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महाराजा उम्मेदसिंह और वायुयान में परस्पर विशेष सम्बंध दिखाई देता है। जिस वर्ष संसार में पहले वायुयान ने हवा में पहली उड़ान भरी, उसी वर्ष महाराजा उम्मेदसिंह का जन्म हुआ। जिस वर्ष वायुयान ने दुनिया का पहला चक्कर लगाया, उसी वर्ष महाराजा उम्मेदसिंह ने भारत के किसी देशी रजवाड़े में पहले उड्डयन विभाग की स्थापना की।
महाराजा उम्मेदसिंह
महाराजा उम्मेदसिंह ई. 1918 में मारवाड़ रियासत के शासक हुए। उस समय वे नाबालिग थे। अतः शासन का काम जोधपुर के प्रधानमंत्री सर प्रताप चलाते थे। उनकी सहायता के लिये रीजेंसी कौंसिल स्थापित की गयी। उस समय मारवाड़ रियासत में प्रशासनिक नवीनीकरण का कार्य चल रहा था। दुर्भाग्य से 1922 में सर प्रताप का निधन हो गया। अगले वर्ष 1923 में महाराजा उम्मेदसिंह को शासन सम्बंधी निर्णय लेने के अधिकार मिल गये। इसके बाद मारवाड़ रियासत में प्रशासनिक सुधारों का काम और आगे बढ़ा।
यह वह समय था जब ब्रिटिश शासन विश्वव्यापी मंदी से उबरने के लिये जी तोड़ हाथ-पांव मार रहा था। इस कारण अंग्रेजों ने देशी रजवाड़ों को प्रशासनिक सुधार के लिये न केवल प्रेरित किया अपितु किसी हद तक बाध्य भी किया। महाराजा उम्मेदसिंह दूरदर्शी एवं आधुनिक विचारों के धनी थे। उन्होंने नये समय की चाल को समय रहते समझा और अपनी रियासत में कई नये विभागों की स्थापना की तथा पुराने विभागों को पुनर्गठित किया। नये विभागों में उड्डयन विभाग कई दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण था। यह एक ऐसा विभाग था जिसने न केवल ब्रिटिश भारत में अपिुत सम्पूर्ण यूरोप में जोधपुर रियासत को एक नवीन सम्मान और नये सिरे से ख्याति दिलवाई तथा रियासत को नवीन आर्थिक एवं सामरिक गतिविधियों का केन्द्र बना दिया।
वायुयान का विकास
17 दिसम्बर 1903 को राइट बंधुओं- विल्बर राइट तथा ओरविले राइट ने संसार के पहले विमान ‘राइट फ्लायर’ को आकाश में उड़ाया था। यह अधिकतम 59 सैकेण्ड हवा में रह सका था। संसार इस उपलब्धि के बारे में 9 सितम्बर 1908 को जान सका था जब राइट बंधुओं ने अमरीका में अपने विमान का सार्वजनिक प्रदर्शन किया। उस दिन वे एक घण्टे से भी अधिक समय तक हवा में रह सके थे। 1909 में राइट बंधुओं ने विश्व की पहली विमान निर्माण कम्पनी का गठन किया।
ई. 1911 में इटली और तुर्की के बीच हुए युद्ध में वायुयानों का प्रयोग युद्ध क्षेत्र की निगरानी के लिये किया गया। इससे संसार भर में चली आ रही हजारों वर्ष पुरानी नगर प्राचीर और दुर्ग निर्माण व्यवस्था महत्वहीन हो गयी। ई. 1912 में विल्बर राइट की मृत्यु हो गयी और ई. 1915 में ओरविले राइट ने अपनी कम्पनी के अधिकार विमानन में नवीन तकनीकी शोध के काम को आगे बढ़ाने के लिये दूसरी कम्पनियों को बेच दिये। इसके बाद विमानन का द्रुत विकास आरंभ हुआ।
दुनिया भर की सरकारें, व्यापारिक प्रतिष्ठान और धनी व्यक्ति अपने लिये विमान बनवाने को लालायित होने लगे। परिणाम स्वरूप यूरोप और अमरीका के आकाश विभिन्न कम्पनियों द्वारा बनाये गये विमानों से भर गये। इन विमानों में बैठे हुए स्त्री, पुरुष और बच्चे प्रसन्नता, भय और रोमांच के मारे चीखते चिल्लाते थे और अपने अनुभवों से दूसरों को भी रोमांचित करते थे। ई. 1924 में अमरीकी सेना के दो डगलस बाइप्लेनों ने 44 हजार 300 किलोमीटर की दूरी तय करके पहली बार पूरी दुनिया का चक्कर लगाया।
यही वह समय था जब महाराजा उम्मेदसिंह ने अपनी रियासत में वायु सेवाएं आरंभ करने का निर्णय लिया। जोधपुर में उड्डयन के जनक महाराजा उम्मेदसिंह महाराजा उम्मेदसिंह न केवल जोधपुर में अपितु ब्रिटिश भारत के अधीन देशी रजवाड़ों में भी उड्डयन इतिहास के जनक थे। इस नाते उनके कार्यकाल का सबसे महत्वपूर्ण कार्य उड्डयन विभाग की स्थापना करना कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
सौभाग्य से उन दिनों जोधपुर रियासत को मि. एस. जी. एडगर जैसे प्रबुद्ध अधिकारी की सेवाएं प्राप्त थीं जो उन दिनों जोधपुर रियासत के पी.डब्लू. डी. मिनिस्टर थे। उनके काल में जोधपुर में नागरिक उड्डयन की दिशा में किये गये कार्य-कलापों की जानकारी जोधपुर सरकार के चीफ इंजीनियर कार्यालय की फाइलों में उपलब्ध है। इन फाइलों में से फाइल संख्या 111 सी अधिक महत्वपूर्ण है। इस फाइल में उन दिनों हुए विभिन्न निर्माण कार्यों तथा उन पर हुए व्यय आदि के तत्कालीन आंकड़े तो उपलब्ध हैं ही, साथ ही तत्कालीन अभियंताओं के मध्य हुए पत्राचार तथा तत्कालीन पी.डब्लू.डी. मिनिस्टर मि. एस. जी. एडगर, तथा स्टेट काउंसिल के सचिव के मध्य हुए पत्राचार भी उपलब्ध हैं।
उन दिनों प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों- इलस्टेªटेड वीकली ऑफ इण्डिया, टाइम्स ऑफ इण्डिया, द डेली गजट, इवनिंग स्टैण्डर्ड तथा स्टेट्समैन आदि में भी जोधपुर की हवाई यातायात गतिविधियों का विवरण छपता था। इन विवरणों के साथ जोधपुर में उन दिनों मौजूद हवाई अड़डे तथा स्टेल होटल आदि भवनों के चित्र भी प्रकाशित हेाते थे।
जोधपुर तथा उत्तरलाई में हवाई अड्डों की स्थापना
महाराजा उम्मेदसिंह ने ई. 1924 में जोधपुर में तथा ई. 1925 में उत्तरलाई में सार्वजनिक निर्माण विभाग के माध्यम से हवाई अड्डों का निर्माण करवाया। आरंभ में हवाई अड्डों के निर्माण कार्य में जंगल को काटने, जमीन को सममतल करने तथा कार्मिकों के निवास हेतु घर बनाने की गतिविधियों सम्मलित की गयीं। इन प्रारंभिक कार्याें के लिये जोधपुर हवाई अड्डे पर सात सौ उन्चालीस रूपए तीन आने नौ पाई तथा उत्तरलाई हवाई अड्डे के प्रारम्भिक निर्माण कार्यों पर एक हजार दो सौ अड़सठ रूपए पाँच आने छह पाई व्यय किये गये।
जोधपुर फ्लाइंग क्लब
ई. 1931 में महाराजा उम्मेदसिंह ने दिल्ली फ्लाइंग क्लब से निजी वायुयान चालक का अनुज्ञा पत्र प्राप्त किया तथा उसी वर्ष जोधपुर फ्लाइंग क्लब की नींव रखी। महाराजा उम्मेदसिंह स्वयं इस क्लब के अध्यक्ष थे। वाइस प्रेसिडेण्ट ऑफ स्टेट काउंसिल- कुंवर महाराज सिंह को फ्लांइग क्लब का एक्स-ऑफिशियो उपाध्यक्ष बनाया गया। तत्कालीन पी. डब्लू. डी. मिनिस्टर मि. एस. जी. एडगर, एक्स-ऑफिशियो फाइनेंस मैम्बर मि. जे. डब्लू. यंग, पायलेट इंसट्रक्टर मि. आर. ए. टारलेटोन, ऑनरेरी ट्रेजरार एण्ड ऑडीटर मि. एफ. स्टील, ऑनरेरी सेक्रेटरी मि. जे.डब्लू. गोरडन को इस क्लब का सदस्य बनाया गया।
ग्राउंड इंजीनियर मि. आर. डी. सैमुअल की सेवाएं भी क्लब के लिये उपलब्ध रहीं। बाद में जे. डब्लू. यंग की अनुपस्थिति में राव राजा नरपतसिंह को सदस्य बना दिया गया। जोधपुर फ्लांइग क्लब की शुरूआत में क्लब में दो टाइगर मौथ, एक लीपर्ड मौथ, दो लीक हीड वायुयान शामिल किये गये। क्लब के मुख्य प्रशिक्षक जी. गोडविन थे। वायु सेवाओं को लोकप्रिय बनाने के लिये महाराजा उम्मेदसिंह ने अपने सगे संबंधियों को वायुयान में उड़ने के लिए प्रोत्साहित किया तथा रियासत के कीरब सभी परगनों में हवाई पट्टी का निर्माण करवाया जिससे वहाँ हवाई जहाज उतर सकें तथा सम्पूर्ण मारवाड़ हवाई मार्ग से जुड़ सके।
ई. 1931 में मेड़ता रोड, तिलवाड़ा और गडरा रोड में हवाई पटिटयों का निर्माण करवाया गया। प्रत्येक हवाई पट्टी के निर्माण हेतु एक हजार एक सौ रूपए स्वीकृत किये।
1935 तक इस क्लब के लगभग 50 सदस्य बन चुके थे, जिनमें से दस सदस्य अकेले ही विमान उड़ाने में कुशलता रखते थे और अति दक्ष चालक थे। सात आनरेरी मैम्बर्स, छः एसोसिएट मैम्बर्स, बारह यूरोपीयन मैम्बर्स और शेष इंडियन मैम्बर्स थे। ई. 1936 में इस क्लब के सदस्यों ने 683 घंटे 30 मिनट उड़ानें भरीें। बाद में इस फ््लाइंग क्लब को नम्बर दो एलिमेन्टरी फ्लाइंग स्कूल कहा जाने लगा। जोधपुर तथा उत्तरलाई हवाई अड्डों का विकास जोधपुर तथा उत्तरलाई हवाई अड्डों का विस्तार द्रुत गति से हुआ। हवाई अड्डों पर विमानशाला, पेट्रोल पम्प भवन, पुलिस गारद और भंडार गृह इत्यादि का निर्माण किया गया।
ई. 1932-33 तक जोधपुर हवाई अड्डे के विकास पर एक लाख छत्तीस हजार आठ सौ तीस रूपए नौ आने तथा उत्तरलाई हवाई अड्डे के विकास पर नौ हजार छः सौ दस रूपए पाँच आने नौ पाई खर्च किये गये। उस समय भारत भर में एक कहावत प्रचलित हो गई थी कि जोधपुर में इतने बाशिंदे हवा में उड रहे हैं कि पक्षियों को आकाश में उड़ने की जगह नहीं बची है। ई. 1933-34 तक जोधपुर हवाई अड्डे का कार्य काफी बढ़ गया। यहाँ प्रति वर्ष हवाई जहाजों के उतरने की संख्या बढ़ रही थी तथा रात्रि में भी विमान उतरने लगे थे। रात्रि में विमानों के आवागमन की संख्या के बारे में जोधपुर सरकार के चीफ इंजीनियर कार्यालय की फाइल संख्या 111 सी/1/8/1 भाग प्रथम में लगे पत्र संख्या 7419 में उल्लेख किया गया है कि जुलाई 1933 में 8, अगस्त में 8, सितम्बर में 14, अक्टूबर में 20, नवम्बर में 18, दिसम्बर में 32, वर्ष 1934 की जनवरी में 27, फरवरी में 19, और मार्च में 14 विमान रात्रि में उतरे।
फरवरी 1935 में रात्रि में जोधपुर हवाई अड्डे पर उतरने वाले वायुयानों की संख्या 38 बताई गयी है। इसलिए हवाई अड्डे पर प्रकाश का प्रबंध करना आवश्यक हो गया। महाराजा ने जोधपुर नगर में स्थित बिजलीघर को इस हवाई अड्डे के विद्युतिकरण की योजना बनाने का आदेश दिया। इस कार्य हेतु नवासी हजार रूपए की योजना बनायी गयी। जोधपुर हवाई अड्डे के विद्युतिकरण कार्य को बडे़ प्रशंसनीय ढंग से पूर्ण किया गया जिससे रात्रि में हवाई जहाजों के आवागमन की सुविधा मंे उल्लेखनीय वृद्धि हुई। इसके बाद उन्नतीस हजार तीन सौ तैतीस रूपए की लागत से कन्ट्रोल टावर के निर्माण की योजना हाथ में ली गयी।
रात्रि में विद्युत प्रकाश की व्यवस्था हो जाने तथा कण्ट्रोल टावर बन जाने से जोधपुर हवाई अड्डा विश्व के आधुनिक हवाई अड्डों में गिना जाने लगा और इसकी तुलना यूरोप के सर्वोत्तम हवाई अड्डों से की जाने लगी। इस व्यवस्था के कारण जोधपुर विश्व भर में वायुयानों के रात्रिकालीन ठहराव के लिये प्रसिद्ध हो गया। 1935 तक जोधपुर हवाई अड्डे पर दो फ्लड लाइटें, वायु सूचक यंत्र, चार-दीवारी तथा अवरोधक विद्युत व्यवस्था से सुसज्जित हो चुका था। रात्रि में वायुयान चालकों को हवाई अड्डे की दिशा बताने के लिये स्टेट होटल भवन पर घूमता हुआ विद्युत संकेतक लगाया गया था।
महाराजा उम्मेदसिंह ने जोधपुर हवाई अड्डे को अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे की श्रेणी में बनाये रखने के लिए किसी भी बात की कमी नहीं रखी। ई. 1935 में उन्होंने रन-वे के निर्माण हेतु दस हजार रूपए की अनुमति प्रदान की। हवाई जहाजों का आवागमन निरंतर बढ़ते रहने से इस हवाई अड्डे पर वायुयानों में ईंधन भरने तथा ईंधन के भंडार गृह की सुविधा उपलब्ध करवाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। कराची की कम्पनी मै. स्टेण्डर्ड वेक्यूम ऑयल कम्पनी लिमिटेड ने जोधपुर हवाई अड्डे पर ईंधन भंडार गृह के निर्माण का ठेका लिया। ईंधन भण्डारगृह की निर्माण प्रक्रिया दीर्घकालिक थी इसलिए कम्पनी के कर्मचारियों के लिये हवाई अड्डे के निकट ही पक्के भवन बनाये गये।
जोधपुर रियासत में अन्य हवाई स्टेशनों का विकास
जोधपुर रियासत में ई. 1933 तक जोधपुर, उत्तरलाई, फालना, नारायणपुरा, मेड़तारोड, तिलवाड़ा, गडरारोड, नागौर, पाली, रोहट, धोलेराव, सोजत, बाली, जालोर तथा सांचोर में कुल पन्द्रह स्टेशनों का निर्माण किया गया जहाँ हवाई जहाज को उतारा जा सकता था। बाद मे सादड़ी, कुचामन, सांभर और बालसमंद में भी हवाई पट्टियां बनाई गयीं। इन स्टेशनों को दो वर्गों मंे विभाजित किया गया- प्रथम वर्ग में पब्लिक लेंडिंग ग्राउंड्स तथा द्वितीय वर्ग में प्राइवेट लेडिंग ग्राउंड्स रखे गये। जोधपुर, उत्तरलाई, फालना, मेड़तारोड, तिलवाड़ा, गडरारोड, नागौर, सोजत और रोहट में पब्लिक लेंडिंग ग्राउंड्स थे जबकि धोलेराव, जालोर, पाली, सादड़ी, सांचोर, कुचामन, सांभर ओर बालसमंद में प्राइवेट लेडिंग ग्राउंड्स थे।
ई. 1934 में भीनमाल और डीडवाना में भी हवाई जहाज उतरने के स्टेशन बनाने की योजना बनायी गयी। बाद के वर्षों में सरदारसमंद, परबतसर सिटी, फलोदी, शिव, गुडा, जसवंतपुरा, मादरी तथा हेमावास में भी हवाई पट्टियां बनवाई गयीं। 11 मार्च 1938 तक जोधपुर राज्य में तेबीस स्थानों पर हवाई जहाज उतारने के मैदान स्थापित हो चुके थे।
जोधपुर रियासत में हवाई अड्डों का निर्माण इतनी दु्रत गति से हुआ कि ब्रिटिश शासक अचम्भित रह गए। आखिरकार ब्रिटिश सरकार ने महाराजा को लिखा कि सुरक्षा की दृष्टि से अधिक हवाई पटिटयों का निर्माण करना उचित नहीं है। अतः बिना ब्रिटिश सरकार के परामर्श से भविष्य में जोधपुर रियासत में हवाई पटिटयों का निर्माण नहीं किया जाये। ट्रान्स इंडिया हाई-वे का मुख्य अड्डा जोधपुर हवाई अड्डा ट्रान्स इंडिया हाई वे पर स्थित होने से मात्र दस वर्ष की अवधि में ही भारत का मुख्य अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा बन गया। उस समय यहाँ पर तीन नियमित वायु सेवाएं उपलब्ध थीं-
1. इंडियन ट्रान्स कॉन्टीनेंटल एयरवेज यह एयरवेज भारत से बाहर डाक तथा अन्य सामग्री ले जाती थी। यह सप्ताह में दो बार जोधपुर आती थी। इसका सम्बंध इम्पीरियल एयरवेज से था। यह सेवा लन्दन से कराची तक की थी। इसके अतिरिक्त इसकी ‘फीडर सेवाएं’ भी प्रचलित थीं, जैसे जोधपुर-लाहौर-रावलपिंडी, जोधपुर-अहमदाबाद -बम्बई। महाराजा ने जोधपुर से उड़ान की कई योजनाएं बनाईं थीं किंतु द्धितीय विश्वयुद्ध (ई.1939-451) के कारण इन योजनाओं को स्थगित कर दिया गया।
2. एयर फ्रांस अथवा फ्रैंच एयरवेज इस एयरवेज की उड़ान फ्रांस से सैगोन तक थी। यह सप्ताह में एक बार जोधपुर आती थी।
3. रॉयल डच के.एल.एम एयरलाइंस रॉयल डच एयरलाइंस की उड़ान एमस्टरडम से बटाविया तक थी तथा इसकी उड़ान सप्ताह में दो बार होती थी। जोधपुर में भी इसका ठहराव था।
आवागमन में वृद्धि
वर्ष 1929-30 में जोधपुर हवाई अड्डे पर 99 वायुयान उतरे। इसके अगले वर्ष 1930-31 में इस संख्या में ढाई सौ प्रतिशत की वृद्धि हुई और 249 विमान उतरे। वर्ष 1931-32 में 340, वर्ष 1932-33 में 418 तथा वर्ष 1933-34 में 451 विमान जोधपुर हवाई अड़डे पर उतरे। अगले तीन वर्षों में इनकी संख्या एक बार फिर उल्लेखनीय रूप से बढ़ी। वर्ष 1936 में जोधपुर हवाई अड्डे पर सात सौ इकसठ हवाई जहाजों का आवागमन हुआ था।
महाराजा इस हवाई अड्डे की देख-भाल राज्य के खर्चे से किया करते थे परन्तु जो भी हवाई जहाज इस अड्डे पर उतरता था उसे निदेशक नागरिक उड्डयन विभाग के नियम के अनुसार निर्धारित शुल्क देना पडता था। स्थानीय सरकार हवाई अड्डे पर ग्राउंड स्टाफ, हैंगर, रात्रि में हवाई हजाज के उतरने की व्यवस्थार्, इंंधन भरने की व्यवस्था, वायरलैस की व्यवस्था तथा अन्य प्रकार की सुविधाओं का प्रबंध करती थी।
महाराजा उम्मेदसिंह को इस बात का पूर्ण श्रेय था कि उन्होंने ही जोधपुर हवाई अड्डे को अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का स्तर दिलवाया। इसी कारण जोधपुर विश्व के नक्शे में अपना महत्व रखने लगा । स्टेट होटल महाराजा उम्मेदसिंह ने जोधपुर में स्टेट होटल का निर्माण करवाया। इसे आजकल ऑफिसर्स मैस कहा जाता है। उस समय जोधपुर की वायुसीमा से होकर जाने वाले प्रत्येक अंतरराष्ट्रीय वायुयान चालक दल के सदस्य स्टेट होटल में विश्राम करके जोधपुर के शाही ठाठ-बाठ का आनन्द उठाकर अपने आप को गौरान्वित अनुभव करते थे।
द इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इण्डिया के 15 दिसम्बर 1935 के अंक में इस स्टेट होटल के बारे में सचित्र विवरण प्रकाशित किया गया था और इसे वायुयात्रियों के लिये भारत में अपनी तरह की सर्वश्रेष्ठ सुविधा बताया गया था। भारत का सबसे तेज वायुयान जोधपुर में महाराजा उम्मेदसिंह ने सबसे पहला वायुयान ‘‘जिप्सी मौथ’’ खरीदा था। बाद में उन्होंनें दो टाइगर मौथ तथा दो लीक हीड वायुयान एवं अन्य वायुयान भी खरीदे। 1935 में महाराजा के पास ‘‘कॉम्पर स्विफ्ट (मोनोस्पार)’ नामक अत्याधुनिक वायुयान था जिसे रखना बहुत ही गर्व की बात मानी जाती थी। इस समय उनके पास ‘‘पर्सीवल गल’’ नामक वायुयान भी था। उस समय भारत में किसी अन्य व्यक्ति या राजा के पास इससे तेज चलने वाला वायुयान नहीं था।
ई. 1935 तक महाराजा उम्मेदसिंह 200 घण्टे से अधिक की उड़ान भर चुके थे। वे रात्रि में भी तथा न दिखाई देने वाली परिस्थितियों में भी विमान चलाने के लिये जाने जाते थे। ई. 1936 मे अजमेर के व्यवसायी रायबहादुर सेठ भागचंद सोनी ने महाराजा को राज्य के उपयोग हेतु एक हवाई जहाज लियोपार्ड मोथ (वी.टी.-ए. एच. एच.) भेंट किया था।
एरियल पिकनिक
जोधपुर फ्लाइंग क्लब के मैम्बर उड़ान तो भरते ही थे परन्तु कभी-कभी एरियल-पिकनिक में भी जाते थे। एरियल पिकनिक से मारवाड़ राज्य के दर्शनीय स्थलों का विकास होने लगा तथा पर्यटकों को आकर्षित करने में सफलता मिली। इस क्लब द्वारा लेंडिंग कम्पीटिशन आायेजित किए जाते थे तथा आकाश में नये-नये करतब करने सिखाये जाते थे। जनसामान्य के लिये वायुयात्रा महाराजा उम्मेदसिंह चाहते थे कि वायुयान केवल अमीरों के लिये ही उपलब्ध न रहे अपितु सामान्य जनता भी हवाई जहाज की उडान का आनन्द ले। उन्होंने नागरिकों को हवाई जहाज में बिठाने तथा उनकी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए सस्ती हवाई सैर की योजना बनाई। इस योजना के तहत एक हवाई जहाज सप्ताह में छः दिन तक पूरे शहर का चक्कर लगाता था। इसके लिये प्रत्येक व्यक्ति से दस रूपए शुल्क लिया जाता था।
वायुसेना प्रशिक्षण केन्द्र
जोधपुर में वायुसैनिकों के प्रशिक्षण हेतु अनुकूल परिस्थितियों को देखकर ब्रिटिश सरकार ने जोधपुर में वायुसेना प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित किया। ब्रिटिश वायुसेना को सहायता द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान रॉयल एयर फोर्स को हैवी बॉम्बर खरीदने के लिये महाराजा उम्मेदसिंह ने 1941 में जोधपुर रियासत की जनता की ओर से 2 लाख 70 हजार रूपये भिजवाये। लॉर्ड बीवर ब्रुक ने इस सहायता के लिये महाराजा को लंदन से केबल भेजकर रॉयल एयर फोर्स एवं सम्राट की ओर से आभार ज्ञापित किया। अप्रेल 1943 में महाराजा उम्मेदसिंह ने रॉयल एयर फोर्स की पच्चीसवीं जयंती तथा इण्डियन एयर फोर्स की दसवीं जयंती पर ब्रिटिश सरकार को 75 हजार पौण्ड प्रदान किये। इस राशि को इन दोनों फौजों के बीच हितकारी कार्यों के लिये बांटा गया।
अभूतपूर्व योगदान
महाराजा उम्मेदसिंह ने अपने कार्यकाल के अंतिम वर्षों में उड्डयन विभाग पर राजकोष मे से एक करोड चार लाख दस हजार दो सौ बत्तीस रूपए छह आने तीन पाई खर्च की थी। यह धन राशि हवाई अड्डों के निर्माण, उनके विकास एवं रियासत में स्थित विभिन्न हवाई पटिटयों को बनाने में खर्च की गई थी। उनकी विमानन सेवाओं से प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने 23 जून 1931 को उन्हें रॉयल वायुसेना में ऑनरेरी एयर कमोडोर तथा 1945-46 में ऑनरेरी एयर वाइस मार्शल की उपाधी दी। ब्रिटिश आर्मी ने उन्हें ऑनरेरी लेफ्टिनेंट जनरल की उपाधी से अलंकृत किया। 9 जून 1947 को अपेंडिक्स के एक लघु आपरेशन के पश्चात माउंट आबू में महाराजा का निधन हो गया। इस प्रकार भारत के देशी रजवाड़ों में वायुसेवाओं का सूत्रपात करने वाले महाराजा उम्मेदसिंह स्वतंत्र भारत में विकास के नये अध्याय लिखने के लिये उपलब्ध नहीं रहे।
-मोहनलाल गुप्ता
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बिना राजस्थान आये यदि कोई व्यक्ति राजस्थान को समझना चाहता है तो वह यहाँ का लोक संगीत सुन ले। सम्पूर्ण राजस्थान सुरीली स्वर लहरियों में विरल होकर यहाँ के लोक संगीत में समाया हुआ है। लोक संगीत की यह धारा दो रूपों में प्रवाहित हुई है। एक तो जन साधारण द्वारा सामाजिक उत्सवों, जन्म, विवाह, स्वागत, विदाई, संस्कार, तीज, गणगौर, होली आदि के अवसर पर गाया जाने वाला लोक संगीत और दूसरा राजाओं एवं सामंतों की प्रशस्ति में तथा उनके आमोद-प्रमोद के लिये गाया जाने वाला लोक संगीत। पारिवारिक उत्सवों तथा सामाजिक पर्वों पर गाये जाने वाले लोक गीतों के भाव बहुत सुकोमल एवं मन को छूने वाले हैं। ईंडोणी, कांगसियो, गोरबंद, पणिहारी, लूर, ओलूं, हिचकी, सुपणा, मूमल, कुरजां, काजलिया, कागा, जीरा, पोदीना, चिरमी तथा लांगुरिया आदि लोकगीत गाँव-गाँव में चाव से गाये जाते हैं। जबकि सामंती परिवेश में प्रयुक्त लोक गीत वीररस एवं शृंगार रस से परिपूर्ण हैं। देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त करने, उन्हें प्रसन्न करने तथा उनसे मन वांछित फल प्राप्त करने के उद्देश्य से राजस्थान में रात्रि जागरण की बड़ी पुरानी और व्यापक प्रथा रही है जिसे रतजगा कहा जाता है। विनायक, महादेव, विष्णु, राम, कृष्ण, बालाजी (हनुमान), भैंरू, जुंझार, पाबू, तेजा, गोगा, रामदेव, देवजी, रणक दे, सती माता, दियाड़ी माता, सीतला माता, भोमियाजी आदि के भजन इन रात्रि जागरणों में गाये जाते हैं। मीरां, कबीर, दादू, रैदास, चंद्रस्वामी तथा बख्तावरजी के पद भी बड़ी संख्या में गाये जाते हैं। लोकगीतों की इतनी सुदीर्घ परम्परा का मूल कारण राजस्थान में निवास करने वाली वे अनेक जातियाँ हैं जो केवल गा-बजाकर ही अपना गुजारा करती रही हैं। इनके गीत परिष्कृत, भावपूर्ण तथा विविधता लिये हुए होते हैं। शास्त्रीय संगीत की भांति इनमें भी स्थायी तथा अंतरे का स्वरूप दिखाई देता है। खयाल तथा ठुमरी की भांति इन्हें छोटी-छोटी तानों, मुकरियों तथा विशेष आघात देकर सजाया जाता है। इन गीतों को मांड, देस, सोरठ, मारू, परज, कालिंगड़ा, जोगिया, आसावरी, बिलावल, पीलू खमाज आदि राग-रागिनियों में गाया जाता है। कुरजां, पीपली, रतन राणो, मूमल, घूघरी, केवड़ा आदि लोक गीत जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर, जोधपुर आदि क्षेत्रों में आये जाते हैं। जयपुर, कोटा, अलवर, भरतपुर, करौली तथा धौलपुर आदि मैदानी भागों में स्वरों के उतार-चढ़ाव वाले गीत गाये जाते हैं। मंद से तार सप्तक तक गायन होता है। इन क्षेत्रों में सामूहिक रूप से गाये जाने वाले भक्ति और शृंगार रस से ओत-प्रोत गीत गाये जाते हैं। मांड तथा मारू रागों का संक्षिप्त परिचय प्राप्त कर लेना आवश्यक है- मांड: राजस्थान की मांड गायिकी अत्यंत प्रसिद्ध है। थोड़े-बहुत अंतर के साथ क्षेत्र विशेष में इन्हें अलग तरह से गाया जाता है। उदयपुर की मांड, जोधपुर की मांड, जयपुर-बीकानेर की मांड, जैसलमेर की मांड, मांड गायिकी में अधिक प्रसिद्ध हैं। राग सोरठ, देस तथा मांड तीनों एक साथ गाई व सुनी जाती है। मारू: लोक गायकों द्वारा गाये जाने वाले वीर भाव जागृत करने वाले गीत सिंधु तथा मारू रागों पर आधारित होते थे जिन्हें सेनाओं के रण-प्रयाण के समय गाया जाता था। पश्चिमी राजस्थान में गाये जाने वाले लोकगीत ऊंचे स्वर व लम्बी धुन वाले होते हैं जिनमें स्वर विस्तार भी अधिक होता है। राजस्थान के प्रमुख लोकगीत ओल्यूँ: ओल्यूँ का अर्थ होता है- स्मरण। अतः ओल्यू किसी की स्मृति में गाई जाती है। बेटी की विदाई पर ओल्यूँ इस प्रकार गाई जाती है- कँवर बाई री ओल्यूँ आवै ओ राज। इंडोणी: पानी भरने जाते समय स्त्रियां मटके को सिकर पर टिकाने के लिये मटके के नीचे इंडोणी का प्रयोग करती हैं। इस अवसर पर यह गीत गाया जाता है- म्हारी सवा लाख री लूम गम गई इंडोणी। कांगसियो: कंघे को कांगसिया कहा जाता है। यह शृंगार रस का प्रमुख गीत है- म्हारै छैल भँवर रो कांगसियो पणिहारियाँ ले गई रे। कागा: इस गीत में विरहणी नायिका द्वारा कौए को सम्बोधित करके अपने प्रियतम के आने का शगुन मनाया जाता है- उड़-उड़ रे म्हारा काळा रे कागला, जद म्हारा पिवजी घर आवै। काजलियो: यह शृंगार रस से ओत-प्रोत गीत है जो होली के अवसर पर चंग के साथ गाया जाता है। कामण: वर को जादू टोने से बचाने के लिये स्त्रियाँ कामण गाती हैं। कुरजांँ: प्रियतम को संदेश भिजवाने के लिये कुरजाँ पक्षी के माध्यम से यह गीत गाया जाता है- कुरजांँ ए म्हारौ भंवर मिलाद्यौ ए। केसरिया बालम: यह एक रजवाड़ी गीत है जिसमें विरहणी नारी अपने प्रियतम को घर आने का संदेश देती है- केसरिया बालम आवो नी, पधारौ म्हारे देस। गणगौर: पार्वती देवी को समर्पित त्यौहार गणगौर पर गणगौर के गीत गाये जाते हैं- खेलन द्यौ गणगौर, भँवर म्हानै खेलन द्यौ गणगौर। गोरबंद: गोरबंद ऊँट के गले का आभूषण होता है जिस पर शेखावाटी क्षेत्र में लोकगीत गाये जाते हैं- म्हारो गोरबंद नखरालौ। घुड़ला: घुड़ला पर्व पर कन्याएं छेदांे वाली मटकी में दिया रखकर घर-घर घूमती हुई गाती हैं- घुड़लो घूमेला जी घूमेला, घुड़ले रे बांध्यो सूत। घूमर: गणगौर आदि विशेष पर्वों पर घूमर नृत्य के साथ घूमर गाया जाता है- म्हारी घूमर छै नखराली ए माँ। घूमर रमवा म्हैं जास्यां। घोड़ी: बारात की निकासी पर घोड़ी गाई जाती है- घोड़ी म्हारी चन्द्रमुखी सी, इन्द्रलोक सूँ आई ओ राज। चिरमी: वधू अपने ससुराल में अपने भाई और पिता की प्रतीक्षा में चिरमी के पौधे को सम्बोधित करके गाती है- चिरमी रा डाळा चार वारी जाऊँ चिरमी ने। जच्चा: बालक के जन्मोत्सव पर जच्चा या होलर गाये जाते हैं। जलो और जलाल: वधू के घर की स्त्रियाँ बारात का डेरा देखने जाते समय जलो और जलाल गाती हैं- म्हैं तो थारा डेरा निरखण आई ओ, म्हारी जोड़ी रा जहाँ। जीरा: यह लोकगीत कृषक नारी द्वारा जीरे की खेती में आने वाली कठिनाई को व्यक्त करने के लिये गाया जाता है- ओ जीरो जीव रो बैरी रे, मत बाओ म्हारा परण्या जीरो। झोरावा: यह जैसलमेर क्षेत्र में गाया जाने वाला विरह गीत है जो पति के परदेश जाने पर उसके वियोग में गाया जाता है। ढोला मारू: सिरोही क्षेत्र में ढाढियों द्वारा गाया जाने वाला गीत जिसमें ढोला मारू की प्रेमकथा का वर्णन है। तेजा: जाट जाति के लोगों द्वारा कृषि कार्य आरंभ करते समय लोक देवता तेजाजी को सम्बोधित करके तेजा गाया जाता है। पंछीड़ा: हाड़ौती एवं ढूंढड़ी क्षेत्रों में मेले के अवसर पर अलगोजे, ढोलक एवं मंजीरे के साथ पंछीड़ा गाया जाता है। पणिहारी: पानी भरने वाली स्त्री को पणिहारी कहते हैं। इस गीत में स्त्रियों को पतिव्रत धर्म पर अटल रहने की प्रेरणा दी गई है। पपैयो: यह दाम्पत्य प्रेम के आदर्श को दर्शाने वाला गीत है जिसमें प्रेयसी अपने प्रियतम से उपवन में आकर मिलने का अनुरोध करती है। पावणा: जवांई के ससुराल आने पर स्त्रियाँ उसे भोजन करवाते समय पावणा गाती हैं। पीपली: मरुस्थलीय क्षेत्र में वर्षा ऋतु में पीपली गाया जाता है जिसमें विरहणी द्वारा प्रेमोद्गार व्यक्त किये जाते हैं। बधावा: शुभ कार्य सम्पन्न होने पर बधावा अर्थात् बधाई के गीत गाये जाते हैं। बना-बनी: लड़के के विवाह पर बना तथा लड़की के विवाह पर बनी गीत गाये जाते हैं। बीछूड़ो: यह हाड़ौती क्षेत्र का लोकप्रिय गीत है। एक पत्नी को बिच्छू ने डस लिया है और वह मरने से पहले अपने पति को दूसरा विवाह करने का संदेश देती है- मैं तो मरी होती राज, खा गयो बैरी बीछूड़ो। मूमल: जैसलमेर में गाया जाने वाला शृंगारिक गीत जिसमें मूमल के नख शिख का वर्णन किया गया है- म्हारी बरसाले री मूमल, हालौनी एै आलीजे रे देख। मोरिया: इस सरस लोकगीत में ऐसी नारी की व्यथा है जिसका सम्बन्ध तो हो चुका है किंतु विवाह होने में देर हो रही है। इसे रात्रि के अंतिम प्रहर में गाया जाता है। रसिया: ब्रज क्षेत्र में रसिया गाया जाता है। रातीजगा: विवाह, पुत्र जन्मोत्सव, मुण्डन आदि शुभ अवसरों पर रात भर जागकर भजन गाये जाते हैं जिन्हें रातीजगा कहा जाता है। लांगुरिया: करौली क्षेत्र में कैला देवी के मंदिर में हनुमानजी को सम्बोधित करके लांगुरिया गाये जाते हैं- इबके तो मैं बहुअल लायो, आगे नाती लाऊंगो, दे-दे लम्बो चौक लांगुरिया, बरस दिनां में आऊंगो। लांगुरिया को सम्बोधित करके कामुक अर्थों वाले गीत भी गाये जाते हैं- नैक औढ़ी ड्यौढ़ी रहियो, नशे में लांगुर आवैगो। लावणी: नायक द्वारा नायिका को बुलाने के लिये लावणी गाई जाती है- शृंगारिक लावणियों के साथ-साथ भक्ति सम्बन्धी लावणियां भी प्रसिद्ध हैं। मोरध्वज, सेऊसंमन, भरथरी आदि प्रमुख लावणियां हैं। सीठणे: विवाह समारोह में आनंद के अतिरेक में गाली गीत गाये जाते हैं जिन्हें सीठणे कहते हैं। सुपणा: विरहणी के स्वप्न से सम्बन्धित गीत सुपणा कहलाते हैं- सूती थी रंग महल में, सूताँ में आयो रे जंजाळ, सुपणा में म्हारा भँवर न मिलायो जी। सूंवटिया: यह विरह गीत है। भील स्त्रियाँ पति के वियोग में सूंवटिया गाती हैं। हरजस: भगवान राम और भगवान कृष्ण को सम्बोधित करके सगुण भक्ति लोकगीत गाये जाते हैं जिन्हें हरजस कहा जाता है। हिचकी: ऐसी मान्यता है कि प्रिय के द्वारा स्मरण किये जाने पर हिचकी आती है। अलवर क्षेत्र में हिचकी ऐसे गाई जाती है- म्हारा पियाजी बुलाई म्हानै आई हिचकी। हींडो: श्रावण माह में झूला झूलते समय हींडा गाया जाता है- सावणियै रौ हींडौ रे बाँधन जाय। इस प्रकार लोक गीतों में विपुल विषय सम्मिलित किये गये हैं। क्षेत्र बदलने के साथ उनके गायन का तरीका भी बदल जाता है। -डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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