राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : प्रजामण्डल आंदोलन के प्रमुख नेता - अचलेश्वर प्रसाद शर्मा (मामा)
21.12.2021
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी - 178
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : प्रजामण्डल आंदोलन के प्रमुख नेता - अचलेश्वर प्रसाद शर्मा (मामा)
1. प्रश्न - प्रजामण्डल के किस नेता को मामा के नाम से जाना जाता है?
उतर - अचलेश्वर प्रसाद शर्मा को।
2. प्रश्न - अचलेश्वर प्रसाद शर्मा का जन्म कब एवं कहाँ हुआ?
उतर - ई. 1908 में जोधपुर के एक पुष्करणा परिवार में।
3. प्रश्न - अचलेश्वर प्रसाद शर्मा का मुख्य कार्यक्षेत्र क्या था?
उतर - पत्रकारिता एवं प्रजामण्डल आंदोलन।
4. प्रश्न- अचलेश्वर प्रसाद शर्मा ने किन आंदोलनों में भाग लिया?
उत्तर - ई.1930 में नमक सत्याग्रह में भाग लेने के कारण वे डेढ़ वर्ष जेल में रहे। अचलेश्वर प्रसाद ने बिजौलिया आंदोलन में भाग लिया। उन्हें बंदूक के कुंदों से पीटकर जेल में बंद कर दिया गया। ई.1932 में कांग्रेस के सत्याग्रह आंदोलन में आंदोलकारियों ने अचलेश्वरजी को ब्यावर में आमंत्रित करके सत्याग्रही जत्थे का नेतृत्व करने के लिये पहला डिक्टेटर चुना। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। ई.1937 में वे जोधपुर राज्य प्रजा मंडल के अध्यक्ष बने। जोधपुर राज्य की पुलिस ने उन्हें जेल में डाल दिया। वे ढाई साल तक जेल में रहे।
5. प्रश्न - अचलेश्वर प्रसाद शर्मा किन अखबारों से जुड़े?
उतर - ई.1928 से 1937 तक उन्होंने ब्यावर से प्रकाशित तरुण राजस्थान में और बाद में आगरा के विख्यात पत्र सैनिक में कार्य किया।
6. प्रश्न - अचलेश्वर प्रसाद शर्मा ने कौनसा प्रसिद्ध समाचार पत्र आरंभ किया?
उतर - ई.1940 में जोधपुर से प्रजासेवक।
7. प्रश्न - अचलेश्वरजी ने किस राष्ट्रीय नेता से आग्रह किया कि वे सागरमल गोपा को जेल से छुड़ायें।
उत्तर - 23 मई 1945 को प्रजासेवक में उन्होंने जैसलमेर राज्य की जेल में बंद सागरमल गोपा के बारे में एक लेख ‘गोपाजी के जेल जीवन की दर्दनाक कहानी’ शीर्षक से लिखा तथा नेताजी सुभाषचंद्र बोस को आमंत्रित किया कि वे जैसलमेर आकर गोपाजी को जेल से छुड़वायें। इस पर सरकार ने अचलेश्वरजी को जेल में डाल दिया। सुभाष बाबू जोधपुर आये और उन्होंने जेल में जाकर अचलेश्वरजी से भेंट की।
8. प्रश्न - भारत की किस प्रधानमंत्री ने अचलेश्वरजी को जोधपुर आकर 30 हजार रुपयों की थैली भेंट की?
पुरानी कहावत है कि मनुष्य अपने पर्यावरण की उपज है। इसी कारण पर्यावरण एवं संस्कृति का सम्बन्ध अटूट होना एक सहज स्वाभाविक बात है। पर्यावरण और संस्कृति एक दूसरे से असंपृक्त, विरक्त अथवा शत्रुवत् होकर नहीं रह सकतीं। इनमें मित्रता का भाव होना आवश्यक है। पर्यावरण एवं संस्कृति के अटूट सम्बन्ध को समझने के लिये, इनका निर्माण करने वाले मूल तत्त्वों को समझना आवश्यक है।
पर्यावरण का निर्माण करने वाले मूल तत्व
प्राकृतिक शक्तियाँ
पृथ्वी के धरातल पर तथा धरातल के चारों ओर जो भी दृश्य एवं अदृश्य शक्ति अथवा वस्तु उपस्थित है, उस सबसे मिलकर धरती के पर्यावरण का निर्माण होता है। प्राकृतिक शक्तियाँ- आकाश, वायु, अग्नि, जल और भूमि हमारे पर्यावरण की प्राथमिक निर्माता हैं, यहाँ तक कि गुरुत्वाकर्षण शक्ति भी और दूसरे ग्रहों एवं उपग्रहों द्वारा धरती के प्रति लगाये जाने वाले आकर्षण एवं विकर्षण बल भी। ये प्राकृतिक शक्तियाँ एक दूसरे को गति, स्वरूप एवं संतुलन प्रदान करती हैं जिनके कारण वायु मण्डल, भू-मण्डल तथा जल मण्डल बनते हैं।
इन्हीं प्राकृतिक शक्तियों के समन्वय से सर्दी, गर्मी, वर्षा, वायु संचरण, वायु में आर्द्रता एवं ताप का संचरण, आंधी, चक्रवात, मानसून तथा बिजली चमकने जैसी प्राकृतिक घटनाएं जन्म लेती हैं। ये प्राकृतिक शक्तियाँ ही परस्पर सहयोग एवं समन्वय स्थापित करके वनस्पति जगत एवं जीव जगत का निर्माण करती हैं।
वनस्पति जगत
धरती पर पाया जाने वाला वनस्पति जगत- यथा पेड़-पौधे, घासें, वल्लरियां, फंगस, कवक; नदियों, तालाबों एवं समुद्रों में मिलने वाली काई, घासें एवं विविध प्रकार की जलीय वनस्पतियां; पहाड़ों एवं मरुस्थलों में मिलने वाली वनस्पतियां, हमारे पर्यावरण की द्वितीयक निर्माता हैं जो सम्पूर्ण जीव जगत का पोषण करती हैं। उसे ऑक्सीजन, भोजन, लकड़ी, ईंधन आदि प्रदान करती हैं यहाँ तक कि जलीय चक्र का निर्माण करके जीव जगत के लिये जल की उपलब्धता सुनिश्चित करती हैं। भूमि को ऊर्वरा शक्ति प्रदान करती हैं तथा धरातल पर बहने वाले जल को अनुशासन में बांधती हैं। जीव जगत जीव जगत यथा- मत्स्य, उभयचर, कीट, सरीसृप, पक्षी, पशु एवं मनुष्य जो कि इस पर्यावरण का निर्माण करने वाले आवश्यक तत्व तो हैं ही, साथ ही ये पर्यावरण के उपभोक्ता भी हैं। जो कुछ भी प्राकृतिक शक्तियों द्वारा निर्मित किया जाता है तथा वनस्पति जगत द्वारा उपलब्ध कराया जाता है, उस सबका उपभोक्ता जीव जगत ही है।
जीव जगत
में भी मनुष्य ऐसा प्राणी है जो जीव जगत द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले एवं उपलब्ध कराये जाने वाले संसाधनों को अंतिम उपभोक्ता की तरह प्रयुक्त करता है। यही कारण है कि मनुष्य इस प्रकृति का पुत्र होते हुए भी, प्रकृति में उपलब्ध हर वस्तु का स्वामी है।
संस्कृति का निर्माण करने वाले मूल तत्व
संस्कृति शब्द का निर्माण मूलतः 'कृ' धातु से हुआ है जिसका अर्थ है करना। इसके पूर्व सम् उपसर्ग तथा घात (ति) प्रत्यय लगने से लगने से संस्कार शब्द बनता है जिसका अर्थ- पूरा करना, सुधारना, सज्जित करना, मांज कर चमकाना, शृंगार, सजावट आदि हैं। इसी विशेषण की संज्ञा 'संस्कृति' है। वाजनसनेयी संहिता में 'तैयार करना' या 'पूर्णता' के अर्थ में यह शब्द आया है तथा ऐतरेय ब्राह्मण में 'बनावट' या 'संरचना' के अर्थ में इसका प्रयोग हुआ है। महाभारत में कृष्ण के एक नाम के रूप में इस शब्द का प्रयोग हुआ है। हिन्दी साहित्य कोश के अनुसार संस्कृति शब्द का अर्थ साफ या परिष्कृत करना है। वर्तमान में संस्कृति शब्द अंग्रेजी के कल्चर (CULTURE) शब्द का पर्याय माना जाता है। संस्कृति शब्द का व्यापक अर्थ समस्त सीखे हुए व्यवहारों अथवा उस व्यवहार का नाम है जो सामाजिक परम्परा से प्राप्त होता है। इस अर्थ में संस्कृति को सामाजिक प्रथा का पर्याय भी कहा जाता है। संकीर्ण अर्थ में संस्कृति का आशय 'सभ्य' और 'सुसंस्कृत' होने से है। रामधारीसिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय में लिखा है- 'संस्कृति जिंदगी का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है, जिसमें हम जन्म लेते हैं।'
निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि किसी भी क्षेत्र में निवास करने वाले मनुष्यों की जीवन शैली, उस क्षेत्र की संस्कृति का निर्माण करती है। उस क्षेत्र में निवास करने वाले मनुष्यों की आदतें, विचार, स्वभाव, कार्य-कलाप, रीति रिवाज, परम्पराएं, खान-पान, वस्त्र-विन्यास, तीज-त्यौहार, खेल-कूद, नृत्य-संगीत, चाक्षुष कलाएं, जन्म-मरण के संस्कार एवं विधान आदि विभिन्न तत्व उस क्षेत्र की संस्कृति को आकार देते हैं।
संस्कृति का मनुष्य जाति पर प्रभाव
संस्कृति की शास्त्रीय व्याख्या के अनुसार मनुष्य आज जो कुछ भी है, वह संस्कृति की देन है। यदि मनुष्य से उसकी संस्कृति छीन ली जाये तो मनुष्य श्री-हीन हो जायेगा। विद्वानों का मानना है कि आज मनुष्य इसलिये मनुष्य है क्योंकि उसके पास संस्कृति है। भारतीय दर्शन के अनुसार संस्कृति मनुष्य की आत्मोन्नति का मापदण्ड भी है और आत्माभिव्यक्ति का साधन भी। संस्कृति चेतन धर्म है। संस्कृति को केवल बाह्य रूप या क्रिया ही नहीं मान लेना चाहिये। उसका आधार जीवन के मूल्यों में है और पदार्थों के साथ स्व को जोड़ने की सूक्ष्म कला में है। श्यामचरण दुबे ने लिखा है, संस्कृति के माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन की पूर्ण पृष्ठभूमि में अपना स्थान पाता है और संस्कृति के द्वारा उसे जीवन में रचनात्मक संतोष के साधन उपलब्ध होते हैं।
पर्यावरण एवं संस्कृति का सम्बन्ध
पर्यावरण एवं संस्कृति का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है। अर्थात् दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं। एक के बदलने से दूसरा स्वतः बदल जाता है। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि सृष्टि के आरम्भ में पर्यावरण सभ्यता को जन्म देता है। दूसरे चरण में सभ्यता, संस्कृति को जन्म देती है तथा तीसरे चरण में संस्कृति पर्यावरण को संवारती या विनष्ट करती है।
पर्यावरण का संस्कृति पर प्रभाव
किसी क्षेत्र के पर्यावरण का उस क्षेत्र की संस्कृति पर गहरा प्रभाव होता है। उदाहरण के लिये अत्यधिक ठण्डे एवं अत्यधिक गर्म प्रदेशों के लोग अपने घरों को इस प्रकार बनायेंगे कि उनके घरों में वायु का सीधा प्रवेश न हो जबकि समशीतोष्ण जलवायु युक्त क्षेत्रों में रहने वाले लोग अपने घरों को इस प्रकार बनायेंगे कि उनके घरों में वायु का सीधा और निर्बाध प्रवेश हो। ठण्डे प्रदेशों में निवास करने वाले लोग अपने खान-पान में मांस एवं मदिरा को अधिक मात्रा में सम्मिलित करना पसंद करेंगे जबकि गर्म प्रदेश के निवासी अपने खान-पान में वनस्पति, दूध-दही एवं छाछ को अधिक सम्मिलित करेंगे। ठण्डे प्रदेश के लोग ऊनी, मोटे और चुस्त कपड़े पहना पसंद करेंगे जबकि गर्म प्रदेश के लोग सूती, पतले तथा ढीले कपड़े पहनेंगे। गर्म प्रदेश के लोग चर्च में जूते पहनकर जाना पसंद करेंगे जबकि गर्म प्रदेश के लोग अपने जूते मंदिरों एवं मस्जिदों से बाहर उतारना पसंद करेंगे। बाह्य पर्यावरण के कारण अपनाई गई खान-पान एवं रहन-सहन की आदतों का मनुष्य की कार्य क्षमता एवं उसकी बौद्धिक क्षमता पर गहरा असर होता है। जिन लोगों के भोजन में मदिरा का समावेश होगा तथा जो चुस्त कपड़े पहनेंगे, वे अधिक समय तक काम करेंगे किंतु वे स्वभाव से उग्र होंगे तथा भौतिक प्रगति पर अधिक ध्यान देंगे। जबकि जिन लोगों के भोजन में दही एवं छाछ का समावेश होगा तथा कपड़े ढीले होंगे, उनका शरीर तुलनात्मक दृष्टि से कम समय तक काम कर सकेगा किंतु उनकी प्रवृत्ति शांत होगी तथा वे आध्यात्मिक प्रगति पर अधिक ध्यान देंगे।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मानव और प्रकृति के बीच के सम्बन्धों की प्रतिक्रिया केवल भौतिक ही नहीं होती, अपितु बौद्धिक भी होती है।
संस्कृति का पर्यावरण पर प्रभाव
जिस प्रकार पर्यावरण का संस्कृति पर प्रभाव होता है, उसी प्रकार संस्कृति का पर्यावरण पर गहरा प्रभाव होता है। किसी भी भू-भाग में रहने वाले मानव समुदाय की आदतें, स्वभाव, प्रवृत्तियाँ, रीति-रिवाज, परम्पराएं, धार्मिक विश्वास, तीज-त्यौहार, पर्व, अनुष्ठान आदि विभिन्न तत्व, संस्कृति के ऐसे अंग हैं जो धरती के पर्यावरण को गहराई तक प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिये राजस्थान के सामंती परिवेश में शेरों, शूकरों एवं हरिणों का शिकार एक परम्परा के रूप में प्रचलित रहा। इसका परिणाम यह हुआ कि जंगल असुरक्षित हो गये और भारी मात्रा में मनुष्यों द्वारा सहज रूप से काट कर नष्ट कर दिये गये। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पनपी उपभोक्तावादी संस्कृति, तेजी से बढ़ती जनसंख्या, बेरोजगारी का प्रसार तथा वनों के प्रति आदर के अभाव ने जंगलों को तेजी से गायब किया। आज जहाँ भारत में जहाँ 23.28 प्रतिशत जंगल हैं, वहीं राजस्थान में केवल 9.54 प्रतिशत भू-भाग पर जंगल बचे हैं।
नॉर्थ-वेस्ट प्रोविंस के हिस्से के रूप में अजमेर-मेरवाड़ा प्रांत में विभिन्न राजनैतिक एवं प्रशासकीय कठिनाइयों को अनुभव किया गया। इसलिये ई.1871 में अजमेर-मेरवाड़ा को नया एवं नॉन रेग्यूलेशन प्रोविंस घोषित किया गया। अंग्रेज अधिकारियों द्वारा कहा गया कि अजमेर प्रांत को प्रशासनिक दक्षता के मॉडल के रूप में विकसित किया जायेगा। साथ ही यह भी विचार किया गया कि इस प्रांत का प्रशासनिक व्यय, प्रांत से ही प्राप्त राजस्व में से किया जायेगा। यद्यपि अजमेर-मेरवाड़ा प्रांत की स्थापना के समय ब्रिटिश सरकार द्वारा कहा गया कि नया प्रोविंस प्रशासनिक दक्षता को बढ़ाने के लिये बनाया जा रहा है तथापि वास्तविकता यह थी कि ब्रिटिश सरकार एजीजी की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करना चाहती थी।
मार्ले मिण्टो सुधार
ई.1911 में देश में मार्ले मिण्टो सुधार लागू किये गये जिनके कारण ब्रिटिश भारत के प्रांतों के प्रशासन में बड़ा परिवर्तन आया किंतु अजमेर-मेरवाड़ा के प्रशासन में कोई परिवर्तन नहीं किया गया।
मॉण्टेग्यू चैम्सफोर्ड सुधार योजना
ई.1924 में मॉण्टेग्यू चैम्सफोर्ड सुधार योजना के अंतर्गत भी अजमेर-मेरवाड़ा के प्रशासनिक ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं किया गया। एक मात्र सुधार यह हुआ कि अजमेर-मेरवाड़ा का एक प्रतिनिधि केन्द्रीय विधान सभा (सेन्ट्रल-लेजिस्लेटिव एसेम्बली) में भेजे जाने की स्वीकृति दी गई।
अजमेर में ज्युडीशियल मेम्बर नियुक्त
ई.1925 में अजमेर-मेरवाड़ा के लिये नवीन म्युन्सिपेलिटीज रेग्यूलेशन लागू किया गया। ई.1925 में हरिभाऊ उपाध्याय ने अजमेर में सस्ता साहित्य मण्डल की स्थापना की। ई.1926 में उपाध्याय ने अजमेर की राजनीति में प्रवेश किया। ई.1926 में अजमेर-मेरवाड़ा के लिये एक ज्युडीशियल मेम्बर की नियुक्ति की गई तथा मुख्य आयुक्त की न्यायिक शक्तियां समाप्त कर दी गयीं।
साइमन कमीशन
ई.1927 में भारत में साइमन कमीशन आया। इस कमीशन द्वारा दी गई रिपोर्ट में कहा गया कि अजमेर-मेरवाड़ा में किसी प्रकार के संवैधानिक परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है। इसके साथ ही आयोग ने भारत सरकार को सिफारिश की कि अजमेर-मेरवाड़ा से जो पहले निर्वाचित प्रतिनिधि केन्द्रीय विधानसभा में भेजा जाता था, अब वह चीफ कमिश्नर द्वारा मनोनीत किया जाये। इस रिपोर्ट की अजमेर में तीव्र प्रतिक्रिया हुई।
भारत सरकार अधिनियम 1935
ई.1935 में नया भारत सरकार अधिनियम पारित हुआ। इसका तृतीय भाग 1 अप्रेल 1937 से लागू किया गया। इसके बाद अजमेर के प्रशासनिक ढांचे में एक बार फिर परिवर्तन आया। अजमेर-मेरवाड़ा को भारत सरकार के पोलिटिकल विभाग से हटाकर, गृह विभाग के अधीन कर दिया गया क्योंकि नये संविधान के अनुसार भारत सरकार के पोलिटिकल विभाग का प्रशासनिक नियंत्रण क्राउन प्रतिनिधि वायसराय के अधीन दे दिया गया था।
नये अधिनियम के अनुसार क्राउन प्रतिनिधि (वायसरॉय) को ब्रिटिश भारत के मामलों में बोलने का अधिकार नहीं रह गया था। यह व्यवस्था भी की गई कि भविष्य में अजमेर के कमिश्नर एवं असिस्टेण्ट कमिश्नर यूनाइटेड प्रोविंस सिविल सेवा के अधिकारी होंगे। इनकी नियुक्ति तीन साल के लिये होगी तथा ये एजेण्ट टू दी गवर्नर जनरल फॉर राजपूताना के नीचे काम करेंगे। एजेण्ट टू दी गवर्नर जनरल का पदनाम बदलकर रेजीडेण्ट इन राजपूताना तथा चीफ कमिश्नर अजमेर मेरवाड़ा कर दिया गया।
भारत सरकार अधिनियम 1935 में यह प्रावधान किया गया था कि जब संघीय संविधान का निर्माण होगा, तब अजमेर-मेरवाड़ा तथा पांठ-पीपलोदा के लिये संयुक्त रूप से, संघीय विधान सभा में एक सदस्य तथा संघीय विधान परिषद में एक सदस्य का प्रतिनिधित्व होगा। यह भी प्रावधान किया गया कि भविष्य में अजमेर प्रांत के लिये कानून का निर्माण गवर्नर जनरल की परिषद के स्थान पर संघीय विधान द्वारा किया जायेगा। इस समय अजमेर-मेरवाड़ा में जो भी कानून चल रहे थे उन्हें किसी संवैधानिक संस्था द्वारा लागू नहीं किया गया था।
1 अप्रेल 1937 से अनुसूचित जिला अधिनियम (शिड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट्स एक्ट) अप्रभावी बना दिया गया। 1 अप्रेल 1937 से पहले अजमेर मेरवाड़ा क्षेत्र का पुलिस बल, राजपूताना की रेलवे भूमि तथा आबू में पट्टे की जमीनें एजेण्ट टू दी गवर्नर जनरल ऑफ राजपूताना के अधीन हुआ करती थीं। 1 अप्रेल 1937 से ये सारे विषय चीफ कमिश्नर ऑफ अजमेर-मेरवाड़ा के प्रशासनिक नियंत्रण में दे दिये गये। ई.1947 तक अजमेर में लगभग यही संवैधानिक व्यवस्था चलती रही।
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : प्रजामण्डल आंदोलन के प्रमुख नेता - काली बाई
21.12.2021
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी - 179
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : प्रजामण्डल आंदोलन के प्रमुख नेता - काली बाई
1. प्रश्न - कालीबाई का जन्म कहाँ हुआ था?
उतर - डूंगरपुर राज्य के रास्तापाल गाँव के भील परिवार में।
2. प्रश्न - पुलिस कालीबाई के शिक्षक नाना भाई खांट को पकड़ने क्यों आई थी?
उतर - गोकुलभाई भट्ट के निर्देश पर नानाभाई खांट वनवासी बच्चों में शिक्षा का प्रसार कर रहे थे। नानाभाई ने अपने घर में ही स्कूल खोल रखा था। महारावल ने इस कार्य पर रोक लगा रखी थी।
3. प्रश्न - नाना भाई की मृत्यु कैसे हुई?
उतर - 19 जून 1947 को डूंगरपुर के मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक ने नानाभाई के घर में घुसकर नानाभाई तथा स्कूल के अन्य शिक्षक सेंगाभाई को लाठियों से पीटना आरंभ कर दिया। इस दौरान बंदूक का कुंदा जोर से लग जाने से नानाभाई की वहीं मृत्यु हो गयी।
4. प्रश्न - कालीबाई ने पुलिस अधिकारियों को क्यों ललकारा?
उतर - पुलिस ने सेंगाभाई की कमर में रस्सा बांधकर एक गाड़ी के पीछे बांध दिया और उन्हें घसीटने लगे। कालीबाई ने उन्हें ललकारा कि मेरे गुरुजी को कहाँ ले जा रहे हो!
5. प्रश्न - जब पुलिस ने कालीबाई की बात नहीं सुनी तो कालीबाई ने क्या किया?
उतर - कालीबाई ने उनकी धमकी की परवाह न करते हुए अपनी दांतली से उस मोटे रस्से को काट दिया जिससे सेंगा भाई बंधे हुए थे।
6. प्रश्न - कालीबाई की मृत्यु कैसे हुई?
उतर - जब कालीबाई ने पुलिस द्वारा सेंगाभाई की गिरफ्तारी का विरोध किया तो पुलिस ने अंधाधुंध गोलियां चला दीं। कालीबाई वहीं पर गिर पड़ी और 40 घण्टे तक जीवन मृत्यु का संघर्ष करते हुए मृत्यु को प्राप्त हुई।
7. प्रश्न - इस घटना के समय कालीबाई की आयु कितनी थी?
जिन समुदायों में प्रकृति के प्रति जिम्मेदारी का चिंतन किया जाता है, उस क्षेत्र की संस्कृति इस प्रकार विकसित होती है कि उससे पर्यावरण को कोई हानि नहीं पहुंचती। अपितु पर्यावरण की सुरक्षा होती है। भारत में वृक्षों, नदियों, समुद्रों तथा पर्वतों की पूजा करने से लेकर गायों को रोटी देने, कबूतरों एवं चिड़ियों को दाना डालने, गर्मियों में पक्षियों के लिये पानी के परिण्डे बांधने, बच्छ बारस को बछड़ों की पूजा करने, श्राद्ध पक्ष में कौओं को ग्रास देने, नाग पंचमी पर नागों की पूजा करने जैसे धार्मिक विधान बनाये गये जिनसे मानव में प्रकृति के प्रति संवेदना, आदर और कृतज्ञता का भाव उत्पन्न होता है। भारतीय संस्कृति में सादगी पर सर्वाधिक जोर दिया गया है। सादा जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति कभी भी अपनी आवश्यकताओं को इतना नहीं बढ़ायेगा कि पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े। संत पीपा का यह दोहा इस मानसिकता को बहुत अच्छी तरह व्याख्यायित करता है-
स्वामी होना सहज है, दुरलभ होणो दास।
पीपा हरि के नाम बिन, कटे न जम की फांस।।
पर्यावरण को क्षति पहुँचाने वाली संस्कृति
जिस संस्कृति में ऊर्जा की अधिकतम खपत हो, वह संस्कृति धरती के पर्यावरण में गंभीर असंतुलन उत्पन्न करती है। पश्चिमी देशों में विकसित उपभोक्तावादी संस्कृति, ऊर्जा के अधिकतम खपत के सिद्धांत पर खड़ी हुई है। इस संस्कृति ने धरती के पर्यावरण को अत्यधिक क्षति पहुँचाई है। इस संस्कृति का आधार एक ऐसी मानसिकता है जो मनुष्य को व्यक्तिवादी होने तथा अधिकतम वस्तुओं के उपभोग के माध्यम से स्वयं को सुखी एवं भव्यतर बनाने के लिये प्रेरित करती है। ऐसी संस्कृति में इस बात पर विचार ही नहीं किया जाता कि व्यक्तिवादी होने एवं अधिकतम सुख अथवा भव्यता प्राप्त करने की दौड़ में प्रकृति एवं पर्यावरण का किस बेरहमी से शोषण किया जा रहा है तथा उसके संतुलन को किस तरह से सदैव के लिये नष्ट किया जा रहा है। पश्चिमी देशों एवं अमरीका में विकसित फास्ट फूड कल्चर, यूज एण्ड थ्रो कल्चर तथा डिस्पोजेबल कल्चर, पर्यावरण को स्थाई रूप से क्षति पहुंचाते हैं।
भारत में प्रति व्यक्ति विद्युत उपभोग 778.71 किलोवाट तथा राजस्थान में प्रति व्यक्ति विद्युत उपभोग 736.20 किलोवाट है। इसके विपरीत, कनाडा में प्रति व्यक्ति विद्युत उपभोग 17,053 किलोवाट तथा अमरीका में 13,647 किलोवाट है जो कि राजस्थान की तुलना में क्रमशः 23.16 तथा 18.54 गुना अधिक है। अमरीका में प्रति व्यक्ति विद्युत उपभोग इतना अधिक है कि यदि पूरी दुनिया के लोग उसी औसत के अनुसार बिजली खर्च करें तो पूरी दुनिया के विद्युत संसाधन (कोयला, डीजल, नेफ्था, नेचुरल गैस आदि) मात्र 50 साल में चुक जायें। जिस लिविंग स्टैण्डर्ड के लिये अमरीका के लोगों को इतना गर्व है, यदि धरती के समस्त मनुष्य उस लिविंग स्टैण्डर्ड का उपयोग करें तो पूरी धरती के संसाधन मात्र 37 साल में चुक जायेंगे। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि पूरे विश्व में प्रति व्यक्ति विद्युत उपभोग का औसत 2,782 किलोवाट है। इसकी तुलना में राजस्थान में प्रति व्यक्ति विद्युत उपभोग लगभग एक चौथाई है।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि उपभोक्तावादी संस्कृति, धरती के पर्यावरण में भयानक असंतुलन उत्पन्न करती है। इस उपभोक्तावादी संस्कृति के विरोध में ईसा मसीह द्वारा आज से दो हजार साल पहले कही गई यह बात आज भी सुसंगत है 'सुईं के छेद में से ऊँट भले ही निकल जाये किंतु एक अमीर आदमी स्वर्ग में प्रवेश नहीं पा सकता।'
पर्यावरणीय संस्कृति एवं विनाशकारी संस्कृति के उदाहरण
प्रकृति के संसाधनों को क्षति पहुंचाये बिना उनका उपयोग करना, पर्यावरणीय संस्कृति का नियम है जबकि यूज एण्ड थ्रो कल्चर, डिस्पोजेबल कल्चर, उपभोक्तावादी मानसिकता एवं बाजारीकरण की प्रवृत्तियां पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वाली एवं विनाशकारी संस्कृति की प्रवृत्ति है। कागज की थैलियों, मिट्टी के सकोरों तथा पत्तों के दोनों का उपयोग पर्यावरणीय संस्कृति का उदाहरण हैं। क्योंकि ये तीनों ही, नष्ट होने के बाद फिर से उसी रूप में धरती को प्राप्त हो जाते हैं। जबकि पॉलिथीन कैरी बैग्ज, प्लास्टिक की तश्तरियां तथा थर्मोकोल के गिलास, यूज एण्ड थ्रो कल्चर का उदाहरण हैं क्योंकि इन वस्तुओं की सामग्री फिर कभी भी अपने मूल रूप में प्राप्त नहीं की जा सकती। फाउण्टेन इंक पैन का उपयोग पर्यावरणीय संस्कृति का उदाहरण है तो बॉल पॉइण्ट पैन डिस्पोजेबल कल्चर का उदाहरण है। नीम और बबूल की दांतुन पर्यावरणीय संस्कृति का उदाहरण है तो टूथपेस्ट और माउथवॉश का उपयोग उपभोक्तावादी एवं बाजारीकरण की संस्कृति का उदाहरण हैं। मल त्याग के बाद पानी से प्रक्षालन पर्यावरणीय संस्कृति है तो कागज का प्रयोग यूज एण्ड थ्रो कल्चर है। शेविंग के बाद केवल ब्लेड बदलना, पर्यावरण के लिये कम क्षतिकारक है जबकि पूरा रेजर ही फैंक देना, पर्यावरण के लिये अधिक विनाशकारी है।
भारत में किसी इंजन या मशीन के खराब हो जाने पर उसे ठीक करवाया जाता है और ऐसा लगातार तब तक किया जाता है जब तक कि उसे ठीक करवाना असंभव अथवा अधिक खर्चीला न हो जाये किंतु अमरीका का आम आदमी, कम्पयूटर खराब होते ही कूड़े के ढेर में, कार खराब होते ही डम्पिंग यार्ड में, घड़ी, कैलकुलेटर, सिलाई मशीन आदि खराब होते ही घर से बाहर फैंक देता है जिन्हें नगरपालिका जैसी संस्थाओं द्वारा गाड़ियों में ढोकर समुद्र तक पहुुंचाया जाता है। इससे समुद्र में प्रदूषण होता है तथा बड़ी संख्या में समुद्री जीव मर जाते हैं। एक आम भारतीय अपनी कार को तब तक ठीक करवाता रहता है जब तक कि उसे बेच देने का कोई बड़ा कारण उत्पन्न नहीं हो जाता किंतु उसे कभी भी कूड़े के ढेर या समुद्र में नहीं फैंका जाता। उसका पुर्जा-पुर्जा अलग करके किसी न किसी रूप में प्रयोग में लाने लायक बना लिया जाता है या फिर उसके मैटरीयल को रीसाइकिलिंग में डाल दिया जाता है। भारत में कबाड़ियों द्वारा घर-घर जाकर खरीदी जाने वाली अखबारी रद्दी और खाली बोतलें श्रम आधारित भारतीय संस्कृति के पूंजीवादी अमरीकी कल्चर से अलग होने का सबसे बड़ा प्रमाण हैं।
भारत भर के सरकारी एवं ग्रामीण क्षेत्र के विद्यालयों में छात्रों द्वारा किताबों को बार-बार प्रयोग में लाये जाने के लिये पुस्तकालयों के साथ-साथ बुक बैंक स्थापित किये जाते हैं। ये बुक बैंक छात्रों को अपनी पढ़ाई का व्यय नियंत्रण में रखने में सहायक होते हैं। इन बुक बैंक का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि देश को उन पुस्तकों के कागज एवं मुद्रण के लिये बार-बार पूंजी व्यय नहीं करनी पड़ती। इन बुक बैंक के साथ-साथ भारत में पुरानी पुस्तकें (सैकेण्ड हैण्ड बुक्स) खरीदने-बेचने का काम भी बड़े स्तर पर होता है। बड़े से बड़े धनी व्यक्ति को यह जानकारी होती है कि उनके शहर में पुरानी किताबें कहाँ खरीदी और बेची जाती हैं।
पुरानी किताबों से पढ़ना असुविधाजनक हो सकता है किंतु उन पर कम पूंजी व्यय करनी पड़ती है तथा कागज की बचत होती है। इसके विपरीत पूंजीवादी व्यवस्था में हर छात्र को स्कूल से ही पूरा बैग तैयार मिलता है जिसमें प्रत्येक किताब नयी होती है। इस प्रकार हर अभिभावक को अपने बच्चों की पुस्तकें खरीदने के लिये हर साल अधिक पूंजी व्यय करनी पड़ती है तथा देश को पुस्तकें छापने के लिये बड़े स्तर पर कागज की आवश्यकता होती है। दुर्भाग्यवश भारत के नगरीय क्षेत्रों में इसी पूंजीवादी व्यवस्था का प्रसार हो गया है। भारतीय रोटी को प्याज, लहसुन, चटनी, मिर्च, अचार, उबले हुए आलू तथा छाछ जैसी सस्ती चीजों के साथ खाया जा सकता है जबकि ब्रेड के लिये बटर और जैम की आवश्यकता होती है जो पर्यावरणीय संस्कृति की बजाय पूंजीवादी संस्कृति के उपकरण हैं।
राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति
राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति के मर्म को जानने से पहले हमें राजस्थान के पर्यावरणीय तत्त्वों अर्थात् राजस्थान के भूगोल, जलवायु, जल संसाधन, मिट्टियाँ, खनिज, वन, कृषि, पशुधन तथा मानव अधिवास के बारे में जानना आवश्यक होगा जिनकी चर्चा हम अगले अध्यायों में करेंगे।
ई.1860 में अयोध्या प्रसाद ने अजमेर से उर्दू भाषा का साप्ताहिक समाचार पत्र खैरख्वाह खालिक आरम्भ किया। यह आठ पृष्ठों का समाचार पत्र था। यह देश विदेश के विभिन्न समाचारों के साथ राजनैतिक लेख भी प्रकाशित करता था। इसकी गणना 19वीं शताब्दी में राजपूताने के महत्त्वपूर्ण समाचार पत्रों में की जा सकती है। यह ब्रिटिश नीतियों एवं ब्रिटिश जातिभेद की जमकर आलोचना करता था। ईसाई मिशनरियों द्वारा भारतीयों को बलपूर्वक ईसाई बनाने की नीति की भी इस समाचार पत्र ने जमकर भर्त्सना की। इस कारण कुछ समय पश्चात् ही इस समाचार पत्र पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
इमदाद साबरी ने लिखा था कि सरकार ने इस अखबार की स्वतंत्र नीति को बुरी दृष्टि से देखा। विद्रोह के बाद से समाचार पत्रों को स्वतंत्रता प्राप्त नहीं थी। इसलिये सरकार ने इसके प्रकाशन को बंद कर दिया। 19वीं शताब्दी में राजपूताना का यह प्रथम ब्रिटिश विरोधी समाचार पत्र था। इस कारण सरकार ने इसे बंद कर दिया। दूसरे पत्रों के बंद होने का कारण आर्थिक था न कि राजनैतिक। इसके सम्पादक अयोध्या प्रसाद अजमेर कॉलेज के विद्यार्थी थे तथा उन्हें अंग्रेजी भाषा का अच्छा ज्ञान था। उनकी भाषा सरल थी जिस पर हिन्दुस्तानी एवं अंग्रेजी का असर था। उन्होंने कुछ पुस्तकें भी लिखी थीं।
राजपूताना अखबार (ई.1869)
जनवरी 1869 में बूटासिंह ने अजमेर से साप्ताहिक समाचार पत्र 'राजपूताना अखबार' आरंभ किया। इसके सम्पादक वजीर अली और संचालक बाबा हीरासिंह थे। यह 12 पृष्ठों में छपता था। इसका वार्षिक चंदा अमीरों से 12 रुपया तथा जन साधारण से 3 रुपये 10 आना लिया जाता था। यह मेयो प्रेस अजमेर में छपता था। इसमें राजपूताना के समाचारों के साथ-साथ विदेशी समाचार पत्रों से भी समाचार लेकर प्रकाशित किये जाते थे।
ऑफिशियल गजट (ई.1869)
जनवरी 1869 में बूटासिंह ने इस साप्ताहिक समाचार पत्र को आरम्भ किया। इसके सम्पादक भी वजीर अली थे। यह केवल चार पृष्ठों का समाचार पत्र था। इसका वार्षिक चंदा 3 रुपये था। इस पत्र में मुख्यतः ऑफिस से सम्बन्धित सूचनाएं प्रकाशित की जाती थीं। राजपूताना अखबार की तरह यह पत्र भी साधारण था किंतु इन दानों पत्रों के प्रकाशन बंद होने के सम्बन्ध में कोई सूचना नहीं मिलती।
रिखाला अन्जुमन रिफाऐ-आम राजपूताना (ई.1873)
रिखाला अन्जुमन रिफाऐ-आम नामक सोसाइटी ने ई.1873 में अजमेर से उर्दू भाषा में 'रिखाला अन्जुमन रिफाऐ-आम राजपूताना' नाम से 80 पृष्ठ का त्रैमासिक समाचार पत्र आरंभ किया। सोसाइटी के सचिव पण्डित भगतराम इसके सम्पादक थे। इसका मुद्रण और लेखन बहुत सुंदर था। कोहेनूर प्रेस लाहौर में इसका मुद्रण होता था। इसका मुख्य उद्देश्य रिखाला अन्जुमन रिफाऐ-आम राजपूताना की कार्यवाहियों पर प्रकाश डालना था। इसमें सामाजिक, धार्मिक एवं उर्दू साहित्य से सम्बन्धित आलेख प्रकाशित होते थे।
चिराग राजस्थान (ई.1875)
मौलवी मुराद अली बीमार ने 29 नवम्बर 1873 को अजमेर से उर्दू भाषा में चिराग राजस्थान आरंभ किया। इसमें 8 पृष्ठ होते थे और इसका वार्षिक चंदा 8 रुपये था। इसमें देश विदेश के समाचार दूसरे पत्रों से लेकर छापे जाते थे।
राजपूताना गजट (ई.1881)
यह साप्ताहिक समाचार पत्र था जिसे मौलवी मुराद अली ने 1881 में अजमेर से उर्दू भाषा में आरम्भ किया। इसमें हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं में लेख तथा समाचार प्रकाशित किये जाते थे।
मिफ्ता हुल कवानीन (ई.1883)
प्रो. मुंशी नंदकिशोर ने 13 जनवरी 1883 को अजमेर से उर्दू भाषा में यह 16 पृष्ठों की मासिक पत्रिका आरम्भ की। इसके सम्पादक एवं मालिक नंद किशोर थे। इसका वार्षिक चंदा तीन रुपये आठ आना था। यह एक कानूनी पत्रिका थी। इसमें अदालती कार्यवाहियों के फैसले इत्यादि प्रकाशित होते थे।
नालाऐ उश्शाक (ई.1884)
1 नवम्बर 1884 को सैयद नजर सखा और अब्दुल गफूर सखा ने अजमेर से 24 पृष्ठ की यह उर्दू मासिक पत्रिका नालाऐ उश्शाक आरंभ की जिसमें उर्दू साहित्य से सम्बन्धित लेख छपा करते थे। इसका वार्षिक चंदा एक रुपया था। यह सेठ मजीर अली प्रेस अजमेर में छपा करती थी।
दाग (ई.1888)
जनवरी 1888 में माधो प्रसाद भार्गव ने अजमेर से उर्दू भाषा की मासिक पत्रिका दाग का प्रकाशन किया। इसका वार्षिक चंदा एक रुपया था। यह अपनी ही प्रेस में छपती थी। इस पत्रिका में केवल शायरों के कलाम छपते थे।
मोइनुल हिन्द (ई.1893)
ई.1893 में सिकन्दरखां ने अजमेर से 8 पृष्ठों का उर्दू साप्ताहिक समाचार पत्र मोहनुल हिन्द प्रारंभ किया। इसका वार्षिक चंदा 12 रुपये था। इसमें दूसरे समाचार पत्रों से समाचार लेकर प्रकाशित किये जाते थे। इसकी अपनी स्वयं की प्रेस थी।
हात्माजी बड़े प्रसन्न हैं। जंगल के जानवरों पर उनके प्रवचनों का अच्छा प्रभाव पड़ रहा है। जंगल का सम्पूर्ण वातारण ही जैसे बदल गया है। अब बहुत से भेड़िये नदी पर पानी पीने आते तो हरिणों तथा खरगोशों की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखते। बहुत से गीदड़, जरख, लक्कड़बग्घे और लोमड़े गले में तुलसी मालाएं डालकर रामधुन गाते हुए जंगल की पगडण्डियों पर विचरण करते हुए दिखाई देते हैं तो महात्माजी का रोम-रोम पुलकित हो उठता है। नदियों के घाट पूरी तरह सुरक्षित हो गये हैं, अब वहाँ हिंसा पूरी तरह बंद हो गई है।
बाघ और तेंदुए तो अब जंगल में दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते। महात्माजी ने भेड़ियों से पूछा कि जब वे इस जंगल में आये थे तो बहुत से बाघ-बघेरे, तेंदुए और चीते दिखाई देते थे किंतु अब उनमें से एक भी दिखाई नहीं देता तो भेड़ियों ने अत्यंत आदर से शीश झुकाकर महात्माजी से निवेदन किया कि वे पातकी और हिंसक प्राणी, महात्माजी के व्यक्तित्व से प्रभावित हो, यह जंगल छोड़कर दूसरे जंगलों में चले गये हैं। महात्माजी ने उस दिन ईश्वर को कोटि-कोटि धन्यवाद दिया कि जंगल में अब खरगोश और हरिण जैसे निरीह प्राणी पूरी तरह सुरक्षित हो गये हैं।
यहाँ तक तो सब कुछ अद्भुत और प्रभावकारी था किंतु महात्माजी ने एक विचित्र बात भी अनुभव की कि जहाँ एक ओर जंगल के हिंसक पशु इतने सात्विक हो गये हैं, वहीं निरीह प्राणियों में हिंसक पशुओं के प्रति अविश्वास का भाव तनिक भी नहीं घटा। महात्माजी इन निरीह प्राणियों को समझाने का बहुत प्रयास करते किंतु निरीह प्राणियों के चेहरों से अविश्वास के भाव जाते ही नहीं। महात्माजी का मन तब बहुत विचलित हो जाता है, जब वे देखते हैं कि लाख उपदेशों के उपरांत भी खरगोशों, भेड़ों, बकरियों और हरिणों के चेहरों पर प्रसन्नता के वे भाव नहीं आते, जिनकी अपेक्षा महात्माजी को है। फिर भी महात्माजी को विश्वास है कि जिस प्रकार हिंसक पशुओं के मन में सत्य के प्रति निष्ठा जागृत हुई है, उसी प्रकार निरीह पशुओं के मन में भी सत्य की शक्ति के प्रति भरोसा उत्पन्न हो ही जायेगा। इसलिये वे जंगल में घूम-घूम कर पशु-पक्षियों को उपदेश देते रहे।
जंगल में दिन छोटे और ठण्डे ही होते हैं किंतु जब सर्दियां बीत गईं और गर्मियां आ गईं तो जंगल में भी दिन लम्बे और गर्म हो गये। विशेष रूप से दुपहरी बहुत लम्बी होने लगी किंतु दिन का यही हिस्सा ऐसा होता है जिसमें जंगल सर्वाधिक शांत होता है। एक दिन दुपहरी में सूरज आकाश के मध्य तप रहा था और जंगल के समस्त पशु-पक्षी अपने आश्रय स्थलों में विश्राम कर रहे थे। यह महात्माजी के स्वाध्याय का समय होता है और उनके स्वाध्याय में कोई पशु-पक्षी विघ्न उत्पन्न नहीं करता। अचानक कुटिया के द्वार पर हलचल हुई। महात्माजी ने ग्रंथ पर से आंख हटाकर द्वार की ओर देखा तो देखते ही रह गये। कुटिया के द्वार पर दो सुंदर हरिण शावक खड़े हुए थे और उत्सुक नेत्रों से महात्माजी की ओर ताक रहे थे। इतने सुंदर, इतने निरीह, इतने भोले हरिण शावक महात्माजी ने अब से पहले कभी नहीं देखे थे। महात्माजी का मन आनंद से नाच उठा। वे अपने स्थान से उठे और उन्होंने हरिण शावकों को गोद में भर लिया।
-‘आओ मेरे बच्चो! तुम्हारा इस कुटिया में स्वागत है।' महात्माजी ने उन्हें पीने के लिये जल दिया और कहा, दोपहर में इधर-उधर मत भटको। तुम्हारी माँ तुम्हारे लिये परेशान हो रही होगी।
हरिण शावकों ने महात्माजी की बात पर ध्यान नहीं दिया। उन्हें तो कुटिया में आ रही चंदन की सुगंध आकर्षित कर रही थी। वे उसी सुगंध का आनंद लेने लगे। कुटिया में रखे ग्रंथ भी उन्हें किसी अचरज से कम नहीं लग रहे थे। कुछ देर हरिण शावकों की निश्छल चेष्टाओं का आनंद लेने के बाद महात्माजी ने उन्हें अपने निकट बैठा लिया और फिर से स्वाध्याय में मन लगाने का प्रयास किया। महात्माजी का मन स्वाध्याय में नहीं लगा। उन्होंने ग्रंथ पर से दृष्टि हटा ली और हरिण शावकों की ओर देखा। हरिण शावक टकटकी लगाकर महात्माजी की ओर ही देख रहे थे। महात्माजी ने फिर से ग्रंथ उठा लिया और उच्च स्वर से उसका पाठ करने लगे। महात्माजी ने अनुभव किया कि हरिण शावक ध्यान लगाकर ग्रंथ का पाठ सुन रहे हैं। उस दिन महात्माजी को बहुत आनंद आया। उनके मन को असीम शांति मिली। उन्होंने निश्चय किया कि अब से वे स्वाध्याय करने के स्थान पर उच्च स्वर से ग्रंथ का वाचन करेंगे।
संध्या होने को आई तो महात्माजी ने हरिण शावकों को अपनी माता के पास जाने के लिये कहा। दोनों हरिण शावकों ने महात्माजी को अभिवादन किया तथा उछलते कूदते महात्माजी की आंखों से ओझल हो गये। अगली प्रातः को जब महात्माजी ने कुटिया के बाहर आकर सूर्यदेव को प्रणाम किया तो उनके आश्चर्य का पार न रहा, दोनों हरिण शावक कुटिया के बाहर ही खेल रहे थे। महात्माजी को देखकर वे उनके निकट आकर उनकी टांगों से लिपट गये। महात्माजी का मन एक अनोखे आनंद से भर गया। ये कैसा आनंद है, महात्माजी ने विचार किया। इन निरीह प्राणियों की मित्रता ने महात्माजी के अंतः स्थल को किसी दिव्य अनुभूति से भिगो दिया था।
महात्माजी ने आज भी दुपहरी मेें स्वाध्याय करने के स्थान पर ग्रंथों का उच्च स्वर से पाठ किया और दोनों हरिण शावक पूरे समय उनके निकट बैठकर उस पाठ को सुनते रहे। तीसरे दिन भी यही हुआ और चौथे दिन भी। फिर तो यह महात्माजी की दिनचर्या का नियमित भाग बन गया। तीनों प्राणी, अपनी इस अद्भुत पाठशाला में निमग्न रहते। कुछ दिन इसी प्रकार बीत गये। इधर ये तीनों प्राणी, शास्त्रों में निमग्न थे और उधर जंगल में कुछ अनपेक्षित और कुटिल चालें चली जाने लगीं। महात्माजी को पता ही नहीं चला कि जंगल में क्या कुछ चल रहा है।
एक दिन महात्माजी प्रातःकाल में कुटिया से बाहर निकले तो हरिण शावक वहाँ नहीं थे। जब से हरिण शावकों ने कुटिया में आना प्रारम्भ किया था, तब से यह पहली बार था कि वे महात्माजी के बाहर आने से पहले कुटिया के द्वार पर उपस्थित नहीं थे। महात्माजी, हरिण शावकों को देखने के लिये व्यग्र हो उठे। एक प्रहर बीत गया किंतु हरिण शावक नहीं आये। महात्माजी ने शास्त्र खोले किंतु उनका मन ग्रंथ पढ़ने में नहीं लगा। हार कर, महात्माजी ने हरिण शावकों को ढूंढने के लिये जंगल में जाने का निश्चय किया। अभी वे लकुटी उठाकर कुटिया से बाहर आये ही थे कि उन्हें कुटिया की ओर आने वाली पगडण्डी पर धूल उड़ती हुई दिखाई दी। महात्माजी को लगा कि हरिण शावक ही दौड़ते हुए उनकी ओर आ रहे हैं।
महात्माजी कुटिया के द्वार पर ही ठहर गये। उनका अनुमान सही था, दोनों हरिण शावक दौड़ते हुए उनकी ओर ही चले आ रहे थे। कुछ ही क्षणों में दोनों हरिण शावक महात्माजी के निकट पहुंच गये। महात्माजी ने उन दोनों को निकट आया देखकर संतोष की सांस ली किंतु यह देखकर उनके आश्चर्य का पार न रहा कि दोनों हरिण शावक आज महात्माजी के पैरों से न लिपटकर सीधे कुटिया के भीतर चले गये थे और एक कौने में छिपने का प्रयास करने लगे।
महात्माजी ने देखा कि हरिण शावकों की त्वचा पर भेड़ियों के पंजों के चिह्न अंकित थे और दोनों की त्वचा से रक्त बह रहा था। महात्माजी को विश्वास नहीं हुआ, जो भेड़िये गले में तुलसी की माला डालकर जंगल की पगडण्डियों पर रामधुन गाते फिरते थे, उनमें हिंसा की प्रवृत्ति फिर से लौट आई थी।
-‘किसने की तुम्हारी ये दशा ?’ महात्माजी ने हरिण शावकों से पूछा। नित्य की ही भांति हरिण शावकों ने प्रत्युत्तर नहीं दिया। उनकी कातर आंखों से आंसू बह रहे थे और वे भय के कारण थर-थर कांप रहे थे। शावकों की यह दशा देखकर महात्माजी के मन में करुणा का सागर उमड़ पड़ा। उन्होंने हरिण शावकों को गोद में उठा लिया।
-‘चलो मेरे साथ चलो, मैं उन भेड़ियों की भर्त्सना करता हूँ। तुम्हारे साथ वे इस तरह का व्यवहार कैसे कर सकते हैं ?’ महात्माजी अभी अपनी बात कह ही रहे थे कि उन्हें पगडण्डी के उस ओर से रामधुन सुनाई दी। अवश्य ही वहाँ कुछ भेड़िये हैं, महात्माजी ने अनुमान लगाया और वे तेज कदमों से चलते हुए उसी दिशा में चल दिये।
वास्तव में ही वहाँ कुछ भेड़िये थे जो एक पेड़ के नीचे बैठकर रामधुन गा रहे थे। महात्माजी को आया देखकर भेड़िये उठ खड़े हुए और उन्होंने महात्माजी के चरणों में प्रणाम किया। महात्माजी ने भेड़ियों को बताया कि आज हरिण शावकों के साथ क्या हुआ है! भेड़ियों ने शावकों के साथ हुए बुरे व्यवहार पर आश्चर्य जताते हुए, महात्माजी के समक्ष खेद व्यक्त किया और महात्माजी को आश्वस्त किया कि वे उन भेड़ियों को, इस बुरे काम के लिये लताड़ पिलायेंगे ताकि भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न हो।
भेड़ियों की क्षमा याचना से महात्माजी के चित्त की उद्विग्नता शांत हो गई। वे फिर से अपनी कुटिया में लौट आये। हरिण शावक अब भी कौने में दुबके हुए थे। महात्माजी ने शावकों की त्वचा पर औषधि का लेपन किया तथा शांत चित्त होकर ग्रंथ पढ़ने बैठ गये। शावक भी अपने घावों की पीड़ा भुलाकर महात्माजी के पास आकर बैठ गये। नित्य की ही भांति आज भी शास्त्रों के सेवन में तीनों प्राणियों को बहुत आनंद आया।
संध्या होने को आई तो महात्माजी ने शावकों को अपने घर जाने के लिये कहा किंतु हरिण शावकों ने जाने से मना कर दिया। इस पर महात्माजी ने उन्हें कुटिया में ही रोक लिया। इसके बाद, हरिण शावक महात्माजी की कुटिया में ही रहने लगे। भेड़ियों के भय से वे भूलकर भी कुटिया के बाहर नहीं निकलते। महात्माजी ने शावकों को समझाया कि तुम जंगल के प्राणी हो, तुम्हें जंगल में विचरण करने के लिये अवश्य जाना चाहिये तथा भेड़ियों के साथ भी कुछ समय व्यतीत करना चाहिये ताकि वे तुम्हारे प्रति मित्रता का भाव रख सकें। भेड़िये अब तुम्हें कुछ नहीं कहेंगे क्योंकि उनकी प्रतााड़ना कर दी गई है।
हरिण शावकों ने महात्माजी को बताना चाहा कि भेड़ियों की वास्तविक वृत्ति क्या है किंतु महात्माजी ने उनकी बात अनसुनी कर दी और उन्हें स्नेह से झिड़कते हुए कहा कि वे भेड़ियों के प्रति दुराग्रह न रखें, यदि हमारी दृष्टि बुराई पर ही रहेगी तो हमारे जीवन से बुरी चीजें कभी दूर नहीं जा सकेंगी। सदैव अच्छाई पर अपनी दृष्टि केन्द्रित करो। यही जीवन का चरम उत्कर्ष है। हरिण शावकों ने सिर झुका कर महात्माजी की बात सुन ली किंतु महात्माजी के आदेश के उपरांत भी कुटिया से बाहर निकलने से स्पष्ट मना कर दिया और महात्माजी के लाख प्रयास करने पर भी वे कुटिया से बाहर नहीं निकले।
कुछ दिन और बीते। महात्माजी ने अनुभव किया कि अब पगडण्डियों के निकट रामधुन की आवाजें तेज हो गई हैं तथा गले में तुलसी माला पहने हुए भेड़ियों के झुण्ड जब-तब कुटिया के निकट से निकलते हुए दिखाई दे जाते हैं। जंगल से आती हुई रामधुनों को सुनकर तथा पगडण्डियों पर विचरण करते हुए रामनामी भेड़ियों को देखकर महात्माजी को असीम आनंद का अनुभव होता कि भेड़ियों में रामनाम के प्रति अनुराग बढ़ रहा है किंतु हरिण शावक भेड़ियों को देखते ही सहम कर कुटिया के कोने में छिप जाते।
कुछ दिन और बीते। कुटिया के बाहर भेड़िये रामधुन गाते रहे और कुटिया के भीतर महात्माजी शावकों को धर्मग्रंथ सुनाते रहे। महात्माजी कुटिया से बाहर निकलते तो हरिण शावक उछलकर उनकी गोद में चढ़ने की चेष्टा करते। महात्माजी हँसकर उन्हें गोद में उठा लेते। जैसे ही भेड़िये महात्माजी को देखते तो वे श्रद्धा और विनय के वशीभूत होकर महात्माजी के चरणों की धूल लेते। महात्माजी उनकी इस सात्विक वृत्ति की प्रशंसा करते और उन्हें जी भरकर आशीर्वाद देते। इस प्रकार महात्माजी, भेड़ियों की ओर से पूरी तरह निश्चिंत थे किंतु शावकों का भय दिन पर दिन बढ़ता ही जाता था।
एक दिन महात्माजी ने शावकों से कहा कि वे भेड़ियों में हर क्षण बुराई न देखें। उनमें भी बहुत अच्छाईयां हैं। कुछ भेड़िये बुरे हो सकते हैं किंतु समस्त भेड़िये बुरे नहीं हैं। हरिण शाावक सिर झुकाकर महात्माजी का प्रवचन सुनते किंतु कुछ प्रत्युत्तर नहीं देते। कुछ दिन और बीत गये। एक दिन महात्माजी कुटिया से बाहर निकले तो एक भेड़िये ने कहा कि महात्माजी आपके उपदेशों से हम तो अहिंसक और सात्विक हो गये हैं किंतु आप हमारी सदाशयता पर विश्वास ही नहीं करते। जब देखो इन शावकों को छाती से चिपकाये रहते हैं !
महात्माजी ने हँसकर कहा कि बच्चे हैं, इसलिये डर गये हैं। कुछ दिनों में स्वतः ही समझ जायेंगे। मैं आप लोगों की सात्विक वृत्ति को देखकर प्रसन्न हूँ। कुछ दिन और बीत गये। भेड़ियों की सात्विकता और बढ़ गई किंतु शावकों की प्रवृत्ति में अंतर नहीं आया। महात्माजी यह देखकर हैरान थे कि भेड़ियों पर तो उपदेशों का प्रभाव होता है किंतु हरिण शावकों की वृत्ति में किंचित् अंतर नहीं आता।
कुछ दिन और बीत गये। एक रात जंगल में तेज बरसात हुई। ठण्डी हवाओं में मिट्टी की सौंधी सुगंध घुल गई। वर्षा के जल में धुलकर वृक्षों के पत्ते और भी हरे तथा चमकदार हो गये। कुटिया के निकट लगे तुलसी के पौधों से तेज सुगंध निकलकर कुटिया के भीतर तथा आसपास के वातातरण में फैल गई। महात्माजी ने प्रकृति की इस उदारता के लिये ईश्वर का धन्यवाद दिया तथा पूजा के लिये पुष्प लेने कुटिया से बाहर निकले। दोनों हरिण शावक एक कौने में सोये पड़े थे।
जैसे ही महात्माजी ने कुटिया से बाहर पैर धरा, भेड़ियों का एक झुण्ड उन पर टूट पड़ा। महात्माजी असावधान थे इसलिये धरती पर गिर गये। महात्माजी यह देखकर हैरान थे कि ये वही भेड़िये थे जो पगडण्डी के दूसरी तरफ बैठकर कई महीनों से रामधुन गा रहे थे। महात्माजी के मुंह से चीख निकल गई। ऐसा कैसे हुआ!
एक भेड़िये ने महात्माजी की एक टांग में अपने तीखे दांत गढ़ा दिये। महात्माजी पीड़ा से चीख उठे। दूसरे भेड़िये ने उछलकर महात्माजी की गर्दन पकड़ ली। महात्माजी का दम घुटने लगा किंतु उन्होंने हिम्मत करके कुटिया का द्वार बंद करने की चेष्टा की। एक भेड़िये ने महात्माजी के हाथ में अपना जबड़ा धंसा दिया। फिर भी महात्माजी ने कुटिया का द्वार बाहर से बंद कर दिया।
-‘ढोंगी साधु! कब तक तू इन हरिण शावकों के प्राण बचायेगा।’ एक भेड़िये ने महात्माजी की टांग चबाते हुए कहा।
-‘मरते-मरते भी कुटिया के द्वार बंद करके हमें परेशान कर रहा है।’ दूसरे भेड़िये ने महात्माजी की बांह को जड़ से ही उखाड़ते हुए कहा।
-‘कुटिया का द्वार आज नहीं तो कल हम खोल ही लेंगे किंतु इस पाखण्डी को तो रास्ते से हटाओ।’ एक भेड़िये ने कुटिया का चक्कर लगाकर शावकों तक पहुंचने का दूसरा मार्ग खोजने की चेष्टा की।
महात्माजी के गले की नली कट चुकी थी और अब वे अंतिम सांसें ले रहे थे, उनकी आंखें बंद होने लगी थीं। किसी तरह महात्माजी ने आंखें खोलकर अपने चारों ओर देखा। कुछ भेड़िये महात्माजी के हाथों और टांगों को चबा रहे थे और कुछ भेड़ियों ने उनका पेट फाड़ डाला था। उन्हें समझ में आ गया था कि अब वे इस जंगल में कुछ ही क्षणों के अतिथि हैं।
जब आंखें फिर से मुंदने लगीं तो महात्माजी के कानों में शावकों की कांपती हुई आवाजें सुनाई दीं, वे कुटिया के भीतर से महात्माजी को सावधान कर रहे थे- ‘आप इनसे बचकर भाग जाओ महात्माजी वरना ये भेड़िये आपको भी मार डालेंगे।’ महात्माजी की आंखों से आंसू बह निकले। वे समझ गये कि कुटिया के भीतर बंद शावकों को ज्ञात नहीं है कि भेड़ियों ने महात्माजी की क्या गत कर दी है।
आज महात्माजी की समझ में वह बात आ गयी थी जो बात हरिण-शावक महात्माजी से कहने का प्रयास कर रहे थे किंतु अब इस बात को समझ लेने से कोई लाभ नहीं होने वाला था। महात्माजी ने अंतिम सांस लेने से पहले एक बार और आंखें खोलकर कुटिया के द्वार की ओर देखा, अब भेड़ियों ने कुटिया का द्वार पीटना आरम्भ कर दिया था। महात्माजी के पास इतना समय भी नहीं था कि वे हरिण शावकों को अंतिम उपदेश दे सकते।
नया बाजार (ब्यावर) में दी यूनाइटेड प्रेस्बाईटेरियन मिशन की ओर से डॉ. शूलब्रेड द्वारा ई.1860 में, एक धर्मान्तरित ईसाई (बाबू चिंताराम राजाराम ब्राह्मण) की सहायता से अजमेर-मेरवाड़ा क्षेत्र का पहला मिशनरी स्कूल खोला गया जो थोड़े दिनों में ही प्रसिद्ध हो गया। इसमें हिन्दी तथा उर्दू के साथ अंग्रेजी की भी शिक्षा दी जाती थी। शीघ्र ही इस स्कूल में छात्रों की संख्या 100 हो गई।
मिशनरी स्कूल को सफल बनाने के लिये ब्यावर में पहले से ही चल रहे सरकारी स्कूल को बंद कर दिया गया तथा यह सोच कर कि इस क्षेत्र में लोग बहुत ही पिछड़े हुए हैं इसलिये इस स्कूल में बाइबिल की शिक्षा देनी आरंभ की गई। इससे ब्यावर के व्यापारी वर्ग में असंतोष उठ खड़ा हुआ तथा उन्होंने ब्राह्मणों एवं गुसाईंयों की सहायता से अपने बच्चों के लिये एक नया स्कूल खोल लिया।
इस स्कूल में कुछ मेहतर बच्चों ने प्रवेश ले लिया जिससे नाराज होकर दो तिहाई छात्रों ने मिशनरी स्कूल में जाना बंद कर दिया। इस पर रेवर्ड (सम्मानित) मकालिस्टर ने रात्रि कालीन स्कूल खोलकर मिशनरी स्कूल को जीवित रखने का प्रयास किया। ई.1876 में एक ब्राह्मण ने अपना स्कूल मिशनरी स्कूल के साथ मिला दिया। इससे मिशनरी स्कूल को जीवन दान मिल गया।
मार्च 1862 में इस स्कूल की एक शाखा अजमेर में खोली गई। तब अजमेर के पण्डितों ने अंग्रेज मिशनरियों के समक्ष एक शर्त रखी कि अजमेर की समस्त स्कूलों में से मेहतरों के बालकों को बाहर निकाला जाये। ग्लार्डन को यह शर्त स्वीकृत नहीं थी। इसलिये अंग्रेजी स्कूलों में से 103 लड़कों में से 92 बच्चों ने अपने नाम कटवा लिये। केवल चार हिन्दू तथा सात मुस्लिम लड़के ही अंग्रेजी स्कूलों में बचे।
इस स्कूल की विशेषता यह थी कि यह अपनी कक्षायें सवेरे जल्दी लगाता था ताकि कार्यालयों एवं संस्थाओं में काम करने वाले क्लर्क एवं अन्य कर्मचारी भी इनमें आकर पढ़ सकें। इन सारे विरोधों के बावजूद अजमेर-मेरवाड़ा क्षेत्र में अंग्रेजी स्कूलों की संख्या बढ़ने लगी। समर्पित ईसाई पादरियों- डब्ल्यू शूलब्रेड, विलियम मार्टिन, जॉन रॉबसन, विलियम रॉब तथा डॉ. सी. एस. वेलेण्टाइन के लगातार प्रयासों से ई.1862 में नसीराबाद में, ई.1864 में टॉडगढ़ में, ई.1871 में देवली में, ई.1872 में जयपुर में अंग्रेजी स्कूल खुले।
लड़कियों के लिये शिक्षण संस्थायें
प्रथम मिशन गर्ल्स स्कूल ई.1862 में नसीराबाद में स्थानीय ईसाई महिला एमिला के प्रयासों से खुला। उसने एक घर में तीन बहिनों के सहयोग से यह स्कूल खोला। प्रेसबाइटेरियन मिशन की रिपोर्ट में इस स्कूल की सफलता की सराहना की गई। इस स्कूल में लिखना, पढ़ना, कसीदा करना, कपड़े सीना तथा क्रोशिया कार्य सिखाया जाता था। 1863 ई. में अजमेर में मिसेज लूसी फिलिप एवं एक ब्राह्मण स्त्री सरदारी द्वारा वर्नाक्यूलर गर्ल्स स्कूल खोला गया। इस स्कूल पर भी यह संदेह किया गया कि यह बच्चों को ईसाई बनाने के उद्देश्य से खोला गया था। इस स्कूल में लड़कियों की संख्या शीघ्र ही 25 हो गई। ईसाई मिशनरी द्वारा ओसवाल जाति की स्त्रियों में शिक्षा का प्रसार करने के लिये जनाना विजिटेशन नामक कार्यक्रम चलाया गया।
लिथोग्राफिक मुद्रणालय
मिशन द्वारा ई.1864 में पाठ्य पुस्तकें मुद्रित करने के लिये लिथोग्राफिक मुद्रणालय स्थापित किया गया। इसमें मिशन से सम्बन्धित अन्य पुस्तकें भी मुद्रित की जाती थीं। इस प्रेस में हजारों की संख्या में मारवाड़ी भाषा की मुक्ति रो मार्ग, समजोतरी माला, उकेश माला आदि पुस्तकें छापीं और निःशुल्क वितरित की गईं। हिन्दी और उर्दू में प्राथमिक अध्यायों की पट्टियां, पहाड़ों की सारणियां, जिन्हें पट्टी पहाड़ी कहा जाता था, छापी गईं। सोलोमन की कहावतों के हिन्दी दोहों में अनुवाद विशेष रूप से छापकर बेचे गये। मि. रॉबसन ने हिन्दी पंचांग तैयार किया जो कि बहुत प्रसिद्ध हुआ। ई.1871 में एक पंजाबी व्यक्ति ने अजमेर में मॉडर्न प्रेस लगाई। इस प्रेस में हिन्दी अंग्रेजी तथा उर्दू में राजस्थान ऑफीशियल गजट भी प्रकाशित किया जाता था। इस प्रेस को नौ साल बाद जब्त कर लिया गया।
प्रेसबाईटेरियन मिशन की स्कूलें
प्रेसबाईटेरियन मिशन द्वारा ई.1872 में अजमेर नगर में कुल 11 स्कूलें चल रही थीं। जिनमें से 1 एंग्लो वर्नाकुलर, 7 वर्नाकुलर बॉयज तथा 3 वर्नाकुलर गर्ल्स स्कलें चल रही थीं। इन स्कूलों में विद्यार्थियों की कुल संख्या 389 थी जिनमें से लड़कियों की संख्या 82 थी। जबकि इस वर्ष ब्यावर में मिशन की 18 स्कूलों में 873 विद्यार्थी, नसीराबाद में 13 स्कूलों में 558, टॉडगढ़ में 11 स्कूलों में 331 तथा देवली में 9 स्कूलों में 281 विद्यार्थी पढ़ रहे थे। ई.1863 में अजमेर में राज्य की ओर से लड़कों के लिये अंग्रेजी माध्यम की 1 स्कूल चलती थी जिसमें 340 बच्चे पढ़ते थे जबकि निजी क्षेत्र में 113 स्कूलें चलती थीं जिनमें 1,706 बच्चे पढ़ते थे।