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  • मन (हिन्दी कविता)

     02.06.2020
    मन (हिन्दी कविता)

    मन

    हमारी नई वैबसाइट - भारत का इतिहास - www.bharatkaitihas.com

    मन वन उपवन,

    मन वृंदावन

    मन ही चंदन,

    मन गोरोचन।



    मन में पीपल,

    मन में तुलसी

    मन में बैठी

    माता हुलसी।



    मन में नाचे मोर पपीहा

    मन में बहती गंगा मैया।

    मन में खेले कृष्ण कन्हैया

    नाचें गोपी, ताता थैया।



    मन में बैठी एक कपोती

    पल में हंसती, पल में रोती।

    तिनके लाती दाने चुगती

    और न जाने क्या क्या करती।



    मन में हंसतीं आशा-तृष्णा

    मन में हंसती श्यामा कृष्णा।

    मन में उड़ते चार कबूतर

    काले, धोले नीले धूसर।



    मन में बैठा दास कबीरा

    तुलसी गाता, गाता सूरा।

    चंदन घिसता, दोहे रचता

    मन ना जाने क्या-क्या करता।



    मन में फैले सात समंदर

    मछली मोती गोपी चंदर।

    मन में क्षिप्रा, मन में काशी

    मुक्ति देता घट-घट वासी।

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  • राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति-15

     02.06.2020
    राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति-15

    राजस्थान में वन सम्पदा


    हमारी नई वैबसाइट - भारत का इतिहास - www.bharatkaitihas.com

    वन, पर्यावरण एवं संस्कृति के बीच की सबसे महत्त्वपूर्ण कड़ी हैं। वनों को जाने बिना, संस्कृति को जानना असम्भ है। वनस्पति की दृष्टि से राजस्थान, मानसूनी क्षेत्र में स्थित है। किसी समय अरावली के दक्षिण-पश्चिम तथा दक्षिण-पूर्वी भागों तथा पश्चिमी ढाल पर घने वन थे किंतु अब अधिकांश वन कट चुके हैं। राज्य के दक्षिणी भाग में बांसवाड़ा, डूंगरपुर, चित्तौड़गढ़ तथा उदयपुर जिलों में सागवान, धौंक, आंवला, तेंदू, खैर, सालर आदि के वृक्ष, बांस तथा विभिन्न घासें पायी जाती हैं।

    उदयपुर, कोटा, बारां, बूंदी, झालावाड़ तथा सिरोही आदि जिलों में धोंक, गूलर, महुआ, बहेड़ा तथा खैर आदि वृक्ष पाये जाते हैं। अलवर, जयपुर, कोटा, बूंदी, सवाईमाधोपुर तथा अजमेर आदि जिलों में सालर, तेंदू, पलाश, सेमल, खैर तथा बहेड़ा आदि वृक्ष मिलते हैं। पश्चिमी राजस्थान में खेजड़ी, बबूल, कैर, कुमटी, फोग, बेर आदि वृक्ष मिलते हैं एवं सेवण तथा धामण घासें पायी जाती हैं जो पशु-चारण के लिये अत्यंत उपयोगी हैं। राज्य में आम, केला, जामुन, बेर, टिमरू, डोलमा, खजूर आदि फल वृक्ष, नीम, पीपल, बरगद, पलाश, रीठा, चिरौंजी, हरड़, बहेड़ा, गूगल तथा रोहिड़ा आदि वृक्ष बहुतायत से पाये जाते हैं।


    राजस्थान में वन-क्षेत्र एवं उनका वर्गीकरण

    राजस्थान में भारत के वन-क्षेत्र का 1.8 प्रतिशत वन-क्षेत्र उपलब्ध है। राजस्थान में कुल वन-क्षेत्र 32627.95 वर्ग कि.मी. है जो कि राज्य के कुल क्षेत्रफल (3,42,239 वर्ग किमी) का 9.52 प्रतिशत है। उदयपुर एवं चित्तौड़गढ़ जिले वन-क्षेत्रफल की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। उदयपुर जिले में कुल वन-क्षेत्र 4,682.20 वर्ग कि.मी. तथा चित्तौड़गढ़ जिले में 2,633.74 वर्ग कि.मी. वन-क्षेत्र उपलब्ध है। सबसे कम 80.18 वर्ग कि.मी. वन-क्षेत्र चूरू जिले में है।

    वैधानिक दृष्टि से वर्गीकरण

    वैधानिक दृष्टि से राजस्थान के वनों को तीन वर्गों में बांटा जा सकता है -

    (1) आरक्षित वन- 12,32,511 हैक्टे. (कुल वन-क्षेत्र का 37.78 %)

    (2) संरक्षित वन- 17,52,596 हैक्टे. (कुल वन-क्षेत्र का 53.073%)

    (3) अवर्गीकृत वन- 2,76,876 हैक्टे. (कुल वन-क्षेत्र का 8.49 %)


    प्राकृतिक दृष्टि से वर्गीकरण

    प्राकृतिक दृष्टि से राजस्थान के वनों को 7 वर्गों में रखा जा सकता है-

    (1) शुष्क सागवान वन : इन वनों में सागवान के वृक्ष अधिक होते हैं। ये उदयपुर, चित्तौड़गढ़, डूंगरपुर एवं बांसवाड़ा जिलों में पाये जाते हैं। ये कुल वन-क्षेत्र के 7 प्रतिशत भाग पर पाये जाते हैं।

    (2) सालर वन : इन वनों में सालर के वृक्ष अधिक होते हैं। ये अजमेर, अलवर, सिरोही, जयपुर एवं जोधपुर जिलों में पाये जाते हैं। ये कुल वन-क्षेत्र के 5 प्रतिशत भाग पर पाये जाते हैं।

    (3) उष्ण कटिबंधीय पतझड़ वन : इन वनों में धौंकड़ा, खैर कत्था, तेंदू, बहेड़ा, आंवला व बांस आदि के वृक्ष अधिक होते हैं। ये वन अरावली पर्वतीय ढालों व पठारी क्षेत्रों में हैं।

    (4) उष्ण कटिबंधीय कांटेदार वन : उष्ण कटिबंधीय कांटेदार वनों में कांटेदार वृक्ष, झाड़ियां एवं बरसाती घास उत्पन्न होती है। इनका प्रमुख क्षेत्र पश्चिमी राजस्थान का थार रेगिस्तान है। ये कुल वनों के 5 प्रतिशत क्षेत्र में हैं। इन वनों में खेजड़ी, रोहिड़ा, कैर, खींप, कूमट, फोग, धामण, सेवण आदि वनस्पतियां प्रमुखता से पायी जाती हैं।

    (5) ढाक व पलाश वन : इन वनों में शिरीश, पीपल, महुआ, ढाक व पलाश के वृक्ष अधिक पाये जाते हैं। ये वन अलवर, राजसमंद, उदयपुर, चित्तौड़गढ़ एवं सिरोही जिलों में पाये जाते हैं।

    (6) उष्ण सदाबहार वन : इन वनों में शिरीष, जामुन, बांस, आम व केवड़़ा आदि के वृक्ष अधिक होते हैं। ये वन आबू (सिरोही) पर्वतीय क्षेत्र में मिलते हैं।

    (7) मिश्रित वन : इन वनों में सदाबहार वृक्ष और पतझड़ वाले वृक्ष सम्मिलित रूप से मिलते हैं। ये वन उदयपुर, सिरोही, बूंदी, कोटा, चित्तौड़गढ़ आदि जिलों में मिलते हैं।


    जिलेवार वन-क्षेत्र, वन सघनता तथा प्रति व्यक्ति वन-क्षेत्र

    (1.) राजस्थान में सर्वाधिक वन-क्षेत्र उदयुपर जिले में स्थित है जहाँ 4,587.42 वर्ग कि.मी. भूमि पर वन-क्षेत्र है। दूसरा नम्बर चित्तौड़गढ़ जिले का है जहाँ 2,766.62 वर्ग कि.मी. भूमि पर वन-क्षेत्र उपलब्ध है। तीसरा नम्बर बारां जिले का है जहाँ 2,239.32 वर्ग कि.मी. भूमि पर वन-क्षेत्र उपलब्ध है।

    (2.) राजस्थान में सबसे कम वन-क्षेत्र चूरू जिले में है जहाँ केवल 71.22 वर्ग कि.मी. भूमि पर वन-क्षेत्र स्थित है। दूसरा नम्बर हनुमानगढ़ जिले का है जहाँ 239.46 वर्ग कि.मी. भूमि पर वन-क्षेत्र उपलब्ध है। तीसरा नम्बर नागौर जिले का है जहाँ केवल 240.93 वर्ग कि.मी. भूमि पर वन-क्षेत्र स्थित है।

    (3.) राजस्थान में सर्वाधिक वन सघनता उदयपुर जिले में है जहाँ जिले की 36.67 प्रतिशत भूमि पर वन-क्षेत्र उपलब्ध है। दूसरा नम्बर करौली जिले का है जहाँ जिले की 35.69 प्रतिशत भूमि पर वन-क्षेत्र उपलब्ध है। तीसरा नम्बर बारां जिले का है जहाँ जिले की 32.20 प्रतिशत भूमि पर वन-क्षेत्र उपलब्ध है। चौथा नम्बर सिरोही जिले का है जहाँ जिले की 31.91 प्रतिशत भूमि पर वन-क्षेत्र उपलब्ध है।

    (4.) राजस्थान में न्यूनतम वन सघनता चूरू जिले में है जहाँ जिले की 0.2 प्रतिशत भूमि पर वन-क्षेत्र उपलब्ध है। दूसरा नम्बर जोधपुर जिले का है जहाँ जिले की 1.06 प्रतिशत भूमि पर वन-क्षेत्र उपलब्ध है। तीसरा नम्बर नागौर जिले का है जहाँ जिले की 1.36 प्रतिशत भूमि पर वन-क्षेत्र उपलब्ध है। चौथा नम्बर जैसलमेर जिले का है जहाँ जिले की 1.51 प्रतिशत भूमि पर वन-क्षेत्र उपलब्ध है।

    (5.) प्रति व्यक्ति वन-क्षेत्र की सर्वाधिक उपलब्धता बारां जिले में है। दूसरा नम्बर सिरोही जिले का है। तीसरा नम्बर उदयुपर जिले का है।

    (6.) प्रति व्यक्ति वन-क्षेत्र की न्यूनतम उपलब्धता चूरू जिले में है। दूसरा नम्बर नागौर जिले का है।


    वनों से होने वाले लाभ

    प्रत्यक्ष लाभ : राजस्थान के वनों में स्थित सागवान, सालर, गूलर नीम, आम, बबूल, धोकड़ा आदि वृक्षों से इमारती एवं फर्नीचर बनाने की लकड़ी प्राप्त होती है। धौंकड़ा, खैर, खेजड़ा, बबूल, कैर व कीकर आदि से ईंधन व कोयला बनाने की लकड़ी प्राप्त होती है। बीड़ी बनाने के लिये तेंदू पत्ते भी बहुतायत में प्राप्त होते हैं। महुआ के पेड़ों से मदिरा बनायी जाती है। कत्थे के वृक्ष से प्राप्त कत्थे का उपयोग दवायें, रंग एवं पान मसाला बनाने में होता है। चमड़ा साफ करने में आंवल झाड़ी की छाल का उपयोग होता है। शहद, मोम, गोंद, खस, बांस, घास, मूंझ, जड़ी बूटियां आदि अनेक उपयोगी वस्तुएं राजस्थान के वनों से प्राप्त होती हैं और पशुओं के लिये घास एवं चारा मिलता है।

    अप्रत्यक्ष लाभ : वनों की उपस्थिति से वायुमंडल में ऑक्सीजन की वृद्धि होती है तथा कार्बन डाई ऑक्साइड में कमी आती है जिसके कारण वायुमंडल का तापमान नियंत्रित होता है। वन्य पशुओं की संख्या में विस्तार होता है तथा पारिस्थतिकी संतुलन सुधरता है। बहुत बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार प्राप्त होता है तथा पर्यटन स्थलों का विकास होता है।


    राजस्थान में वन विस्तार कार्यक्रम

    राजस्थान में वनारोपण कार्यक्रम

    राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार प्रदेश का 33.33 प्रतिशत क्षेत्र वनों के अधीन होना चाहिये। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये राजस्थान में वनों के संरक्षण एवं प्रसार हेतु वनारोपण कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इस कार्यक्रम पर 1950 से अब तक 740 करोड़ रुपये व्यय किये जा चुके हैं किंतु वृक्षों की अवैध कटाई जारी रहने से राजस्थान का वन-क्षेत्र लगातार घट रहा है। 1949-50 में राजस्थान का वन-क्षेत्र 13 प्रतिशत था जो वर्तमान में घटकर 9.54 प्रतिशत रह गया है। भारतीय वन सर्वेक्षण के अनुसार राज्य में 2009-11 की अवधि में वनाच्छादित क्षेत्र में 51 वर्ग कि.मी. की वृद्धि हुई।

    अरावली वृक्षारोपण परियोजना

    जापान सरकार के सहयोग से 1992-93 में राजस्थान में अरावली वृक्षारोपण परियोजना आरंभ की गयी। इसके तहत वर्ष 1992 से 1997 की अवधि में अरावली की पहाड़ियों पर वृक्षारोपण, एनीकटों का निर्माण तथा घास एवं मूंज लगायी जानी थी। यह योजना दो वर्षों के लिये बढ़ाकर 1999 में समाप्त की गयी। इस योजना के समाप्त होने पर भूसंवेदी उपग्रहों द्वारा राजस्थान में वन-क्षेत्रों में विस्तार के चित्र भेजे गये थे किंतु बाद में जाँच करने पर ज्ञात हुआ कि वह हरियाली विदेशी बबूलों के विस्तार के कारण हुई थी न कि उपयोगी वृक्षों के पनपने के कारण।


    वन सुरक्षा

    राज्य में संयुक्त वन प्रबंधन कार्यक्रम के अंतर्गत 5,372 ग्राम वन सुरक्षा एवं प्रबंध समितियां, वन विभाग की देखरेख में 8 लाख हैक्टेयर वन-क्षेत्र की सुरक्षा एवं प्रबंधन का कार्य कर रही हैं। अभयारण्यों एवं राष्ट्रीय उद्यानों के निकट वन्यजीव प्रबंधन में स्थानीय लोगों के सहयोग से ईको डवलपमेंट कमेटियां गठित की गई हैं। ग्रामीण युवकों में पर्यावरण, वन एवं वन्यजीव संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिये युवकों को मानदेय पर वनमित्र के रूप में लगाया जा रहा है।


    कृषि वानिकी

    जब कृषि के साथ वृक्षारोपण किया जाता है तो उसे कृषि वानिकी कहते हैं। खेतों की मेंढ़ तथा खेतों के बीच में आये हुए खड्डे, असमतल भूमि तथा पथरीली भूमि का उपयोग वृक्षारोपण के लिये किया जाता है। इसका लाभ यह होता है कि अकाल की स्थिति में भी किसान को कुछ आय प्राप्त हो जाती है तथा जब वृक्ष विकसित हो जाते हैं तो लकड़ी बेचकर लाभ अर्जित किया जा सकता है। शुष्क क्षेत्रों में बाजरे आदि के साथ खेजड़ी के वृक्ष लगाने से खाद की भी कम आवश्यकता होती है क्योंकि खेजड़ी की जड़ों में नाईट्रोजन स्थिरिकरण करने वाले बैक्टीरिया होते हैं जो कि भूमि में नाईट्रोजन की मात्रा बढ़ाते हैं।


    सामाजिक वानिकी

    सामाजिक वानिकी से अभिप्राय वन विकास की उस प्रणाली से है जिसके द्वारा समुदाय की आर्थिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर वृक्षारोपण के माध्यम से ईंधन, इमारती लकड़ी, चारे की आपूर्ति, वायु अपरदन से कृषि भूमि का बचाव एवं मनोरंजन स्थलों का विकास किया जाता है। इसके अंतर्गत बंजर भूमि, परती भूमि, नहरों, सड़कों एवं रेल लाइनों के दोनों ओर खाली भूमि में वृक्षारोपण किया जाता है।


    राजस्थान में वन विकास हेतु स्थापित संस्थाएँ

    आफरी : मरूक्षेत्र अनुसंधान संस्थान (एरिड जोन रिसर्च इंस्टीट्यूट) का कार्य मरूस्थलीय क्षेत्रों में वन विकास करना है। संस्था ने मरु क्षेत्र में वन विकास के लिये अनेक किस्म के वृक्षों की पहचान की है। भारत सरकार द्वारा स्थापित यह संस्था जोधपुर में स्थित है।

    काजरी : केंद्रीय मरु अनुसंधान संस्थान (सेंट्रल एरिड जोन रिसर्च इंस्टीट्यूट) का मुख्यालय जोधपुर में स्थित है। इसकी स्थापना भारत सरकार द्वारा 1952 में मरुस्थल वनारोपण शोध केंद्र के रूप में हुई। ई.1957 में इसका नाम केंद्रीय मरु अनुसंधान संस्थान कर दिया गया। इसके अंग्रेजी नाम को संक्षिप्त करके काजरी कहा जाता है। यह संस्था मरुस्थल में पेड़, पौधे, चारागाह, पशु भूमि, मृदा तथा जल संरक्षण का कार्य करती है। इस संस्था ने बेर, आंवला, खेजड़ी, जोजोबा, मरुस्थलीय झाड़ियों, घासों पर अच्छा कार्य किया है।


    राज्य में दिये जाने वाले वानिकी पुरस्कार

    राज्य में वन संवर्धन तथा वानिकी के क्षेत्र में 14 राज्य स्तरीय और 13 जिला स्तरीय वार्षिक पुरस्कार दिये जाते हैं।

    अमृतादेवी पुरस्कार : 1994 में आरंभ किया गया यह पुरस्कार वृक्षों का विनाश रोकने तथा उनका संरक्षण-संवर्धन करने वाले व्यक्ति अथवा संस्था को प्रतिवर्ष दिया जाता है। यह प्रतिष्ठित राज्य स्तरीय पुरस्कार है।

    वानिकी पण्डित पुरस्कार : किसी जिले में समग्र रूप से वृक्षारोपण करने, वनों का विकास करने वाले व्यक्ति अथवा संस्था को दिया जाने वाला यह राज्य स्तरीय पुरस्कार है।

    वानिकी लेखन एवं अनुसंधान पुरस्कार : वानिकी क्षेत्र में मौलिक सृजनात्मक एवं अनुसंधान परक कार्य जैसे पुस्तक, लेख, शोधपत्र आदि लिखने के लिये यह राज्य स्तरीय पुरस्कार दिया जाता है।

    इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्षमित्र पुरस्कार : यह राष्ट्रीय सम्मान, वृक्षारोपण तथा परती भूमि विकास के अन्य पक्षों में उत्कृष्ट योगदान के लिये दिया जाता है।

    वन प्रहरी पुरस्कार : यह पुरस्कार वनों में अवैध कटाई रोकने, अग्नि से वनों को नष्ट होने से बचाने, वन्य जीव जंतुओं की सुरक्षा आदि उल्लेखनीय सेवाओं के लिये दिया जाता है।

    महावृक्ष पुरस्कार : 1995 से प्रारंभ किया गया यह पुरस्कार प्राचीन एवं विशिष्ट प्रजातियों के वृक्षों की पहचान सुरक्षित करने के उद्देश्य से दिया जाता है।

    वन्य जीव सूचना पुरस्कार : वन्य जीवों का शिकार करने वालों की सूचना वन्य जीव संरक्षण विभाग के अधिकारियों को देने वाले व्यक्ति को यह पुरस्कार दिया जाता है।

    वन पालक पुरस्कार : वन विभाग में कार्यरत अधिकारियों एवं कार्मिकों को अच्छी सेवाओं के लिये दिये जाते हैं।

    वृक्ष वर्धक पुरस्कार : वन पालक पुरस्कार राज्य व जिला स्तर पर 6 श्रेणियों के अंतर्गत 12 पुरस्कार दिये जाते हैं।

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  • अजमेर का इतिहास - 79

     02.06.2020
    अजमेर का इतिहास - 79

    अजमेर में स्वतंत्रता आंदोलन (1)


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    यद्यपि अजमेर में स्वाधीनता संग्राम का श्रीगणेश विप्लववादी राजनीति से हुआ था परंतु इसके साथ ही अजमेर में उदारवादी कांग्रेस की भी स्थापना हो चुकी थी। अजमेर में कांग्रेस के प्रमुख कार्यकर्ताओं में बेरिस्टर गौरीशंकर, श्यामसुंदर भार्गव, राव साहब विश्वंभरनाथ टण्डन थे। इनके नेतृत्व में अजमेर की उदारवादी कांग्रेस की गतिविधियों में शनैः शनैः प्रगति हुई। इसके तत्वावधान में अजमेर में दो राजनैतिक सम्मेलन हुए जिनका सभापतित्व डॉ. अन्सारी व पण्डित मोतीलाल नेहरू ने किया। इन सम्मेलनों में लोकमान्य तिलक एवं मौलाना शौकत अली उपस्थित थे।

    अजमेर की राजनीति इन तीन दलों में विभाजित थी। सेवासंघ प्रथम दल था जिसके प्रधान विजयसिंह पथिक थे। दूसरा दल कांग्रेस था, जिसके प्रधान अर्जुनलाल सेठी थे। इसकी शाखाएं अजमेर, ब्यावर, कोटा, करौली तथा जोधपुर में थीं। तीसरा दल गांधीवादियों का था जिसके प्रमुख सेठ जमनालाल बजाज थे। हरिभाऊ उपाध्याय उपाध्यक्ष थे। प्रांतीय स्तर पर कांग्रेसियों में गांधीवादियों की प्रधानता थी। अर्जुनलाल सेठी के विरुद्ध हरिभाऊ उपाध्याय उध्यक्ष निर्वाचित हुए थे अतः सेठी ने कांग्रेस से अपना हाथ खींच लिया था।

    उनके साथ मुसलमान भी कांग्रेस से उदासीन हो गये। गांधीजी ने इन दोनों दलों में समन्वय स्थापित करने का असफल प्रयास किया। प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व बिजोलिया सत्याग्रह की घटना ने गांधीवादी विचारधारा को बल प्रदान किया। यद्यपि इस आंदोलन के प्रमुख संचालक पथिक थे और वे गांधीवादी नहीं थे परन्तु जीवन के दूसरे हिस्से में उनके विचार गांधीवाद के लगभग समीप थे। बिजोलया आंदोलन ने कृषक आंदोलन एवं सत्याग्रह की पद्धति को जन्म दिया।

    बिजोलिया का कृषक आंदोलन प्रथम सत्याग्रह आंदोलन था जो ठिकाने के जागीरदारों के विरुद्ध कृषक जनता की अहिंसात्मक लड़ाई थी। पथिक इस दृष्टि से गांधी के भी पथप्रदर्शक थे। राजस्थान का सत्याग्रह आंदोलन ई.1919 में गांधी द्वारा आरंभ किये गये सत्याग्रह आंदोलन से काफी पहले हो चुका था। गांधी का चम्पारण कृषक सत्याग्रह, बिजोलिया के कृषक आंदोलन के बाद आरंभ हुआ। पथिक ने इस आंदोलन को दिशा दर्शन दिया जो बाद में भारतीय अहिंसावादी स्वातन्त्र्य योद्धाओं के शस्त्रागार का अचूक एवं अद्भुत शस्त्र सिद्ध हुआ।

    ई.1916 के होमरूल आंदोलन ने अजमेर की गतिविधियों पर अच्छा प्रभाव डाला। इस आंदोलन ने कांग्रेस को नया बल दिया। चांद करण शारदा, गौरी शंकर भार्गव कांग्रेस के उत्साही कार्यकर्ताओं में से थे। शनैःशनैः अजमेर की कांग्रेस में गांधीवादी विचार धारा का प्रसार होने लगा। बाबा नृसिंहदास अजमेर में गांधीवादी विचारधारा के मुख्य प्रेरणा स्रोत बने। उन्होंने हटूण्डी मंं गांधी आश्रम की स्थापना की।

    उनके बाद हरिभाऊ उपाध्याय ने इस आश्रम को संभाला। उनके मार्ग दर्शन में आश्रम ने चहुंमुखी प्रगति की। अब यह आश्रम राजस्थान विद्यापीठ उदयपुर को सौंप दिया गया है। उपाध्याय ने गांधीवादी विचारधारा के प्रचार हेतु त्याग भूमि नामक पत्र का प्रकाशन किया।

    अजमेर में असहयोग आंदोलन

    खिलाफत आंदोलन एवं गांधीजी के असहयोग की आंधी से अजमेर अछूता नहीं रहा। 16 मार्च 1920 को अजमेर में खिलाफत आंदोलन समिति की स्थापना की गई। डॉ. अंसारी की अध्यक्षता में अजमेर में बड़ी धूमधाम से खिलाफत दिवस मनाया गया। इसमें चांद करण शारदा एवं मौलाना मुईउद्दीन की प्रमुख भूमिका रही। उन्होंने सार्वजनिक सभाओं का आयोजन किया। जहाँ-तहाँ हिन्दू मुस्लिम एकता को दृढ़ बनाने की शपथें ली गईं। इन सभाओं में जलियाँवाला बाग की दुर्घटना के निमित्त ब्रिटिश सरकार की भर्त्सना की गई। यहाँ का वातावरण बड़ा ही उत्तेजनापूर्ण बन गया। गांधीजी के असहयोग आंदोलन ने अजमेर की राजनैतिक गतिविधियों को अधिक तीव्र बना दिया। जगह-जगह धरने, हड़ताल एवं सभायें हुईं।

    विदेशों को भारत से खाद्यान्न निर्यात का विरोध किया गया। सरकारी संस्थाओं एवं नौकरियों का बहिष्कार किया गया। विदेशी वस्त्रों की होलियां जलाई गईं एवं स्वदेशी का प्रचार हुआ। स्वदेशी उद्योगों को प्रोत्साहन देने हेतु जनमत निर्माण किया गया। सेठ विट्ठलदास राठी ने स्वदेशी के प्रचारार्थ ब्यावर में कपड़ा मिल की स्थापना की। ई.1920 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गांधीजी ने घोषणा की कि यदि मेरे द्वारा चलाये गये असहयोग आंदोलन को देश में पर्याप्त समर्थन प्राप्त होता है तो हमें स्वराज एक वर्ष में मिल जायेगा। उन्होंने कहा कि स्वराज का अर्थ है एक ऐसी सरकार जिसके अधीन हम अपना अलग अस्तित्व बना सकें जिसमें अंग्रेज उपस्थित नहीं हों। अपने कार्यक्रम को सफल बनाने के लिये गांधीजी ने पूरे देश का व्यापक दौरा किया।

    हिंसक आंदोलन की अपीलें

    मार्च 1922 के प्रथम सप्ताह में अनेक कांग्रेसी नेता प्रोविंशियल पोलिटिकल कान्फ्रेंस तथा खिलाफत मीटिंगों- 'जमीयत उल उलेमा' तथा 'जमीयत उल तुल्हा' में भाग लेने के लिये अजमेर आये। इन नेताओं ने जनसाधारण को असहयोग आंदोलन की मूल भावना तथा इसके अहिंसक स्वरूप के बारे में सफलतापूर्वक संदेश दिया। उन्होंने गांधीजी द्वारा चलाये जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों- अस्पृश्यता उन्मूलन, मद्यनिषेध, चरखा चलाने, खादी बुनने तथा तिलक स्वराज फण्ड के लिये चंदा देने में सहयोग करने का आह्वान किया। उन्होंने लोगों को चेतावनी दी कि वे गांधीजी के बारदोली प्रस्तावों से दिग्भ्रमित न हों।

    इन नेताओं ने दिल्ली प्रस्तावों का हवाला देते हुए आंदोलन के दौरान हर परिस्थिति में अहिंसक रहने की वकालात की किंतु लखनऊ से आये मौलवी अब्दुल बारी ने अजमेर में आयोजित एक सभा में जीभ पर नयंत्रण खोकर ऐसा भाषण दिया जिससे जनता में यह संदेश गया कि चूंकि अहिसंक आंदोलन विफल रहा है अतः हिंसा का सहारा लिया जायेगा। उनका भाषण काफी उग्र था। इससे अजमेर की जनता में बेचैनी फैल गई।

    इसके बाद अजमेर में स्थान-स्थान पर सभायें आयोजित करके बाहर से आये नेताओं ने बार-बार जनता से अपील की कि मौलवी अब्दुल ने बिल्कुल मूर्खता पूर्ण बातें की हैं, आंदोलन को हर हाल में अहिंसक रखा जाना है। स्वयं मौलवी अब्दुल ने भी वक्तव्य दिया कि उनके भाषण को गलत समझा गया है। उनके कहने का अर्थ ये नहीं था। कुछ दिनों बाद अजमेर केन्द्रीय कारगार से छूटकर आये मौलवी सलामत उल्लाह खान ने एक मंच से मौलवी अब्दुल बारी की ओर से एक पत्र पढ़ा जिसमें कहा गया कि मौलवी अब्दुल बारी ने तो यह कहा था कि यदि आगे चलकर अहिंसात्मक उपाय विफल हो जायें तो हिंसात्मक आंदोलन किया जा सकता है।

    गांधीजी अजमेर में

    नेताओं द्वारा दिये जा रहे इन वक्तव्यों में से कोई भी वक्तव्य महात्मा गांधी की भावना के अनुसार नहीं थे। जब गांधीजी को नेताओं के इस बदले रुख की जानकारी हुई तो 9 मार्च 1922 को अचानक गांधीजी अजमेर आये। किसी को भी इस यात्रा का पता नहीं था इसलिये गांधीजी का कोई स्वागत नहीं किया जा सका। गांधीजी सीधे पण्डित गौरी शंकर भार्गव के घर फूल निवास पहुँचे जहाँ सारे उलेमा गांधीजी से मिलने के लिय एकत्रित हुए। गांधीजी ने संदेह उत्पन्न करने वाला बयान देने के लिये मौलवी अब्दुल बारी की निंदा की।

    इस पर पहले से ही अप्रसन्न मुस्लिम नेता हसरत मोहानी ने मौलवी अब्दुल बारी का पक्ष लिया। गांधीजी के सामने ही भार्गव के निवास पर मौलवियों और उलेमाओं के बीच तीखी बहस हुई। हसरत मोहानी गांधीजी से इसलिये नाराज था क्योंकि उसने एक बार कांग्रेस के समक्ष पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव रखा था जिसे गांधीजी ने अस्वीकार कर दिया था। महात्मा गांधी के समक्ष पहली बार अहिंसात्मक और हिंसात्मक आंदोलन पर खुलकर बहस हुई जिसमें एक तरफ मौलवी अब्दुल बारी तथा हसरत मोहानी थे जबकि दूसरी तरफ गांधीजी और बाकी के सारे उलेमा थे।

    इस बहस में गांधीजी जीत गये। इसके बाद गांधीजी ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गये जहाँ गांधीजी का भारी स्वागत किया गया। मौलवी अब्दुल बारी को किसी ने पूछा तक नहीं। कुरान की आयतों का पाठ हुआ उसके बाद गांधीजी ने भाषण दिया कि किसी भी क्षण उनकी गिरफ्तारी हो सकती है। उसी रात गांधीजी वापस लौट गये। कुछ दिनों बाद जब गांधीजी की गिरफ्तारी का समाचार अजमेर आया तो अजमेर के वातावरण में काफी उत्तेजना फैल गई।

    नेहरू रिपोर्ट

    ई.1929 में नेहरू रिपोर्ट पर अपनी सहमति देने के लिये अजमेर के कार्यकर्त्ताओं को राजस्थान का प्रतिनिधित्व करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अजमेर से विजयसिंह पथिक, शोभालाल व रामनारायण चौधरी, कलकत्ता गये। दिसम्बर 1929 में बाबा नृसिंदास अग्रवाल के आदेश पर हरिभाऊ उपाध्याय ने अजमेर में कांग्रेस को पुनर्जीवित करने का काम हाथ में लिया। उन्हें अजमेर-मेरवाड़ा-राजपूताना-मध्यभारत कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया।

    सविनय अवज्ञा आंदोलन

    ई.1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन का अजमेर पर भी प्रभाव पड़ा। अजमेर में स्त्री वर्ग ने बड़ी संख्या में आंदोलन में भाग लेकर अपने उत्साह का परिचय दिया। गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन का अजमेर की शिक्षण संस्थाओं तथा विद्यार्थियों पर गहरा प्रभाव हुआ। विद्यार्थियों द्वारा शराब की दुकानों पर पिकेटिंग की गई तथा कुछ शिक्षण संस्थाओं में स्वतंत्रता दिवस का आयोजन किया गया। 26 जनवरी 1930 को बाबा नृसिंहदास अग्रवाल के नेतृत्व में अजमेर में स्वतंत्रता दिवस मनाया गया।

    अजमेर के एक निजी विद्यालय में हुई सविनय अवज्ञा की गतिविधियों के बाद सहायक अधीक्षक शिक्षा विभाग ने काट हाई स्कूल अजमेर के प्राचार्य को पत्र लिखा कि 26 जनवरी 1930 को स्कूल के अध्यापकों द्वारा स्वतंत्रता दिवस मनाया गया, अध्यापक राजस्थान युवा संघ की बैठक में सम्मिलित हुए, गत कांग्रेस के चुनाव भी इसी स्कूल के परिसर में हुए हैं। इसी कारण काट हाई स्कूल की ग्राण्ट बंद की जाती है। यदि अनुदान पुनः चाहते हैं तो अध्यापकों की इस कार्यवाही को तुरन्त बंद किया जाये।

    विद्यार्थियों की गतिविधियों पर रोक

    अजमेर में स्कूल बालिकाओं द्वारा पिकेटिंग करने पर सहायक शिक्षा अधीक्षक ने प्राचार्य गर्ल्स प्राथमिक स्कूल को लिखा कि कुछ छात्राएं सरकार विरोधी गतिविधियों में संलग्न हैं, उनको तुरन्त स्कूल से निकाल दिया जाये। अजमेर तथा राजपूताना की विभिन्न रियासतों के वि़द्यालयों में हो रहे आंदोलनों को देखते हुए अजमेर के कमिश्नर द्वारा अजमेर-मेरवाड़ा में आने वाले विद्यालयों व महाविद्यालयों के प्राचार्यों के नाम एक आदेश निकाला गया जिसमें कहा गया कि इन आंदोलनकारी छात्रों पर तुरंत नियंत्रण स्थापित किया जाये।

    क्योंकि ये छात्र सरकार विरोधी आंदोलनों में भाग लेते हैं और आम लोगों को आंदोलनों में भाग लेने के लिये उकसाते हैं। इन परिपत्रों का बहुत कम प्रभाव देखने को मिला। ई.1931 में गांधी इरविन समझौते के विफल हो जाने के कारण अजमेर में सत्याग्रह ने पुनः उग्र रूप धारण कर लिया।

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  • राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : प्रजामण्डल आंदोलन के प्रमुख नेता - भोगीलाल पंड्या

     21.12.2021
    राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : प्रजामण्डल आंदोलन के प्रमुख नेता - भोगीलाल पंड्या

    राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी - 187

    राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : प्रजामण्डल आंदोलन के प्रमुख नेता - भोगीलाल पंड्या

    1. प्रश्न -प्रजामण्डल आंदोलन के किस नेता को वागड़ का गांधी कहा जाता है?

    उतर- भोगीलाल पंड्या को।

    2. प्रश्न -भोगीलाल पंड्या कहाँ के रहने वाले थे?

    उतर- वे डूंगरपुर जिले के सीमलवाड़ा गाँव के रहने वाले थे।

    3. प्रश्न -भोगीलाल पंड्या का जन्म कब एवं कहाँ हुआ था?

    उतर- 13 नवम्बर 1904 में एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ।

    4. प्रश्न -उनका कार्यक्षेत्र क्या था?

    उतर- उन्होंने डूंगरपुर तथा बांसवाड़ा क्षेत्र के आदिवासियों को आजादी की लड़ाई से जोड़ने तथा उनके सामाजिक एवं आर्थिक विकास के कार्य किये।

    5. प्रश्न -आजादी के बाद भोगीलाल पंड्या का कार्यक्षेत्र क्या रहा?

    उतर- वे राजनीति में सक्रिय हो गये। 1952 और 1957 के विधानसभा चुनावों में वे सागवाड़ा से चुने गये।

    6. प्रश्न -भोगीलाल पंड्या का निधन कब एवं कहाँ हुआ?

    उतर- 31 मार्च 1981 को जयपुर में।


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  • स्वाधीनता आंदोलन में राष्ट्रीय काव्यधारा का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

     02.06.2020
    स्वाधीनता आंदोलन में राष्ट्रीय काव्यधारा का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

    हमारी नई वैबसाइट - भारत का इतिहास - www.bharatkaitihas.com

    किसी भी राष्ट्र के तीन शरीर आवश्यक रूप से होते हैं- भौगोलिक शरीर, राजनीतिक शरीर एवं सांस्कृतिक शरीर। ये तीनों ही शरीर एक दूसरे में समाए हुए, एक दूसरे के पूरक और एक दूसरे के अन्योन्याश्रित हैं। इनमें से एक के क्षीण, नष्ट अथवा पुष्ट होने पर दूसरा एवं तीसरा शरीर स्वतः क्षीण, नष्ट अथवा पुष्ट हो जाता है। 
    हमारे आलेख का विषय राष्ट्र के सांस्कृतिक शरीर से सम्बन्धित है जो राष्ट्र के भौगोलिक शरीर की रक्षा करके उसे प्रबल राजनीतिक देह प्रदान करन की कामना रखता है।

    यजुर्वेद की एक ऋचा में ‘राष्ट्र मे देहि’ और अथर्वेद की एक ऋचा में ‘त्वा राष्ट्र भृत्याय’ जैसे शब्द प्रयुक्त हुए हैं जो राष्ट्र के मूल आधार अर्थात् ‘समाज’ के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। समाज ही सभ्यता का विकास करता है, समाज ही संस्कृति को रचता है और समाज ही राष्ट्र का निर्माण करता है। समाज, सभ्यता एवं संस्कृति को सुरक्षित रखने की भावना ही राष्ट्रीय चेतना के रूप में प्रतिफलित होती है। समाज अपनी भूमि से जुड़ा हुआ रहता है। यही कारण है कि राष्ट्र एक गांव एवं एक राजा द्वारा शासित क्षेत्र के संकुचित अर्थ से लेकर भारत जैसे विराट देश के लिए प्रयुक्त होता है।

    अथर्ववेद का सूक्तकार ‘माता भूमिः पुत्रो ऽहं पृथिव्याः’ कहकर राष्ट्रवाद का सूत्रपात करता है। अथर्ववेद के पृथ्वी-सूक्त का प्रत्येक मंत्र राष्ट्र-भक्ति का पाठ पढ़ाता है। आधुनिक युग में भारत माता की कल्पना इसी पृथ्वी-सूक्त से आई है। वाल्मीकि रामायण भी ‘स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ कहकर राष्ट्रवाद की भावना को आगे बढ़ाती है। रामचरित मानस में यह भावना इन शब्दों में व्यक्त हुई है-

    सुनु कपीस अंगद लंकेसा, पावन पुरी रुचिर यह देसा।

    जद्यपि सब बैकुंठ बखाना, बेद पुरान बिदित जगु जाना।

    अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ, यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ।

    जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि, उत्तर दिसि बह सरजू पावनि।


    मानव समाज जब किन्हीं अन्य भूमियों पर विकसित राजनीतिक शक्तियों के अधीन हो जाता है तो वह अपनी जन्मभूमि से अपने सम्बन्ध का स्मरण करता है। इसी बिंदु पर राष्ट्रवाद की कविता जन्म लेती है। भारत के इतिहास में स्वाधीनता आंदोलन तब-तब होता हुआ दिखाई देता है, जब-जब विदेशी शक्तियां भारत में अपनी सत्ता की स्थापना करती हैं। यह घटना ई.पू.322 में सिकंदर के आक्रमण से लेकर ई.1947 में भारत के अंतिम स्वाधीनता संग्राम तक बार-बार घटी है।

    संसार की प्रत्येक भाषा के काव्य में, हर युग में राष्ट्रीय भावना का समावेश होता है। किसी भी देश के राष्ट्रीय काव्य में समग्र राष्ट्र की चेतना प्रस्फुटित होती है। राष्ट्रीय-भावना, राष्ट्र की प्रगति का मंत्र है। राष्ट्रीय भावना का सृजनात्मक पक्ष मानवता वादी होता है। वह न केवल अपने देश को स्वतंत्र देखना चाहता है अपितु समस्त मानवता को स्वाधीन एवं सुखी देखने की कामना रखता है।

    भारत के स्वाधीनता संग्राम का आशय उन्नीसवीं एवं बीसवीं शताब्दी ईस्वी में ईस्ट इण्डिया कम्पनी तथा ब्रिटिश क्राउन के विरुद्ध भारतीय जनता द्वारा किए गए राजनीतिक संघर्ष से है।

    भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र हिन्दी भाषा के पहले कवि माने जाते हैं जो समाज को जागृत करने के लिए अपनी लेखनी उठाते हैं। उनका रचना काल ई.1867 से 1885 रहा। इस काल में 1857 की असफल सशस्त्र-क्रांति की व्यथा, भारतीयों के मन पर काली परछाई की तरह व्याप्त थी। इस काल में भारत अपनी दुरावस्था एवं वास्तविकता को पहचानने का प्रयास कर रहा था। इसी कारण भारतेंदु बाबू के नाटक भारत दुर्दशा का आरम्भ ही इन पंक्तियों से होता है-

    रोअहू सब मिलिकै आवहु भारत भाई। हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई ।।

    अँगरेराज सुख साज सजे सब भारी। पै धन बिदेश चलि जात इहै अति ख़्वारी ।।


    इसी नाटक में भारत विलाप करता हुआ कहता है-

    कोऊ नहिं पकरत मेरो हाथ। बीस कोटि सुत होत फिरत मैं हा हा होय अनाथ ।।

    बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ ने भारतेंदुजी से प्रभावित होकर काव्य एवं नाटकों की रचना की। उन्होंने ई.1888 में कांग्रेस के महाधिवेशन के अवसर पर खेले जाने के लिए ‘भारत सौभाग्य’ नाटक लिखा। प्रेमघन को भारतेंदु मण्डल का उज्जवलतम नक्षत्र कहा जाता है।

    भारतेंदु बाबू के फुफेरे भाई राधाकृष्ण दास ने भारतेंदु से प्रेरित होकर ई.1880 में पंद्रह वर्ष की अवस्था में ही ‘दुःखिनी बाला’ नामक छोटा रूपक लिखा। इसके एक ही वर्ष बाद ‘निस्सहाय हिंदू’ नामक सामाजिक उपन्यास लिखा। इसी के अनंतर ‘स्वर्णजता’ आदि पुस्तकों का बँगला से हिंदी में अनुवाद किया। इसी काल में ‘आर्यचरितामृत’ शीर्षक से बाप्पा रावल की जीवनी तथा ‘महारानी पद्मावती’ रूपक भी लिखा। उन्होंने नागरीदास का जीवन चरित, राजस्थान केसरी वा महाराणा प्रताप सिंह नाटक, भारतेंदु जी की जीवनी, रहिमन विलास आदि राष्ट्रीय विचारधारा के साहित्य की रचना की। उन्होंने भारतेंदुजी के अधूरे हिन्दी नाटक ‘सती प्रताप’ को भी पूर्ण किया।

    भारतेंदु बाबू तथा उनके समकालीन कवियों के लगभग 20 वर्ष के रचनाकाल का यह प्रभाव हुआ कि अंग्रेज शक्ति, भारतीयों की पीड़ा और असंतोष को दबाने के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसी ब्रिटिश मुखापेक्षी संस्था का ‘प्रसव’ करने पर विवश हुई जो भारतीयों के मन में अंग्रेजों के प्रति विश्वसनीयता का निर्माण कर सके एवं भारतीयों को अपनी समस्याओं के समाधान के लिए गौरांग शक्ति के समक्ष अनुनय-विनय का मंच प्रदान कर सके।

    भारतेंदु बाबू के अवसान के लगभग 27 वर्ष बाद, ई.1912-13 में मैथिली शरण गुप्त की भारत-भारती प्रकाशित हुई जिसने राष्ट्रीयता की सुप्त भावना को पुनजीर्वित करने में बड़ा योगदान दिया। इस ग्रंथ की रचना उस समय हुई जब भारत में बंग-भंग के विरोध में देशव्यापी आंदोलन हो रहे थे और भारतीयों को संतुष्ट करने के लिए देश में मार्ले-मिण्टो सुधार एक्ट लाया जा रहा था। गुप्तजी की भारत-भारती वस्तुतः भारत दर्शन की काव्यात्मक प्रस्तुति थी। इस रचना में गुप्तजी ने देश के अतीत का अत्यंत गौरव और श्रद्धा के साथ गुणगान करते हुए देश की वर्तमान दुर्दशा पर क्षोभ प्रकट किया-

    भूलोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ?

    फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल कहाँ?


    संपूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है?

    उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है।


    इस रचना के माध्यम से गुप्तजी ने न केवल स्वदेश प्रेम की आवश्यकता को प्रतिपादित किया अपितु देश को दुर्दशा से उबरने हेतु समाधान खोजने का सफल प्रयोग भी किया-

    भूलो न ऋषि-सन्तान हो, अब भी तुम्हें यदि ध्यान हो।

    तो विश्व को फिर भी तुम्हारी, शक्ति का कुछ ज्ञान हो।

    बनकर अहो फिर कर्म्मयोगी, वीर बड़भागी बनो।

    परमार्थ के पीछे जगत में, स्वार्थ के त्यागी बनो।


    आगे चलकर गांधीजी ने गुप्तजी को राष्ट्रकवि बताते हुए कहा- ‘मैं मैथिलीशरण जी को इसलिये बड़ा मानता हूँ कि वे हम लोगों के कवि हैं और राष्ट्रभर की आवश्यकता को समझकर लिख रहे हैं।’ यह आश्चर्य ही था कि गांधीजी ने गुप्तजी के लिए ऐसा कहा। मेरे विचार से, स्वराज्य के लिए गांधीजी द्वारा किए गए आंदोलनों की लुंज-पुंज और अनिश्चित शब्दावली के विपरीत गुप्तजी के स्वर ओजस्वी हुंकार से युक्त थे जो गांधीजी के सांचे में फिट नहीं बैठते थे। गुप्तजी ने लिखा है-

    धरती हिलाकर नींद भगा दे

    वज्रनाद से व्योम जगा दे

    दैव, और कुछ लाग लगा दे।


    हिन्दी साहित्य के युग में इसे विस्मयकारी घटना ही माना जाना चाहिए कि भारत-भारती के युग में हिन्दी कविता में छायावाद ने जन्म लिया जिसने ई.1918 से 1936 तक ‘प्रेम’ जैसी सर्वव्यापक किंतु नितांत व्यक्तिगत अनुभूति को कविता में पिरोकर रहस्य के आवरण से ढक दिया। स्वतंत्रता आंदोलन की दृष्टि से यह काल अत्यंत महत्व का है। इस काल के आरम्भ में ई.1919 में रोलट एक्ट आता है और पूरा देश एक बार फिर से आंदोलनों की चपेट में आ जाता है। इसी काल में अंग्रेजों द्वारा असहयोग आंदोलन कुचला जाता है। चौराचौरी काण्ड होता है। खिलाफत आंदोलन होता है। साइमन कमीशन आता है। लाला लाजपतराय सड़कों पर आंदोलन करते हुए शहीद होते हैं। भगतसिंह, सुखदेव राजगुरु को फांसी होती है। गांधी-इरविन समझौता होता है। गांधी एवं अम्बेडकर के बीच पूना पैक्ट होता है। इस काल का अवसान भारत सरकार अधिनियम 1935 के साथ होता है।

    स्वतंत्रता आंदोलन की धारा इसी काल में सर्वाधिक तीव्र होती हुई दिखाई देती है। अतः प्रेम की कविता करने वाले छायावादी कवि इन घटनाओं से नितांत असंपृक्त नहीं रह सकते थे। उनके द्वारा रचे गए छायावादी काव्य में राष्ट्रीय आन्दोलनों की स्थूल अभिव्यक्ति को तो स्थान नहीं मिला किन्तु उनकी कविता में राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना के बीज प्रच्छन्न रूप से उपलब्ध हैं।

    छायावाद में राष्ट्रीयता का स्वर प्रतीकात्मक रूप में तथा शक्ति और जागरण गीतों के रूप में मिलता है किंतु राष्ट्रप्रेम का प्रतीकात्मक रूप, अभावों एवं शोषण से संत्रस्त एवं संघर्षरत श्रमजीवी भारत को अधिक समय के लिए ग्राह्य नहीं था। यही कारण था कि छायावादी काव्य धारा के समानांतर और उतनी ही शक्तिशाली राष्ट्रीय चेतना की काव्यधारा भी प्रबल वेग से प्रवाहमान हो पड़ी जिसके बीज भारतेंदु बाबू ने बोए थे और मैथिलिशरण गुप्त ने जिसे सींच कर प्रस्फुटित किया था। इस धारा के कवियों ने राष्ट्रीय और सांस्कृतिक संघर्ष को स्पष्ट और उग्र स्वर में व्यक्त किया।

    राष्ट्रवादी कवियों ने छायावाद के रेशमी आवरण को भेदकर अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रवादी कवि मैथिलिशरण गुप्त और पश्चवर्ती राष्ट्रवादी कवि रामधारीसिंह दिनकर के साथ अपना स्वर मिलाए रखा। इन कवियों ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, जन-जागरण तथा अभियान गीतों से राष्ट्र की आत्मा को नवीन चेतना प्रदान की। स्वयं मैथिलिशरण गुप्त इस पूरे काल में सक्रिय रहे।

    अच्युतानंद मिश्र ने लिखा है- ‘मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, रामधारी सिंह दिनकर, रामवृक्ष बेनीपुरी या सोहनलाल द्विवेदी राष्ट्रीय नवजागरण के उत्प्रेरक ऐसे कवियों के नाम हैं, जिन्होंने अपने संकल्प और चिन्तन, त्याग और बलिदान के सहारे राष्ट्रीयता की अलख जगाकर, अपने पूरे युग को आन्दोलित किया था, गाँधीजी के पीछे देश की तरूणाई को खड़ा कर दिया था। सोहनलालजी उस शृंखला की महत्वपूर्ण कड़ी थे।’

    ई.1918 से 1936 के छायावादी युग में राष्ट्रवादी कविता का जोर पकड़ जाना, भारतीय साहित्याकाश की एक स्वाभाविक घटना थी। असहयोग आंदोलन, साइमन कमीशन, लाला लाजपत राय का बलिदान, भगतसिंह, सुखदेव एवं राजगुरु का आत्मोत्सर्ग, सविनय अवज्ञा आंदोलन, लंदन में आयोजित तीन गोलमेज सम्मेलन एवं भारत सरकार अधिनियम 1935 जैसी बड़ी घटनाओं में भारतीय तत्व तभी समाविष्ट हो सकता था जब भारत के कवि, जनसामान्य को उनकी निर्धन झौंपड़ियों से खींचकर सड़कों पर ले आएं और जिनकी सामूहिक शक्ति से अंग्रेज शक्ति का दुर्भेद्य-दुर्ग भरभरा कर गिर जाए। सौभाग्य से भारत के राष्ट्रवादी कवि इस कार्य में सफल रहे।

    राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के इस कठिन काल में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय काव्यधारा के बड़े कवि के रूप में सामने आते हैं। उनकी हिमकिरीटनी, हिमतरंगिनी, माता, युगचरण, समर्पण आदि काव्यकृतियां राष्ट्रीय भावछाया से आप्लावित हैं। चतुर्वेदीजी ने भारत को पूर्ण स्वतन्त्र कर जनतन्त्रात्मक पद्धति की स्थापना का आह्वान किया। उनकी कविता ‘कैदी और कोकिला’ में जेल की हथकड़ी, आभूषण बनकर भारत की जनता को संघर्ष करने की प्रेरणा देती है-

    ‘क्या? देख न सकती जंजीरो का गहना

    हथकड़ियां क्यों? यह ब्रिटिश राज का गहना’ ‘


    पुष्प की अभिलाषा’ में वे पुष्प के माध्यम से देश को आत्मोत्सर्ग का मार्ग सुझाते हुए कहते हैं-

    मुझे तोड़ लेना वनमाली!

    उस पथ पर देना तुम फेंक,

    मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,

    जिस पर जावें वीर अनेक।


    रामनरेश त्रिपाठी ने ई.1920 में हिन्दी के प्रथम राष्ट्रीय खण्डकाव्य ‘पथिक’ की रचना की। ‘वह देश कौन सा है!’ कविता में वे मैथिलीशरण गुप्त की बात को आगे बढ़ाते हुए लिखते हैं-

    सब से प्रथम जगत में, जो सभ्य था यशस्वी।

    जगदीश का दुलारा, वह देश कौन-सा है?

    पृथ्वी-निवासियों को, जिसने प्रथम जगाया।

    शिक्षित किया सुधारा, वह देश कौन-सा है?

    जिसमें हुए अलौकिक, तत्वज्ञ ब्रह्मज्ञानी।

    गौतम, कपिल, पतंजलि, वह देश कौन-सा है?

    छोड़ा स्वराज तृणवत आदेश से पिता के।

    वह राम थे जहाँ पर, वह देश कौन-सा है?


    रामनरेश त्रिपाठी द्वारा रचित कौमुदी, मानसी, स्वप्न आदि काव्य संग्रहों में देश के उद्धार के लिए आत्मोत्सर्ग की भावना उत्पन्न करने वाली कविताएं हैं। रामनरेश त्रिपाठी ने रामचरित मानस में राष्ट्र जागरण के प्रबल तत्वों के दर्शन किए। वे इस ग्रंथ को घर-घर पहुंचाना चाहते थे। कवि के प्रखर राष्ट्रप्रेम और रामचरित मानस में अगाध श्रद्धा को देखते हुए बेढब बनारसी ने उनके बारे में कहा था-

    तुम तोप और मैं लाठी

    तुम रामचरित मानस निर्मल, मैं रामनरेश त्रिपाठी।


    राष्ट्रीय काव्यधारा को पुष्ट करने वाली कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान भी इसी कालखण्ड में सामने आती हैं। उनकी ‘त्रिधारा’, ‘मुकुल’ की ‘राखी’ ‘झासी की रानी’ ‘वीरों का कैसा हो बसंत’ आदि कविताओं में राष्ट्रीयता के तीक्ष्ण भावों की भावना मुखरित हुई। उन्होंने असहयोग आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। उन्होंने जलियाँवाला बाग के नरसंहार के लगभग 11 वर्ष बाद ‘जलियाँवाला बाग में बसंत’ नामक कविता लिखकर माखनलाल चतुर्वेदी के संदेश को आगे बढ़ाया-

    यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,

    काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।

    कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना,

    कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।

    .... तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,

    शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।

    यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना,

    यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।

    कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,

    वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।


    सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपनी कविता ‘झाँसी की रानी’ के माध्यम से देश की आत्मा को झकझोर कर रख दिया-

    महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,

    यह स्वतंत्रता की चिन्गारी अंतरतम से आई थी।

    झांसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,

    मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी

    ........ जाओ रानी याद करेंगें ये कृतज्ञ भारतवासी।

    तेरा ये बलिदान जगाएगा स्वतंत्रता अविनाशी।


    भारत सरकार अधिनियम 1935 के बाद देश का स्वतंत्रता आंदोलन एक नए दौर में प्रवेश कर जाता है। बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ इसी दौर में सामने आते हैं। उनकी कविताओं में भक्ति-भावना, राष्ट्र-प्रेम तथा विद्रोह का स्वर प्रमुखता से आया है। ई.1936 में उनका पहला काव्य संग्रह ‘कुंकुम’ प्रकाशित हुआ। इसमें राष्ट्रीयता के प्रखर स्वर सुनाई देते हैं-

    यहाँ बनी हथकड़ियाँ राखी, साखी है संसार

    यहाँ कई बहनों के भैया, बैठे हैं मनमार।’


    बालकृष्ण शर्मा स्वयं 10 बार जेल गए। उन्होंने विप्लव गान की रचना करके राष्ट्रीयता के स्वरों को नवीन ऊंचाइयां प्रदान कीं। उन्होंने राष्ट्र का सीधे और स्पष्ट स्वरों में आह्वान किया-

    कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाये

    एक हिलोर इधर से आये, एक हिलोर उधर को जाये नाश !

    नाश! हाँ महानाश!!! की प्रलयंकारी आंख खुल जाये।


    ई.1939 से 1945 तक द्वितीय विश्वयुद्ध हुआ। इंगलैण्ड चाहता था कि भारतीय सैनिक इस युद्ध में अंग्रेजों की तरफ से लड़ें किंतु भारतीय जनमानस, इस युद्ध में सम्मिलित होने के प्रतिफल के रूप में अपने देश के लिए आजादी चाहते थे। भारत छोड़ो आंदोलन, क्रिप्स मिशन और कैबिनेट मिशन इस काल की प्रमुख राजनीतिक घटनाएं हैं। अतः इस काल की राष्ट्रीय कविता इस घटनाक्रम को अपनी आंखों से देख रही थी।

    इस काल में रामधारीसिंह ‘दिनकर’ एवं सोहनलाल द्विवेदी जैसे दो बड़े राष्ट्रीय विचारधारा के कवि हिन्दी काव्य जगत में प्रकट होते हैं। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के काव्य ने भारतीय जन-मानस को नवीन चेतना से सराबोर किया। उन्होंने ई.1928 में ‘बारदोली विजय संदेश’ नामक रचना के साथ हिन्दी काव्य जगत में प्रवेश किया। वे सरकारी सेवा में थे। इसलिए जब ई.1935 में ‘रेणुका’ और 1938 में ‘हुंकार’ का प्रकाशन हुआ तो अंग्रेज सरकार उनके प्रति सतर्क हो गई। चार वर्ष में 22 बार उनका तबादला किया गया।

    रामधारी सिंह ‘दिनकर’ राष्ट्रधारा के कवियों में सर्वाधिक सबल व्यक्तित्व लेकर उभरे। वे छायावादोत्तर युग के सबसे बड़े राष्ट्रवादी कवि के रूप में जाने गए। उनके तीखे स्वरों को छायावाद आत्मसात नहीं कर सका। हुँकार, रेणुका, विपथगा में कवि ने साम्राज्यवादी ब्रिटिश राज्य के विरुद्ध क्रान्ति के स्वरों का आह्वाहन किया। उनकी कविताओं में पराधीनता के विरुद्ध प्रबल विद्रोह अपनी भीषणता और भंयकरता के साथ गर्जना करता हुआ दिखाई देता है। कुरूक्षेत्र पूर्णरूपेण राष्ट्रीय महाकाव्य है जिसमें हुंकार भरते हुए वे कहते हैं-

    ‘उठो- उठो कुरीतियों की राह तुम रोक दो

    बढ़ो-बढ़ो कि आग में गुलामियों को झोंक दो।‘


    वे भारत के युवाओं को राष्ट्रीय स्वातंत्र्य के लिए प्रथम आहुति के रूप में स्वयं को समर्पित करने का संदेश देते हुए कहते हैं-

    जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त, सीमापति! तूने की पुकार

    पददलित उसे करना पीछे, पहले ले मेरा सीस उतार।


    सोहनलाल द्विवेदी ने भारत की आजादी के गीतों का मुक्तकण्ठ से गायन किया। भैरवी, चेतना, सेवाग्राम आदि काव्य-संग्रहों में उन्होंने महान् राष्ट्रनायकों का गुणगान किया। ई.1941 में उनकी प्रथम रचना भैरवी प्रकाशित हुई जो देश प्रेम से परिपूर्ण थी-

    वन्दना के इन स्वरों में, एक स्वर मेरा मिला दो ।

    वंदिनी माँ को न भूलो, राग में जब मत झूलो ।

    अर्चना के रत्न कणों में, एक कण मेरा मिला लो।।


    राणा प्रताप के प्रति, आजादी के फूलों पर जय-जय, तैयार रहो, बढ़े चलो बढ़े चलो, विप्लव गीत, पूजा गीत, मातृपूजा, युग की पुकार, देश के जागरण गान, वासवदत्ता, कुणाल, तथा युगधारा आदि रचनाओं में स्वातन्त्र्य साधना के उच्च स्वर सुनाई देते हैं-

    कब तक क्रूर प्रहार सहोगे ?

    कब तक अत्याचार सहोगे ?

    कब तक हाहाकार सहोगे ?

    उठो राष्ट्र के हे अभिमानी

    सावधान मेरे सेनानी।’


    ‘प्रभात-फेरी’ में वे भारत के जन-मन का संकल्प व्यक्त करते हुए कहते हैं-

    ‘संतान शूरवीरों की हैं, हम दास नहीं कहलायेंगे ।

    या तो स्वतंत्र हो जायेंगे, या तो हम मर मिट जायेंगे ।

    हम अगर शहीद कहायेंगे, हम बलिवेदी पर जायेंगे,

    जननी की जय-जय गायेंगे।।


    सरदार पटेल की वंदना करते हुए वे कहते हैं-

    ‘लौह पुरूष सरदार! करूँ वन्दन तेरा किन शब्दों में ।

    राष्ट्र-पुरुष तुमसे मिलते हैं किसी राष्ट्र के अब्दों में ।।

    तेरा गर्जन एक, कि निर्बल में नवीन बल आता है ।

    तेरा वर्जन एक, कि बैरी बढ़ पीछे मुड़ जाता है।


    श्यामनारायण पाण्डेय राष्ट्रीय चेतना के लिए महाराणा प्रताप, महारानी पद्मिनी और रामभक्त हनुमान का वीर चरित देश के समक्ष अद्भुत ओजस्वी स्वरों में ढालकर लाए। उनके लिखे ‘हल्दीघाटी’, ‘जौहर’ एवं जय हनुमान आदि काव्यों में हिन्दू राष्ट्रीयता का जयघोष हुआ है।

    कविवर ‘शंकर’ ने शंकर सरोज, शंकर सर्वस्व, गर्भरण्डारहस्य लिखे। उन्होंने बलिदान गान में ‘प्राणों का बलिदान देश की वेदी पर करना होगा’ के द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए क्रान्ति एवं आत्मोत्सर्ग की प्रेरणा दी। निराला की ‘वर दे वीणा वादिनी’, ‘भारती जय विजय करे’, ‘जागो फिर एक बार’, ‘शिवाजी का पत्र’, प्रसाद की ‘अरूण यह मधुमय देश हमारा’ चन्द्रगुप्त नाटक में आया गीत ‘हिमाद्रि तुंगशृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती’ आदि रचनाओं में राष्ट्रीयता की प्रखर अभिव्यक्ति हुई।

    स्वतंत्रता आन्दोलन से प्रभावित राष्ट्रीय विचार धारा के हिन्दी कवियों की सुदीर्घ शृंखला में राधाचरण गोस्वामी, श्रीधर पाठक, माधव प्रसाद शुक्ल, नाथूराम शर्मा शंकर, गया प्रसाद शुक्ल स्नेही (त्रिशूल), सियाराम शरण गुप्त, जगन्नाथ प्रसाद मिलिन्द, अज्ञेय इत्यादि कवियों के योगदान अविस्मरणीय हैं जिन्होंने भारतीयों की सरल हृदय-भित्ती पर राष्ट्रीयता के ओजपूर्ण स्वरों का अंकन किया। कवि अज्ञेय भी पढ़ाई बीच में छोड़कर कई बार जेल गये।

    जोधपुर के एक अल्पज्ञात कवि देवदत्त व्यास ‘करुण’ का उल्लेख करना चाहूंगा। वे अखण्ड भारत के हैरदाबाद सिंध में मात्र 27 वर्ष की आयु में 8 फरवरी 1947 को मृत्यु को प्राप्त हुए। उनकी मृत्यु के लगभग 60 वर्ष बाद उनके दो काव्य संग्रह ‘बीते दिन मत यादा दिलाओ’ तथा ‘अंतस की पीड़ा कौन सुने’ प्रकाश में आए। उनकी रचनाओं में राष्ट्रीयता के उद्दाम स्वर सुनाई पड़ते हैं। ‘शहीद के चरणों पर’ कविता में वे लिखते हैं-

    खौल उठे जुल्मों को ढाने, प्यारे तन में खून हमारे।

    अपनी भारत माँ के बंधन, खोल सकें, साहस से सारे।


    ‘विप्लव गान’ में वे लिखते हैं-

    जागें प्रताप से नृप महान

    हों वीर दुर्ग से कीर्तिमान

    स्वाधीन स्नेह हो स्वाभिमान

    निज देशहित पर न्यौछावर

    निर्भयता का वर दो शंकर।


    इस प्रकार हम देखते हैं कि हिन्दी कवियों ने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के समय देश में मची उथल-पुथल को अपनी कविता का विषय बनाकर साहित्य के क्षेत्र में दोहरे दायित्व का निर्वहन किया। वे स्वदेश व स्वधर्म की रक्षा के लिए एक ओर तो राष्ट्रीय भावों को काव्य के विषय के रूप में प्रतिष्ठित कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय चेतना को उसके चरम पर पहुंचा रहे थे। स्पष्ट है कि वे न केवल तत्कालीन घटनाओं के प्रति सजग थे अपितु भारत के गौरवमयी इतिहास के साथ भी कदम मिलाकर चल रहे थे।

    स्वातंत्र्य-लक्ष्य की प्राप्ति के पश्चात् भी राष्ट्रवादी कविता का धारा कुण्ठित नहीं हो गई। वह उसके बाद भी राष्ट्रीय जागरण की अलख जगाती रही। राष्ट्रकवि पं. सोहनलाल द्विवेदी ने भारतीय युवाओं को स्वातंत्र्य-ध्वज सुरक्षित रखने का आह्वान करते हुए लिखा-

    शुभारंभ जो किया देश में, नव चेतनता आई है ।

    मुरदा प्राणों में फिर से, छायी नवीन तरुणाई है ।

    स्वतंत्रता की ध्वजा न झुके, यही ध्रुव ध्यान करो ।

    बढ़ो, देश के युवक-युवतियों, आज पुण्य प्रस्थान करो ।।


    -डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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  • राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति-16

     02.06.2020
    राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति-16

    राजस्थान में वन्य जीवन (1)


    हमारी नई वैबसाइट - भारत का इतिहास - www.bharatkaitihas.com

    राजस्थान के वनों में वनस्पति की विविधता के साथ-साथ वन्य जीवों की सैंकड़ों तरह की प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें जलचर, कीट-पतंग, सरीसृप, पक्षी, उभयचर, मांसाहारी पशु तथा शाकाहारी पशुओं की बहुत बड़ी संख्या शामिल है। वन्य जीव पशु हत्या के अपराध में राज्य में अधिकतम 7 साल की कैद की जा सकती है।


    राजस्थान के वन्य-पशु

    राजस्थान के वनों में पाये जाने वाले प्रमुख वन्य पशुओं का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार से है-

    उड़न गिलहरी : चित्तौड़गढ़ तथा प्रतापगढ़ जिलों के सीतामाता अभयारण्य में पाई जाने वाली उड़न गिलहरी अद्भुत वन्य जीव है। यह रात्रि काल में पंद्रह से बीस फुट तक की उड़ान भरती है।

    कृष्णमृग : काला हिरण उत्तरी भारत के मैदानों में पाया जाने वाला विशेष जाति का मृग है। राजस्थान में यह बड़ी संख्या में पाया जाता है। इसे राष्ट्रीय मरु उद्यान जैसलमेर तथा जोधपुर-नागौर-बीकानेर जिलों में विश्नोई बहुल गांवों और खेतों में विचरण करते हुए देखा जा सकता है। 3 जुलाई 1971 को को चूरू जिले में तालछापर अभयारण्य (क्षेत्रफल 7.91 वर्ग किलोमीटर) की घोषणा की गई। यहाँ लगभग डेढ़ हजार काले हरिण रहते हैं। 28 जून 1976 को डोली-धवा के 424.76 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को काले हिरण तथा अन्य वन्य जीवों के लिये आरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया। 14 फरवरी, 1984 को रानीपुर क्षेत्र (जिला टोंक, क्षेत्रफल 120 वर्ग किमी) को वन्यजीव आरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया। केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान में भी काले हिरणों को देखा जा सकता है।

    खरगोश : खरगोश सफेद, काले, भूरे रंगों तथा इनके मिश्रित रंगों वाला, मुलायम रोयेंदार खाल वाला छोटा और सुन्दर प्राणी है। यह मुख्यतः घास और वनस्पति खाता है तथा जंगल में छिपकर रहता है। जब कोई इसके नजदीक पहुँचता है तो यह तुरन्त तेजी से दौड़कर छिप जाता है। इसके कान लम्बे होते हैं।

    गीदड़ : गीदड़ चतुर-चालाक जानवर होता है। इसका रंग हल्का काला तथा सफेद मिश्रित होता है। यह मुख्यतः मृत जानवरों को खाता है किन्तु कभी-कभी छोटे जानवरों को मार लेता है। यह मांसाहारी तथा शाकाहारी है। गन्ने और तरबूज इसे बहुत पसंद है। जंगल में यह बेर भी खाता है। देखने में यह भेड़िये की तरह होता है किन्तु आकार में उससे छोटा होता है। इसे सियार और शृगाल भी कहते हैं।

    घड़ियाल : यह देखने में मगरमच्छ की तरह होता है किन्तु इसका थूथन लम्बा होता है और थूथन के आगे का हिस्सा गोल गेंद की तरह उभरा हुआ होता है।

    चिंकारा : एन्टीलोप नामक छोटे हिरण को राजस्थान में चिंकारा कहा जाता है। यह सम्पूर्ण राजस्थान में काले हिरणों के साथ अत्यधिक संख्या में मिलता है।

    चीतल : इस सुन्दर प्राणी का शरीर चमकदार भूरे रंग का होता है जिस पर गोल-गोल सफेद चित्ते होते है। सांभर की भाति नर चीतल के भी शाखाओं वाले सींग होते है। चीतल के प्रायः हर साल नये सींग आते हैं और पुराने सींग गिर जाते हैं। इसकी सूंघने, देखने और सुनने की शक्ति बहुत तेज होती है।

    चौसिंगा : इसके चार सींग होते हैं। सामने के सींग छोटे और पीछे के सींग बड़े होते हैं। इसके शरीर का ऊपरी भाग हल्के भूरे रंग का एवं निचला भाग सफेदी लिए हुए होता है। यह एण्टीलोप हिरण प्रजाति का सबसे छोटा जानवर है जो अधिकतर नर-मादा के जोड़े में साथ रहता है। चौसिंगा राज्य में बहुलता से पाये जाते हैं। चौसिंगा की विश्व में सर्वाधिक संख्या सीतामाता अभयारण्य में मिलती है। कुम्भलगढ़ अभयारण्य (पाली एवं उदयपुर जिले), फुलवारी की नाल अभयारण्य (उदयपुर जिला) में भी चौसिंगा बहुतायत से मिलता है। कुछ चौसिंगा सरिस्का अभयारण्य में भी रहते हैं। इनकी उपस्थिति के कारण इन अभयारण्यों में बघेरे भी अधिक संख्या मिलते हैं।

    जंगली कुत्ता : इसका शरीर भेड़िये से छोटा किन्तु सियार से बड़ा होता है। इसके शिकार करने का ढंग भेड़िये जैसा होता है। रंग गहरा भूरा तथा पूंछ काली, बड़े बालों वाली होती है। सामान्यतः यह छोटे जानवरों का शिकार करता है। जब यह समूह में होता है तो सांभर जैसे बड़े जानवरों को भी मार देता है। नवम्बर-दिसम्बर में इसका प्रजनन होता है और एक बार में चार से छह बच्चों को जन्म देता है।

    जंगली बिल्ली : इसका रंग हल्का भूरा होता है। इसकी पंूछ के अंतिम भाग पर धारियां होती हैं। इसके पेट पर भी हल्की धारियां होती हैं। यह खुले जंगलों, घास के मैदानों और नदियों के किनारों पर सुबह-शाम देखी जा सकती है। यह छोटी चिड़ियों का शिकार करती है तथा बस्ती में आकर पालतू मुर्गे-मुर्गियों को उठा ले जाती है। रेगिस्तानी क्षेत्रों में ऐसी नर बिल्लियां पाई जाती हैं जो आकार में सामान्य बिल्लियों से डेढ़ से दो गुनी बड़ी होती हैं।

    जंगली सूअर :
    यह बड़ा साहसी और निडर प्राणी होता है। इसका मुंह लम्बा, पांव छोटे तथा पतले होते हैं। इसके शरीर का रंग गहरा भूरा होता है जिस पर काले, सफेद और भूरे बाल होते हैं। यह शेर, चीते से लड़ने के लिए भी तत्पर रहता है और अपने मुंह के दोनों ओर निकले मजबूत नुकीले दांतों से प्रहार करके परास्त भी कर देता है। यह मुख्यतः शाकाहारी है और फल, पेड़-पौधों की जड़, कन्द, अनाज आदि खाता है। मादा सूअर वर्ष में दो बार, चार से छः या इससे भी अधिक बच्चों को जन्म देती है।

    जरख : जरख के अगले पैर मजबूत तथा पिछले पैरों से अधिक लम्बे होते हैं। साधारणतः यह रात में निकलता है और दिन में गुफा आदि में छिपकर रहता है। सामान्यतः शेर-बघेरा जैसे हिंसक जीवों द्वारा छोड़े गये शिकार को खाता है किन्तु कभी-कभी यह भेड़, बकरी और कुत्ते आदि का शिकार करता है। इसके दातों की विशिष्ट बनावट के कारण यह हड्डियों को आसानी से चबा जाता है।

    झाऊ चूहा : नागौर के आसपास के जंगलों व खेतों में रहने वाला झाऊ चूहा दुर्लभ प्राणी है। लगभग एक किलो वजन वाले इस चूहे के पूरे शरीर पर कांटे होते हैं। यह अपना मुँह और पैर कछुए की तरह कांटेदार खोल में छिपाये रहता है।

    रोझ : राजस्थान के जंगलों में बड़ी संख्या में मिलने वाले रोझ अथवा रोजड़ा को 'नीलगाय'भी कहते हैं। यह एन्टीलोप प्रजाति का बड़ा जानवर है। एन्टीलोप प्रजाति के जानवरों के सींग नहीं झड़ते हैं। नर रोझ का रंग गहरा एवं काला नीला सा होता है। इसके पैरों में खुर के पास सफेद रंग की सुन्दर रिंग होती है। मादा का रंग भूरा होता है। रोझ बहुत तेज दौड़ता है। सांभर के पश्चात यह बाघ की दूसरी पसन्द का भोजन है। यह बीस-पच्चीस की संख्या में अथवा उससे भी बड़े दो-ढाई सौ तक के झुण्ड में रहता है।

    नेवला : यह भूरे रंग का होता है। इसके पांव छोटे और पूंछ लम्बी होती है। यद्यपि यह मांसाहारी है किन्तु फल तथा जड़ें भी खाता है। यह बड़ा फुर्तीला होता है तथा संाप, छिपकली, चूहे, मेंढ़क, चिड़िया एवं कीड़े-मकोड़ों का शिकार करता है। यह चिड़ियों के अंडों का बड़ा शौकीन होता है। कुछ लोग इसे पालते भी हैं।

    पाटागोह : यह छिपकली परिवार का बड़ा जानवर है। इसकी चमड़ी दानेदार होती है। यह बिल बनाकर रहती है। यह बहुत तेज नहीं दौड़ पाती। इसकी जीभ सांप की तरह चिरी हुई होती है। यह मिट्टी चाटती है तथा गूलर, बड़ के फल और गोबर में उपस्थित खाद्य कणों को भी चाट जाती है। विपत्ति में यह जल में भी चली जाती है। इसके पंजों की पकड़ बहुत मजबूत होती है।

    बघेरा : बाघ की तरह बघेरा भी बलिष्ठ और फुर्तीला जानवर है। इसे गुलदार भी कहते हैं। यह सुनहरे रंग का होता है जिस पर गोल-गोल काले चित्ते होते हैं जो बीच में खाली रहते है। यह हिरण, मोर, बंदर आदि का शिकार करता है किन्तु विपरित परिस्थितियों में कुत्ता, भेड़ और बकरी को भी शिकार बना लेता है। बाघ की तुलना में बघेरा अधिक फुर्ती से पेड़ पर चढ़ सकता है। मादा के गर्भ की अवधि तीन माह होती है और यह एक बार में दो से चार बच्चों को जन्म देती है।

    बाघ : यह बिल्ली परिवार का सुन्दर वन्य पशु है। बोलचाल की भाषा में इसे शेर भी कहते है। इसके बलिष्ठ, सुडौल एवं सुनहरे शरीर पर काली धारियां होती हैं। मादा की लम्बाई और भार नर बाघ की अपेक्षा कम होती है। भारी शरीर होते हुए भी इसमें बड़ी स्फूर्ति होती है। इसका पांव गद्देदार होता है। इस कारण बाघ के चलने पर आवाज नहीं होती। इसकी घ्राण शक्ति कम होती है परन्तु देखने और सुनने की शक्ति बहुत तेज होती है।

    बाघ सामान्यतः जंगली जानवरों का ही शिकार करता है और मनुष्य पर आक्रमण नहीं करता है किन्तु जब बाघिन अपने बच्चों के साथ हो तब सहसा बाघिन के पास पहुँच जाने पर, आत्मरक्षा के लिए, घायल होने पर या इसी तरह की विपरीत परिस्थितियों में यह मनुष्य पर आक्रमण करता है। प्रजनन काल को छोड़कर बाघ प्रायः अकेला रहता है। बाघिन के गर्भाधान का समय निश्चित नहीं है किन्तु अधिकांशतः इसे शीतकाल में बाघ के साथ देखा जाता है। गर्भ की अवधि 4 माह होती है।

    बाघिन साधारणतः एक बार में तीन से पांच बच्चों को जन्म देती है। छह माह के शावक माँ के साथ शिकार करने लगते हैं और दो वर्ष के होने पर माँ से अलग हो जाते हैं। बाघ की औसत आयु 25 वर्ष होती है।

    बिज्जू : इसका रंग पेट से पीठ तक सलेटी और थोड़ा काला होता है। इसकी पीठ पर हल्के भूरे एवं मटमैले रंग की एक पट्टी होती है। शरीर की लम्बाई की तुलना में इसकी पूंछ छोटी होती है। यह मुख्यतः छोटी चिड़ियों और चूहों का शिकार करता है। इसे शहद बहुत पसन्द है। इसके कान चिपके हुए होते हैं।

    भालू : भालू अथवा रीछ काले रंग तथा शरीर पर घने बाल वाला होता है। यह पेड़ पर भी चढ़ जाता है। इस की घ्राण शक्ति तेज होती है। इसका मुख्य भोजन कन्दमूल, फल, शहद और दीमक है। यह गन्ना बड़े चाव से खाता है।

    मगरमच्छ : यह मुख्यतः जल में रहता है। इसका थूथन सूअर या गोह की तरह छोटा और चौड़ा होता है। इसकी पीठ पर चमड़ी के बहुत मोटे और उभरे हुए मजबूत शल्क होते हैं। इसकी दुम के ऊपरी हिस्से में आरे जैसा कटाव होता है। यह रणथम्भौर, वन विहार अभयारण्यों के अतिरिक्त चम्बल, माही एवं बनास नदियों में पाया जाता है।

    लोमड़ी : यह चालाक जानवर है। इसका मुँह आगे से पतला और पूंछ भारी होती है। यह धरती खोदकर उसके अन्दर रहती है। यह मुख्यतः चूहे, सांप, चिड़िया और कीड़े-मकोड़े खाती है तथा छोटे जानवरों का शिकार भी करती है। मांसाहारी होने के साथ-साथ यह शाकाहारी भी है।

    लंगूर : काले मुँह के बंदर को लंगूर कहते हैं। इसकी पूंछ लम्बी और मुँह एकदम काला होता है। यह बड़ी लम्बी छलांग लगाता है। यह मुख्यतः पेड़-पौधों की पत्तियाँ, फल तथा अनाज आदि खाता है। यह जंगलों एवं बस्तियों के आसपास पाया जाता है। सरिस्का में ये बहुतायत से पाये जाते हैं।

    सांभर : सांभर मृग परिवार का बड़ा जानवर है। यह चॉकलेटी रंग का होता है। नर सांभर के दो मजबूत सींग होते हैं जिनमें अनेक शाखाएं होती हैं। सांभर के सींग हर साल नये आते हैं जबकि मादा के सींग नहीं होते हैं। लम्बे और शाखाओं वाले सींग होने के कारण कई बार ये झाड़ियों तथा परस्पर लड़ाई में उलझ जाते हैं। यह बाघ का प्रथम प्रिय भोजन है।

    सीलू : सीलू अथवा चींटीखोरा विचित्र जानवर है। इसके शरीर पर पाइन ऐपल के फल अथवा खजूर के तने में बने खपोटे जैसे होते हैं। आवश्यकता होने पर यह गंेद की तरह गोल हो जाता है और शरीर पर बने खपोटे दुश्मन से इसकी रक्षा करते हैं। यह भुरभुरी मिट्टी में बिल बनाकर रहता है। इसके दांत नहीं होते। यह प्रायः रात में निकलता है। चींटी और दीमक इसका मनपसन्द भोजन है। चींटियों के बिल के पास यह अपनी जीभ को फैला देता है। चिकनी और लेसदार जीभ पर चीटियां चिपक जाती हैं जिन्हें यह खा लेता है। यह पेड़ पर भी चढ़ जाता है।

    सीवेट : सीवेट कई प्रकार की होती है किन्तु सरिस्का में दो प्रकार की सिवेट पाई जाती है- स्मॉल इण्डियन सीवेट और पाम सीवेट। स्माल इण्डियन सीवेट का रंग बघेरे की तरह हल्का पीला होता है जिस पर छोटे-छोटे काले धब्बे होते हैं। इसकी पूंछ लम्बी होती है जिस पर काले रंग की गोल रिंग होती है। इसका मुँह नुकीला होता है। यह घनी झाड़ियों अथवा दीमक आदि के बिलों में रहता है। पाम सीवेट अधिकतर पेड़ों पर निवास करता है और रात को पेड़ों से नीचे उतरकर मरे हुए जानवरों का मांस खाता है। इसका रंग सलेटी एवं मुँह से कमर तक काला होता है। पूंछ लम्बी बालदार और काले रंग की होती है।

    सेही : सेही के शरीर पर 15 से 20 सेन्टीमीटर लम्बे तीखे काँटे होते हैं जो कहीं से काले और कहीं से सफेद होते हैं। आवश्यकता होने पर यह अपने काँटों को मोर के पंखों की तरह फैलाकर शत्रु से अपना बचाव करती है। यह धरती में एक मीटर से भी अधिक गहरे बिल में रहती है और रात में बाहर निकलती है। यह फल, अनाज, पौधों की जड़ें और पौधों की छाल खाती है।

    स्याहगोश : यह जंगली बिल्ली से थोड़ा बड़ा होता है। इसके पिछले पांव अगले पांवों से बड़े होते हैं। इसका रंग भूरा, कान खड़े और नुकीले तथा बिल्ली से बड़े होते हैं। यह खुले और छोटी-छोटी झाड़ियों के जंगल में पाया जाता है। यह चिड़िया, कबूतर, चूहे तथा संाप आदि का शिकार करता है। यह फुर्तीला जानवर है।

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  • अजमेर का इतिहास - 80

     02.06.2020
    अजमेर का इतिहास - 80

    अजमेर में स्वतंत्रता आंदोलन (2)


    हमारी नई वैबसाइट - भारत का इतिहास - www.bharatkaitihas.com

    नमक सत्याग्रह


    अप्रेल 1930 में देशव्यापी नमक सत्याग्रह चला। इसमें अजमेर ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 20 अप्रेल 1930 को हरिभाऊ उपाध्याय के नेतृतव में अजमेर में नमक कानून तोड़ा गया। हरिभाऊ उपाध्याय, विजयसिंह पथिक, गोकुललाल असावा तथा रामनारायण चौधरी आदि नेता बंदी बनाये गये।

    राजपूताना और मध्य भारत सभा का प्रान्तीय सम्मेलन

    23 नवम्बर 1931 को अजमेर में कस्तूरबा गांधी की अध्यक्षता में राजपूताना और मध्य भारत सभा का प्रान्तीय राजनैतिक परिषद् का सम्मेलन हुआ।

    सस्ता साहित्य मण्डल पर ताला

    ई.1932 में सरकार ने सस्ता साहित्य मण्डल के प्रेस कार्यालय पर ताला डाल दिया।

    राजपूताने में प्रजामण्डलों की स्थापना

    ई.1938 की हरिपुरा कांग्रेस के पश्चात् राजपूताना रियासतों में प्रजामण्डल स्थापित हुए जिससे इन रियासतों में रियासती आंदोलन का सूत्रपात हुआ। इन रियासती आंदोलनों का अजमेर पुनः केन्द्र बना। जहां-तहां प्रजा मण्डलों की स्थापना की गई। इस आंदोलन का उद्देश्य रियासतों में उत्तरदायी शासन की स्थापना करना था। यह आंदोलन भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का ही एक भाग था। रियासती आंदोलनों को अजमेर का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।

    अजमेर प्रजा मण्डल की स्थापना

    ई.1938 में मेवाड़ से निष्कासन के बाद माणिक्यलाल वर्मा ने अजमेर में प्रजा मण्डल की स्थापना की। 14 दिसम्बर 1938 को मेवाड़ प्रजा मण्डल के प्रमुख कार्यकर्त्ता मथुरा प्रसाद वैद्य को अजमेर-मेरवाड़ा प्रांत के ब्रिटिश क्षेत्र से बंदी बनाया गया। ई.1939 में मेवाड़ पुलिस द्वारा अजमेर-मेरवाड़ा प्रांत की सीमा में घुसकर माणिक्यलाल वर्मा को बंदी बनाया गया तथा उन्हें निर्ममता से पीटा गया।

    कृष्ण गोपाल गर्ग व बालकृष्ण गर्ग को जेल

    8 से 16 अप्रेल 1940 तक अजमेर कांग्रेस के राष्ट्रीय सप्ताह में झण्डा फहराने पर कृष्ण गोपाल गर्ग व बालकृष्ण गर्ग को चार-चार माह की कठोर जेल दी गई।

    रेल कर्मचारियों की हड़ताल

    15 अगस्त 1941 को अजमेर में रेलवे के दस हजार कर्मचारियों ने हड़ताल की। इस सिलसिले में 19 अगस्त को ज्वाला प्रसाद शर्मा को बंदी बनाया गया। 12 नवम्बर 1941 को उन्होंने जेल से भागने का असफल प्रयास किया। भारत सुरक्षा नियम के तहत उन्हें सवा साल की सजा सुनाई गई। फरवरी 1942 में उनकी सजा समाप्त कर दी गई। इसी माह उनके विरुद्ध एक और अभियोग दर्ज हुआ जिसमें उन्हें 6 माह के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। 29 फरवरी 1942 को वे एक अन्य बंदी के साथ जेल से फरार हो गये।

    भारत छोड़ो आंदोलन

    ई.1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का अजमेर की राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा। अजमेर मेरवाड़ा के क्रांतिकारी तत्व प्रबल हुए। चूंकि यह आंदोलन काफी उग्र था इसलिये पहली बार कांग्रेस और क्रांतिकारियों में कुछ समन्वय दिखाई दिया। इस कारण सरकारी दमन चक्र भी तीव्र हुआ। अनेक नेता बंदी बनाये गये। कइयों को नजरबंद किया गया। इस आन्दोलन के दौरान अजमेर, ब्यावर, केकड़ी आदि से 37 व्यक्ति गिरफ्तार किये गये। समस्त कांग्रेस समितियॉं, हटूण्डी का गांधी आश्रम, अजमेर का ग्राम उद्योग संघ, हरमाड़ा का खादी विद्यालय एवं पुस्तकालय, अजमेर और ब्यावर के खादी भण्डार आदि को अवैध घोषित कर, उन पर छापे मारे गये और उनकी सम्पत्तियां नीलाम कर दी गईं।

    इस नीलामी से 15 हजार रुपये प्राप्त हुए। अनेक विद्यार्थी जो अपनी शिक्षण संस्थाओं में हड़ताल करके स्वतन्त्रता आंदोलन में कूद पड़े थे, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 1 अप्रेल 1943 तक अजमेर में 61 लोगों को बंदी बनाया गया। इनमें बालकृष्ण कौल, हरिभाऊ उपाध्याय, रामनारायण चौधरी, गोकुल लाल असावा, ऋषिदत्त मेहता, मुकुट बिहारी लाल भार्गव, लादूराम जोशी, श्रीमती गोमती देवी भार्गव, अम्बालाल माथुर, शोभालाल गुप्त भी सम्मिलित थे।

    बालकृष्ण कौल एवं गोकुल लाल असावा को जेल अधिकारियों की आज्ञा न मानने पर चार माह का कठोर कारावास दिया गया। इसके विरोध में कौल ने जेल में ही भूख हड़ताल आरंभ कर दी। ब्रिटिश सरकार ने श्रीमती कौल को मिलने की अनुमति नहीं दी। बाद में महात्मा गांधी के हस्तक्षेप के बाद उन्हें मिलने दिया गया। इसके बाद कौल ने भूख हड़ताल समाप्त कर दी। इन कैदियों के साथ सभी तरह का बुरा एवं पाशविक व्यवहार किया गया। रमेश व्यास, लेखराज आर्य, शंकरलाल वर्मा, मूलचन्द असावा और बालकृष्ण कौल आदि अनेक स्वतन्त्रता सेनानियों पर बड़े जुल्म ढहाये गये।

    गोविंद सहाय ने अपने 42 रिबेलियन में लिखा है कि 1943 के बाद सरकार ने अपनी कूटनीति में मामूली सा परिवर्तन किया। उन्होंने बिना किसी शर्त पर बंदियों को रिहा करना आरंभ किया परंतु मुक्त करने के साथ ही उन पर कड़ी पाबंदियां लगा दीं। सरकार ने स्वतन्त्रता सेनानियों से जेल में जबर्दस्ती अंगूठे व हस्ताक्षर करवाकर क्षमा याचना करने को कहा किन्तु कैदियों ने अंग्रेज सरकार के सामने घुटने नहीं टेके और वे सारे कागज फाड़ कर फैंक दिये। इस पर सरकार ने एक-एक करके कैदियों को छोड़ना शुरू कर दिया।

    उनमें से कइयों को 48 घन्टे के भीतर अजमेर-मेरवाड़ा प्रान्त छोड़कर जाने को कहा गया। रेडियो तथा मोटर का उपयोग करने और जुलूसों तथा सभाओं में भाग लेना प्रतिबन्धित कर दिया गया। जिन्होंने ये प्रतिबन्ध स्वीकार नहीं किये उन्हें कठोर दण्ड दिये गये। मूलचंद असावा तथा गोकुललाल असावा को चार माह का कठोर कारावास दिया गया तथा उन पर 200-200 रुपये का जुर्माना किया गया। उन्हें अजमेर के म्युन्सिपल क्षेत्र के अंदर रहने के लिये कहा गया।

    29 फरवरी 1944 को ज्वाला प्रसाद शर्मा तथा रघुराजसिंह जेल अधिकारियों की आंखों में धूल झौंककर भाग निकले और फिर हाथ नहीं आये। ई.1946 में कैबीनेट मिशन के भारत आने के बाद स्वतंत्रता निकट आती हुई दिखाई देने लगी। इस कारण अजमेर का वातावरण शांत होने लगा।

    आधी रात को आजादी

    14 अगस्त 1947 को हजारों लोग नया बाजार में एकत्र हो गये। उस दिन मैगजीन का विशाल भवन अंधेरी रात में भी प्रकाश में नहाया हुआ था। जैसे ही रात के 12 बजकर 1 मिनट हुआ और कैलेण्डर में 15 अगस्त की तिथि आरंभ हुई अजमेर कांग्रेस अध्यक्ष जीतमल लूणिया ने मैगजीन से यूनयिन जैक उतारकर तिरंगा फहराया तथा अजमेर के स्वंतत्र होने की घोषणा की। हजारों लोगों ने भारत माता का गगनभेदी जयनाद किया।

    राष्ट्रीय ध्वज को 21 तोपों की सलामी दी गई। सब लोगों ने सामूहिक रूप से वंदेमातरम् गीत गाया। बालकृष्ण कौल, हरिभाऊ उपाध्याय, बालकृष्ण गर्ग, रामनारायण चौधरी आदि प्रमुख नेताओं ने जनसमुदाय को सम्बोधित किया। रात भर स्वतंत्रता का समारोह चला। मिठाइयां बँटीं तथा भारत माता की जय के गगनभेदी नारे गूंजते रहे। इस प्रकार जो काम ई.1724 में महाराजा अजीतसिंह राठौड़ को अधूरा छोड़ देना पड़ा था, वह काम 1947 में पूरा किया जा सका।

    प्रातः होने पर हजारों बच्चे, जवान और बूढ़े स्त्री एवं पुरुष तिरंगे झण्डे लेकर सड़कों एवं गलियों में निकल आये। पटाखे छोड़े गये, विद्यालयों में मिठाइयां बाँटी गईं। एक कसक भी उस दिन अजमेर में बनी रही। आज के दिन भी बहुत से वे लोग जेलों में बंद थे जो भारत की स्वतंत्रता के लिये संघर्ष करते रहे थे। यहाँ तक कि ज्वाला प्रसाद शर्मा भी इस अवसर पर अजमेर में नहीं थे, वे अब भी फरार चल रहे थे।

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  • राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : प्रजामण्डल आंदोलन के प्रमुख नेता - गोकुललाल असावा

     21.12.2021
    राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी  : प्रजामण्डल आंदोलन के प्रमुख नेता - गोकुललाल असावा

    राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी - 188

    राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : प्रजामण्डल आंदोलन के प्रमुख नेता - गोकुललाल असावा

    1. प्रश्न -गोकुललाल असावा किस राज्य के रहने वाले थे?

    उतर- शाहपुरा के।

    2. प्रश्न -गोकुललाल असावा को प्रथम संयुक्त राजस्थान में क्या भूमिका दी गई?

    उतर-  उन्हें दक्षिण-पूर्वी रियासतों को मिलाकर बनाये गये संघ में मुख्यमंत्री बनाया गया। इस संघ में मेवाड़ शामिल नहीं था। इस संघ का उद्घाटन 25 मार्च 1948 को किया गया था।


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  • लो हारा सच, फिर जीता झूठ (हिन्दी कविता)

     02.06.2020
    लो हारा सच, फिर जीता झूठ (हिन्दी कविता)

    लो हारा सच, फिर जीता झूठ

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    सन-सन चलती आंधी काली,

    उजड़ी बगिया, हतप्रभ माली।

    समय भी निकला गहन कुचाली

    हारा सुकण्ठ और जीता बाली।

    पुण्यों की सलिला जाती खूंट 

    लो हारा सच, फिर जीता झूठ।।



    कल तक तो था गहरा पानी,

    प्रतिज्ञाओं की गहना वाणी।

    सप्त सुरंगी सरिता बहती

    मन-तरंग की कलकल कहती।

    क्यों गई क्यारियां सारी फूट

    लो हारा सच, फिर जीता झूठ।।



    सत्कर्मों की सूखी वापी,

    उथली थोथी, शापित थाती।

    शृगालों की सेना आती,

    कानन लूट नित रास रचाती।

    उनकी तृप्त न होती भूख,

    लो हारा सच और जीता झूठ।।



    अभिमानी हैं गंजे लंगड़े

    खाते-पीते मोटे तगड़े

    इंच न हटते महंगे मकड़े।

    पल-पल रचते लफड़े झगड़े।

    नाचें काले नकटे भूत

    लो हारा सच, फिर जीता झूठ।

    -डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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  • राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति-17

     02.06.2020
    राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति-17

    राजस्थान में वन्य जीवन (2)


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    राजस्थान के पक्षी


    राजस्थान विभिन्न प्रजाति के पक्षियों के लिए आदर्श वास स्थल है। यह पूरे देश में पक्षियों के संदर्भ में सबसे धनी प्रान्तों में से है। यहाँ पक्षियों की लगभग 450 प्रजातियाँ देखी जा सकती हैं जिनमें से कुछ पक्षी प्रजातियाँ अत्यंत दुर्लभ हैं। स्थानीय पक्षियों के साथ प्रवासी पक्षी भी शीतकाल के समय राजस्थान में निवास करते हैं और गर्मियां आरम्भ होने से पूर्व ठण्डे देशों को लौट जाते हैं। कन्हैयालाल सेठिया ने राजस्थान के पक्षियों के लिये लिखा है-


    पंछी मधरा मधरा बोलै,

    मिसरी मीठै सुर स्यूं घौळै

    झीणूं बायरियो पंपोळै,

    धरती धोरां री।

    भरतपुर का केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान देशी एवं विदेशी पक्षियों के लिए स्वर्ग के समान है। यहाँ कबूतर, चिड़िया, कौआ, चील, चमगादड़, सारस, तोता, मैना, बटेर, बाज, मुर्गा, गिद्ध तथा बया आदि पक्षी बहुतायत से मिलते हैं। क्रौंच, कोतवाल, दूधराज, तीतर, मोर, गोडावण तथा कुरजां यहाँ के विशिष्ट पक्षी आकर्षण हैं।

    सामंती युग में काला तीतर तथा गोडावण का शिकार बहु प्रचलित शौक था। वन्य पशु संरक्षण कानूनों को सख्ती से लागू करके इनके शिकार पर कड़ी पाबंदी लगाई गयी है। अरावली की पहाड़ियाँ सैंकड़ों प्रकार के पक्षियों का स्थायी निवास स्थल हैं। विश्व प्रसिद्ध रणथम्भौर, सरिस्का, रावली टॉडगढ़, कुम्भलगढ़, आबू पर्वत, फुलवारी की नाल एवं जयसमन्द आदि प्रसिद्ध वन क्षेत्र इन्हीं पहाड़ियों में स्थित हैं। इन वनों में घरेलू चिड़ियों से लेकर हुदहुद, फाख्ता, पीलक, कौवा, सूर्यपक्षी, दर्जिन, धनेश, बुलबुल, मैना, मोर, मच्छीखोरा, कठफोड़वा, तीतर, बटेर, कबूतर, तोता, चुपका, नीलकण्ठ, खातीचिड़ा, उल्लू एवं कई तरह के शिकारी पक्षी रहते हैं। कुछ पक्षी अरावली के उत्तरी हिस्से में पाये जाते हैं तो कुछ अरावली के दक्षिण में।

    सरिस्का के जंगलों में काला तीतर, धूसर छोटी मुर्गी, हरा बारबेट सामान्य रूप से पाये जाते हैं। रणथम्भौर में काले तीतर की जगह पेन्टेड तीतर मिलता है। रणथंभौर क्षेत्र में निवास करने वाले दुर्लभ काला गरुड़, बड़ा मच्छीखोरा (स्टॉर्कबिल मिलफिहार) एवं हरा हिरोन सरिस्का क्षेत्र में दिखाई नहीं पड़ते। सरिस्का की काली घाटी में मोरों का घनत्व पूरे देश में सर्वाधिक है। धूसर जंगली मुर्गा एक सुंदर पक्षी है जो कुम्भलगढ़, रावली टॉडगढ़ एवं आबू पर्वत पर बहुतायत से रहता है किंतु सरिस्का एवं रणथम्भौर में नहीं पाया जाता। सीतामाता, प्रतापगढ़, भैंसरोड़गढ़, दरा एवं रणथम्भौर के वन अरावली के साथ मध्य भारत की विन्ध्य पर्वत श्ृंखलाओं पर भी फैले हैं। इनमें अलग तरह की पक्षी प्रजातियां रहती हैं। सीतामाता वन क्षेत्र में पाया जाने वाला लोरी किट प्रदेश के अन्य हिस्सों में नहीं पाया जाता। दर्रा क्षेत्र के बड़े तोते गागरोनी तोते कहलाते हैं। आबू पर्वत न केवल अरावली का बल्कि विंध्य एवं हिमालय के बीच का सबसे ऊंचा शिखर होने से यहाँ का वन क्षेत्र थोड़ा भिन्न है। हरे बारबेट की मीठी कूक अन्य स्थानों परयदा-कदा ही सुनाई देती है किंतु आबू की घाटियां इसकी कूक से सदैव गुंजारित रहती हैं।

    पूरे प्रदेश में घास के मैदान स्थित हैं जिनमें दुर्लभ फ्लोरिकन पक्षी दिखाई देता है। यह पक्षी वर्षा ऋतु में प्रजनन के लिए राजस्थान आता है। घास के मैदानों में विभिन्न प्रकार के लार्क पक्षी पाये जाते हैं। इन पक्षियों के पीछे कई तरह के शिकारी पक्षी भी राजस्थान खिंचे चले आते हैं। कोटा के निकट सोरसन, चूरू में तालछापर, अजमेर के पास सौंकलिया, राजस्थान नहर क्षेत्र एवं जैसलमेर-बाड़मेर के सेवण घास के मैदानों में शिकारी पक्षियों की गतिविधियाँ देखी जाती हैं। बीकानेर, जोधपुर, जैसलमेर, चुरू, बाड़मेर जिलों में कुछ किलोमीटर की दूरी में ही कई शिकारी पक्षी देखे जा सकते हैं। राज्य में स्थित झीलों, तालाबों और नमभूमियों में जल पक्षियों की विभिन्न प्रजातियां देखी जाती हैं। घना, बन्ध बरेठा, सीलीसेढ़, जयसमन्द, मानसरोवर, कूकस, कालख, आकेड़ा, बन्ध, बुचारा, चांदसेन, आनासागर, फाईसागर, भेजा करेरी, पीछोला, राजसमन्द, फतहसागर, बड़ी का तालाब, सरदार समन्द, आलनिया, अकेड़ा, डुगरी, बस्सी आदि झीलों में सैंकड़ों प्रकार के पक्षी निवास एवं प्रवास करते हैं। इनमें जांघिल, छोछिल, बगुले, पनकौवे, पनडुब्बी, सारस, चम्मच चोंच, किलकिला, तेहरी, लगलग, हवासिल, हंस, सुर्खाब, जलमुर्गी प्रमुख हैं।

    अरावली के पश्चिम में स्थित जोधपुर, जैसलमेर, नागौर, बाड़मेर, बीकानेर एवं चूरू जिले थार मरूस्थल के अंतर्गत आते हैं। पाली, जालोर, अजमेर, हनुमानगढ़, गंगानगर, सीकर, झुंझुनूं आदि जिलों के कुछ भाग भी रेगिस्तानी हैं। इस मरूस्थल में चलायमान रेत के टीले, पर्वतीय चट्टानें, सेवण घास के मैदान, मीठे एवं खारे पाली की झीलें तथा तालाब स्थित हैं। इस क्षेत्र में गोणावण, तिलोर, तीतर, मोर आदि पक्षी पाये जाते हैं। शिकारी पक्षियों की उपस्थिति में इस क्षेत्र का पूरे देश में कोई मुकाबला नही हैं। कई तरह के गरुड़, बाज, चिड़ीमार, लगड़ आदि शिकारी पक्षी देखे जा सकते हैं। विभिन्न प्रजातियों के बटबड (सैण्डग्राउज) भी उल्लेखनीय हैं। इम्पीरियल सेन्डग्राउज के लिए बीकानेर का गजनेर अभयारण्य विश्व प्रसिद्ध है। सूर्योदय से लगभग 90 मिनट पश्चात् इनके बड़े-बड़े झुण्ड गजनेर झील में जल पीने आते हैं।

    सामान्य सारसों एवं कुरजां पक्षियों का जमावड़ा भी देखते ही बनता है। फलोदी के पास खींचन गांव में प्रवासी कुरजां पक्षियों का जमघट देखने योग्य है। ये पक्षी हजारों की संख्या में प्रतिवर्ष आते हैं तथा लगभग चार-पांच माह रुक कर मार्च में शीत देशों को लौट जाते हैं। इंदिरा गांधी नगर परियोजना से लाखों हैक्टर भूमि में खेती एवं वृक्षारोपण होने से इस क्षेत्र में अनाज तथा कीट-पतंगों की उपलब्धता में वृद्धि हुई है। इस कारण यहाँ पक्षियों की संख्या तथा प्रजातियों में भी वृद्धि हुई है।

    पक्षी केवल शोभा, मनोरंजन अथवा मांसाहार के लिये उपलब्ध निरीह प्राणीमात्र नहीं हैं अपितु ये हमारे जीवन के अभिन्न अंग और उपयोगी साथी हैं। हानिकारक कीटों के विनाशक के रूप में ये हमारी फसलों की रक्षा करते हैं। उल्लू, बाज एवं अन्य शिकारी पक्षी जो मुर्गी आदि अन्य चिड़ियों को नुकसान पहुँचाते हैं और इसीलिए इन्हें नष्ट कर दिया जाता है, वास्तव में मनुष्य के सबसे हानिकारक शत्रु चूहों की संख्या को नियंत्रित करने में अपनी प्रभावी भूमिका का निर्वहन करते है। गिद्ध, चील और कौवे परिमार्जक के रूप में पर्यावरण को शुद्ध बनाये रखते हैं। फूलों के परागणकर्ता के रूप में मक्षिकाओं, तितलियों और कीटों का महत्व सर्वविदित है। इस कार्य में चिड़ियों का योगदान भी महत्वपूर्ण है। बीजों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाने में भी पक्षियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। राजस्थान के प्रमुख पक्षियों का संक्षेप में परिचय इस प्रकार से है-

    कठफोड़वा : यह अपनी मजबूत चोंच से पेड़ के तने में छेद कर देता है। यह उपर से काला-सफेद होता है तथा नीचे की तरफ सफेद रंग पर भूरी धारियां होती हैं। पेट से पूंछ तक का भाग लाल रंग का होता है। नर पक्षी में कलंगी पर भी लाल रंग होता है।

    किलकिला : लाल चोंच, भूरे सिर और नीले पंखों वाला यह सुन्दर पक्षी मछली, टिड्डे और मेंढ़क के बच्चे खाता है। इसे किंगफिशर भी कहते हैं।

    कुरजां : कुरजां राजस्थान में देखा जा सकने वाला एक और अद्भुत पक्षी है। सारस जाति का यह पक्षी यूरोप के दक्षिणी-पश्चिमी भाग, काला सागर, पौलेण्ड, वारसा, यूक्रेन, कजाकिस्तान, उत्तरी दक्षिणी अफ्रीका तथा मंगोलिया, लीबिया, बसरा, फारस, अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान आदि देशों को पार करते हुए भारत भूमि पर कुछ काल के लिये प्रवास करने आते हैं। भरतपुर के घाना पक्षी विहार, उदयपुर की झीलों, जोधपुर जिले के खींचन गाँव, बीकानेर जिले की गजनेर झील तथा जालोर जिले के भोरड़ा तालाब सहित लगभग पूरे राजस्थान के तालाबों में इन्हें शीतकाल में हजारों की संख्या में देखा जा सकता है। तालाबों व झीलों में प्राप्त वनस्पति तथा जलीय जीवों के अतिरिक्त यहाँ बड़ी संख्या में उपलब्ध कैल्शियम के कंकर इनका प्रमुख आहार हैं। मारवाड़ में इस पक्षी को विरहणी स्त्रियों का संदेशवाहक माना गया है। यहाँ के लोकगीतों में इस पक्षी की मनुहार करते हुए स्त्रियां अपने पति से मिलाने में सहायक होने का अनुरोध करती हैं- 'कुरजां ए म्हारो भंवर मिला दीजै।'अर्थात् कुरजां पक्षी तुम मुझे मेरा प्रिय मिलवा दो। राजस्थान के गाँव-गाँव में यह गीत सुना जा सकता है।

    खंजन : काले और सफेद रंग का यह पक्षी जल के आसपास मिलता है। इसका मुख्य आहार जल के पास मिलने वाले जीव हैं। यह अपनी लम्बी पूंछ को उपर-नीचे हिलाता रहता है।

    गोडावण : यह पक्षी कभी सम्पूर्ण भारतीय उप महाद्वीप में पाया जाता था किंतु अत्यधिक शिकार होने के कारण अब यह केवल पश्चिमी राजस्थान में ही बचा है। इसे राज्य पक्षी घोषित किया गया है।

    चातक : सुन्दर और सफेद-काले रंग के इस पक्षी के सिर पर कलंगी लगी होती है। यह बरसात के दिनों में अधिक दिखाई देता है। कोयल परिवार के इस पक्षी की 'पीयू-पीयू'की आवाज वर्षा ऋृतु के आगमन का संकेत है। यह अपने अण्डे अन्य पक्षियों के घोंसलों में रखता है।

    जंगली मुर्गा : यह पर्णपाती तथा सदाबहार दोनों तरह के जंगलों, मैदानों और पहाड़ी क्षेत्रों में पाया जाता है। धूसर धारियों वाले नर पक्षी की दुम हंसियाकार और धात्विक काले रंग की तथा मादा पक्षी की दुम लाल होती है। अनाज, डंठल, कन्द, बेरी, दीमक आदि कीट इसका मुख्य भोजन हैं। जंगली मुर्गे माउण्ट आबू अभयारण्य एवं कुम्भलगढ़ अभयारण्य में भी स्वच्छन्द विचरण करते देखे जा सकते हैं।

    जांघिल : इसकी चोंच लम्बी, भारी और पीले रंग की होती है। सफेद पंखों में उपर चमकीले हरे काले निशान और पास-पास धारियाँ होती हैं। वक्ष से गुजरती हुई एक काली पट्टी होती है। कंधों के आसपास तथा पंखों में कुछ गुलाबी अंश दिखाई देते हैं। यह अधिकांश समय कुछ झुकी हुई खड़ी रहती है।

    दर्जिन : हरे रंग के इस पक्षी की चोंच नुकीली होती है। इसके सिर पर कत्थई रंग का धब्बा होता है। आकार में छोटा होते हुए भी इसकी आवाज तेज होती है। यह नुकीली चोंच की सहायता से पत्तियों की सिलाई करके अपना घोंसला बनाती है। दर्जी की तरह सिलाई करने से इसे दर्जिन पक्षी कहते हैं।

    धनेश : धूसर रंग और लम्बी पूंछ वाले इस पक्षी की चोंच बड़ी विचित्र होती है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे एक चोंच पर दूसरी चोंच लगी हो। यह प्रायः पीपल, बरगद आदि बड़ें पेड़ों पर बैठा रहता है और इन्ही पेड़ों के फल खाता है।

    नाचन : काले और सफेद रंग के इस पक्षी का आकार बुलबुल से छोटा एवं आवाज प्रसन्नतादायक होती है। प्रायः यह अपनी लम्बी पूंछ को पंखे की तरह फैला लेता है। यह उड़ते हुए कीड़ों को पकड़ने के लिए हवा में कलाबाजियां खाता है।

    नीलकंठ : जब यह बैठा होता है तो यह सादे रंगों वाला प्रतीत होता है किन्तु उड़ते समय इसके पंख नीले दिखाई देते हैं। यह किसानों का मित्र है क्योंकि खेती को नुकसान पहुँचाने वाले जीवों को खाकर नष्ट कर देता है।

    पतरिंगा : इस पक्षी की हरे रंग के पूंछ से सुईं जैसी दो लम्बी संरचनाएं निकली रहती हैं। यह प्रायः किसी टहनी अथवा बिजली के तार पर बैठा रहता है। जैसे ही कोई कीड़ा उड़ता दिखता है, यह उसे उड़कर पकड़ लेता है और अपनी जगह पर आकर उसे मारकर खा जाता है।

    फूलचुकी : सनबर्ड से छोटी यह चंचल चिड़िया जैतूनी भूरे रंग की होती है। छोटी पतली और कुछ मुड़ी हुई चोंच वाली इस चिड़िया का मुख्य भोजन हानिकारक पौधे हैं।

    बया : यह पक्षी अपने कलात्मक घोंसले के लिए प्रसिद्ध है।

    भुजंगा : द्विशाखित पूंछ वाले इस पक्षी का रंग काला होता है। इसकी उड़ने की कला देखने योग्य है। यह उड़ते-उड़ते ही कीड़ों-मकोड़ों को पकड़ लेता है। अपने घोंसले के पास बड़े पक्षियों के आने पर यह उन्हें भगाकर ही दम लेता है, इसलिए इसे कोतवाल के नाम से भी जाना जाता है।

    लग्गर : राख जैसा भूरा बाज जिसके सफेद निचले भाग में भूरी धारियां होती हैं। ऊपर उड़ते समय नीचे से देखने पर सफेद वक्ष एवं नुकीले पंखों के निचले भाग में भूरी और सफेद रचना। उड़ते हुए शिकार पर झपट्टा मारने एवं उनका पीछा करने में इसके जोड़े मिलकर काम करते हैं।

    लव्वा : नर ऊपर से गेहुंआ-भूरा जिसमें काले, धूमिल पीले धब्बे तथा धारियां होती हैं। मादा का पिछला हिस्सा गुलाबी और धूमिल पीला होता है। प्रायः झुण्ड में रहने वाली सैंकड़ों चिड़ियाएं किसी खतरे के निकट आने पर पंख फड़फड़ाती हुई विभिन्न दिशाओं में उड़ जाती हैं और शीघ्र ही फिर से एकत्रित हो जाती हैं।

    शाह बुलबुल : वयस्क नर का रंग चांदी जैसा सफेद, सिर पर काली कलंगी तथा दुम में दो लम्बे फीते जैसे पंख होते हैं। मक्खियों को पकड़ने के लिए जब यह हवा में कलाबाजियां खाती है तो यह दृश्य बहुत रोमांचक होता है।

    शक्करखोरा : इसका आकार पर्पल सनबर्ड के बराबर होता है। उपरी भाग और वक्ष चमकते हुए गहरे लाल, हरे और बैंगनी रंग का, निचला भाग पीला तथा पिछली पीठ नीली-बैंगनी होती है। यह फूलों का मधुरस चूसता है और पर-परागण करता है।

    शाहबाज : यह दुबला-पतला जंगली ईगल है जिसके शरीर पर कई रंग अव्यवस्थित रूप से दिखाई देते हैं। आमतौर पर ऊपर भूरा, नीचे काला होता है। वक्ष पर चाकलेटी रंग की धारियां होती हैं। जंगल में किसी बड़े पेड़ की पत्तियों के बीच किसी शाखा पर बैठकर जंगल फाउल, फ्रीजेन्ट खरगोश तथा अन्य जानवरों पर बहुत तेजी से झपट्टा मार कर शिकार को पंजे में पकड़कर ले जाता है।

    शिकरा : हल्के शरीर, ऊपर से राख जैसी नीली-धूसर रंग वाली इस चिड़िया का मुख्य भोजन छिपकली, चूहे, गिलहरी तथा अन्य चिड़ियाएं हैं। यह शिकार को सम्भलने से पहले ही झपट कर पकड़ लेती है।

    सेण्डग्राउज : पीलापन लिये हुये बलुई भूरी, नुकीली दुम, वक्ष में एक पतली काया आड़ी पट्टी, उदर का रंग भूरापन लिये हुए काला होता है। कपोल, चिबुक और कण्ठ फीके पीले रंग के तथा तेज सीधी उड़ान के साथ-साथ दो स्वर वाली विशेष प्रकार की ध्वनि इसकी प्रमुख पहचान है।

    सर्प पक्षी : इस जल पक्षी की पीठ पर रजत धूसर रंग की लकीरें होती हैं। चोंच नुकीली और कटाराकार होती है। तैरते समय इसका पूरा शरीर जल में रहता है। केवल पतली सर्प जैसी ग्रीवा सतह के उपर हिलती-डुलती दिखाई देती है। इसीलिये इसे सर्प पक्षी कहते हैं। यह तेज झटके से चोंच बढ़ाकर शिकार को दबोच लेता है।

    सारस : यह आकार में काफी बड़ी, लम्बी और धूसर रंग की होती है। इसके पैर लम्बे तथा लाल रंग के होते हैं। यह जोड़े के रूप में मिलती है।

    हुदहुद : बादामी रंग के इस पक्षी की पूंछ और पंखों पर काली-सफेद धारियां होती हैं। इसकी चोंच लम्बी और घुमावदार होती है। इसके सिर पर पंखे जैसी कलंगी होती है। कीड़े-मकोड़े इसका मुख्य भोजन हैं।

    राजस्थान में अबाबील, गजपांव, चुगद, टिटहरी, तरूपिक, तिलियर, थिरथिरा, पनडुब्बी, फाख्ता, बसंतगौरी, बुलबुल, भट्टड़, महोक, मैना, मोर, राबिन, सतभाई, सींखपर, सुरखाब, लोह सांरग, चमचा, हरियल आदि सैकड़ों किस्म के पक्षी पाये जाते हैं।

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