महिला बुनकरों के गांव में जाकर उनसे मिलीं। उन्होंने इन महिला बुनकरों, रेडिमेड कपड़े सिलने वाले महिला स्वयं सहायता समूहों तथा कशीदाकारी करने वाले महिला स्वयं सहायता समूहों से बात की एवं असनावर गांव की महिला बुनकरों को हाथकरघे पर काम करते हुए देखा। उन्होंने झालावाड़ जिले की असनावर, रायपुर तथा निकटवर्ती गांवों में लगभग 200 महिलाओं द्वारा बड़े स्तर पर कपड़ा बुने जाने को महिला सशक्तीकरण का बड़ा उदाहरण बताया तथा कहा कि यहां हर महिला आत्मविश्वास से अपना स्वयं का कार्य घर में बैठकर कर रही है तथा प्रत्येक महिला स्वाभिमान के साथ प्रतिमाह 5 से 6 हजार रुपये कमा रही है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निकल सकती है अच्छी मांग झालावाड़ के महिला बुनकर समूहों द्वारा पक्के रंगों का प्रयोग किया जा रहा है, अच्छी डिजाइनें काम में ली जा रही हैं तथा अच्छी गुणवत्ता का धागा प्रयुक्त हो रहा है। इस कारण इनके द्वारा उत्पादित साडि़यों, खेसों, तौलियों, दरियों, गलीचों तथा सफेद खादी की राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अच्छी मांग निकलने की संभावना है। बीबी रसैल ने असनावर में तैयार किये जा रहे चौड़े पाट के सफेद कपड़े की गुणवत्ता को देखकर सुखद आश्चर्य व्यक्त किया और कहा कि यह बहुत अच्छा और बहुत सस्ता है। गांव में ही इस कपड़े पर ब्लॉक प्रिंटिंग भी की जा रही है। गांव में 1 किलो भार की अच्छी किस्म की रजाइयों को देखकर उन्होंने कहा कि इसकी राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी मांग हो सकती है। अंतर्राष्ट्रीय फैशन डिजाइनर ने खरीदी असनावर की खादी बीबी रसैल ने स्वयं भी अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में प्रदर्शित करने के लिये इन महिलाओं से 7-7 मीटर लम्बे खेसों के दो थान बनवाये हैं। कुछ दरियां, तौलिये एवं चद्दरें भी तैयार करवाई हैं। उन्होंने असनावर गांव में तैयार सफेद खादी स्वयं अपने लिये खरीदी। उन्होंने एक दर्जन तौलिये भी बांगलादेश ले जाने के लिये खरीदे। गलीचे देखकर हर कोई रह जाता है हैरान गलीचे और नमदे बनाने का काम परम्परागत रूप से राजस्थान में होता आया है किंतु असनावर की महिलाओं ने सूत के प्रयोग से ऐसे कलात्मक गलीचे बनाये हैं और उन्हें ऐसे मनोहारी रंग प्रदान किये हैं कि देखने वाला दांतों तले अंगुली दबा लेता है। जिला स्तर पर बनाई जा रही है वैबसाइट जिला कलक्टर डॉ. जितेन्द्र कुमार सोनी इन महिला बुनकरों के लिये एक वैबसाइट बनवा रहे हैं ताकि झालावाड़ के उत्पादों की बिक्री राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संभव हो सके। जिला कलक्टर का मानना है कि असंगठित रूप से काम करने के कारण इन महिलाओं को उनके उत्पादों की अभी भी कम कीमत मिल रही है। यदि इन्हें सुसंगठित विपणन व्यवस्था से जोड़ दिया जाये तो इनकी आय में अच्छी वृद्धि हो सकती है। इस वैबसाइट पर, तैयार उत्पादों के नमूनों के चित्रों के साथ-साथ महिला बुनकरों एवं अन्य आर्टीजन्स के नाम एवं सम्पर्क सूत्र आदि उपलब्ध कराये जायेंगे ताकि क्रेता सीधे ही इन कारीगरों से माल खरीद सकें तथा बिचौलियों की भूमिका को समाप्त किया जा सके। जिला कलक्टर का प्रयास है कि और भी गांवों की महिलाएं इस काम को सीखें और झालावाड़ इस कार्य के लिये कोटाडोरिया की तरह एक ब्राण्ड बन जाये।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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प्रेस विज्ञप्ति जोधपुर 18 दिसम्बर। शौर्य एवं स्वामिभक्ति की गाथाओं से समृद्ध राजस्थान का इतिहास एवं साहित्य अब ई-बुक्स एवं गूगल एप पर भी उपलब्ध होगा जिसका लाभ विश्व भर के अनेक देशों के पाठक उठा सकेंगे। इस वैबवाइट एवं गूगल एप से दुनिया के किसी भी देश में निवास करने वाले राजस्थानियों एवं भारतीयों के साथ-साथ विदेशी पाठकों को भी राजस्थान के शौर्य एवं स्वामिभक्ति की गाथाओं से समृद्ध इतिहास एवं साहित्य उपलब्ध हो सकेगा। शुभदा प्रकाशन जोधपुर ने इसके लिये पूर्णतः समर्पित वैबसाइट एवं गूगल एप तैयार करवाया है जिसकी लांचिंग 19 दिसम्बर को प्रातः 11.30 बजे जोधपुर के संभागीय आयुक्त श्री रतन लाहौटी अपने कार्यालय में करेंगे। सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के पूर्व उपनिदेशक डॉ. मोहनलाल गुप्ता ने बताया कि वैबसाइट www.rajasthanhistory.com तथा गूगल एप rajasthanhistory पर राजस्थान के योद्धा, महापुरुष, दुर्ग, नगर एवं रियासती इतिहास के साथ-साथ कला, साहित्य, संस्कृति, लोक-परम्परा आदि पर भी बहुत कम मूल्य में प्रतियोगी परीक्षाओं के लिये ई-बुक्स उपलब्ध कराई गई हैं। साथ ही भारत के इतिहास पर भी पुस्तकें उपलब्ध रहेंगी। पाठक इस वैबसाइट एवं एप से ई-बुक्स के साथ-साथ मुद्रित पुस्तकों का भी लाभ उठा सकेंगे। इस वैबसाइट एवं एप को जोधपुर की ही संस्था डब्लूएसक्यूब टैक ने तैयार किया है। डब्लूएस क्यूब के डायरेक्टर कुशाग्र भाटिया ने बताया कि rajasthanhistory वैबसाइट को किसी भी कम्प्यूटर से एक्सेस किया जा सकेगा जबकि ई-बुक्स पढ़ने के लिये किसी भी एण्ड्रॉयड डिवाइस पर गूगल प्ले स्टोर से rajasthanhistory फ्री एप डाउनलोड करना होगा। फिलहाल ई-बुक्स की खरीद पर 50 से 90 प्रतिशत तक रियायत रहेगी जबकि कुछ ई-बुक्स फ्री उपलब्ध कराई गई हैं। साहित्यकारों, लेखकों एवं मीडिया प्रतिनिधियों को 1000 रुपये मूल्य तक की ई-बुक्स निःशुल्क उपलब्ध कराई जायेंगी। इसके लिये उन्हें mlguptapro@gmail.com पर अपना नाम, ईमेल आईडी, सैलफोन नम्बर, मीडिया संस्थान का नाम अथवा स्वयं द्वारा लिखित पुस्तकों की जानकारी देनी होगी। इस रजिस्ट्रेशन के बाद ई-बुक्स के लिये निशुल्क कूपन जारी किया जायेगा। यह योजना 31 जनवरी तक उपलब्ध रहेगी। -डॉ. मोहनलाल गुप्ता मोबाईल फोन: 94140 76061
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मुगलों के आगमन से पूर्व राजपूताना में 11 राज्य थे- मेवाड़, मारवाड़, आम्बेर, बीकानेर, जैसलमेर, सिरोही, अजमेर, बूंदी, बांसवाड़ा, डूंगरपुर एवं करौली। मुगलों के काल में राजपूताना में 7 नये राज्य अस्तित्व में आये- कोटा, अलवर, भरतपुर, धौलपुर, किशनगढ़, प्रतापगढ़ तथा शाहपुरा जबकि एक राज्य- अजमेर समाप्त हो गया। इस प्रकार राजपूताना के राज्यों की संख्या 17 हो गयी। औरंगजेब के पश्चात अधिकतर राज्यों के सम्बंध मुगलों से विच्छेद हो गये तथा मुगल साम्राज्य अस्ताचल को चला गया। ई. 1818 से 1857 तक राजपूताना के राज्य ईस्ट इंडिया कम्पनी के संरक्षण में रहे। इस काल में राजपूताना में दो नये राज्य अस्तित्व में आये- टोंक तथा झालावाड़। ई. 1818 में ईस्ट इण्डिया कंपनी ने मरहठा शासक दौलतराम सिंधिया से संधि करके अजमेर पर अधिकार कर लिया। बाद में इसमें मेरवाड़ा क्षेत्र भी मिला दिया गया। इस प्रकार अंग्रेजों के काल में एक केन्द्रशासित प्रदेश- ‘‘अजमेर-मेरवाड़ा’’ भी अस्तित्व में आया। जैसे जैसे भारत में अंग्रेजों का राज्य फैलता गया वैसे-वैसे उनके मन में यह विश्वास जड़ जमाता गया कि गोरी जाति श्रेष्ठ और ऊंची है। काले भारतीय नीच और मूर्ख हैं। उन पर शासन करने की जिम्मेदारी ‘ईश्वर’ नामक रहस्यमय शक्ति ने अंग्रेजों के ही कंधों पर रखी है। अंग्रेज वह जाति है जो केवल जीतने और शासन करने के लिये पैदा हुई है। उन्होंने राजपूताना की रियासतों पर नियंत्रण के लिये एजेंट टू द गवर्नर जनरल (ए. जी. जी.) को नियुक्त किया जिसका मुख्यालय अजमेर में था। राजपूतना ए. जी. जी. के अधीन पालनपुर, दंाता, ईडर तथा विजयनगर रियासतें भी थीं जो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गुजरात में शामिल कर दी गयीं। अंग्रेजों ने भारतीय राजाओं को भारत की आजादी की लड़ाई के विरुद्ध हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। यही कारण था कि अंग्रेजों और भारतीय राजाओं का गठबंधन 1857 के गदर के समय तथा बाद में कांग्रेस के नेतृत्व में चले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय भारत की जनता के सामने चट्टान की तरह आकर खड़ा हो गया। इस चट्टान को राजपूताना की रियासतों में आजादी की लड़ाई का बिगुल बजाने वाले जयनारायण व्यास (जोधपुर), गोकुल भाई भट्ट (उदयपुर), हीरालाल शास्त्री (जयपुर), रघुबर दयाल गोयल (बीकानेर), सागरमल गोपा (जैसलमेर), ठाकुर केशरीसिंह (शाहपुरा) तथा विजयसिंह पथिक (बिजौलिया) जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने पिघला कर पानी बना दिया जिसके कारण अंग्रेज शक्ति और राजा दोनों ही एक साथ विलुप्त हो गये। अंग्रेजों ने भारतीय राजाओं को अपनी ओर मिलाये रखने के लिये उन्हें प्रशासन में कनिष्ठ भागीदारी दी। उन्हें यूरोप की सैर करवायी, विदेशी शराब उपलब्ध करवायी तथा अंग्रेजी मेम के साथ नृत्य करने की सुविधायें दीं। तरह-तरह की उपाधियों से अलंकृत किया तथा रॉल्स रॉयस जैसी महंगी कारें खरीदने का अधिकार दिया। इन सब सुविधाओं से बढ़कर जो सुविधा अंग्रेजी सरकार की ओर से भारतीय राजाओं को उपलब्ध थी, वह थी- अंग्रेज सरकार की ओर से भारतीय राजाओं को तोपों की सलामी। अंग्रेजों ने इन राज्यों के राजाओं को उनकी हैसियत के अनुसार तोपों की संख्या निश्चित की थी। राजस्थान की रियासतों में उदयपुर के शासक को 19 तोपों की सलामी दी जाती थी। इसके बाद नम्बर आता था- बीकानेर, भरतपुर, बूंदी, जयपुर, जोधपुर, करौली, कोटा तथा टोंक का। इनके शासकों को 17 तोपों की सलामी दी जाती थी। अलवर, बांसवाड़ा, धौलपुर, डूंगरपुर, जैसलमेर, किशनगढ़, प्रतापगढ़ तथा सिरोही के शासकों को 15 तोपों की सलामी दी जाती थी। झालावाड़ के शासक को 13 तोपों की सलामी दी जाती थी। इन रियासतों के अतिरिक्त तीन ठिकाने लावा, कुशलगढ़ तथा नीमराणा भी थे। जिनके शासकों को तोपों की सलामी नहीं दी जाती थी। इन्हें ‘‘नॉन सैल्यूट स्टेट’’ भी कहा जाता था। अंग्रेज सरकार द्वारा विभिन्न राज्यों के राजाओं के लिये तोपों की सलामी की संख्या निर्धारित करते समय राजाओं की हैसियत राज्य के आकार, उसकी प्राचीनता, उसकी जनसंख्या अथवा वार्षिक राजस्व आदि तथ्यों से नहीं आंकी गयी थी। अपितु यह हैसियत अंग्रेज सरकार के साथ उस राज्य के सम्बन्धों की स्थिति पर भी निर्भर करती थी। आजादी के बाद राजाओं का यह विशेषाधिकार समाप्त कर दिया गया। -मोहनलाल गुप्ता
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भारत की राष्ट्रीय अस्मिता की प्रतीक महारानी पद्मिनी
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गुहिल वंश की स्थापना गुप्त वंश के ध्वंसावशेषों पर छठी शताब्दी ईस्वी में हुई थी। यह रघुवंशी ईक्ष्वाकुओं की ही एक प्रबल-प्रतापी शाखा थी जो अत्यंत प्राचीन काल से उत्तर भारत में शासन करती आई थी तथा धर्म एवं न्याय आधारित शासन करने के लिये विख्यात थी। विभिन्न कालखण्डों में गुजरात से लेकर आगरा तक इनका राज्य फैलता और सिकुड़ता रहता था।
गुहिल वंश की रावल शाखा के राजाओं को मेवाड़ पर शासन करते हुए 550 वर्ष से अधिक समय हो गया था जब ई.1302 में रावल समरसिंह का पुत्र रत्नसिंह मेवाड़ का राजा हुआ। उसे शासन करते हुए कुछ ही महीने हुए थे कि दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने ई.1303 में चित्तौड़ पर आक्रमण किया।
उस समय चित्तौड़, अपने पूर्ववर्ती राजा समरसिंह द्वारा चौहानों, चौलुक्यों एवं परमारों पर विजय प्राप्त कर लेने से उत्साहित था। चित्तौड़ की सेनाओं ने दिल्ली के सुल्तान नासिरुद्दीन तथा गयासुद्दीन बलबन की सेनाओं पर उल्लेखनीय विजयें प्राप्त की थीं इसलिये भी चित्तौड़ का मनोबल अपने चरम पर था। अतः चित्तौड़ ने पूरी शक्ति से अलाउद्दीन खिलजी का प्रतिरोध किया। अलाउद्दीन खिलजी का दरबारी लेखक अमीर खुसरो इस घेरे में खिलजी के साथ था। उसने अपने ग्रंथ तारीखे अलाई में इस युद्ध में चित्तौड़ की पराजय एवं सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की विजय के सम्बन्ध में लिखा है- ‘सुल्तान ने गंभीरी और बेड़च नदी के मध्य अपने शिविर की स्थापना की। उसके पश्चात् सेना ने दायें और बायें पार्श्व से किले को घेर लिया। ऐसा करने से तलहटी की बस्ती भी घिर गई। स्वयं सुल्तान ने अपना ध्वज चित्तौड़ नामक एक छोटी पहाड़ी पर गाढ़ दिया। वह वहीं पर दरबार लगाता था तथा घेरे के सम्बन्ध में दैनिक निर्देश देता था।
चित्तौड़ दुर्ग अपने अजेय होने के सम्बन्ध में इतना आश्वस्त था कि उसने खिलजी की सेना के आने पर भी दुर्ग के द्वार बंद नहीं किये थे। जब खिलजी का घेरा कठिन होता गया और तुर्की सेना का पड़ाव लम्बी अवधि तक चला तो राजपूतों ने भी किले के फाटक बंद कर लिये और परकोटे पर मोर्चे बांधकर शत्रुदल का संहार करते रहे। सुल्तान की सेना ने मजनिकों से किले की चट्टानों को तोड़ने का लगभग 8 महीने तक अथक प्रयास किया पर उन्हें कोई सफलता नहीं मिली।
सीसोदे के सामंत लक्ष्मणसिंह ने किले की रक्षा में अपने सात पुत्रों सहित प्राण गंवाये। चित्तौड़ का दुर्ग जीते बिना अलाउद्दीन खिलजी, दक्षिण भारत की ओर के अभियानों पर नहीं जा सकता था। इसिलये रावल को संधि के बहाने अपने शिविर में बुलाकर बंदी बनाया गया। इसके बाद दुर्ग रक्षकों को मांग भिजवाई गई कि महारानी पद्मिनी को समर्पित किया जाये।
रावल के सेनापतियों ने महारानी को समर्पित करने के स्थान पर महारावल को मुक्त कराने का उपाय सोचा। महारानी के निकट सम्बन्धी गोरा-बादल नामक दो युवक, महारानी की डोली में बैठकर शत्रु के बीच पहुंचे तथा रावल रत्नसिंह को मुक्त कराया। इसके बाद युद्ध अपने चरम पर पहुंच गया। चित्तौड़ का दुर्ग गर्व से सिर ऊँचा किए हुए खड़ा था। तुर्कों की सेना टिड्डी दलों की तरह पूरे दुर्ग को घेर कर प्रतिदिन मारकाट मचाती थी।
क्षत्रिय सैनिक दिन प्रतिदिन छीजने लगे और चारों ओर सर्वनाश के चिह्न दिखाई देने लगे। जब शत्रु से बचने का कोई उपाय दिखाई देना बंद हो गया तब महारानी पद्मििनी के नेतृत्व में राजपूत स्त्रियों और बच्चों ने जौहर की धधकती ज्वाला में प्राण उत्सर्ग कर दिये। मेवाड़ के सैनिक, दुर्ग के द्वार खोलकर शत्रु सेना पर काल बनकर टूट पड़े किंतु किले का पतन हो गया।
यह चित्तौड़ दुर्ग का पहला साका था। इस घेरे में चित्तौड़ की रावल शाखा के समस्त वीरों के काम आ जाने से चित्तौड़ की रावल शाखा का अंत हो गया। खिलजी के दरबारी लेखक अमीर खुसरो ने ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़कर लिखा है- ‘26 अगस्त 1303 को किला फतह हुआ और राय (रावल रत्नसिंह) पहले तो भाग गया परंतु पीछ से स्वयं (खिलजी की) शरण में आया और तलवार की बिजली से बच गया। अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ दुर्ग में 30 हजार मनुष्यों का कत्ल करने की आज्ञा दी तथा चित्तौड़ का राज्य अपने पुत्र खिजरखां को देकर चित्तौड़ का नाम खिजराबाद रक्खा।
टॉड ने लिखा है- ‘अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ को अधीन कर लिया परन्तु जिस पद्मिनी के लिये उसने इतना कष्ट उठाया था, उसकी तो चिता की अग्नि ही उसके नजर आई।’ इस युद्ध में महारानी पद्मिनी द्वारा दिखाये गए अदम्य साहस एवं पातिव्रत्य धर्म के कारण वह भारतीय नारियों के लिये सीता और सती सावित्री की तरह आदर्श बन गई। इसी प्रकार गोरा एवं बादल द्वारा दिखाई गई वीरता के कारण, गोरा एवं बादल मिथकीय कथाओं के नायक बन गये।
पद्मिनी की कथा को आधार बनाकर कई स्वतंत्र ग्रंथों की रचना हुईं छिताई चरित में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा चित्तौड़ के शासक को बंदी बनाकर जगह-जगह पर घुमाने का उल्लेख है। हेमरतन के गोरा-बादल चौपई में तथा लब्धोदय के पद्मिनी चरित्र में इस कथा को स्वतंत्र रूप से लिखा गया है।
मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मिनी के आख्यान को आधार बनाकर ‘पद्मावत’ नामक ग्रंथ की रचना की। इतिहास की दृष्टि से यह ग्रंथ नितांत अनुपयोगी और झूठा है। इस ग्रंथ का साहित्यिक मूल्य भी अधिक नहीं है किंतु सोलहवीं शताब्दी में लिखा हुआ होने के कारण, हिन्दी भाषा के प्रारम्भिक काल की रचना के रूप में इस ग्रंथ का महत्त्व है। वास्तव में इसका कथानक, उपन्यास की भांति कपोल-कल्पित है जिसके पात्रों एवं स्थानों के नाम इतिहास से ग्रहण किए गए हैं। महारानी पद्मिनी की कथा पर आधारित होने के कारण इस ग्रंथ को राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हुईं पद्मावत की रचना के 70 वर्ष बाद फरिश्ता ने और सोलहवीं शताब्दी में अबुल फजल ने इन तथ्यों को और अधिक तोड़-मरोड़कर इस कथा को विस्तार दे दिया।
ई.1336 में जैन साधु कक्कड़ सूरि ने ‘नाभिनन्दनो जिनोद्धार प्रबन्ध’ लिखा जिसमें कहा गया है कि चित्रकूट के स्वामी को बन्दी बनाया गया और नगर-नगर बन्दर की तरह घुमाया गया।
महारानी पद्मिनी एवं महारावल रत्नसिंह के बलिदान के लगभग 20 वर्ष बाद गुहिलों की सिसोदिया शाखा में उत्पन्न राणा हम्मीर ने चित्तौड़ दुर्ग पुनः हस्तगत किया तथा शौर्य, पराक्रम, तेज और बलिदान की सुषुप्त होती हुई धारा महाराणाओं के रूप में पुनः वेगवती हो गई और आज यह राजवंश धरती का सबसे प्राचीन राजवंश होने का गौरव रखता है।
महारानी पद्मिनी हमारी राष्ट्रीय अस्मिता की प्रतीक
महारानी पद्मिनी हमारी राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक है। लगभग सवा सात सौ वर्षों से वह भारतीय महिलाओं को अपने तेज और धर्म पर टिके रहने की प्रेरणा देती है। गीतकार प्रदीप ने महारानी के प्रति अपने उद्गार इन शब्दों में व्यक्त किये थे- ‘कूद पड़ी थीं यहाँ हजारों पद्मनियां अंगारों पे’ यह गीत स्वतंत्र भारत में हर देशवासी की जिह्वा पर चढ़ा।
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अठारहवीं शताब्दी में जोधपुर का महाराजा विजयसिंह वैष्णव धर्म के प्रति अनुराग एवं न्यायप्रियता के लिये समूचे उत्तरी भारत में विख्यात हुआ। उसके लिये मआसिरुल उमरा में लिखा है कि मारवाड़ का राजा विजयसिंह रियाया परवरी, अधीन होने वालों की परवरिश और सरकशों की सर-शिकनी में मशहूर है। उसकी पासवान गुलाबराय गोकुलिये गुसाईंयों की शिष्या थी। गुलाबराय के प्रभाव से महाराजा भी वैष्णव धर्म के सिद्धांतों की ओर प्रवृत्त हुआ। उसने पूरे मारवाड़ राज्य में पशुवध एवं मांस बिक्री पर रोक लगा दी तथा कसाइयों को चंवालिये अर्थात् पत्थर की पट्टियां ढोने का काम दिया। जो लोग महाराजा के आदेश से सहमत नहीं थे, उन्हें मारवाड़ छोड़कर जाने के आदेश दिये गये।
कुछ सामंतों को महाराजा का यह आदेश अच्छा नहीं लगा और वे अवहेलना करने लगे। आसोप ठाकुर छत्तरसिंह ने जोधपुर से चालीस किलोमीटर दूर स्थित बावड़ी गांव में कुछ बकरे कटवाये और उन्हें बोरों में भरकर ऊँट पर लाद दिया तथा जोधपुर के लिये रवाना किया। जब ऊंट शहर के भीतर भीड़भाड़ वाली सड़क पर चल रहा था, किसी ने अपनी दुनाली बंदूक से धमाके किये जिनके कारण ऊंट बिदक कर तेजी से उछलने लगा। उस पर लदा एक बोरा धरती पर गिर गया और उसमें से बकरे का कटा हुआ सिर निकल कर बाहर लुढ़क गया। यह खबर महाराजा तक पहुंची तो ठाकुर को बुलाकर राजाज्ञा की अवहेलना करने का कारण पूछा गया। ठाकुर ने जवाब दिया कि उस बोरे में बकरे का सिर नहीं था, वह तो काली ऊन का गोला था। कुछ लोगों ने उसे बकरे का कटा हुआ सिर समझकर हल्ला मचा दिया था। महाराजा ने ठाकुर की बात मान ली।
एक दिन महाराजा को ज्ञात हुआ कि दीवान जैतसिंह भी पाडे एवं बकरे काटकर खाता है और ठाकुरों को दावत देता है। महाराजा ने जैतसिंह को एकांत में फटकारा तथा ऐसा न करने के लिये पाबंद किया किंतु जैतसिंह ने अपनी आदत नहीं छोड़ी। एक दिन महाराजा को ज्ञात हुआ कि जैतसिंह ने मण्डोर उद्यान में एक भैंसा काटकर देवी को बलि चढ़ाई है तथा कई ठाकुरों को बुलाकर भैंसे, भेड़ और बकरों के मांस की दावत दी है। महाराजा ने ठाकुरों को सबक सिखाने का निर्णय लिया और खूबचंद सिंघवी एवं गोरधन खींची को भेजकर जैतसिंह को मौके पर ही पकड़ लिया। जब खूबचंद सिंघवी, दीवान जैतसिंह को लेकर महाराजा के सामने पहुंचा तो जैतसिंह ने महाराजा को झुककर मुजरा किया। उसी समय जैतसिंह की गर्दन धड़ से अलग कर दी गई। इस घटना के बाद दूसरे ठाकुरों की गतिविधियों पर स्वतः रोक लग गई।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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प्रकृति में घटने वाली घटनाएं बेतरतीब नहीं होतीं। उनके बीच निश्चित क्रम तथा तारतम्य होता है। यही कारण है कि कुछ निश्चित प्राकृतिक घटनाओं का सावधानी पूर्वक अवलोकन करके हम भविष्य में होने वाली प्राकृतिक घटनाओं का अनुमान लगा सकते हैं। ऋतुओं का आवागमन भी प्राकृतिक घटनाएं हैं जिनके बीच निश्चित क्रम तथा तारतम्य है। हजारों साल से मनुष्य इस तारतम्य को देख और समझ रहा है तथा इस संचित ज्ञान को लोकोक्तियों एवं कहावतों में ढालकर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचा रहा है।
राजस्थानी कहावतों में वर्षा एवं अकाल सम्बन्धी भविष्यवाणियों का भण्डार भरा हुआ है। प्र्राचीन समय में किसान इन कहावतों को ध्यान में रखकर समय रहते ही पता लगा लेते थे कि आने वाली वर्षा ऋतु में वर्षा कितनी होगी तथा फसल कितनी मिलेगी। ग्रामीण अंचलों में आज भी किसानों द्वारा बहुत सी कहावतें कही जाती हैं। इनमें से कुछ कहावतें यहाँ दी जा रही हैं-
काल केरड़ा सुगाळै बोर: अर्थात् कैर की झाड़ी पर अत्यधिक फल लगें तो वर्षा नहीं होगी, अकाल पड़ेगा एवं बेर की झाडि़यों पर अधिक बेर लगें तो अच्छी वर्षा होने का संकेत है। सुकाल होगा।
काती रो मेह कटक बराबर: अर्थात् कार्तिक की वर्षा फसल के लिये बहुत हानिकारक है।
आसोजां में मोती बरसे: अर्थात् आश्विन मास में होने वाली थोड़ी वर्षा भी खेती के लिये मूल्यवान होती है।
ईसानी बिसानी: अर्थात् ईशान कोण में यदि बिजली चमके तो खेती अच्छी होगी। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि राजस्थान में मानसून उत्तर-पूर्व दिशा अर्थात् ईशान कोण से ही प्रवेश करता है।
चांद छोड़े हिरणी तो लोग छोड़े परणी: अर्थात् अक्षय तृतीया को यदि चन्द्रमा, मृगशिरा से पूर्व अस्त हो जाये तो भीषण अकाल पड़ेगा, जिसमें लोगों को अपनी स्त्रियों को घर पर छोड़कर जीवन निर्वाह के लिये अन्यत्र जाना पड़ेगा।
बरसे भरणी, छोड़े परणी: अर्थात् यदि भरणी नक्षत्र में वर्षा होवे तो पति अपनी पत्नी को छोड़ भागे अर्थात् उसे कमाने के लिये विदेश जाना पड़ेगा। जे बरसे मघा तो धान रा ढगा: यदि मघा नक्षत्र में वर्षा हो तो अनाज अत्यधिक उत्पन्न होगा।
जे बरसे उतरा तो धान न खावे कुतरा: यदि उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में वर्षा हो तो इतना धान होगा कि उसे कुत्ते भी नहीं खायेंगे।
रोहण रेली तो रुपये की अधेली: अर्थात् यदि रोहिणी नक्षत्र में वर्षा हो तो रुपये की अधेली मिलेगी अर्थात् अकाल पड़ेगा।
न भीज्यो काकड़ो, तो क्यूं टेरै हाळी लाकड़ो?: अर्थात् हे किसान यदि कर्क संक्रांति के दिन वर्षा न हो तो तुम व्यर्थ ही हल चलाते हो क्योंके कर्क संक्रांति के दिन वर्षा न होने से अकाल पड़ेगा।
भादरवो गाज्यौ, काळ भाज्यौ: अर्थात् भादों में वर्षा होने पर अकाल भाग जाता है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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सम्पूर्ण विश्व प्रतिक्षण प्रेम का अभिलाषी है। यह मनुष्य की आत्मा का सबसे मधुर पेय है। इसके बिना जीवन अपूर्ण है। आदि काल से मनुष्य प्रेम का संधान करता आया है। यही कारण है कि धरती पर विकसित हुई समस्त सभ्यताओं में प्रेमाख्यानों की रचना हुई। राजस्थानी प्रेमाख्यान विश्व साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। कथ्य, तथ्य, शिल्प विधान एवं रागात्मकता की दृष्टि से ही नहीं अपितु इतिहास, सांस्कृतिक वैशिष्ट्य एवं सामाजिक परम्पराओं की विविधता के कारण इन्हें लोक संस्कृति का कोश कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
प्राचीन एवं मध्यकालीन राजस्थानी प्रेमाख्यान, गद्य एवं पद्य के साथ-साथ चम्पू विधाओं में भी मिलते हैं जिसमें गद्य एवं पद्य दोनों का मिश्रण होता है। इस कारण प्रेमाख्यान वात, वेलि, वचनिका, विगत, दवावैत आदि शैलियों में रचे गए जिन्हें सार्वजनिक रूप से गाया एवं सुनाया जाता था। प्रेमाख्यानों के गायन अथवा वाचन में रसोद्रेक प्रस्तुतकर्ता के कौशल पर अधिक निर्भर करता था। थार रेगिस्तान में रहने वाली लंगा जाति इन प्रेमाख्यानों का प्रमुखता से गायन करती थी।
प्रेमाख्यानों का आरम्भ प्रायः देवस्तुतियों के साथ होता था जिनमें सरस्वती एवं गणेश प्रमुख होते थे। इसके बाद कथा का स्थापना पक्ष होता था जिसमें कथानक के नायक एवं नायिका का परिचय भी सम्मिलित रहता था। कथानक के आगे बढ़ने पर प्रसंग के अनुसार स्वर के आरोह अवरोह बदलते थे। जब प्रसंग वीर रस से ओत-प्रोत होता था तो वाणी में ओज तथा गति बढ़ जाती थी जबकि करुण रस के प्रसंग में कथावाचक अथवा गायक अपनी वाणी को भी करुण शब्दों के उपयुक्त बना लेता था। राजस्थान के कुछ प्रसिद्ध प्रेमाख्यानों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार से है-
ढोला मारू
ढोला मारू राजस्थानी भाषा का श्रेष्ठ प्रेमाख्यान है। नरवर के राजा नल के पुत्र राजकुमार साल्ह कंवर अथवा धौलाराय को इस काव्य में ढोला कहा गया है तथा पूगल के राजा पिंगल की पुत्री राजकुमारी मारू अथवा मारवणी को को मारू कहा गया है। इस कथा के अनुसार किसी समय पूगल देश में पिंगल नामक राजा का शासन था। उन दिनों नरवर में राजा नल राज्य करता था। पिंगल की कन्या का नाम मारवणी था तथा नल के पुत्र का नाम ढोला था। एक बार पूगल देश में अकाल पड़ने से राजा सपरिवार पुष्कर में आकर रहने लगा। उन्हीं दिनों राजा नल भी सपरिवार तीर्थयात्रा के लिये पुष्कर आया। वहाँ दोनों राजाओं में मित्रता हो गयी। पिंगल ने अपनी कन्या का विवाह ढोला से कर दिया। उस समय ढोला की उम्र तीन वर्ष और मारवणी की उम्र डेढ़ वर्ष थी। शरद ऋतु आने पर दोनों राजा अपने-अपने राज्य को चले गये। मारवणी भी छोटी होने के कारण पिता के साथ पूगल चली गयी। जब ढोला जवान हुआ तो नल ने उसका दूसरा विवाह मारवा की राजकुमारी मालवणी से कर दिया। नल ने ढोला को उसके प्रथम विवाह की बात नहीं बतायी। इधर जब मारवणी बड़ी हुई तो उसके पिता ने ढोला को बुलाने के लिये कई दूत भेजे ंिकंतु नल ने उनको बीच में ही मरवा दिया। एक बार नरवर से घोड़ों के व्यापारी पूगल आये, उन्होंने ढोला के दूसरे विवाह की बात मारवणी को बता दी। पूगल ने कुछ ढाढियों को नरवर भेजकर ढोला को संदेश भेजा। ढाढियों ने मालवणी द्वारा तैनात किये गये आदमियों को धोखा देकर ढोला को मारवणी का संदेश पहुंचाया। ढोला घोड़े पर सवार होकर पूगल के लिये चल पड़ा। ढोला की दूसरी पत्नी मालवणी ने आंखों में आंसू भरकर ढोला के घोड़े की रस्सी पकड़ ली। इसलिए ढोला उस समय तो रुक गया किंतु जब मालवणी सो गयी तब वह एक ऊँट पर बैठकर पूगल चला गया। पूगल में ढोला का बड़ा स्वागत हुआ। मारवाणी को ढोला के साथ विदा कर दिया गया। मार्ग में एक पड़ाव पर मारवणी को सांप ने काट खाया और मारवणी मर गयी। ढोला मारवणी की चिता बनाकर उसी के साथ जलने को उद्यत हुआ किंतु उसी समय शिव पार्वती वहाँ आ गये और उन्होंने मारवणी को जीवित कर दिया। मार्ग में ऊमर नाम के एक आदमी ने मारवणी को हथियाने के लिये ढोला को अफीम पिला दी। ऊमर के साथ मारवणी के पीहर की एक ढोलन थी, उसने गीत गाकर मारवणी को चेता दिया कि उसके साथ धोखा होने वाला है। मारवणी ने ढोला को ऊमर के पास से उठाने के लिये अपने ऊँट को छड़ी मारी जिससे ऊँट उछलने लगा। ढोला ऊँट को शांत करने के लिये आया तो मारवणी ने उससे ऊमर के कपट की बात कही। इस पर ढोला और मारवणी, ऊँट पर बैठकर भाग खड़े हुए। ऊमर ने उनका पीछा किया किंतु उसे हताशा हाथ लगी। ढोला और मरवण दोनों नरवर में जाकर सुख से रहने लगे। इस प्रेमाख्यान के दोहे लोक में बड़े चाव से गाये जाते थे, यथा-
सोरठियो दूहो भलो, भल मरवण री बात
जोबन छाई नार भली, तारां छाई रात।
जेठवा ऊजली
इस प्रेमाख्यान में धूमली के राजकुमार जेठवा तथा अमरा चारण की बेटी ऊजली की कथा है। एक दिन जेठवा शिकार करता हुआ जंगल में भटक गया। वर्षा के कारण वह घोड़े पर ही अचेत हो गया। घोड़ा राजकुमार को लेकर आधी रात के समय अमरा चारण के झौंपड़े के सामने पहुंचा और हिनहिनाने लगा। ऊजली ने बाहर आकर राजकुमार को अचेत अवस्था में देखा और शीत से ठिठुर रहे राजकुमार की देह को गर्मी देने के लिए अपने पिता की अनुमति लेकर राजकुमार के साथ सो गयी। राजकुमार के प्राण बच गये। प्रातः जब राजकुमार की नींद खुली तो उसने ऊजली को वचन दिया कि वह उसके साथ ही विवाह करेगा किंतु अपने राज्य में लौटकर ऊजली को भूल गया। इस पर ऊजली राजकुमार से मिलने के लिये उसकी राजधानी गयी किंतु राजकुमार ने उससे विवाह करने से मना कर दिया कि एक राजपुत्र का विवाह चारणी से नहीं हो सकता। इस पर ऊजली ने कुपित होकर राजकुमार को श्राप दिया जिससे राजकुमार की मृत्यु हो गयी। ऊजली जो कि राजकुमार को अपना पति मान चुकी थी, उसके साथ सती हो गयी।
‘जेठवा रा सोरठा’ में ऊजली की मार्मिक कथा का बखान किया गया है। इस घटना का समय 1400 से 1500 वि.सं. के मध्य माना जाता है। इस ग्रंथ का एक सोरठा इस प्रकार से है-
वीणा! जंतर तार थें छोड़या उण राग रा।
गुण ने रोवूं गमार जात न झींकू जेठवा।।
खींवो आभळ
यह राजस्थान का सुंदर प्रेमाख्यान है। इसके अनुसार चोटी वाले दुर्ग का राजकुमार खींवसिंह अत्यंत सुंदर तथा बलिष्ठ था। उसे अपनी भाभी की छोटी बहिन आभळदे से प्रेम था। आभळदे अद्वितीय सुंदरी थी। वह भी राजकुमार से प्रेम करती थी। आभलदे ने अपने परिवार वालों से कहा कि वह पुष्कर में स्नान करने जा रही है और इस बहाने से वह राजकुमार से मिलने के लिये आयी। खींवसिंह रात्रि के अंधकार में आभळ से मिलने के लिये आता था। आभळदे के चाचा को यह जानकारी हो गयी। उसने खींवसिंह को मार डाला। आभलदे ने बड़ा करुण विलाप किया जिससे पसीज कर शिव पार्वती प्रसन्न हुए और उन्होंने प्रकट होकर खींवसिंह को फिर से जीवित कर दिया। इसके बाद दोनों का विवाह सम्पन्न हुआ।
जसमा ओडण
यह एक प्राचीन प्रेम कथा है जिसका कथानक इस प्रकार से है- ओड जाति का एक परिवार मिट्टी खोदने का काम करता था। इस परिवार की जसमा नामक स्त्री अत्यंत सुंदरी थी। एक बार उस देश के राजा की दृष्टि जसमा पर पड़ी तो वह उस पर मुग्ध हो गया और उससे विवाह करने के लिये तत्पर हो गया। जसमा पतिव्रता स्त्री थी और अपने पति से बहुत प्रेम करती थी उसने राजा के साथ विवाह करने से मना कर दिया। इस पर राजा ने सारे ओड पुरुषों को मरवा दिया। जसमा अपने पति की मृत देह के साथ सती हो गयी।
नाग-नागमति की कथा
नाग-नागमति की कथा ‘नागजी रा सोरठा’ में वर्णित है। यह एक विरह प्रधान प्रेमाख्यान है। एक समय नागमति उद्यान में झूला झूल रही थी। नाग उसके रूप पर मोहित हो गया। दोनों प्रेम की डोर से बंध गये। नागमति के माता-पिता ने नागमति का विवाह किसी अन्य स्थान पर कर दिया। इस पर नाग चिता सजाकर उसमें कूद पड़ा। जब नागमति ससुराल जा रही थी तब नागमति ने उस चिता को धधकते हुए देखा। नागमति भी डोली से कूद कर नाग की चिता में जा बैठी और सती हो गयी। नागजी रा सोरठा में नागमति को सुगना भी कहा गया है। इसका एक दोहा इस प्रकार से है-
मूंछ फरूके पवन सूं, हसे बत्तीस दंत।
सोरो सोज्या नागजी, मो सुगना रो कंत।
माधवानल कामकंदला
इस प्रेमाख्यान का पूरा नाम माधवानल कामकंदला प्रबंध है। इसकी रचना वि.सं.1574 में राजस्थानी कवि गणपति ने की। इसमें 2500 दोहे हैं। इस ग्रंथ की कई हस्तलिखित प्रतियां मिलती हैं। इस प्रेमाख्यान की विशेषता यह है कि रचनाकार ने ग्रंथ के प्रारंभ में गणेश स्तुति अथवा मंगलाचरण न लिखकर कामदेव की स्तुति की है।
मूमल महेन्द्र
मूमल महेन्द्र का प्रेमाख्यान राजस्थान के प्रेमाख्यानों में सबसे विशिष्ट स्थान रखता है। इस कथा के कई रूप मिलते हैं। मूल कथानक इस प्रकार है कि राजकुमार महेन्द्र सोढण राजकुमारी मूमल से प्रेम करता था और अपनी सांड पर बैठकर मूमल से मिलने आया करता था। एक रात्रि में उसने मूमल की बहिन को पुरुष वेश में मूमल के पलंग पर सोते हुए देख लिया। महेन्द्र मूमल को छोड़कर चला गया। इधर मूमल को सूचना मिली कि महेन्द्र की मृत्यु सांप काटने से हो गयी है। यह सुनकर मूमल सती हो गयी। आज भी जैसलमेर जिले में काक नदी के तट पर मूमल की मेढ़ी बनी हुई है।
सेणी वीजानंद
इस प्रेमाख्यान के अनुसार कच्छ के भाघड़ी गाँव का चारण वीजानंद अच्छा गवैया था तथा गायें चराता था। एक बार उसने बेकरे गाँव की सेणी को देख लिया। उसने सेणी से विवाह का प्रस्ताव रखा किंतु सेणी ने एक शर्त पूरी करने को कहा। वीजानंद उस शर्त को पूरा करने के लिये घर से निकल पड़ा किंतु वह छः माह की निर्धारित अवधि में लौट कर नहीं आया। इस पर सेणी ने हिमालय पर जाकर अपना शरीर गला लिया। वीजानंद लौट कर आया तो उसे सारी बात का पता चला। वह भी हिमालय पर चला गया और अपना शरीर गला लिया। इस कथा में सेणी के बारे में एक दोहा कहा जाता है-
कंकूवरण कळाइयां, चूड़ी रत्तडि़यांह।
वीझां गळ विलंबी नहीं, बाळूं बांहडि़याह।।
सोरठ वींजा
इस प्रेमाख्यान के अनुसार सांचोर के राजा जयचंद के यहाँ मूल नक्षत्र में एक कन्या का जन्म हुआ। राजा ने पुत्री को अपने लिये अशुभ जानकर पेटी में बंद करके नदी में फैंक दिया। यह पेटी चांपाकुमार को मिली जिसने कन्या का नाम सोरठ रखा तथा उसे पालकर बड़ा किया। समय पाकर कन्या अत्यंत रूपवती युवती में बदल गयी। पाटण के राजा सिद्धराज तथा गिरनार के राव खंगार दोनों ने उससे विवाह करना चाहा। चांपाकुमार ने घबराकर सोरठ का विवाह एक बणजारे के साथ कर दिया। खंगार ने बणजारे को मार डाला और सोरठ को अपने घर ले गया। वहाँ खंगार के भाणजे वींजा को सोरठ से प्रेम हो गया। वींजा ने गुजरात के बादशाह से मिलकर खंगार पर आक्रमण किया जिसमें खंगार मारा गया किंतु सोरठ वींजा के हाथ नहीं आयी। बादशाह सोरठ को पकड़ कर ले गया और उसे अपने हरम में डाल लिया। वींजा ने दुखी होकर प्राण त्याग दिये। सोरठ भी बादशाह के हरम से निकल भागी और शमशान में वींजा की राख पर चिता सजाकर भस्म हो गयी। ‘सोरठ वींजा रा दूहा’ नाम से डिंगल भाषा में एक ग्रंथ मिलता है। चंद्रकुंवरी री वात: कवि प्रतापसिंह ने ई.1765 में इस डिंगल गं्रथ को लिखा। इसमें अमरावती के राजकुमार तथा वहाँ के सेठ की पुत्री चंद्रकुंवरी की प्रेम गाथा लिखी गयी है।
चंदन मलयागिरि की वात
भद्रसेन ने ई. 1740 में इस प्रेमाख्यान की रचना की। इसमें चंदन और मलयगिरि के प्रेम की गाथा कही गयी है। इनके अतिरिक्त सोरठी गाथा, जलाल बूबना की कथा, ऊमा-सांखली और अचलदास की कथा, काछबो तथा बाघो-भारमली आदि के प्रेमाख्यान भी गाये जाते थे। अधिकतर प्रेमाख्यानों के एक से अधिक रूप प्राप्त होते हैं। जलाल बूबना की कथा का यह दोहा अत्यंत मार्मिक है-
मैं मन दीन्हों तोय, नेणा जिन दिन देखिया।
सुधि क्यों रही न मोय, प्रेम लाज अब राखिया।
लेखनकला का विकास होने पर इन आख्यानों को लिपिबद्ध कर दिया गया। कुछ प्रतियों में तो अत्यंत सुंदर चित्र भी बने हुए मिलते हैं जो राजस्थानी चित्रकला की अमूल्य धरोहर हैं। परवर्ती काल में कुछ प्रेमाख्यानों को परकीया प्रेम तथा अश्लील वर्णन से दूषित कर दिया गया किंतु अधिकांश प्रेमाख्यान आदर्श प्रेम का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। वर्तमान काल में मनोरंजन के नवीन साधनों के आ जाने के कारण राजस्थानी प्रेमाख्यान लोक-जिह्वा से हटकर केवल पुस्तकों में सिमट कर रह गए हैं। परवर्ती काल में इन प्रेमाख्यानों को आधार बनाकर कुछ ऐसे ख्यालों की रचना भी हुई जिनमें इनकी मूल कथाओं को विकृत कर दिया गया। इस कारण भी जन-सामान्य को इनसे अरुचि हो गई।
- डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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वर्तमान में पश्चिमी राजस्थान में रियासती इतिहास पर्यटन का प्रमुख आधार बना हुआ है जिसके चलते राजस्थान में आने वाले पर्यटकों को रियासत कालीन महलों, दुर्गों, हवेलियों तथा अन्य राजकीय भवनों की सैर करवाई जाती है। राजस्थान में आने वाले पर्यटकों को प्राचीन किलों तथा राजसी प्रासादों के साथ-साथ रेतीले धोरों, संगीत लहरियों, लोक नृत्यों, विशिष्ट व्यंजनों, तीज त्यौयारों तथा उत्सवों से भी परिचय करवाया जाता है तथा इन्हेें भी रियासती इतिहास में लपेट कर परोसा जाता है। निःसंदेह रियासत कालीन इतिहास बीते युग की गौरवशाली धरोहर है तथा जिन भवनों के आसपास वह इतिहास घटित हुआ है वह हर तरह से दर्शनीय हैं किंतु राजस्थान केवल इतना ही नहीं है। राजस्थान आने वाले विश्व भर के पर्यटकों में से बहुतों ने अपने देशों को लौटकर पर्यटन के सम्बन्ध में जो पुस्तकें, लेख तथा टूरिस्ट गाइडें लिखी हैं उनमें यहाँ की विपुल सांस्कृतिक थाती का बड़े ही रोमांचक अंदाज में वर्णन किया है किंतु अब इसे नयी दिशा देने की आवश्यकता है जिसकी की विपुल संभावनाएं मौजूद हैं। जब हम यह कहते हैं कि राजस्थान में पर्यटन की विपुल संभावनाएं हैं तो उसके गहरे अर्थ निकलते हैं। आज पर्यटन की पारंपरिक अवधारणा मिटती जा रही है। चाहे देशी पर्यटक हो अथवा विदेशी, वह जानना चाहता है कि आज के राजस्थान ने उसके लिये क्या कुछ नया संजोया है। आज समूचा विश्व तेजी से औद्योगिकीकरण की ओर बढ़ रहा है जिससे पर्यावरण प्रदूषण की समस्याएं बढ़ गयी हैं किंतु कुछ अपवादों को छोड़कर राजस्थान आज भी अपनी स्वच्छ हवाओं, निर्मला धूप और रोगनाशक जल को प्रदूषण रहित बनाये हुए है। यहाँ का स्वास्थ्यवर्धक जलवायु पर्यटकों के लिये आकर्षण को द्विगुणित कर सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि पर्यटकों तक यह बात पहुँचायी जाये। राजस्थान में फैला शुष्क रेगिस्तान, अरावली की विस्तृत पहाडि़यां, मेवाड़ में विस्तृत मालवा का पठार तथा चम्बल के किनारे, आयुर्वेद की दृष्टि से एक सुखद अजूबे को समेटे हुए है। जो जड़ी बूटियां इस विविध क्षेत्र में मिलती हैं उनका उपयोग विश्व स्तर के पर्यटकों को लुभाने के लिये किया जा सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि हम उन जड़ी बूटियों के जिन परम्परागत नुस्खों को आधुनिक चिकित्सा की सुविधाजनक क्रियाविधियों के कारण भूल गये हैं, उन्हें फिर से स्मरण करें। उनके सरल उपयोगों को दुनिया के सामने लायें। उन दिव्य औषधियों की वाटिकाएं स्थापित करें तथा उनमें अपने पर्यटकों को जीवंत प्रदर्शन दें। आयुर्वेद के परम्परागत तरीकों यथा शरीर की तेल मालिश, व्यायाम, योगाभ्यास, कल्पविधियों को भी हम पर्यटन से जोड़ सकते हैं। हम ऐसे केन्द्र स्थापित कर सकते हैं जहाँ पर्यटकों को ये सुविधायें सहज रूप से सुलभ हों। पुरातत्व तथा प्रागैतिहासिक केंद्रों को अभी तक पर्यटकों के सामने नहीं लाया जा सका है। लूणी, बेड़च, गंभीरी, कांटली तथा चम्बल आदि नदियों के तटों पर, डीडवाना, लूणकरण, पचपद्रा तथा सांभर आदि झीलों के किनारों से अनेक ऐसे स्थलों का पता चला था जहाँ से प्रागैतिहासिक काल की पुरा सामग्री प्राप्त हुई थी। इसी प्रकार बाड़मेर जिले के तिलवाड़ा क्षेत्र से प्राचीन आर्य बस्तियों के झौंपड़े प्राप्त हुए। जालोर के ऐलाणा क्षेत्र से तृतीय कांस्यकालीन सभ्यता के अवशेष मिले और जोधपुर के बाहर भीमभड़क से आदिम युगीन शैलचित्र प्राप्त हुए। दुर्भाग्य से पुरासामग्री को उसके मूल स्थान से हटा दिया गया और उन्हें संग्रहालयों मंे भेज दिया गया। पर्यटक इस सामग्री को एक स्थान पर रखा हुआ देखकर उस परिवेश का आनंद नहीं ले सकता जिसमें कि उन्हें मूल रूप से पाया गया था। यदि इस सामग्री को उसके मूल स्थान पर ही रखा जाता और वहाँ पर्यटन की सुविधायें विकसित करके पर्यटक को ले जाया जाता तो इन स्थानों का रोमांच अधिक होता। आज भी इस भूल को सुधारा जा सकता है। हम मण्डोर के प्रतिहारकालीन दुर्ग को भी पुरातत्व विषयक पर्यटन स्थल मंे विकसित कर सकते हैं जहाँ से प्रतिहार कालीन, पूर्व प्रतिहार कालीन तथा उससे भी पूर्व गुप्तकालीन स्थापत्य तथा शिल्प के अवशेष प्राप्त हुए हैं तथा अब भी हो रहे हैं। मण्डोर क्षेत्र की सातवीं शताब्दी की प्राचीन बावड़ी, जयपुर की आठवीं शताब्दी की बावड़ी, भीनमाल की अति प्राचीन जैकोब (यक्षकूप) बावड़ी तथा पूरे राजस्थान में फैली ऐसी ही कलात्मक बावडि़यां भी देशी-विदेशी पर्यटकों के आकर्षण का विषय हो सकती हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम पर्यटकों को बतायें कि ये बावडि़यां भारत भर में अपना विशिष्ट स्थान क्यों रखती हैं तथा इनका इतिहास क्या है! यदि हम पर्यटकों को बतायें कि बावड़ी निर्माण की शिल्पकला पहली शताब्दी के लगभग शक जाति कर्क देश से अपने साथ पश्चिमी राजस्थान में लायी थी जो आज भी इस क्षेत्र में किसी समय शकों का शासन होने के गिने चुने प्रमाणों में से एक हैं। इसी कारण इन्हें संस्कृत साहित्य में शकंधु तथा कर्कंधु अर्थात शकों का कुंआ तथा कर्क देश का कुंआ कहा गया है। यक्ष पूजन की परम्परा भी शकों के साथ भारत में आयी थी। यही कारण है कि प्राचीन बावड़यों के आस पास यक्षों की मूर्तियां पायी जाती थीं। इस प्रकार यदि राजस्थान के विशिष्ट एवं दुर्लभ जीव जंतुओं यथा पीवणा सांप, झाउ चूहा, नेवला, स्याली, के छोटे-छोटे जंतुआलय बनाये जायें तथा उन प्रजातियों के वैशिष्ट्य से पर्यटकों को परिचित कराया जाये तो ये भी अच्छे केंद्रों के रूप में विकसित हो सकते हैं। इन केन्द्रों को भारत भर के उन विद्यालयों एवं महाविद्यालयों से भी जोड़ा जा सकता है जो अपने छात्र-छात्राओं को वैज्ञानिक अथवा पुरातत्व विषयक भ्रमणों पर ले जाते हैं। -मोहनलाल गुप्ता
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