ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन के दौरान यह माना जाता था कि भारतीय नरेशों के अशिक्षित होने के कारण उन्हें नियंत्रण में रखना सरल है। इसलिये उनकी शिक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया गया तथा इसे राजाओं का आंतरिक मामला कहकर उपेक्षित किया गया। ई.1830 से इस नीति में बदलाव आना आरंभ हुआ तथा नरेशों एवं राजकुमारों के शिक्षण के लिये निजी शिक्षक नियुक्त किये जाने लगे।
ई.1858 में महारानी विक्टोरिया की घोषणा के बाद राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य का सहयोगी घोषित किया गया। ब्रिटिश साम्राज्य के काम में भारतीय नरेशों का सहयोग लेने के उद्देश्य से नरेशों एवं राजकुमारों की अंग्रेजी शिक्षा की आवश्यकता अनुभव की गई। महलों एवं रजवाड़ों में इनकी शिक्षा के लिये समुचित वातावरण उपलब्ध नहीं था। उन्हें साधारण स्कूलों में भी पढ़ने के लिये नहीं भेजा जा सकता था क्योंकि उन स्कूलों का स्तर बहुत नीचा था।
ई.1869 में भरतपुर के पोलिटिकल एजेंट कर्नल सी. के. एम. वॉल्टर ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की कि भारतीय युवा पीढ़ी, विशेषकर राजपुत्रों में, बदलते विश्व परिवेश के अनुरूप भावनाएँ जाग्रत करने एवं उन्हें एक श्रेष्ठ व्यक्ति बनाने के लिए इस देश में भी 'ईटन' जैसी एक संस्था अपरिहार्य है। राजपूताना के एजीजी कर्नल कीटिंग्स ने वॉल्टर के सुझाव को महत्त्वपूर्ण माना तथा लॉर्ड मेयो ने भी इस सुझाव को महत्त्व प्रदान किया।
ई.1870 में लॉर्ड मेयो ने अजमेर में आयोजित हुए राजपूताना शासकों के दरबार में लम्बा भाषण दिया जिसमें उन्होंने इच्छा व्यक्त की कि वे राजकुमारों के लिये एक कॉलेज खोलना चाहते हैं। कलकत्ता लौटकर भी लॉर्ड मेयो ने इस योजना पर काम करना जारी रखा तथा राजाओं से कहा कि वे प्रस्तावित कॉलेज के लिये धन दें। (भारत सरकार ने इस अवधि में भारतीय राजकुमारों की शिक्षा के लिए राजकोट में राजकोट कॉलेज, अजमेर में मेयो कॉलेज, इन्दौर में डेली कॉलेज और कुछ समय बाद लाहौर में एचिसन कॉलेज के नाम से विशेष विद्यालय खोले।)
मेयो ने राजाओं को विश्वास दिलाया कि ब्रिटिश सरकार भी इस कार्य के लिये पर्याप्त धन देगी। देशी राजाओं ने वायसराय के इस प्रस्ताव का उत्साह से समर्थन किया। प्रारंभ में कॉलेज की स्थापना के लिये चार लाख रुपये की आवश्यकता अनुभव की गई किंतु एजीजी कर्नल ब्रुक ने इसे बढ़ाकर छः लाख रुपया कर दिया जिसमें से आधी राशि ई.1871 में, चौथाई राशि ई.1872 में तथा शेष चौथाई राशि ई.1873 में देने की आवश्यकता जताई गई। मेयो कॉलेज की स्थापना के लिये भारत सरकार ने 6 लाख रुपये का अंशदान दिया।
ब्रिटिश अधिकारियों की मांग पर राजपूताने के 18 में से 15 राजाओं ने भी मेयो कॉलेज के लिये 6,26,000 रुपये उपलब्ध करवाये। इनमें से उदयपुर महाराणा ने एक लाख रुपये, जयपुर महाराजा ने सवा लाख रुपये, जोधपुर महाराजा ने एक लाख रुपये, कोटा महाराव ने 70 हजार रुपये, भरतपुर महाराजा ने 50 हजार रुपये, बीकानेर महाराजा ने 50 हजार रुपये, झालावाड़ महाराजराणा ने 40 हजार रुपये, अलवर महाराव ने 35 हजार रुपये, करौली महाराजा ने 15 हजार रुपये, बूंदी महाराव राजा ने 10 हजार रुपये, प्रतापगढ़ महारावल ने 10 हजार रुपये, किशनगढ़ महाराजा ने 6 हजार रुपये, टोंक नवाब ने 5 हजार रुपये, बांसवाड़ा महारावल ने 4 हजार रुपये तथा सिरोही महाराव ने 3,750 रुपये उपलब्ध करवाये।
शाहपुरा के राजाधिराज ने कोई राशि उपलब्ध नहीं करवाई। इस सहायता के अतिरिक्त कई राजाओं ने यह आश्वासन भी दिया के वे इस कॉलेज में पढ़ने वाले अपनी रियासत के लड़कों के लिये हॉस्टल भी बनायेंगे। इस कॉलेज की योजना पर महाराणा उदयपुर ने कहा कि यह एक अच्छा कार्य है। जयपुर महाराजा रामसिंह ने कहा कि वॉयसराय के मन में जिन राजकुमारों की भलाई के लिये रुचि है, यह कॉलेज उन राजकुमारों के मनोबल तथा बौद्धिक स्तर को काफी ऊँचा बढ़ायेगा तथा इससे अगणनीय लाभ होगा।
टोंक नवाब ने कहा कि यह आनंद का स्रोत है, उन्होंने इस कार्य के लिये अधिक राशि देने की इच्छा व्यक्त की किंतु अनेक कारणों से केवल 25 हजार रुपये ही देने का प्रस्ताव भिजवाया। वॉयसराय ने इसमें से केवल 5 हजार रुपये ही स्वीकार किये। वायसराय के इस कार्य को जोधपुर महाराजा ने उदारता का कार्य बताया। कोटा महाराव छित्तरसिंह ने वॉयसराय की इच्छा की प्रशंसा की तथा राजकुमारों के भविष्य के लिये कल्याणकारी बताया।
भरतपुर महाराजा जसवंतसिंह ने राशि भेजते समय सरकार के सदैव सहयोग की अपेक्षा की। बीकानेर महाराजा सरदारसिंह ने इस कार्य पर वास्तविक प्रसन्नता व्यक्त करते हुए आशा की कि उनकी रियासत में होने वाले दंगों पर सरकार अधिक अर्थदण्ड नहीं लगायेगी। झालावाड़ के महाराजाराणा पृथ्वीसिंह ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि कॉलेज का बहुत अच्छा प्रभाव होगा। अलवर महाराव ने इसे गर्व करने योग्य आवश्यक उद्देश्य बताया।
बूंदी महाराव राजा ने कहा कि सरकार की इच्छा इस कॉलेज को खोलकर हृदय से देशी राजाओं का भला करने की है। किशनगढ़ महाराजा पृथ्वीसिंह ने इस प्रस्ताव को अत्यंत प्रशंसनीय बताया। सिरोही के महाराव ने इसे राजपुत्रों की सम्पूर्ण भलाई वाली योजना बताया। जब विभिन्न रियासतों द्वारा भेजी गई राशि एजीजी को प्राप्त हो गई तो वायसराय ने एजीजी को निर्देश दिये कि जब तक कॉलेज प्रबंधन के न्यासी तय नहीं हो जाते तथा कॉलेज का संविधान पूरा नहीं हो जाता, तब तक के लिये इस राशि को अजमेर-मेरवाड़ा के चीफ कमिश्नर तथा भारत सरकार के सचिव के संयुक्त नाम से राजकीय प्रतिभूति में निवेश कर दिया जाये।
अजमेर के कमिश्नर को मेयो कॉलेज अजमेर की तरफ से राजकीय प्रतिभूति पर ब्याज लेने के लिये अटॉर्नी नियुक्त किया गया। जयपुर नरेश इस कॉलेज को जयपुर में बनवाना चाहते थे किंतु लॉर्ड मेयो ने इस कॉलेज के लिये अजमेर का चुनाव किया। ऐसा करने के तीन कारण थे- (1.) यह नगर, राजपूताने के केन्द्र में स्थित था। (2.) यह ब्रिटिश शासित क्षेत्र था जहाँ समस्त रियासतों के शासक बिना किसी भय के आपस में मिल सकते थे। (3.) यदि इस कॉलेज को किसी भी रियासत में बनाया जाता तो अन्य रियासतों के राजाओं के हृदय में ईर्ष्या उत्पन्न होती। भारत सरकार ने इस कॉलेज के मुख्य भवन तथा हॉस्टल के निर्माण के लिये भूमि उपलब्ध करवाई तथा छः लाख रुपयों की लागत से एक हॉस्टल भी बनवाया।
लॉर्ड मेयो का मूल विचार यह था कि इस कॉलेज को एक श्रेष्ठ उद्यान के मध्य में खड़ा किया जाये। मुख्य भवन के चारों ओर विद्यार्थियों के लिये बंगले बनाये जायें। बंगलों के पास ही घुड़शालायें तथा अनुचरों के क्वार्टर्स हों। यह अनुभव किया गया कि अजमेर में पेयजल की उपलब्धता एक कठिन कार्य होगा, इसलिये भवनों की छतों के जल को भूमिगत टांकों में एकत्रित किया जाये। इस कॉलेज के लिये चर्च की बगल में, जयपुर जाने वाली सड़क के बाईं ओर स्थान निर्धारित किया गया।
चूंकि उन्हीं दिनों में अजमेर में रेलवे लाइन तथा रेलवे स्टेशन के लिये भूमि का निर्धारण किया जाना था इसलिये मेयो कॉलेज के लिये स्थान का निर्धारण कुछ दिनों के लिये टाल दिया गया। अंत में मि. गोर्डन ने कॉलेज के लिये भूमि का चयन किया। यह एक पुरानी एजेंसी जागीर (ओल्ड रेजीडेंसी) थी जिसमें 88 एकड़ भूमि थी। इसके साथ ही 79 एकड़ भूमि कॉलेज पार्क के लिये और खरीदी गई। इस प्रकार कॉलेज के पास 167 एकड़ भूमि हो गई।
लॉर्ड मेयो इस कॉलेज का नक्शा इस प्रकार का बनाना चाहते थे जिसमें एक विशाल हॉल हो और उसके चारों ओर कक्षायें हों। उनके बाहर की तरफ सजावटी स्तम्भों पर बने हुए बरामदे हों जो काफी हवादार और सजावटी हों। उन्होंने केवल इतना ही सुझाव दिया, कोई निश्चित नक्शा नहीं दिया। राजपूताने के एजीजी कर्नल लेविस पेली को मेयो के विचार से प्रसन्नता नहीं हुई। उसे लगा कि यदि कॉलेज बिल्डिंग भव्य और आकर्षक नहीं हुई तो राजा लोग नाराज हो जायेंगे किंतु वह भी इस भवन को अधिक अलंकृत नहीं बनाना चाहता था।
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : जयपुर राज्य में प्रजा मण्डल आंदोलन
21.12.2021
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी - 175
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : जयपुर राज्य में प्रजा मण्डल आंदोलन
1. प्रश्न - राजस्थान की किस रियासत में प्रजामंडल की स्थापना सबसे पहले हुई?
उतर- जयपुर में
2. प्रश्न - जयपुर प्रजामण्डल की स्थापना कब की गयी?
उतर- ई.1931 में।
3. प्रश्न - जयपुर प्रजामण्डल की स्थापना किनके प्रयासों से हुई?
उतर- जमनालाल बजाज तथा कर्पूर चंद्र पाटनी के प्रयास से।
4. प्रश्न - जयपुर प्रजामण्डल की स्थापना के पाँच वर्षों तक इसकी सम्पूर्ण गतिविधियां किस कार्यवाही तक सीमित रहीं?
उतर- खादी उत्पादन तक।
5. प्रश्न - जयपुर प्रजामण्डल का पुनर्गठन कब एवं किसने किया?
उतर- ई.1936 में हीरालाल शास्त्री ने।
6. प्रश्न - जयपुर प्रजामण्डल का अध्यक्ष किसे बनाया गया?
उतर- वकील चिरंजीलाल मिश्र को।
7. प्रश्न - जुलाई 1937 में हीरालाल शास्त्री ने जयपुर रियासत के पुलिस अधीक्षक मि. यंग को पत्र लिखकर प्रजा मंडल के क्या उद्देश्य बताये?
उत्तर - हीरालाल शास्त्री ने लिखा कि प्रजामंडल का उद्देश्य महाराजा को हटाना नहीं है। प्रजामंडल निम्नलिखित उद्देश्यों के लिये काम कर रहा है- (1) जनता व सरकार के मध्य मधुर सम्बन्ध स्थापित हों। (2) सरकार अपने दायित्व को समझते हुए जनता की आवश्यकताओं को पूरा करे। (3) सरकार जनता को संगठित होने व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करे। (4) सबके लिये रोजगार की व्यवस्था की जाये। (5) छात्र-छात्राओं की शिक्षा की उत्तम व्यवस्था की जाये। (6) प्रत्येक व्यक्ति को उचित न्याय मिले। (7) कृषि, उद्योग एवं व्यापार को और अधिक उन्नत किया जावे। (8) सभी नागरिकों को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध हो।
8. प्रश्न - 1938 में प्रजामण्डल का सभापति किसे बनाया गया?
उतर- जमनालाल बजाज, जयपुर को।
9. प्रश्न - बजाज की अध्यक्षता में आयोजित प्रजामण्डल सम्मेलन में क्या प्रस्ताव पारित किया गया?
उतर- जयपुर महाराजा से उत्तरदायी शासन की मांग की गयी।
10. प्रश्न - जयपुर राज्य ने प्रजामण्डल की गतिविधियां रोकने के लिये क्या कदम उठाया?
उतर- 30 मार्च 1938 को सरकार ने आदेश जारी किया कि राज्य में कोई भी संस्था बिना पंजीकरण करवाये किसी तरह की गतिविधि नहीं चला सकती। संस्था के पंजीकरण के लिये ऐसी शर्तें लाद दी गयीं जिससे प्रजामण्डल अपनी गतिविधियां नहीं चला सके।
11. प्रश्न - जमनालाल बजाज के विरुद्ध क्या कार्यवाही की गई?
उतर- 29 दिसम्बर 1938 को जमनालाल बजाज को जयपुर रियासत में प्रवेश नहीं करने दिया गया। उन्हें हिरासत में लेकर राज्य की सीमा से बाहर छोड़ दिया गया।
12. प्रश्न - जमनालाल बजाज को गिरफ्तार क्यों कर लिया गया?
उतर- जमनालाल बजाज और उनके साथियों को दुबारा जयपुर में प्रवेश करने पर गिरफ्तार कर लिया गया।
13. प्रश्न - बजाज की गिरफ्तारी पर प्रजामण्डल ने क्या कदम उठाया?
उतर- राज्य में सत्याग्रह किया गया।
14. प्रश्न - गांधीजी ने सत्याग्रह बंद करने का आदेश क्यों दिया?
उतर- राज्य की ओर से अत्यधिक दमन किये जाने तथा 500 से अधिक कार्यकर्त्ताओं को गिरफ्तार किये जाने पर गांधीजी के आदेश पर 19 मार्च 1939 को यह सत्याग्रह बंद कर दिया गया।
15. प्रश्न - जयपुर मुद्दे पर गांधीजी ने क्या वक्तव्य जारी किया?
उतर- गांधीजी ने राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों को बयान जारी किया कि यदि जयपुर राज्य ने जमनालाल और उनके साथियों को मुक्त नहीं किया तो कांग्रेस के पास जयपुर को अखिल भारतीय मुद्दा बनाने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं रहेगा।
16. प्रश्न - बजाज को कब रिहा किया गया?
उतर- प्रजामंडल द्वारा आंदोलन वापिस लिये जाने पर 12 अगस्त 1939 को सरकार ने बजाज तथा उनके साथियों को मुक्त कर दिया।
17. प्रश्न - प्रजामण्डल की मांग पर बीचम को हटाकर किसे जयपुर राज्य का प्रधानमंत्री बनाया गया?
उतर- राजा ज्ञाननाथ को।
18. प्रश्न - जयपुर नरेश ने राज्य में संवैधानिक सुधारों के लिये विशेष समिति कब नियुक्त की?
उतर- 26 अक्टूबर 1942 को।
19. प्रश्न - इस समिति ने क्या सुझाव दिया?
उतर- समिति ने राज्य में प्रतिनिधि सभा तथा लेजिस्लेटिव एसेम्बली के गठन का सुझाव दिया।
20. प्रश्न - राज्य में उत्तरदायी सरकार की स्थापना के लिये एक्ट कब पारित किया गया?
उतर- 1 जून 1944 को।
21. प्रश्न - जयपुर विधानसभा में उत्तरदायी शासन की स्थापना सम्बन्धी प्रस्ताव किसने और कब प्रस्तुत किया?
उतर- टीकाराम पालीवाल ने, मार्च 1946 में।
22. प्रश्न - राजस्थान का पहला राज्य कौन था जिसने अपने मंत्रिमंडल में गैर सरकारी मंत्री की नियुक्ति की?
उतर- जयपुर राज्य ने।
23. प्रश्न - राजस्थान में विलय से पहले किस राज्य में उत्तरदायी शासन लागू किया गया?
उतर- जयपुर राज्य में।
24. प्रश्न - जयपुर राज्य के राजस्थान में विलय से पहले कौनसा मंत्रिमण्डल काम कर रहा था?
उतर- 28 मार्च 1948 को महाराजा ने वी.टी. कृष्णामाचारी को दीवान नियुक्त किया। हीरालाल शास्त्री को मुख्य सचिव बनाया गया। देवीशंकर तिवाड़ी, दौलतमल भंडारी और टीकाराम पालीवाल प्रजामंडल की ओर से सचिव बनाये गये। गीजगढ़ के ठाकुर कुशलसिंह और अजयराजपुरा के मेजर जनरल रावल अमरसिंह, जागीरदारों का प्रतिनिधित्व करने वाले सचिव थे।
Share On Social Media:
राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति-4
01.06.2020
राजस्थान में मानव सभ्यता का उदय एवं पुरा-संस्कृतियों का विकास(2)
हड़प्पा कालीन सभ्यता वाले 30-35 थेड़, जिनमें कालीबंगा का थेड़ सबसे ऊँचा है, की खुदाई साठ के दशक में की गयी। खुदाई के दौरान मिली काली चूड़ियों के कारण इस स्थान को कालीबंगा कहा जाता है। कालीबंगा के टीलों की खुदाई के दौरान दो भिन्न कालों की सभ्यता प्राप्त हुई है। पहला भाग 2400 ई.पू. से 2250 ई.पू. का है तथा दूसरा भाग 2200 ई.पू. से 1700 ई.पू. का है। यहाँ से एक दुर्ग, जुते हुए खेत, सड़कें, बस्ती, गोल कुओं, नालियों मकानों व धनी लोगों के आवासों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। मकानों में चूल्हों के अवशेष मिले हैं।
कालीबंगा के लोग मिट्टी की कच्ची या पक्की ईंटों का चबूतरा बनाकर मकान बनाते थे, बरतनों में खाना खाने की मिट्टी की थालियां, कूण्डे, नीचे से पतले व ऊपर से प्यालानुमा गिलास, लाल बरतनों पर कलापूर्ण काले रंग की चित्रकारी, मिट्टी की देवी की छोटी-छोटी प्रतिमायें, बैल, बैलगाड़ी, गोलियां, शंख की चूड़ियां, चकमक पत्थर की छुरियां, शतरंज की गोटी तथा एक गोल, नरम पत्थर की मुद्रा आदि मिले। बरतनों पर मछली, बत्तख, कछुआ तथा हरिण की आकृतियां बनी हैं। मुहरों पर सैंधव लिपि उत्कीर्ण है जिसे पढ़ा नहीं जा सका है। यह लिपि दाहिने से बायें लिखी हुई है। यहाँ से मिट्टी, तांबे एवं कांच से बनी हुई सामग्री मिली है। छेद किये हुए किवाड़ एवं मुद्रा पर व्याघ्र का अंकन केवल यहीं से मिले हैं।
रंगमहल
सूरतगढ़-हनुमानगढ़ क्षेत्र में रंगमहल, बड़ोपल, मुण्डा, डोबेरी आदि स्थलों के निकट कई थेड़ मिले हैं जिनमें से कुछ की खुदाई की गयी है। इनमें रंगमहल का टीला सबसे ऊँचा है। इस खुदाई से ज्ञात हुआ कि प्रस्तर युग से लेकर छठी शताब्दी ई.पू. तक यह क्षेत्र पूर्णतः समृद्ध था। यही कारण है कि यहाँ से प्रस्तर युगीन एवं धातु युगीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। रंगमहल के टीलों पर पक्की ईंटें व रोड़े, मोटी परत व लाल रंग वाले बरतनों पर काले रंग के मांडने युक्त हड़प्पा कालीन सभ्यता के बरतनों के टुकड़े बिखरे हुए हैं। यहाँ से ताम्बे के दो कुषाण कालीन सिक्के तथा गुप्त कालीन खिलौने भी मिले हैं। तांबे के 105 अन्य सिक्के भी प्राप्त हुए हैं।
आहड़ सभ्यता
सरस्वती-दृश्द्वती नदी सभ्यता से निकलकर इस प्रदेश के मानव ने आहड़, गंभीरी, लूनी, डच तथा कांटली आदि नदियों के किनारे अपनी बस्तियां बसाईं तथा सभ्यता का विकास किया। इन सभ्यताओं का काल 7 हजार से 3 हजार वर्ष पुराना ठहराया गया है। यह सभ्यता उदयपुर जिले में आहड़ नदी के आस-पास, बनास, बेड़च, चित्तौड़गढ़ जिले में गंभीरी, वागन, भीलवाड़ा जिले में खारी तथा कोठारी आदि नदियों के किनारे अजमेर तक फैली थी। इस क्षेत्र में प्रस्तर युगीन मानव निवास करता था। प्राचीन शिलालेखों में आहड़ का पुराना नाम ताम्रवती अंकित है। दसवीं व ग्यारहवीं शताब्दी में इसे आघाटपुर अथवा आघट दुर्ग कहा जाता था। बाद के काल में इसे धूलकोट कहते थे।
उदयपुर से तीन किलोमीटर दूर 1600 फुट लम्बे और 550 फुट चौड़े धूलकोट के नीचे आहड़ का पुराना कस्बा दबा हुआ है जहाँ से ताम्र युगीन सभ्यता प्राप्त हुई है। ये लोग लाल, भूरे व काले मिट्टी के बर्तन काम में लेते थे जिन्हें उलटी तपाई शैली में पकाया जाता था। मकान पक्की ईंटों के होते थे। पशुपालन इनकी अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार था। आहड़ सभ्यता की खुदाई में मानव सभ्यता के कई स्तर प्राप्त हुए हैं। प्रथम स्तर में मिट्टी की दीवारें और मिट्टी के बर्तन मिले हैं। दूसरा स्तर प्रथम स्तर के ऊपर स्थित है। यहाँ से बस्ती के चारों ओर दीवार भी मिली है। तीसरे स्तर से चित्रित बर्तन मिले हैं। चतुर्थ स्तर से ताम्बे की दो कुल्हाड़ियां मिली हैं। मकानों से अनाज पीसने की चक्कियां, ताम्बे के औजार, पत्थरों के आभूषण, गोमेद तथा स्फटिक की मणियां प्राप्त हुई हैं। तांबे की छः मुद्रायें व तीन मोहरें मिली हैं। एक मुद्रा पर एक ओर त्रिशूल तथा दूसरी ओर अपोलो देवता अंकित है जो तीर एवं तरकश से युक्त है। इस पर यूनानी भाषा में लेख अंकित है। यह मुद्रा दूसरी शताब्दी ईस्वी की है। ये लोग मृतकों को कपड़ों तथा आभूषणों के साथ गाढ़ते थे।
बागोर सभ्यता
भीलवाड़ा कस्बे से 25 किलोमीटर दूर कोठारी नदी के किनारे वर्ष 1967-68 में डॉ. वीरेंद्रनाथ मिश्र के नेतृत्व में की गयी खुदाई में 3000 ई.पू. से लेकर 500 ई. पू. तक के काल की बागोर सभ्यता का पता लगा। यहाँ के निवासी कृषि, पशुपालन तथा आखेट करते थे। यहाँ से तांबे के पाँच उपकरण प्राप्त हुए हैं। मकान पत्थरों से बनाये गये हैं। बर्तनों में लोटे, थाली, कटोरे, बोतल आदि मिले हैं।
बालाथल
बालाथल उदयपुर जिले की वल्लभनगर तहसील में स्थित है। यहाँ से 1993 में ई.पू. 3000 से लेकर ई.पू. 2500 तक की ताम्रपाषाण युगीन संस्कृति के बारे में पता चला है। यहाँ के लोग भी कृषि, पशुपालन एवं आखेट करते थे। ये लोग मिट्टी के बर्तन बनाने में निपुण थे तथा कपड़ा बुनना जानते थे। यहाँ से तांबे के सिक्के, मुद्रायें एवं आभूषण प्राप्त हुए हैं। आभूषणों में कर्णफूल, हार और लटकन मिले हैं। यहाँ से एक दुर्गनुमा भवन तथा ग्यारह कमरों वाले विशाल भवन भी प्राप्त हुए हैं।
गणेश्वर सभ्यता
सीकर जिले की नीम का थाना तहसील में कांटली नदी के तट पर गणेश्वर टीला की खुदाई 1977-78 में की गयी थी। यहाँ से प्राप्त सभ्यता लगभग 2800 वर्ष पुरानी है। ताम्र युगीन सभ्यताओं में यह अब तक प्राप्त सबसे प्राचीन केंद्र है। यह सभ्यता सीकर से झुंझुनूं, जयपुर तथा भरतपुर तक फैली थी। यहाँ से मछली पकड़ने के कांटे मिले हैं जिनसे पता चलता है कि उस समय कांटली नदी में पर्याप्त जल था। यहाँ का मानव भोजन संग्रहण की अवस्था में था। यहाँ से ताम्र उपकरण एवं बर्तन बड़ी संख्या में मिले हैं। ऐसा इसलिये संभव हो सका क्योंकि खेतड़ी के ताम्र भण्डार यहाँ से निकट थे। मिट्टी के बर्तनों में कलश, तलसे, प्याले, हाण्डी आदि मिले हैं जिन पर चित्रांकन उपलब्ध है।
ऋग्वैदिक सभ्यता
सरस्वती और दृश्द्वती के बीच के हिस्से को मनु ने ब्रह्मावर्त बताया है जो अति पवित्र एवं ज्ञानियों का क्षेत्र माना गया है। आगे उत्तर-पूर्व में कुरुक्षेत्र स्वर्ग के समान माना गया है। सरस्वती-दृश्द्वती के इस क्षेत्र में पाकिस्तान की सीमा से लगते, अनूपगढ़ क्षेत्र से उत्तर पूर्व की ओर चलने पर हड़प्पा कालीन सभ्यता से बाद की सभ्यता के नगर बड़ी संख्या में मिलते हैं जो भूमि के नीचे दबकर टीले के रूप में दिखायी पड़ते हैं। इन टीलों में स्लेटी मिट्टी के बर्तन काम में लाने वाली सभ्यता निवास करती थी। यह सभ्यता हड़प्पा कालीन सभ्यता से काफी बाद की थी। अनूपगढ़ तथा तरखानवाला डेरा से प्राप्त खुदाई से इस सभ्यता पर कुछ प्रकाश पड़ा है। राजस्थान में इस सभ्यता का प्रतिनिधित्व करने वाले अन्य टीलों में नोह (भरतपुर), जोधपुरा (जयपुर) एवं सुनारी (झुंझुनूं) प्रमुख हैं। ये सभ्यताएं लौह युगीन सभ्यता का हिस्सा हैं। सुनारी से लौह प्राप्त करने की प्राचीनतम भट्टियाँ प्राप्त हुई हैं।
ऋग्वैदिक काल में भारतीय समाज में दो वर्ण थे। पहला वर्ण गौर वर्ण के लोगों का था जो आर्य कहलाते थे। दूसरा कृष्ण वर्ण के लोगों का था जो अनार्य कहलाते थे। ऋग्वेद में ब्राह्मण और क्षत्रिय शब्दों का प्रयोग तो बार-बार हुआ है किंतु केवल एक ही सूक्त ऐसा है जिसमें चतुर्वर्णों का उल्लेख मिलता है। इस सूक्त में कहा गया है कि परम पुरुष के मुख से ब्राह्मण की, भुजाओं से क्षत्रिय की, जांघों से वैश्य की और पैरों से शूद्रों की उत्त्पत्ति हुई। इस रूपक का आशय जातियों की श्रेष्ठता का क्रम निर्धारित करना नहीं है अपितु प्रत्येक जाति के कार्य की स्थिति को स्पष्ट करना है। यह रूपक बताता है कि ब्राह्मण का कार्य देश के मुख के समान है। अर्थात् यज्ञ-हवन, नीति निर्देशन, उपदेश तथा शिक्षण का कार्य करने वाले ब्राह्मण हैं। क्षत्रिय देश की भुजाएं हैं। अर्थात् वे बाहुबल से प्रजा की रक्षा करते हैं। समाज रूपी शरीर के मुख और बाहुओं से नीचे अर्थात् पेट से लेकर जांघ तक का कार्य वैश्य करते हैं अर्थात् कृषि पशुपालन एवं व्यापार के माध्यम से वे प्रजा का पेट भरते हैं। शूद्रों का कार्य देश को गति देना है। वे निर्माण, सेवा और अन्य कार्यों के माध्यम से समाज को गति प्रदान करते हैं।
वैदिक काल में जातीय श्रेष्ठता का विचार उत्पन्न नहीं हुआ था। सभी आर्य परस्पर बराबर थे। कोई भी आर्य अपनी क्षमता और रुचि के अनुसार एक कर्म को त्याग कर दूसरा कर्म अपना सकता था। अंगिरा ऋषि लकड़ी का कार्य करते थे। उनके वंशज परवर्ती काल में जातियों का निर्माण होने पर 'सः अंगिरा' अर्थात् 'वह जो अंगिरा है' अर्थात् जांगिड़ कहलाये। वैदिक काल में देश व प्रजा की रक्षा के लिये युद्ध करने वाले क्षत्रिय कहलाते थे। व्यापार, वाणिज्य, कृषि कर्म, पशुपालन आदि आर्थिक गतिविधियों में संलग्न समुदाय वैदिक काल में वैश्य कहलाता था।
उत्तर ऋग्वैदिक सभ्यता
उत्तर ऋग्वैदिक युग के सम्पूर्ण संस्कृत वांगमय से लेकर राजपूत काल के शिलालेखों तक में आर्यों के चार वर्णों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तथा चार आश्रमों-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास का उल्लेख मिलता है। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता गया, इन वर्णों में कई भेद और विभेद भी दृष्टि गोचर होने लगे। स्कंदपुराण में पंचगौड़, पंचद्रविड़, पुष्करणा और श्रीमाली ब्राह्मणों का बोध होता है जो ब्राह्मणों में श्रेष्ठ माने जाते थे। राजस्थान के कई ब्राह्मण अपने आप को पूर्वी भारत के ब्राह्मणों से श्रेष्ठ मानते थे। क्योंकि पूर्वी ब्राह्मणों में से कुछ मांसाहारी होते थे।
श्रेष्ठ ब्राह्मण, निम्न समझे जाने वाले ब्राह्मणों के साथ बराबरी का व्यवहार नहीं करते थे। इस काल में गोत्र एवं प्रवर भी अलग-अलग होने लग गये थे। कुछ ब्राह्मण पुरोहिताई के काम में, कुछ राजकीय सेवा में, कुछ अध्यापन में तथा कुछ ब्राह्मण व्यापार कर्म में भी लगे हुए थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य समुदाय से इतर जातियों को शूद्र कहा जाता था। इनमें कुम्हार, दर्जी, तेली, तम्बोली, नाई, लुहार, सुनार, ठठेरा आदि जातियाँ गिनी जाती थीं। शूद्र वर्ग को भी समाज में पर्याप्त आदर मिलता था। इनमें से अधिकतर जातियाँ खेती का काम भी करती थीं इस कारण इनकी आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति ठीक थी। उपरोक्त चार वर्णों के अतिरिक्त डोम, चमार, चाण्डाल, नट, गांछे, मातंग, मच्छीमार, व्याध, धोबी, चिड़ीमार, जुलाहे आदि जातियाँ अधम और अधमाधम कही जाती थीं। इन्हें अंत्यज अर्थात् अस्पर्श्य माना जाता था। समाज के इस वर्ग की स्थिति अत्यंत दयनीय थी।
महाभारत कालीन सभ्यता
महाभारत काल से पूर्व मानव बस्तियां सरस्वती तथा दृशद्वती क्षेत्र से हटकर पूर्व तथा दक्षिण की ओर खिसक आयीं थीं। उस काल में कुरु जांगलाः तथा मद्र जांगलाः के नाम से पुकारे जाने वाले क्षेत्र आज बीकानेर तथा जोधपुर के नाम से जाने जाते हैं। इस भाग के आस पास का क्षेत्र सपादलक्ष कहलाता था। कुरु, मत्स्य तथा शूरसेन उस काल में बड़े राज्य थे। अलवर राज्य का उत्तरी भाग कुरुदेश के, दक्षिणी और पश्चिमी भाग मत्स्य देश के और पूर्वी भाग शूरसेन के अंतर्गत था। भरतपुर तथा धौलपुर राज्य तथा करौली राज्य का अधिकांश भाग शूरसेन देश के अंतर्गत थे। शूरसेन देश की राजधानी मथुरा, मत्स्य की विराट तथा कुरु की इन्द्रप्रस्थ थी। महाभारत काल में शाल्व जाति की बस्तियों का उल्लेख मिलता है जो भीनमाल, सांचोर तथा सिरोही के आसपास बसी हुई थीं।
जनपद कालीन सभ्यता
ईसा से 1,000 वर्ष पूर्व से लेकर ईसा के 300 वर्ष पूर्व तक का समय जनपद काल कहलाता है। यहाँ से इतिहास की आधारभूत सामग्री, सिक्के, आभूषण अभिलेख आदि मिलने लगते हैं। सिकंदर के आक्रमण के समय और उसके बाद गुप्तों तक राजस्थान में अनेक छोटे-छोटे जनपदों का उल्लेख मिलता है। इनमें भरतपुर के आस-पास राजन्य जनपद तथा मत्स्य जनपद, नगरी का शिवि जनपद और अलवर के निकट शाल्व जनपद प्रमुख हैं।
ई.1871 में मेयो कॉलेज के सार्वजनिक निर्माण खण्ड की स्थापना की गई। मि.गोर्डन को इसका प्रथम एक्जीक्यूटिव इंजीनियर बनाया गया। उसने डीग के महलों का भ्रमण किया तथा शिमला में बैठकर दो नक्शे तैयार किये। इनमें से पहला नक्शा ग्रेशियन ढंग का था तथा दूसरा नक्शा इण्डो-सारसेनिक ढंग का था। लॉर्ड मेयो को ग्रेशियन ढंग वाला नक्शा पसंद आया किंतु इस नक्शे को अनुमोदित नहीं किया गया। मि. जोसेलाइन ने मेयो कॉलेज के लिये कोल्हापुर स्कूल का डिजाइन प्रस्तुत किया किंतु यह भी स्वीकृत नहीं हुआ।
इसके बाद चार साल तक कॉलेज के मानचित्र के निर्माण पर विभिन्न अधिकारियों एवं अभियंताओं में लम्बा पत्र व्यवहार हुआ। लम्बे विचार विमर्श हुए और अंत में रॉयल इंजीनियर्स सेवा के मेजर जनरल कनिंघम एवं मेजर जनरल मॉण्ट द्वारा प्रस्तुत नक्शा स्वीकार कर लिया गया। राजपूताना के एजीजी मि.अल्फ्रेड सी. ल्याल ने 19 अक्टूबर 1875 को भवन की नींव रखी। इसके बनने में 7 साल और 8 माह लगे। इसके भवन निर्माण पर 3,81,696 रुपये की लागत आई।
इसके निर्माण का आरंभिक कार्य एक्जीक्यूटिव इंजीनियर ब्रासिंगटन की देखरेख में आरंभ हुआ। उसके बाद एक्जीक्यूटिव इंजीनियर भगारसिंह की सेवायें ली गईं जो 30 जून 1885 तक अजमेर में रहा। इसी के साथ मेयो कॉलेज का पीडब्लूडी खण्ड भंग कर दिया गया तथा कॉलेज के पर्यवेक्षण का काम कॉलेज के प्रिंसीपल को दे दिया गया। इसका उद्घाटन 7 नवम्बर 1885 को वायसरॉय लॉर्ड डफरिन द्वारा हुआ। ई.1903-04 में इसमें विस्तार कार्य किया गया।
ई.1909 में इस कॉलेज के लिये चार भूखण्ड खरीदे गये। ये भूखण्ड, कॉलेज के विद्यार्थियों के स्वास्थ्य की रक्षा के उद्देश्य से खरीदे गये। ई.1908-09 में नवीन पूर्वी खण्ड जोड़ा गया ताकि कक्षाओं की संख्या पूरी की जा सके। राजाओं, राजकुमारों तथा सामंत पुत्रों के लिये स्थापित किये गये इस कॉलेज की स्थापना का उद्देश्य शैक्षिक कम और राजनैतिक अधिक था। साम्राज्यिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये अंग्रेज अधिकारियों को एक ऐसे अंग्रेजी पसंद वर्ग की आवश्यकता थी जिन्हें शासन में उच्च पदों पर महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी जा सकें।
अक्टूबर 1875 में अंग्रेज अधिकारियों ने कॉलेज तो आरंभ कर दिया किंतु उन्हें चिंता थी कि इसमें पढ़ने के लिये राजा एवं राजकुमार आयेंगे अथवा नहीं। उनकी चिंता को दूर करने के लिये अलवर नेरश मंगलसिंह इसके आरंभ होने से पहले ही अजमेर पहुँच गये। वे इसमें प्रवेश लेने वाले प्रथम विद्यार्थी थे। इस सत्र में जयपुर रियासत के जोबनेर ठिकाणे के करणसिंह, बगरू से पृथ्वीसिंह, दूदू के शिवनाथसिंह भरती हुए।
इस सत्र में अलवर से पांच, मारवाड़ से 8, मेवाड़ से 4, जयपुर से 6, झालावाड़ से 1, अजमेर से 9 विद्यार्थियों ने प्रवेश लिया। इन 33 विद्यार्थियों में से एक अलवर रियासत का राजा था। एक को शीघ्र ही झालावाड़ की राजगद्दी पर बैठाया जाने वाला था तथा एक विद्यार्थी महाराजा जोधपुर का भाई था। ये समस्त विद्यार्थी 7 से 17 साल की आयु के थे। ये अपनी मातृभाषा में भी लिखना और पढ़ना नहीं जानते थे। इनमें से केवल अजमेर के तीन विद्यार्थी ही ऐसे थे जिन्हें अंग्रेजी का पूर्व ज्ञान था।
मेयो कॉलेज में जयपुर के विद्यार्थियों के आवास के लिये जयपुर हाउस का मानचित्र अंग्रेज इंजीनियर डी. के. फैब ने बनाया। इसके निर्माण पर 66 हजार रुपये खर्च आया। ई.1875 में जोधपुर नरेश महाराजा जसवंतसिंह (द्वितीय) ने मारवाड़ के सरदारों और राजवंश के बालकों के रहने के लिये 36 हजार रुपये व्यय कर मेयो कालेज में एक बोर्डिंग (छात्रावास) बनवाया और मेयो कॉलेज के लिये मकराना (संगमरमर) का पत्थर मुफ्त दिया। जब तक अलवर रेजीडेंस तैयार नहीं हुआ, महाराजा अलवर ब्रिटिश रेजीडेंसी के एक बंगले में रहे। मेजर सेंट जॉन को मेयो कॉलेज का प्रथम प्रिंसीपल बनाया गया।
यहाँ से वह कर्नल के पद पर पदोन्नत होकर कश्मीर व बलूचिस्तान का रेजीडेंट बना। कॉलेज के खुलने के समय मि. केटर को ऑफीशियेटिंग हैड मास्टर, मि. कीने को राइटिंग मास्टर, मौलवी हबीबुर्रहमान को उर्दू एण्ड पर्शियन टीचर, पण्डित जानकी नाथ को जूनियर इंगलिश एण्ड वर्नाक्यूलर मास्टर तथा पण्डित शिवनारायण को हिन्दी एण्ड संस्कृत ट्यूटर रखा गया।
5 दिसम्बर 1879 को लॉर्ड लिटन मेयो कॉलेज के पुरस्कार वितरण समारोह में भाग लेने अजमेर आये। इस दौरान उन्होंने कहा कि इस कॉलेज का प्रथम उद्देश्य देश को प्रथम श्रेणी के बुद्धिमान युवक उपलब्ध करवाना तथा राजपूताना के उच्च वर्ग के युवकों को शारीरिक प्रशिक्षण उपलब्ध करवाना है। लॉर्ड रिपन ने इस संस्था के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहा था कि हमारा उद्देश्य आपको वह समस्त ज्ञान उपलब्ध करवाना है जो पश्चिमी सभ्यता ने आज तक अर्जित किया है। साथ ही वह श्रेष्ठ ज्ञान जो परम्परागत रूप से आपमें निहित है, उसे भी बनाये रखना है।
कर्नल लॉक ने इस संस्था के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए कहा कि इस कॉलेज का उद्देश्य केवल किताबी ज्ञान उपलब्ध करवाना नहीं है अपितु मस्तिष्क एवं शरीर को ऊर्जा एवं बढ़ावा देना है। लॉक ने कहा कि यह कॉलेज विभिन्न रियासतों के राजकुमारों को निकट लाकर उनमें परस्पर मित्रता स्थापित करने का भी अवसर प्रदान करता है जिससे कि वे इतने परिपक्व हो जायें कि उनके अपने और उनकी प्रजा के उच्चतम लाभ निष्फल न हो सकें। इस संस्था में केवल राजा एवं राजकुमार ही पढ़ते थे।
संस्था के प्रथम प्राचार्य ऑलिवर सेंट जॉन के समय से ही संस्था को अच्छे शिक्षाविदों की सेवाएं प्राप्त होती रहीं। विद्यालय प्रारंभ से ही 20 खेल मैदानों एवं सभी आधुनिक सुविधाओं से युक्त रहा। बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध संस्था के इतिहास में गौरवशाली परंपराओं का पर्याय रहा और संस्था में विलियम लॉक, स्टो, लेस्ली जॉन, पं.चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी', कानमल माथुर एवं गफ्फार हुसैन जैसे प्रख्यात शिक्षाविदों ने पढ़ाया।
लॉर्ड मेयो की प्रतिमा
आरम्भ में लॉर्ड मेयो की प्रतिमा कॉलेज के केन्द्रीय कक्ष में लगाई गई थी। ई.1885 में मेयो कॉलेज भवन बनकर पूरा हुआ। 5 नवम्बर 1885 को वायसराय मारकीस ऑफ डफरिन अजमेर आया। इसी वर्ष लॉर्ड मेयो की प्रतिमा कॉलेज के केन्द्रीय कक्ष से हटाकर पश्चिम में बाहर लॉन में स्थानान्तरित की गयी।
मेयो हॉस्टल में शराब और औरतों का बोलबाला
अंग्रेजों ने भारतीय राजाओं तथा सामंतों को सभ्य बनाने के लिये मेयो कॉलेज खोला था किंतु इस कॉलेज में पढ़ने के प्रति राजपूताना के राजाओं में विशेष उत्साह नहीं था। 1970 से 1990 तक इस कॉलेज में जयपुर, जोधपुर, उदयपुर से कोई शासक अथवा राजकुमार पढ़ने के लिये नहीं आया। कोटा नरेश उम्मेदसिंह को बलपूर्वक लाया गया। बीकानेर नरेश बालक होने के कारण सरलता से अजमेर लाया जा सका। कॉलेज में वातावरण बहुत उत्साह जनक नहीं था। शराब पीना और स्त्रियों का रात्रि में हॉस्टलों में आना सामान्य घटनाएं थीं। कॉलेज के मंच से घोषणा की गई कि अब कॉलेज के द्वारा राजाओं, राजकुमारों तथा सामंतों को सभ्य नहीं बनाया जायेगा। ई.1890 में लेंसडाउन ने कॉलेज की असफलता को स्वीकार किया। मेयो कॉलेज को असफल होने से बचाने के लिये लेन्स डाउन तथा कर्जन ने इसके प्रशासन में फेर बदल किया।
मेयो कॉलेज की दुर्दशा
1891 के पश्चात् इस कॉलेज में विद्यार्थियों की संख्या में निरंतर गिरावट आने लगी। शेरिंग ने ई.1896 में हिस्ट्री ऑफ मेयो कॉलेज लिखकर कॉलेज के पुराने छात्रों से अपील की कि वे अपनी मातृ संस्था को सफल बनायें। शासकों से अनुरोध किया गया कि वे अपने यहाँ ऐसी संस्थायें खोलें जिनसे छात्रों को, बड़ा होने पर अजमेर के मेयो कॉलेज में भरती किया जा सके। ई.1902 में लॉर्ड कर्जन ने इस समस्या को व्यापक रूप देकर समस्त कुलीन वर्गीय कॉलेजों के प्रबंध से सम्बन्धित भारतीय नरेशों की एक सभा बुलाई। इसके बाद यह सम्मेलन हर साल बुलाया जाने लगा जिसका निमंत्रण वायसरॉय की ओर से दिया जाता था।
कर्जन ने कॉलेजों के प्रशासन में आवश्यक परिवर्तन किये जिससे नरेशों का विश्वास प्राप्त किया जा सके। मेयो कॉलेज की प्रबंध समिति में 16 में से 13 सदस्य राज्यों के नरेश अथवा प्रमुख सामंतों को बना दिया गया। कॉलेज में खेले जाने वाले पोलो के खेल की आलोचना हुई। प्राचार्य को पढ़ाने का दायित्व सौंपा गया। भारतीय अध्यापकों की नियुक्ति आरंभ हुई तथा इम्पीरियल कैडेट कोर की योजना बनी। वास्तव में यह एक राजनीतिक योजना थी।
जोधपुर के राजा और राजकुमार मेयो कॉलेज में
फरवरी 1907 में जोधपुर नरेश सरदारसिंह अजमेर में मेयो कॉलेज की 'कॉन्फ्रेंस' में सम्मिलित हुआ। नवम्बर 1907 में वह पुनः अजमेर आया तथा मेयो कॉलेज के उत्सव में सम्मिलित हुआ। ई.1910 में जोधपुर नरेश उम्मेदसिंह शिक्षा प्राप्त करने के लिये अपने बड़े भ्राता महाराजकुमार सुमेरसिंह के साथ ही अजमेर के मेयो कॉलेज में प्रविष्ट हुए। उन्होंने कर्नल वाडिंग्टन् की निगरानी में रहकर, शिक्षा प्राप्त की। उम्मेदसिंह का छोटा भ्राता महाराज अजीतसिंह भी मेयो कॉलेज में शिक्षा प्राप्त करने लगा।
भारत के वायसरॉय मेयो कॉलेज में
भारत की स्वतन्त्रता से पूर्व, भारत के समस्त वायसरायों ने, मेयो कॉलेज का अवलोकन किया। इनमें लॉर्ड लिटन (ई.1879), लॉर्ड रिपन (ई.1881), लॉर्ड डफरिन (ई.1885), लॉर्ड लेन्सडाऊन (ई.1891), लॉर्ड कर्जन (ई.1899 तथा ई.1902), लॉर्ड मिन्टो (ई.1906), लॉर्ड इर्विन (ई.1930), लॉर्ड वेलिंग्टन (ई.1932), आदि प्रमुख थे। इनके अतिरिक्त प्रिस ऑफ वेल्स (बाद में किंग एडवर्ड सप्तम्) भी संस्था में आए। उन्होनें इस संस्था को 'पूर्व का ईटन' की संज्ञा दी। ई.1911 में महारानी मैरी ने भी इस संस्था को देखा।
मेयो कॉलेज का संग्रहालय
मेयो कॉलेज का संग्रहालय विश्व भर की शिक्षण संस्थाओं में अद्भुत है। इसमें प्राचीन काल के अस्त्र-शस्त्र, भाले, तलवारें, बन्दूकें, पिस्तोलें तथा आधुनिक युग के हथियार-बम आदि रखे गये हैं। भारतीय और मिश्र सभ्यता के प्राचीन अवशेषों की प्लास्टर ऑफ पेरिस की अनुकृतियां तथा छठी शताब्दी ईस्वी से बारहवीं शताब्दी ईस्वी के बीच के पुरातात्विक अवशेष, पहली-दूसरी शताब्दियों की पत्थर की कलाकृतियों की अनुकृतियां, 17वीं से 19वीं शताब्दी ईस्वी की पुरानी पेंटिंग्स, पोट्रेट्स, ऑइल पेंटिंग्स, तथा फोटोग्राफ, भारत में विभिन्न काल खण्डों में प्रचलित रहे सिक्के, विश्व के प्रमुख देशों में प्रचलित सिक्के तथा मुद्रायें, विभिन्न पशुओं के अण्डे, घोंसले, मधु मक्खियों के छत्ते, विभिन्न पशुओं की खालें, विभिन्न प्रकार के पशु, पक्षी, सरीसृप एवम् मछलियों के नमूने उनके सींग तथा दांत, तितलियां, कीट-पतंगे, सीपियां, घोंघे, कौड़ियां, वनस्पति एवं जन्तुओं के काष्ठ जीवाश्म, चट्टानों के नमूने, खनिज पदार्थ, विभिन्न प्रकार की पोषाकें, टोपियाँ, बुनाई के नमूने तथा विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों के नमूने संग्रहीत हैं।
5. प्रश्न - मारवाड़ राज्य में कौनसा कानून बनाया गया जिससे किसी भी संगठन के लिये राजनैतिक गतिविधियां चलाना असंभव हो गया?
उतर - राज्यद्रोह अधिनियम।
6. प्रश्न - मारवाड़ हितकारणी सभा की स्थापना कब हुई?
उतर - ई.1924 में।
7. प्रश्न - मारवाड़ हितकारणी सभा का अध्यक्ष एवं मंत्री किसे बनाया गया?
उतर - अध्यक्ष - चान्दमल सुराणा को एवं मंत्री- जयनारायण व्यास को।
8. प्रश्न - मारवाड़ हितकारणी सभा की स्थापना का क्या उद्देश्य था?
उतर - महाराजा उम्मेदसिंह के संरक्षण में मारवाड़ राज्य में जनता की स्थिति में सुधार लाना।
9. प्रश्न - मारवाड़ हितकारणी सभा ने जोधपुर में हड़ताल क्यों की?
उतर - नगर परिषद व पुलिस एक्ट में सुधार करने की मांग के लिये
10. प्रश्न - जयनारायण व्यास को जोधपुर क्यों छोड़ना पड़ा?
उतर - ई.1925 में मारवाड़ हितकारिणी सभा के नेताओं को मारवाड़ छोड़कर जाने के आदेश दिये गये। जयनारायण व्यास जोधपुर छोड़कर ब्यावर चले गये।
11. प्रश्न - मारवाड़ हितकारणी सभा ने महाराजा के सम्मुख क्या मांगें रखीं?
उतर - मारवाड़ हितकारणी सभा ने बढ़ती हुई कीमतों के विरोध में आंदोलन किया। जोधपुर राज्य में उत्तरदायी शासन देने, राज्य में व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समाचार पत्रों की स्वतंत्रता तथा संस्था बनाने की स्वतंत्रता देने की भी मांग की। ई.1929 में सभा ने जागीरों में बेगार रोकने, न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने, धान व चारे के निर्यात पर रोक लगाने, नौकरियों में भर्ती हेतु बोर्ड बनाने आदि मांगों को लेकर आंदोलन किये।
12. प्रश्न - मारवाड़ युवक संघ की स्थापना कब हुई।
उतर - ई.1931 में।
13. प्रश्न - चांदकरण शारदा की अध्यक्षता में मारवाड़ स्टेट्स पीपल्स कान्फ्रेंस का प्रथम सम्मेलन कब एवं कहाँ आयोजित किया गया?
उतर - 24 एवं 25 नवंबर 1931 को पुष्कर में।
14. प्रश्न - स्टेट्स पीपल्स कान्फ्रेंस के पुष्कर सम्मेलन को किस बड़े नेता ने सम्बोधित किया?
उतर - कस्तूरबा गांधी ने।
15. प्रश्न - छगनराज चौपासनी वाला को क्यों गिरफ्तार किया गया?
उतर - 26 जनवरी 1932 को छगनराज चौपासनी वाला ने तिरंगा फहराना चाहा तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
16. प्रश्न - हितकारिणी सभा को गैर-कानूनी कब घोषित किया गया?
उतर - 26 जनवरी 1932 को।
17. प्रश्न - किस नये कानून से मारवाड़ की जनता के नागरिक स्वतंत्रता के अधिकारों को धक्का लगा?
उतर - मारवाड़ पब्लिक सेफ्टी ओर्डीनेंस से।
18. प्रश्न - मारवाड़ पब्लिक सेफ्टी ओर्डीनेंस कब लागू किया गया?
उतर - ई.1934 में।
19. प्रश्न - मारवाड़ प्रजा मंडल का गठन कब हुआ?
उतर - ई.1934 में।
20. प्रश्न - मारवाड़ प्रजा मंडल का मुख्य उद्देश्य क्या था?
उतर - सामंतों के अन्याय से पीड़ित किसानों की समस्याओं का निराकरण करवाना तथा राज्य में उत्तरदायी शासन एवं नागरिक स्वतंत्रता की प्राप्ति हेतु आंदोलन चलाना।
21. प्रश्न - ई.1935 में जोधपुर राज्य में किसे मुख्यमंत्री बनाया गया?
उतर - सर डोनाल्ड फील्ड को।
22. प्रश्न - जोधपुर में किस संस्था पर जन्म लेने से पहले ही रोक लगा दी गई?
उतर - ई.1936 में अन्य देशी राज्यों एवं ब्रिटिश प्रांतों की तरह जोधपुर में भी ‘नागरिक स्वतंत्रता संघ’ बनाने की चेष्टा की गयी किंतु उसके जन्म लेने से पहले ही उस पर रोक लगा दी गयी।
23. प्रश्न - मारवाड़ लोक परिषद की स्थापना कब हुई?
उतर - ई.1938 में।
24. प्रश्न - मारवाड़ लोक परिषद का क्या उद्देश्य था?
उतर - महाराजा की छत्रछाया में मारवाड़ में उत्तरदायी शासन स्थापित करना।
25. प्रश्न - मारवाड़ लोक परिषद का अध्यक्ष किसे बनाया गया?
उतर - जयनारायण व्यास निर्वासन में चल रहे थे इसलिये रणछोड़दास गट्टानी को सभापति बनाया गया।
26. प्रश्न - जयनारायण व्यास जोधपुर लौट कर कब आये?
उतर - ई.1939 में।
27. प्रश्न - राज्य सरकार ने जयनारायण व्यास की किस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया?
उतर - ई. 1942 में लिखी पुस्तक- उत्तरदायी शासन के लिये आंदोलन और आंदोलन क्यों पर?
28. प्रश्न - बड़ौदा राज्य के मुख्य न्यायाधीश राजरत्न एम. ए. सुधालकर की अध्यक्षता में जोधपुर में समिति क्यों गठित की गयी?
उतर - राज्य में संवैधानिक सुधारों पर रिपोर्ट देने के लिये।
29. प्रश्न - सुधालकर समिति की रिपोर्ट कब आई?
उतर - ई.1945 में।
30. प्रश्न - मारवाड़ लोक परिषद ने सुधालकर समिति की रिपोर्ट पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की?
उतर - परिषद् ने इस समिति की सिफारिशों को मानने से इन्कार कर दिया क्योंकि ये सुधार वैध जन आकांक्षा को पूरा नहीं करते थे।
31. प्रश्न - जोधपुर राज्य में विधान सभा के गठन की घोषणा कब हुई?
उतर - 24 जुलाई 1945 को महाराजा उम्मेदसिंह ने अपने जन्म दिवस पर जोधपुर राज्य में विधान सभा के गठन की घोषणा की।
32. प्रश्न - मारवाड़ लोक परिषद के नेता विधानसभा का चुनाव लड़ने के अयोग्य कैसे ठहराये गये?
उतर - राज्य सरकार ने सुधालकर समिति को आधार बनाते हुए राजनैतिक अपराधियों को भी अन्य अपराधियों की तरह चुनावों में भाग लेने के अयोग्य ठहरा दिया।
33. प्रश्न - महाराजा उम्मेदसिंह की मृत्यु कब हुई?
उतर - जून 1947 में महाराजा उम्मेदसिंह की मृत्यु हो गयी तथा 21 जून 1947 को हनवंतसिंह महाराजा बने।
34. प्रश्न - जोधपुर राज्य की विधानसभा का उद्घाटन कब किया गया?
उतर - 17 नवम्बर 1947 को।
35. प्रश्न - महाराजा हनवंतसिंह ने 24 अक्टूबर 1947 को राज्य में नये मंत्रिमण्डल के गठन की घोषणा की। उन्होंने अपने किन सम्बन्धियों को मंत्री नियुक्त किया?
उतर - हनवंतसिंह ने अपने काका महाराजधिराज अजीतसिंह को राज्य का प्रधानमंत्री नियुक्त किया तथा दूसरे छोटे भाई 22 वर्षीय महाराज हिम्मतसिंह को राज्य का गृहमंत्री बनाया।
36. प्रश्न - मारवाड़ लोक परिषद ने जोधपुर राज्य अधिनियम 1947 की निंदा करने के लिये कौनसी पुस्तिका निकाली?
उतर - जोधपुर राज्य के भीतर (इनसाइड जोधपुर)।
37. प्रश्न - मारवाड़ लोक परिषद ने ‘मार्च में संघर्ष क्यों’ शीर्षक से एक पुस्तिका क्यों प्रकाशित की?
उतर - मारवाड़ लोक परिषद, महाराजा द्वारा गठित मंत्रिमण्डल को उत्तरदायी शासन की भावना के अनुरूप नहीं मानकर उसका विरोध कर रहा था। इसलिये इस पुस्तिका का प्रकाशन किया गया।
38. प्रश्न - केन्द्रीय नेताओं के हस्तक्षेप से जोधपुर में गठित नये मंत्रिमण्डल में किसे प्रधानमंत्री बनाया गया?
उतर - 3 मार्च 1948 को वी. पी. मेनन ने राज्य में एक संयुक्त मंत्रिमण्डल का गठन करवाया जिसमें संखवास ठाकुर माधोसिंह को दीवान तथा जयनारायण व्यास को प्रधानमंत्री बनाया गया।
39. प्रश्न - जोधपुर राज्य में चौथे मंत्रिमण्डल का गठन कब किया गया जो कि उत्तरदायी शासन की भावना के अनुरूप भी था?
उतर - 31 अगस्त 1948 को बने चौथे मंत्रिमण्डल में पी.एस. राव (आई. सी.एस.) को राज्य का दीवान तथा जयनारायण व्यास को प्रधानमंत्री बनाया गया। इस प्रकार राज्य में उत्तरदायी शासन के लिये किया गया संघर्ष सफल रहा।
Share On Social Media:
राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति-5
01.06.2020
ऐतिहासिक काल में राजस्थान की सभ्यता एवं संस्कृति(1)
मौर्यकाल (325 ई.पू. से 184 ई.पू.) से हमें तिथिक्रम युक्त इतिहास मिलना आरम्भ हो जाता है। इस काल के आते-आते राजस्थान में सभ्यता काफी विकास कर गई थी। मौर्यकाल में लगभग पूरा राजस्थान मौर्यों के अधीन था। चंद्रगुप्त मौर्य के समय से ही मौर्यों की सत्ता इस क्षेत्र में फैल गई। बैराठ (विराटनगर) से मौर्य कालीन सभ्यता के अवेशष प्राप्त हुए हैं। इसे बैराठ सभ्यता भी कहते हैं। जयपुर से 85 किलोमीटर दूर विराटनगर की भब्रू पहाड़ी से मौर्य सम्राट अशोक का एक शिलालेख मिला है।
ई.1840 में यह शिलालेख एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल (कलकत्ता) को स्थानांतरित कर दिया गया। ई.1909 में बीजक की पहाड़ी में एक बौद्ध विहार (गोलमंदिर) के अवशेष प्राप्त हुए। इस विहार को सम्राट अशोक के शासन काल के प्रारंभिक दिनों में निर्मित माना जाता है। इसमें पत्थरों के स्थान पर लकड़ी के स्तंभों तथा ईंटों का प्रयोग हुआ है। इस स्थान से अलंकारिक मृद्पात्र, पहिये पर त्रिरत्न तथा स्वस्तिक चिह्न प्राप्त हुए हैं। जयपुर नरेश सवाई रामसिंह के काल में यहाँ से एक स्वर्णमंजूषा प्राप्त हुई थी जिसमें भगवान बुद्ध के अस्थि अवशेष थे। चीनी चात्री ह्वेनसांग ने इस क्षेत्र में 8 बौद्ध विहार देखे थे जिनमें से एक का ही पता चल पाया है। अशोक ने जिस योजना के अनुसार शिलालेख लगवाये थे, उसके अनुसार इन 8 बौद्ध विहारों के पास 128 शिलालेख लगवाये होंगे किंतु अब तक 2 शिलालेख ही प्राप्त हुए हैं। मौर्यकाल में राजस्थान, सिंध, गुजरात तथा कोंकण का क्षेत्र अपर जनपद अथवा पश्चिम जनपद कहलाता था।
विदेशी जातियों का शासन
मौर्यों का पतन हो जाने के बाद राजस्थान छोटे-छोटे गणों में बंट गया। इस कारण भारत भूमि पर विदेशी जातियों के आक्रमण बढ़ गये। यूनानी राजा मिनेण्डर ने ई.पू. 150 में मध्यमिका नगरी पर अधिकार करके, अपने राज्य की स्थापना की। तब से भारत में विदेशी जातियों का शासन होना आरंभ हो गया। यूनानी राजाओं के सिक्के सांभर झील के पास स्थित मीठे पानी की झील नलियासर से प्राप्त हुए हैं। उनके कुछ सिक्के बैराठ तथा नगरी से भी प्राप्त हुए हैं। ई.पू. प्रथम शताब्दी में पश्चिमी राजस्थान पर सीथियनों के आक्रमण आरंभ हुए। कुषाण, पह्लव तथा शकों को सम्मिलित रूप से सीथियन कहा जाता है। ईसा से लगभग 90 वर्ष पहले राजस्थान से यूनानी शासकों का शासन समाप्त हो गया तथा सीथियनों ने अपने पांव जमा लिये। ये लोग ई.पू. 57 तक मथुरा पर शासन करते रहे। शक मूलतः एशिया में सिकंदरिया के रहने वाले थे। राजस्थान में नलियासर से शक शासक हुविष्क की मुद्रा प्राप्त हुई है। उसका शासनकाल ई.95 से ई.127 के बीच था। पश्चिमी भारत में शकों की दो शाखायें- क्षहरात एवं चष्टन, कुषाणों के अधीन रहकर शासन करती थीं। कनिष्क के शिलालेख के अनुसार ई.83 से ई.119 तक कुषाण राजस्थान के पूर्वी भाग पर शासन करते रहे। ई.150 के सुदर्शन झील अभिलेख से ज्ञात हुआ है कि कुषाणों का राज्य मरुप्रदेश से साबरमती के आस पास था।
ई.130 से 150 के मध्य, शक शासक रुद्रदामन तथा यौधेयों के मध्य घनघोर संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में यौधेय पराजित हो गये। ई.150 के लगभग नागों की भारशिव शाखा ने अपनी शक्ति बढ़ानी आरंभ की तथा विदेशी शासकों को भारत से बाहर निकालने का काम आरंभ किया। इन नागों ने यौधेय, मालव, अर्जुनायन, वाकटाक, कुणिंद, मघ आदि जातियों की सहायता से पंजाब, राजस्थान तथा मध्य प्रदेश को कुषाणों से मुक्त करवा लिया। नागों ने कुषाणों के विरुद्ध अपनी विजयों के उपलक्ष्य में वाराणसी में दस अश्वमेध यज्ञ किये। वह स्थान आज भी दशाश्वमेध घाट कहलाता है।
देशी जनपदों के सिर उठाने से, ई.176 के लगभग कुषाणों की कमर टूटने लगी तथापि वे ई.295 तक किसी न किसी रूप में शासन करते रहे। ई.226 में मालवों ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया। कर्कोट नगर से प्राप्त मुद्राओं पर 'मालवानाम् जयः' अंकित है। इसके बाद चौथी शताब्दी तक मालव, अर्जुनायन तथा यौधेयों की प्रभुता का काल है। ये सब जातियाँ अथवा जनपद वस्तुतः महाभारत कालीन जातियों के उत्तरकालीन अवशेष थे। मालव जयपुर के आसपास के क्षेत्र में थे जो बाद में अजमेर, टोंक तथा मेवाड़ के क्षेत्र तक फैल गये। समुद्रगुप्त के काल तक मालव अपनी गणतंत्रात्मक सत्ता बनाये रहे। मालवों ने अर्जुनायनों के साथ मिलकर कुषाणों को परास्त किया। अर्जुनायन भरतपुर-अलवर क्षेत्र में फैले थे। राजस्थान के उत्तरी क्षेत्र के यौधेय (अब जोहिये) भी गणतंत्रात्मक अथवा अर्द्ध राजतंत्रात्मक व्यवस्था बनाकर रहते थे। यौधयों ने राजस्थान से कुषाण सत्ता को उखाड़ फैंका। इस युग में आभीर तथा मौखरी गणराज्य भी अपना अस्तित्त्व रखते थे।
गुप्त कालीन सभ्यता
भारतीय इतिहास में 320 ईस्वी से 495 ईस्वी तक का काल गुप्तकाल कहलाता है। समुद्रगुप्त ने पश्चिमी भारत के गणराज्यों पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। इनमें से अधिकांश गणराज्यों ने बिना लड़े ही समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार की। पश्चिमी राजस्थान के नाग शासक भी गुप्तों के अधीन सामंत हो गये। समुद्रगुप्त के पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय ने इन गणराज्यों को नष्ट कर इस सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने राज्य में मिला लिया। उसके आक्रमणों से शक क्षत्रपों का अस्तित्त्व हमेशा के लिये नष्ट हो गया। गुप्त कालीन भवनों एवं मंदिरों के अवशेष जोधपुर जिले में मण्डोर, नागौर जिले में दधिमति माता मंदिर तथा जालोर जिले के भीनमाल सहित अनेक स्थानों पर मिलते हैं।
गुप्त काल में हूणों के आक्रमण आरंभ हुए। कई शताब्दियों तक गुप्त शासकों ने हूणों से देश की रक्षा की किंतु अंत में हूणों के कारण गुप्त साम्राज्य अस्ताचल को चला गया। हूण राजा तोरमाण ने ई. 503 में गुप्तों से राजस्थान छीन लिया। छठी शताब्दी के आसपास हूणों ने समस्त गणतंत्रात्मक तथा अर्द्ध राजतंत्रात्मक राज्यों को छिन्न भिन्न करके, उस काल तक विकसित हुए सभ्यता के समस्त प्रमुख केंद्र नष्ट कर दिये। इनमें वैराट, रंगमहल, बड़ोपल और पीर सुल्तान की थड़ी आदि स्थान प्रमुख हैं। (ये नाम बाद के हैं, तब इन स्थानों के नाम कुछ और रहे होंगे।) मालवा के राजा यशोवर्मन (अथवा यशोधर्मन) ने 532 ई. में हूणों को परास्त कर राजस्थान में शांति स्थापित की किंतु उसके मरते ही राजस्थान में पुनः अशांति हो गयी।
हर्षवर्धन एवं उसके बाद का काल
सातवीं शताब्दी में पुष्यभूति वंश का राजा हर्षवर्धन प्रतापी सम्राट हुआ। हर्ष के बारे में हमें दो ग्रंथों- बाणभट्ट द्वारा लिखित हर्षचरित तथा ह्वेनसांग द्वारा रचित सी-यू-की से जानकारी मिलती है। चीनी यात्री ह्वेनसांग हर्ष के शासनकाल में भारत आया था। सी-यू-की का कथन है कि शीलादित्य (हर्षवर्धन) ने पूर्व से लेकर पश्चिम तक के समस्त राजाओं को जीत लिया तथा वह दक्षिण की ओर आगे बढ़ा। राजतरंगिणी का कथन है कि कश्मीर कुछ समय तक हर्ष के अधीन रहा। चालुक्य अभिलेख उसे 'सकलोत्तरापथनाथ' कहते हैं। इनसे अनुमान होता है कि उसका राज्य नेपाल से लेकर दक्षिण में नर्मदा तक फैल गया। थानेश्वर, पूर्वी राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, सिंध तथा उत्तरप्रदेश भी उसके अधीन थे। हर्ष के काल में राजस्थान चार भागों में विभक्त था- 1. गुर्जर, 2. बघारी, 3. बैराठ तथा 4. मथुरा। बयालीस वर्ष तक शासन करने के बाद 648 ई. में हर्षवर्धन की मृत्यु हुई। उसके बाद राजस्थान में पुनः अव्यवस्था फैल गयी।
अजमेर का स्थानीय प्रशासन ई.1818 से ई.1853 तक सुपरिण्टेण्डेण्ट ऑफ अजमेर के अधीन, ई.1853 से 1857 तक कमिश्नर ऑफ अजमेर-मेरवाड़ा के अधीन, ई.1857 से ई.1870 तक डिप्टी कमिश्नर ऑफ अजमेर के अधीन तथा ई.1871 से 1943 तक कमिश्नर ऑफ अजमेर-मेरवाड़ा के अधीन रहा। ई.1943 से 1947 तक अजमेर का स्थानीय प्रशासन फिर से डिप्टी कमिश्नर ऑफ अजमेर के अधीन रहा।
अजमेर का प्रांतीय स्तर पर नियंत्रण
ई.1818 से ई.1832 तक अजमेर नगर का प्रांतीय स्तर पर नियंत्रण कुछ समय के लिये दिल्ली स्थित रेजीडेण्ट के अधीन रहा। उसके बाद कुछ समय के लिये एजेण्ट टू दी गवर्नर जनरल फॉर मालवा के अधीन रहा। ई.1832 में एजेण्ट टू दी गवर्नर जनरल फॉर राजपूताना का पद सृजित किया गया। ई.1832 से ई.1853 तक एजीजी को ही कमिश्नर (अजमेर-मेरवाड़ा) भी बनाया जाता रहा। ई.1853 में कमिश्नर (अजमेर-मेरवाड़ा) का पद अलग अधिकारी को दे दिया गया। ई.1857 से पुनः पुरानी व्यवस्था आरंभ कर दी गई। इस कारण ई.1857 से ई.1871 तक अजमेर का प्रांतीय शासन एजीजी एवं कमिश्नर (अजमेर-मेरवाड़ा) के अधीन रहा। ई.1871 से ई.1947 तक अजमेर का प्रांतीय नियंत्रण एजीजी के अधीन ही रहा किंतु इस अवधि में उसे चीफ कमिश्नर (अजमेर-मेरवाड़ा) कहा जाता था।
अजमेर का राष्ट्रीय स्तर पर नियंत्रण
अजमेर का राष्ट्रीय स्तर पर नियंत्रण ई.1818 से ई.1871 तक भारत सरकार के नॉर्थ वेस्ट प्रोविंस के अधिकार में रहा। ई.1871 से 1937 तक अजमेर का राष्ट्रीय स्तर पर नियंत्रण भारत सरकार के विदेश एवं राजनीतिक विभाग के अधीन रहा। इसी अवधि में कुछ समय के लिये यह भारत सरकार के राजनीतिक विभाग के अधीन चला गया। ई.1937 में यह नियंत्रण भारत सरकार के गृह विभाग के अधीन चला गया। ई.1947 तक यही स्थिति रही।
एजेण्ट टू दी गर्वनर जनरल फॉर राजपूताना (एजीजी)
ई.1832 से एजेण्ट टू दी गवर्नर जनरल फॉर राजपूताना का पद सृजित किया गया। तब से वही अजमेर-मेरवाड़ा का पदेन कमिश्नर होता था। प्रांत का नागरिक प्रशासन चलाने के लिये पर्याप्त समय एवं ध्यान देने की आवश्यकता थी जो कि एजीजी द्वारा नहीं दिया जा सकता था। उसे राजपूत रियासतों के साथ सम्बन्धों के निर्वहन में राजनैतिक एवं कूटनीतिक दायित्वों को प्राथमिकता देनी पड़ती थी। इन दो अलग-अलग तरह के दायित्वों ने कम्पनी को बीमार बना दिया। राजनैतिक एवं कूटनैतिक दायित्वों को निभाने के लिये नियमित रूप से यात्रायें करनी पड़ती थीं तथा शासकों से व्यक्तिशः सम्पर्क रखना पड़ता था जबकि दक्षता पूर्ण नागरिक शासन के लिये लम्बे टेबल वर्क तथा मौके पर पहुँचने एवं मौजूद रहने की आवश्यकता थी।
अजमेर में न्यायिक प्रशासन
अजमेर में सबसे अधिक खराब दशा न्यायिक प्रशासन की थी जिसके लिये राजस्थान के राज्यों पर दबाव डाला जाता था। ई.1832 से ई.1853 तक पोलिटिकल विभाग का अधिकारी होते हुए भी अजमेर के कमिश्नर और एजीजी को अंतिम न्यायिक अधिकारी भी बनाया हुआ था किंतु ई.1853 में कमिश्नर और एजीजी के पद अलग-अलग व्यक्तियों को दिये गये। फलस्वरूप अजमेर के कमिश्नर के न्यायिक निर्णयों की अपीलें पहले नॉर्थ वेस्ट प्रोविंस के न्यायिक कमिश्नर और बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष जाती थीं। ई.1858 में पुनः ये दोनों पद एक ही व्यक्ति को दे दिये किंतु न्यायिक अपीलों की व्यवस्था यथावत् रही।
एजीजी की प्रतिष्ठा को धक्का
एजीजी को सेशन जज के भी अधिकार प्राप्त थे। उसके निर्णयों को इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा उलट दिये जाने के कारण एजीजी की प्रतिष्ठा एवं महत्व को काफी धक्का लगा था। इससे राजपूताना की रियासतों के साथ सम्बन्धों में भी कठिनाइयां उत्पन्न होने लगी थीं। उसकी प्रतिष्ठा इतनी घट गई थी कि जब उसे राजपूताना की रियासतों में दौरा करना होता था तो उसे वे सब प्रबंध करने होते थे जो शत्रु के क्षेत्र में जाने पर करने आवश्यक होते हैं। एजेण्ट टू दी गवर्नर जनरल को छः माह तक अपनी राजधानी माउण्ट आबू में रखनी होती थी। उसे प्रशासनिक आवश्यकताओं के कारण मेज-कुर्सी पर बैठकर भी काफी काम करना होता था। इस कारण वह रियासतों का दौरा नहीं कर पाता था।
एजीजी को हाईकोर्ट के अधिकार
ई.1861 के पश्चात् अधिकांश मामलों में एजीजी के निर्णयों को बदल दिया गया क्योंकि एजीजी का विधि ज्ञान सदा ही न्यूनतम होता था। कुछ मुकदमों में एजीजी के विरुद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने टिप्पणियां भी कर दीं। इसलिये एजीजी की राजनीतिक छवि बचाने के लिये अजमेर को पिछड़ा हुआ प्रांत कहकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के क्षेत्र से बाहर निकाला गया ओर एजीजी को अजमेर का उच्च न्यायालय भी बना दिया गया। इस प्रकार एजीजी की राजनीतिक और प्रशासनिक सत्ता को बचाये रखने के लिये लोगों को न्यायिक सुविधा से वंचित कर दिया गया।
नई व्यवस्था में, प्रांत का न्यायिक प्रशासन प्रथम महत्वपूर्ण आकस्मिकता थी। एजीजी को अजमेर-मेरवाड़ा का न्यायिक आयुक्त घोषित किया गया तथा प्रांत में अपील की सर्वोच्च कोर्ट घोषित किया गया। इसके पीछे औचित्य यह बताया गया कि उच्चतम न्यायिक प्राधिकार केवल मुख्य आयुक्त (चीफ कमिश्नर) में ही निहित हो सकते थे जो कि नॉन रेग्यूलेशन प्रोविंस का मुखिया होता है। यह शक्ति उसके बराबर अथवा उससे उच्च स्तर के अधिकारी को नहीं दी जा सकती क्योंकि इससे एजीजी की प्रतिष्ठा एवं उच्चता को राजपूताना रियासतों में कम करके आंका जाता जबकि उनसे यह अपेक्षा की जाती थी कि वे एजीजी को पूरा सम्मान दें।
इस व्यवस्था ने न्यायिक शक्तियां कार्यकारी अधिकारियों में निहित कर दीं। इस प्रकार प्रांत में न्याय का काम उन ब्रिटिश पॉलिटिकल अफसरों को दे दिया गया जिन्हें न तो न्यायिक प्रशिक्षण था और न कानूनों की जानकारी थी। इस प्रकार प्रांत के नागरिकों को दक्ष न्यायिक सलाह एवं अनुभवी न्यायिक अधिकारी उपलब्ध नहीं करवाये गये। ब्रिटिश सरकार ने इसका औचित्य यह बताया कि वे प्रांत के नागरिकों को सस्ती एवं सुलभ न्यायिक प्रशासन उपलब्ध करवाना चाहते हैं जो कि न्यायिक तकनीकों से मुक्त हो एवं देशी राज्यों को भी वे सब न्यायिक तकनीकियों सम्बन्धी परेशानियां नहीं हों जो नियमित न्यायिक प्रशासन के भीतर व्यवहार करते समय होती हैं।
न्याय व्यवस्था चरमराई
जब अजमेर के चीफ कमिश्नर को हाईकोर्ट के अधिकार दिये गये तो अजमेर के कमिश्नर को सेशन्स न्यायालय के अधिकार दे दिये गये। ये दोनों अधिकारी चीफ कमिश्नर और कमिश्नर, पोलिटिकल विभाग से आते थे जो न्यायिक कार्य करने से बचते थे। इस कारण न्याय पिछड़ता चला गया मुकदमे वर्षों तक अनिर्णीत पड़े रहे। ब्रिटिश सरकार ने न्यायिक प्रशासन को पोलिटिकल प्रशासन के अधीन देकर एक अस्वस्थ परम्परा विकसित की। पोलिटिकल अफसरों ने न्यायिक कार्य को अपने ऊपर भार समझा और उन्होंने प्रकरणों में निर्णय देने को टालने की कोशिश की।
अदालतों में भ्रष्टाचार
ई.1896 में अजमेर का विवरण लिखते समय मुराद अली ने लिखा है- अदालतों में रिश्वतबाजी, दगाबाजी, झूठे मुकदमे, झूठे गवाहों की भरमार हो गई। चंडू, मदक और अफीम के ठेके हो गये। हजारों आदमी इन चीजों को पीकर तबाह हो गये। व्यभिचार का बाजार पहले से ही गर्म था, अब भी गर्म है।
पृथक न्यायिक कमिश्नर
ई.1907 में अजमेर में एक पृथक न्यायिक कमिश्नर नियुक्त किया गया। ई.1920 में राष्ट्रीय आंदोलन तेजी से बढ़ने के कारण एजीजी एवं चीफ कमिश्नर को भी न्यायिक उत्तरदायित्व से मुक्त कर दिया गया। ई.1921 में अजमेर के लिये एक पृथक् ज्युडीशियल कमिश्नर नियुक्त किया गया ताकि लम्बे समय से अनिर्णित पड़े मुकदमे हल किये जा सकें किंतु ई.1924 में फिर से काठियावाड़ के ज्युडीशियल आयुक्त को अजमेर का काम सौंप दिया गया। वह भी पोलिटिकल विभाग का अधिकारी था। इसका परिणाम यह हुआ कि 1880-81 में जो नागरिक प्रकरण औसतन 19 दिनों में निर्णित होते थे, वे ई.1935-36 में 490 दिनों में निर्णित होने लगे। फौजदारी प्रकरणों के निर्णयों में ई.1880-81 में औसतन 6.4 दिनों का समय लगता था, वे ई.1929-30 में 94 दिनों में निर्णित होने लगे।
अजमेर के शासन को राजपूताने के लिये प्रतिमान बनाने के प्रयास
ई.1870 में लार्ड मेयो की अजमेर यात्रा के पश्चात् अजमेर के प्रशासन को राजस्थान के राज्यों के लिये एक प्रतिमान के रूप में विकसित करने का निर्णय लिया गया। इसलिये ब्रिटिश शासन का पुनर्गठन किया गया किंतु अजमेर को नॉन रेग्यूलेशन प्रान्त के रूप में ही रखा गया। यह श्रेणी पिछड़े हुए क्षेत्रों के लिये थी। ई.1870 के बाद एजीजी न केवल अजमेर प्रांत का मुख्य प्रशासनिक अधिकारी था, अपितु समस्त प्रांत का मुख्य न्यायिक अधिकारी तथा अंतिम अपील कोर्ट भी बन गया।
वर्ष भर में पांच माह- नवम्बर से मार्च तक वह निरंतर दौरे पर रहता था। 18 राज्यों के साथ राजनीतिक सम्बन्धों का संचालन करता था और माउण्ट आबू में रहता था। ई.1870 के पश्चात् अजमेर प्रशासन का प्रयोग राज्यों पर राजनीतिक एवं कूटनीतिक नियंत्रण स्थापित करने के लिये किया गया। विभिन्न नए विभागों के गठन के लिये राज्यों को अजमेर से अधिकारी प्रतिनियुक्ति पर भेजे जाने लगे। इन अंग्रेज अधिकारियों को उन विभागों के संचालन के लिये अति उत्तम और योग्य बताया जाता।
कुछ क्षेत्रों में यदि कोई पृथक विभाग प्रत्येक राज्य में न खोला जा सकता तो अजमेर के अधिकारी को समस्त राजस्थान के लिये उस विभाग का अध्यक्ष बना दिया जाता, जैसे मुख्य चिकित्सा अधिकारी, शिक्षा अधिकारी, पशु चिकित्सा अधिकारी, जेल तथा पुलिस अधिकारी आदि। जहाँ तक संभव हो सका, अजमेर प्रशासन में वे समस्त विभाग खोले गये जो एक सामान्य प्रांत में होते थे किंतु उनके पृथक्-पृथक् अध्यक्ष नहीं रख गये। प्रतिमान प्रशासन का अभिप्राय कुशल प्रशासन नहीं था।
अधिकांश प्रशासनिक अधिकारी, पोलिटिकल विभाग के होते थे जो कार्यालय के काम से बचते थे। अजमेर प्रांत के नागरिकों के सामान्य जीवन से सम्बन्धित चार विभाग खोले गये- न्याय, शांति व्यवस्था, जन स्वास्थ्य और चिकित्सा तथा शिक्षा, इनमें से प्रत्येक में बहुत कमियां थीं। शांति व्यवस्था के लिये आय स्रोतों के अनुसार पुलिस चार भागों में विभक्त थी- कण्टोनमेंट, इम्पीरियल, लोकल और रूरल। पुलिस दल में सेवा की शर्तें अत्यधिक खराब थीं और रिक्त स्थान अधिक रहते थे जिसके कारण वार्षिक भर्ती होने वालों की संख्या अधिक रहती थी।
बीसवीं सदी के प्रारंभ में लगभग 30-40 प्रतिशत पुलिस कर्मचारी बीमार रहते थे। घोर अपराधों की संख्या बढ़ती रहती थी। अजमेर में 1895 तक सरकारी अस्पताल नहीं था और जब खोला भी गया तो उस पर अधिक खर्च के कारण ध्यान कम दिया गया। मृत्यु दर अजमेर प्रांत में बहुत अधिक थी।
विदेश एवं राजनीतिक विभाग के अधीन
ई.1871 में अजमेर मेरवाड़ा क्षेत्र से एन. डब्लू. पी. सरकार का नियन्त्रण हटा लिया गया तथा उसे भारत सरकार के विदेश एवं राजनीतिक विभाग के अधीन कर दिया गया। इस कारण एजीजी राजपूताना को चीफ कमिश्नर (अजमेर-मेरवाड़) बनाया गया। एजीजी के अधीन कमिश्नर अजमेर, असिस्टेण्ट कमिश्नर अजमेर तथा असिस्टेण्ट कमिश्नर मेरवाड़ा की नियुक्ति की गई। ये तीनों अधिकारी राजनीतिक विभाग से आते थे। इसी वर्ष मेरवाड़ा बटालियन को ब्यावर से अजमेर स्थानांतरित कर दिया गया तथा रामसर तहसील समाप्त कर दी गयी।
3. प्रश्न - मेवाड़ प्रजामण्डल का सभापति तथा मंत्री किसे बनाया गया?
उतर- सभापति- बलवंतसिंह मेहता को एवं मंत्री- माणिक्यलाल वर्मा को।
4. प्रश्न - राज्य सरकार ने 11 मई 1938 को अखबारों के सम्बन्ध में क्या आदेश निकाला?
उतर- महकमा खास को अधिकार दिया गया कि वह किसी भी समाचार पत्र के मेवाड़ में प्रवेश को रोक सकता है।
5. प्रश्न - उदयपुर राज्य में सभा आयोजित करने, जुलूस निकालने एवं संस्था बनाने के सम्बन्ध में क्या कानून बना हुआ था?
उतर- राज्य में बिना अधिकारियों की आज्ञा लिये सभा, कथा, रास, धार्मिक समारोह करने, संस्थायें बनाने और जुलूस निकालने पर प्रतिबंध लगा हुआ था।
6. प्रश्न - राज्य सरकार ने मेवाड़ प्रजामण्डल पर क्या कार्यवाही की?
उतर- राज्य सरकार ने 24 सितम्बर 1938 को मेवाड़ प्रजामण्डल को गैरकानूनी संस्था घोषित कर दिया। समस्त पटेलों और पटवारियों को आदेश दिये गये कि यदि कोई व्यक्ति प्रजामंडल की गतिविधियों का प्रचार करता हुआ पाया जाये तो उसकी सूचना थानों में लिखवायें। पुलिस ने प्रजामंडल के कार्यालय पर ताले लगवा दिये तथा माणिक्यलाल वर्मा और रमेश व्यास को मेवाड़ से निष्कासित कर दिया।
7. प्रश्न - माणिक्यलाल वर्मा को किस आंदोलन का डिक्टेटर बनाया गया?
उतर- मेवाड़ प्रजामण्डल पर प्रतिबंध के विरोध में चलाये जाने वाले आंदोलन का।
8. प्रश्न - मेवाड़ प्रजामण्डल पर किये गये अत्याचारों के विरोध में कौनसा पर्चा निकाला?
उतर- मेवाड़ का बोपारी और कसान सू अरज।
9. प्रश्न - किसके आदेश से आंदोलन को स्थगित कर दिया गया?
उतर- जब राज्य का दमन बढ़ गया तो गांधीजी के आदेश से 3 मार्च 1939 को आंदोलन समाप्त कर दिया गया।
10. प्रश्न - मेवाड़ प्रजामण्डल पर से प्रतिबंध कब हटाया गया?
उतर- 22 फरवरी 1941 को।
11. प्रश्न - मेवाड़ प्रजामण्डल के प्रथम अधिवेशन का उद्घाटन किसने किया?
उतर- आचार्य कृपलानी ने।
12. प्रश्न - मेवाड़ प्रजामण्डल के प्रथम अधिवेशन में क्या मांग की गई?
उतर- मेवाड़ में तुरंत उत्तरदायी शासन लागू किया जाये। निर्वाचित विधान सभा बनायी जाये। लोक सेवकों का निष्कासन रद्द किया जाये। किसान, व्यापारी तथा अल्प वेतन भोगियों को विशेष सुविधायें दी जायें।
13. प्रश्न - राज्य में उत्तरदायी शासन दिवस कब मनाने की घोषणा की गयी?
उतर- फरवरी 1942 में।
14. प्रश्न - 20 अगस्त 1942 को मेवाड़ प्रजामंडल ने माणिक्यलाल वर्मा के नेतृत्व में महाराणा से क्या मांग की?
उतर- महाराणा 24 घण्टे में अंग्रेज सरकार से सभी प्रकार के सम्बन्ध तोड़ ले तथा राज्य में उत्तरदायी शासन लागू करने की घोषणा करे।
15. प्रश्न - राज्य ने मेवाड़ प्रजामण्डल के विरुद्ध क्या कार्यवाही की?
उतर- 21 अगस्त 1942 को पुनः प्रजामंडल को गैर-कानूनी संस्था घोषित करके माणिक्यलाल वर्मा सहित 15 प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
16. प्रश्न - किस राज्य में छात्र भी प्रजामण्डल के आंदोलन में कूद पड़े?
उतर- उदयपुर राज्य में प्रजामण्डल पर प्रतिबंध लगाने के विरोध में छात्र भी आंदोलन में कूद पड़े। राज्य की शिक्षण संस्थायें कई दिनों तक बंद रहीं। सरकार ने लगभग 600 छात्रों को गिरफ्तार कर लिया।
17. प्रश्न - उदयपुर में विक्टोरिया की मूर्ति पर काला रंग कब पोता गया?
उतर- 25 जनवरी 1943 को।
18. प्रश्न - राज्य सरकार ने मेवाड़ प्रजा मण्डल से समझौता करने के लिये किसे मध्यस्थ बनाया?
उतर- राज्य सरकार ने राजगोपालाचारी के माध्यम से समझौता करना चाहा किंतु माणिक्यलाल वर्मा ने मना कर दिया।
19. प्रश्न - मेवाड़ प्रजामण्डल से प्रतिबंध कब हटाया गया?
उतर- 6 सितम्बर 1944 को।
20. प्रश्न - 31 दिसम्बर 1945 तथा 1 जनवरी 1946 को उदयपुर में आयोजित अखिल भारतीय देशी राज्य परिषद के सातवें अधिवेशन की अध्यक्षता किसने की?
उतर- पं. जवाहरलाल नेहरू ने।
21. प्रश्न - उदयपुर अधिवेशन में क्या प्रस्ताव पारित किया गया?
उतर- देशी राज्यों के शासकों से अपील की गयी कि वे अपनी रियासतों में अविलम्ब उत्तरदायी शासन स्थापित करें।
22. प्रश्न - उदयपुर में सरकारी कर्मचारियों ने सरकारी नीतियों के विरुद्ध कब हड़ताल कर दी?
उतर- जनवरी 1946 में।
23. प्रश्न - उदयपुर राज्य में संवैधानिक सुधार समिति का गठन कब किया गया?
उतर- 8 मई 1946 को महाराणा ने ठाकुर राव गोपाल सिंह की अध्यक्षता में एक सुधार समिति की नियुक्ति की जिसमें प्रजामण्डल द्वारा मनोनीत 5 सदस्य भी शामिल किये गये।
24. प्रश्न - सुधार समिति ने कब रिपोर्ट दी?
उतर- 29 सितम्बर 1946 को।
25. प्रश्न - सुधार समिति की रिपोर्ट में क्या कहा गया?
उतर- समिति ने राज्य में उत्तरदायी सरकार की स्थापना करने तथा शासन जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों को सौंपने की सिफारिश की। उसने एक संविधान सभा की स्थापना की भी सिफारिश की। संविधान सभा में पचास सदस्य होने थे जिनका निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर किया जाना था।
26. प्रश्न - राज्य सरकार ने समिति की रिपोर्ट को अस्वीकार क्यों कर दिया?
उतर- क्योंकि इसमें कार्यकारिणी को व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी बनाया गया था।
27. प्रश्न - महाराणा ने मेवाड़ प्रजामंडल के किन सदस्यों को कार्यकारी परिषद का सदस्य नियुक्त किया?
उतर- अक्टूबर 1946 में मोहनलाल सुखाड़िया और हीरालाल कोठारी को कार्यकारी परिषद का सदस्य नियुक्त किया गया।
28. प्रश्न - मेवाड़ में नये विधान की घोषणा कब की गई तथा इसमें क्या प्रावधान किया गया?
उतर- 2 मार्च 1947 को महाराणा ने मेवाड़ के नये विधान की घोषणा की। इसके अनुसार 46 सदस्यों की धारा सभा में 18 स्थान जागीरदार, उपजागीरदार, माफीदार, श्रमिक, उद्योगपति, व्यापारी और जनजातियों के लिये आरक्षित रखे गये। शेष 28 स्थान वयस्क मताधिकार एवं संयुक्त चुनाव प्रणाली के आधार पर भरे जाने थे।
29. प्रश्न - राज्य में विधानसभा के गठन के लिये क्या प्रावधान किया गया?
उतर- छः निर्वाचित एवं कुछ गैर-सरकारी सदस्यों की विधानसभा स्थापित की जानी थी। इसे राज्य से सम्बन्धित सभी विषयों पर कानूनों का निर्माण करना था। कुछ प्रतिबंधों के साथ यह राज्य के बजट पर बहस एवं मतदान कर सकती थी। मंत्रियों को विधानसभा द्वारा किये गये निर्णयों को लागू करना था। दोनों में मतभेद होने पर महाराणा का निर्णय अंतिम माना जाना था।
30. प्रश्न - प्रजामण्डल ने क्या कहकर इस घोषणा को मानने से अस्वीकार कर दिया?
उतर- यह विधान जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं है।
31. प्रश्न - ई. 1947 में महाराणा ने किसको अपना संवैधानिक सलाहकार नियुक्त किया?
उतर- के.एम. मुंशी को।
32. प्रश्न - के. एम. मुंशी द्वारा बनाये गये संविधान को राज्य में कब से लागू किया गया?
उतर- 23 मई 1947 को प्रताप जयंती के अवसर पर।
33. प्रश्न - मुंशी द्वारा प्रस्तुत विधान को मेवाड़ प्रजामण्डल ने क्यों अस्वीकार कर दिया?
उतर- मेवाड़ प्रजामण्डल ने संविधान को सर्वथा अप्रगतिशील और अस्पष्ट बताया क्योंकि इसमें जागीरदारों को अधिक अधिकार दिये गये थे।
34. प्रश्न - मुंशी द्वारा प्रस्तुत विधान पर मेवाड़ क्षत्रिय परिषद की क्या प्रतिक्रिया थी?
उतर- मेवाड़ क्षत्रिय परिषद ने इसे प्रजामण्डल के समक्ष समर्पण बताया।
35. प्रश्न - मेवाड़ में उत्तरदायी शासन की स्थापना की मांग पूरी क्यों नहीं हो सकी?
उतर- उत्तरदायी शासन लागू होने से पहले ही 18 अप्रेल 1948 को उदयपुर राज्य का राजस्थान संघ में विलय हो गया। अतः उदयपुर राज्य में उत्तरदायी शासन लागू नहीं किया जा सका।
Share On Social Media:
राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति-6
02.01.2022
ऐतिहासिक काल में राजस्थान की सभ्यता एवं संस्कृति(2)
हर्षवर्द्धन की मृत्यु के पश्चात् राजस्थान के राजनीतिक मंच पर राजपूतों का उदय हुआ। माना जाता है कि देश में अव्यवस्था फैल जाने के बाद आबू में एक यज्ञ का आयोजन किया गया तथा इसके बाद प्रतिहार, चौलुक्य, चाहमान तथा परमार नामक चार वीरों को राष्ट्र की रक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई। इन वीरों के नाम पर राजपूतों के चार कुल चले। भारतीय इतिहासकारों के अनुसार चौहान, प्रतिहार, परमार, गुहिल आदि राजपूत वंश ब्राह्मणों में से निकले थे। यूरोपीय इतिहासकारों की मान्यता है कि प्राचीन भारतीय क्षत्रियों में विदेशी क्षत्रियों के रक्त के मिश्रण से राजपूतों की उत्पत्ति हुई। समय के साथ राजपूत कुलों की संख्या का विस्तार होता चला गया। गुहिल, कच्छवाहा, राठौड़, भाटी, चावड़ा आदि राजपूत कुल भी राजपूताना के विभिन्न भागों पर शासन करने लगे। कान्हड़ दे प्रबंध में राजपूतों के छत्तीस कुलों का उल्लेख किया गया है। इन राजपूत कुलों में जहाँ परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध थे वहीं अपने-अपने राज्यों का विस्तार करने के लिये खूनी संघर्ष की एक अनवरत श्रृंखला विद्यमान थी। सैंकड़ों वर्ष तक चले इन खूनी संघर्षों के कारण राजपूतों की शक्ति लगातार क्षीण होती चली गई तथा उनमें बाह्य आक्रांताओं का सामना करने की क्षमता नहीं रही।
ऋग्वैदिक काल के समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र नामक चार वर्ण विद्यमान थे। उत्तर ऋग्वैदिक काल में अंत्यज वर्ग भी अस्तित्व में आ चुका था किंतु राजपूत काल में समाज में अंत्यजों से भी नीची जातियों का एक वर्ग उत्पन्न हो गया जिन्हें म्लेच्छ कहा जाता था। इन लोगों का पेशा मनुष्यों की हत्या करना, चोरी एवं डकैती करना आदि था। इनमें कबर, भील, मीणा, मेड़ आदि जातियाँ थीं। बाद के काल में मुसलमानों एवं ईसाइयों के लिये म्लेच्छ शब्द का प्रयोग होने लगा जिसका अर्थ था वे लोग जो हिन्दू धर्म से इतर अर्थात् विधर्मी हैं। इन जातियों के अतिरिक्त कुछ जातियाँ ऐसी थीं जिन्हें किसी भी वर्ण में नहीं गिना जाता था। इनमें कायस्थ, जाट एवं गूजर प्रमुख थे। मध्य काल में जातियों की संख्या तेजी से बढ़ी। जातियों में गोत्र निकले, गोत्र में खांपें बनीं और इन्हीं खांपों ने आगे चलकर नई जातियों का निर्माण किया।
वैदिक काल में यद्यपि पुत्री की अपेक्षा पुत्र जन्म को श्रेष्ठ माना जाता था तथापि समाज में स्त्रियों की स्थिति अत्यंत सम्मानजनक थी। वे सभा-समितियों, सामाजिक समारोहों, धार्मिक उत्सवों, वैवाहिक कार्यक्रमों, यज्ञ आदि महत्त्वपूर्ण कार्यों में पुरुषों के समान ही भाग लेती थीं। इस युग में जातियों का निर्माण नहीं हुआ था तथा अलग अलग कर्म करने वाले परिवारों की संतानों के मध्य विवाह होते थे। एक प्रकार से ये विवाह अंतरजातीय विवाह की श्रेणी में आते थे। इस काल में बाल विवाह प्रचलित थे किंतु विधवा विवाह को अच्छा नहीं माना जाता था।
ऋग्वैदिक काल में एक पत्नी प्रथा प्रचलित थी किंतु प्रभावशाली लोगों की बहुपत्नियां भी होती थीं। राजपूत काल में बहुपत्नी प्रथा अपने चरम पर थी। ऋग्वैदिक काल में पति की मृत्यु हो जाने पर उसकी पत्नी को शव के साथ कुछ क्षणों के लिये लेटना हेाता था उसके बाद पुरोहित मंत्र पढ़कर स्त्री को आज्ञा देता था कि नारी उठो और जीवलोक में पुनः लौट आओ किंतु बाद में यह प्रथा सती प्रथा में बदल गयी। राजपूत काल में विधवा स्त्री के लिये सती होना ही श्रेयस्कर समझा जाता था। ऋग्वैदिक काल में नियोग प्रथा भी प्रचलित थी जिसमें विधवा स्त्री पुत्र की प्राप्ति के लिये अपने देवर अथवा पति के कुटुम्ब के अन्य सदस्य के साथ पत्नी रूप में रह सकती थी। राजपूत काल में इस तरह की प्रथा समाप्त हो चुकी थी। उच्च कुलों में विधवा विवाह पूरी तरह प्रतिबंधित था किंतु निम्न समझी जानी वाली जातियों में नाता प्रथा का प्रचलन था जिसमें कोई विधवा अपने पति के भाई के साथ पत्नी के रूप में रह सकती थी। ऋग्वैदिक काल में ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं जिनमें एक स्त्री एक साथ कई पुरुषों की पत्नी हो सकती थी इसे सहपतिक विवाह प्रणाली कहते थे। महाभारत काल में द्रौपदी का उदाहरण इसी तरह का है। राजपूत काल में यह प्रथा पूरी तरह समाप्त हो गयी थी। एक स्त्री का विवाह एक पुरुष के साथ ही हो सकता था।
राजपूत काल में स्त्री का वह सामाजिक सम्मान नहीं रह गया था जो वैदिक काल में था। अब स्त्री पूर्णतः पुरुष की अनुगामिनी हो कर रह गयी थी। उसे विधवा विवाह, नियोग अथवा सहपतिक विवाह के अधिकार नहीं रह गये थे। पर्दा प्रथा प्रारंभ हो गयी थी। एक से अधिक पत्नियों का होना गौरव की बात समझी जाती थी। इस समय तक भी स्वयंवर की प्रथा प्रचलित थी। सगोत्र विवाह का प्रचलन नहीं था और अनुलोम विवाह ठीक नहीं समझे जाते थे किंतु उनका प्रचलन भी समाज में था। इस काल में उच्च कुल की स्त्रियों के लिये सती होना आवश्यक सा हो गया था। विधवाओं को परिवार की सम्पत्ति पर पूरा अधिकार नहीं था। वे केवल अपने आभूषण और स्त्रीधन की ही अधिकारिणी समझी जाती थीं।
राजपूत काल में वैश्य वर्ण काफी सम्पन्न एवं प्रभावशाली हो गया। अनेक राजा एवं राजपुत्र श्रेष्ठि कन्याओं से विवाह करते थे। इस कारण वैश्य समुदाय का राज्यकार्यों में भी हस्तक्षेप रहता था। राजकीय कोठारों, भण्डारों एवं कोषागारों को संभालने का कार्य भी वैश्य समुदाय ही करता था। राजपूत काल में अग्रवाल, माहेश्वरी, जैसवाल, खण्डेलवाल और ओसवाल प्रभावशाली वैश्य थे। इन सभी वैश्य समुदायों का उद्भव क्षत्रियों से ही माना जाता है।
इस काल में राजस्थान के सामाजिक जीवन में नर बलि प्रथा, समाधि प्रथा, सती प्रथा, कन्या वध, बहु विवाह प्रथा, त्याग प्रथा, दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा, चेला प्रथा, दास प्रथा, मानव व्यापार प्रथा आदि कुप्रथाएं व्याप्त हो गईं। इन कुप्रथाओं के चलते, आम आदमी का जीवन दूभर हो गया।
मुस्लिम शासन
राजस्थान के राजपूत कुलों ने मुहम्मद गौरी के आगमन तक राजस्थान के विभिन्न भागों में स्वतंत्र रहकर राज्य किया। मुहम्मद गौरी के प्रतिनिधि कुतुबुद्दीन एबक ने 1206 ई. में दिल्ली सल्तनत की स्थापना की। इसके बाद राजस्थान का बहुत सा भू-भाग दिल्ली सल्तन के अधीन चला गया। फिर भी राजस्थान के राजपूत राज्य कभी पूरी तरह स्वतंत्र रहकर तथा कभी अर्द्ध-स्वतंत्र रहकर अपना अस्तित्त्व बनाये रहे। इस काल में मुस्लिम संस्कृति के प्रभाव से राजस्थानी की संस्कृति में अनेक उल्लेखनीय परिवर्तन आये। लोगों में धार्मिक कट्टरता बढ़ी, सामाजिक भेदभाव अपने चरम पर पहुंच गया। लोगों ने जातिवाद को कसकर पकड़ लिया। लाखों लोग निर्धन एवं परिवारहीन हो जाने के कारण साधु, सन्यासी एवं जोगी हो गये। नये-नये सम्प्रदाय अस्त्वि में आने लगे तथा अनेक मत-मतांतर खड़े हो गये। धर्म भीरू जनता इन मत-मतांतरों के मकड़-जाल में फंस गई।
16वीं शताब्दी में बाबर ने दिल्ली सल्तनत का ध्वंस करके मुगल सल्तनत की स्थापना की। मेवाड़ को छोड़कर राजस्थान के समस्त राजपूत राज्य मुगलों के अधीन हो गये। इस काल में अकबर द्वारा अपनाई गई साम्प्रदायिक सौहार्द की नीति ने राजपूत राज्यों में कला एवं संस्कृति के विकास को गति दी। इस काल में शिल्पकला, चित्रकला, एवं संगीत कला का अच्छा विकास हुआ। 18वीं शताब्दी में मुगलों का शासन पराभव को पहुँच गया तथा मराठों ने लगभग पूरे उत्तरी भारत को रौंद डाला। इन आक्रमणों से न केवल राज्य की आर्थिक स्थिति को गहरा नुक्सान पहुंचाया अपितु सांस्कृतिक स्तर पर राजस्थान को उससे भी अधिक नुक्सान हुआ।
ब्रिटिश शासन
उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम में, मराठों के अत्याचारों से बचने के लिये देशी राज्यों ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से अधीनस्थ समझौते करके अपने अस्तित्त्व को बचाया। 1857 ई. में हुई सैनिक क्रांति की विफलता के बाद राजस्थान के समस्त देशी राज्य ब्रिटिश क्राउन के अधीन चले गये। इस दौरान राजस्थान की संस्कृति पर पाश्चात्य विचारों का तेजी से प्रभाव पड़ा। लोग शिक्षित होने लगे और अपनी उन्नति के बारे में सोचने लगे। इस कारण प्रजा का चिंतन सामूहिक हित के लिये न होकर व्यक्तिवादी होने लगा। अंग्रेज अधिकारियों ने सामाजिक जीवन में व्याप्त नर बलि प्रथा, समाधि प्रथा, सती प्रथा, कन्या वध, बहु विवाह प्रथा, त्याग प्रथा, दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा, चेला प्रथा, मानव व्यापार प्रथा आदि को रोकने के लिये कानून बनाये। इन कानूनों का राजस्थान के सांस्कृतिक परिवेश पर गहरा प्रभाव हुआ। 1947 ई. में स्वतंत्रता मिलने तक राजस्थान की राजनीतिक स्थिति इसी प्रकार बनी रही। आजादी के बाद देशी रजवाड़े, राजस्थान में विलीन हो गये और वर्तमान राजस्थान अपने स्वरूप में आया।
वर्तमान राजस्थान
आज जिस प्रदेश को हम राजस्थान कहते हैं उसमें देश का 10.41 प्रतिशत भू-भाग आता है जिसमें देश की 5.56 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है। विगत एक सौ वर्षों में राजस्थान की जनसंख्या में बहुत तेजी से वृद्धि हुई है। 1901 ई. में राजस्थान की जनंसख्या 1,02,94,090 थी जो 100 वर्ष की अवधि में अर्थात् 2001 की जनगणना में 5,64,73,122 हो गई। वर्ष 2011 की जनगणना में राजस्थान की जनसंख्या 6,85,48,437 पाई गई। राजस्थान में एक लाख से अधिक जनसंख्या वाले 20 नगर हैं जिनमें जयपुर, जोधपुर, कोटा, बीकानेर, अजमेर, उदयपुर, भीलवाड़ा, अलवर, गंगानगर, भरतपुर, पाली, सीकर, टोंक, हनुमानगढ़, ब्यावर, किशनगढ़, गंगापुर सिटी, सवाईमाधोपुर, चूरू तथा झुंझुनूं सम्मिलित हैं।
विशाल मरुस्थल एवं विशाल अरावली पर्वतमाला के प्रसार के कारण राजस्थान विरल जनसंख्या वाला प्रदेश है। भारत का जनसंख्या घनत्व 382 व्यक्ति प्रति वर्ग कि.मी. है किंतु राजस्थान का जनसंख्या घनत्व केवल 200 व्यक्ति प्रति वर्ग कि.मी. है। जयपुर जिला 595 व्यक्ति प्रति वर्ग कि.मी. घनत्व के साथ राज्य का सर्वाधिक घनत्व वाला जिला है जबकि जैसलमेर जिले का जनसंख्या घनत्व सबसे कम, 17 व्यक्ति प्रति वर्ग कि.मी. है। 2011 की जनगणना के अनुसार राजस्थान में 1000 पुरुषों के पीछे स्त्रियों की संख्या केवल 928 है। प्रदेश की जनसंख्या में साक्षरों की संख्या प्रतिशत है। पुरुष साक्षरता 79.2 प्रतिशत तथा स्त्री साक्षरता 52.1 प्रतिशत है। राज्य में औसत आयु 64 वर्ष है। राज्य की जन्म दर 31.4 तथा मृत्यु दर 8.5 है।
आज के राजस्थान की संस्कृति, विगत डेढ़ लाख वर्षों में सभ्यता के विभिन्न सोपानों में विकसित ज्ञान-विज्ञान, आचार-विचार, रहन-सहन, रीति-रिवाज एवं धर्म-दर्शन का अद्भुत समुच्चय है। इसमें बहुत कुछ अपना है तो बहुत कुछ बाहर से आगत भी है। भले ही राजस्थान की संस्कृति में बाहरी तत्व कितनी ही प्रबलता से मौजूद क्यों न हों किंतु यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि इस संस्कृति पर पर्यावरणीय चेतना का बहुत गहरा प्रभाव है।
ब्रिटिश दस्तावेज इन तथ्यों से भरे पड़े हैं कि ब्रिटिश अधिकारी अजमेर को प्रशासनिक दक्षता का आदर्श घोषित करना चाहते थे जबकि अजमेर में वे सामान्य सुविधायें भी उपलब्ध नहीं करवाई जा सकी थीं जिनका लाभ दूसरे प्रांतों की जनता लम्बे समय से उठा रही थी। इसका मुख्य कारण यह था कि प्रांत के उच्चस्थ पॉलिटिकल अधिकारी हर समय देशी राज्यों की समस्याओं को सुलझाने में व्यस्त रहते थे इस कारण उनके पास अजमेर के सामान्य प्रशासन के लिये पर्याप्त समय नहीं था। यहां तक कि अजमेर की नगर पालिका भी ढंग से कार्य नहीं कर पा रही थी।
प्रशासन में भ्रष्टाचार
उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में अजमेर का प्रशासन भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबा हुआ था। शहर में व्यभिचार का बोलबाला था। अजमेर के चारों तरफ स्थित देशी रियासतों की आवारा औरतों को अजमेर में शांति मिलती थी। इस कारण उस समय अजमेर में वेश्याओं के चार बड़े अड्डे विकसित हो गये थे। हर अड्डे में रात को तीस चालीस बदमाश और आवारा औरतें जमा रहते थे। कुटनियों की पांचों अंगुलियां घी में थीं और सिर कढ़ाई में। उस पर उच्च श्रेणी के नये आने वाले अधिकारियों के लिये नई और ताजा औरतें प्रस्तुत की जाती थीं। शहर के हर गली कूंचे में बंदोबस्त के पंजाबी कर्मचारी ही दिखाई देते थे। शहर के चारों ओर के रास्तों तथा पुष्करजी, किशनगढ़ एवं ब्यावर जाने वाली सड़कों पर जुआरियों के झुण्ड फिरा करते थे।
चण्डू और नशीले पदार्थ को कोई जानता तक न था। किसी बंगले पर कोई साहब का खानसामा या बावरची चोरी छिपे मदक के छर्रे पीता था। अफीम का भी ठेका न था। हर बनिये की दुकान पर रुपये की पंद्रह, बीस तोला अफीम मिलती थी। अजमेर में प्रतिदिन हजारों रुपये की अफीम का सौदा होता था। अजमेर में केवल एक पारसी था। गुजराती, मराठी और मद्रासी नहीं थे। केवल दो बंगाली थे जो डिप्टी कमिश्नर की अदालत में कर्मचारी थे। शहर के सारे रास्ते खतरों से भरे हुए थे। अक्सर सरकारी डाक लुट जाया करती थी। मुंशी अब्दुल्लाह खां सब इंसपेक्टर और मुंशी रामतीर्थ आदि अधिकारी डाकुओं के पीछे दौड़ते-फिरते थे।
अधिकारियों की नीतियाँ भ्रष्टाचार के लिये जिम्मेदार
अजमेर की बुरी प्रशासनिक दशा के पीछे एक कारण यह भी था कि इस जिले में कोई भी हाकिम जम कर दो-चार वर्ष नहीं रह पाता था। यूरोपियन अधिकारी और मिलिट्री ऑफिसर विदेश कार्यालय के अधीन होने से जल्दी-जल्दी स्थानांतरित होते थे। अजमेर के निवासियों की ओर से यह मांग उठने लगी थी कि इस जिले को किसी हाईकोर्ट के अधीन कर दिया जाये ताकि यहाँ सिविलियन हाकिम लग सकें किंतु राजपूताना के तत्कालीन एजीजी वॉल्टेयर का यह मानना था कि यदि यह जिला अजमेर हाईकोर्ट के अधीन हो गया तो राजपूताना की समस्त देशी रियासतों पर भी ब्रिटिश सरकार के प्रशासनिक एवं राजनैतिक नियंत्रण की हैसियत कुछ भी नहीं रह जायेगी।
आदर्श प्रशासनिक प्रतिरूप बनाने का काम छोड़ा
अजमेर प्रांत में भी वे सब विभाग स्थापित किये गये जो एक नियमित प्रांत में होते थे किंतु 1877 ई. में लॉर्ड लिटन ने अनुभव कर लिया कि यदि अजमेर को आदर्श प्रशासनिक प्रांत के रूप में विकसित किया जायेगा तो यह एक ऐसा प्रदर्शनीय खेत बन जायेगा जिसमें सारी चीजें बहुत खर्चा करके जुटाई गई हों। प्रांत की आय इतनी न थी कि उससे प्रशासनिक व्यय को चलाया जा सके। यही कारण है कि अजमेर में अधिकांश विभागों को एक ही व्यक्ति के अधीन कर दिया तथा बहुत से विभागों में लम्बे समय तक पद रिक्त रखे गये। इस कारण इन विभागों का काम गति नहीं पकड़ सका।
पोलिटिकल अधिकारियों को नागरिक प्रशासकों के रूप में काफी शक्तियां दी गई थीं किंतु उन्हें काम का अनुभव न होने तथा प्रशिक्षण का अभाव होने के कारण उनके कार्य में दक्षता का अभाव था। नया प्रांत बन जाने एवं नई व्यवस्थायें आरंभ हो जाने पर भी पॉलिटिकल अधिकारियों का मुख्य उद्देश्य राजपूताना की देशी रियासतों पर अपना प्रभावी नियंत्रण बनाये रखना ही रहा।
ब्रिटिश क्षेत्रों से अलग होने, राजपूताना रियासतों के मध्य स्थित होने तथा कार्य की प्रकृति भिन्न होने से अजमेर-मेरवाड़ा का नागरिक प्रशासन काफी जटिल हो गया। एक तरफ ब्रिटिश सरकार अपने उस वचन से अलग नहीं होना चाहती थी जिसमें कहा गया था कि भारत के नागरिकों को उन्नत नागरिक प्रशासन दिया जायेगा तथा दूसरी तरफ ब्रिटिश सरकार, अजमेर-मेरवाड़ा को अपने पॉलिटिकल अधिकारियों एवं प्रशासकों को प्रशिक्षण स्थल के रूप में विकसित करना चाहती थी। इन दोनों उद्देश्यों ने अजमेर-मेरवाड़ा के प्रशासन को आत्म निर्भर बनाने के लिये विवश किया। शीघ्र ही यह अनुभव कर लिया गया कि प्रशासनिक दक्षता बढ़ाने में काफी रुपया खर्च करना होगा जिसके बदले में कोई अर्थलाभ नहीं होगा।
शैक्षिक प्रशासन
शैक्षिक क्षेत्र में अजमेर प्रशासन ने कई प्रयोग किये ताकि शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर किया जा सके। 1872 ई. तक नॉर्थ-वेस्ट प्रोविंसेज के डायरेक्टर पब्लिक इन्सट्रक्शन्स ही नियंत्रक अधिकारी थे। इसके बाद अजमेर-मेरवाड़ा कमिश्नर पब्लिक इंस्ट्रक्शन्स के पदेन डायरेक्टर बन गये। उनके साथ ऐसा कोई अधिकारी नहीं था जो अजमेर-मेरवाड़ा प्रांत में शिक्षा के लिये पूरा समय और ध्यान दे सके। गवर्नमेंट कॉलेज अजमेर, पदेन इंसपेक्टर ऑफ स्कूल्स हुआ करते थे। उनके जिम्मे ही पूरे जिले का काम देखने का भार था। चालीस वर्ष तक यही व्यवस्था चलती रही। इसके बाद ई.1912 में सुपरिण्टेंडेंट ऑफ एज्यूकेशन फॉर अजमेर एण्ड देहली का पद सृजित किया गया किंतु ई.1922 तक इस पद पर किसी की नियुक्ति नहीं की गई।
ई.1923 में भारत सरकार के एज्यूकेशनल कमिश्नर को अजमेर मेरवाड़ा में शिक्षा के कार्य को देखने का दायित्व दिया गया। ई.1930 में सुपरिण्टेंडेंट ऑफ एज्यूकेशन फॉर अजमेर-मेरवाड़ा, देहली एण्ड सेण्ट्रल इण्डिया की नियुक्ति की गई। इस पर जितने भी अधिकारियों की नियुक्ति की गई उन सबका मुख्यालय अजमेर से बाहर रहा। इसलिये वे अजमेर में शिक्षा के कार्य पर अधिक ध्यान नहीं दे सके। इस कारण अजमेर की जनता शिक्षा के क्षेत्र में अन्य प्रांतों की तुलना में काफी पिछड़ी हुई थी किंतु आर्यसमाज की स्कूलों तथा मेयो कॉलेज की उपस्थिति के कारण अजमेर का शैक्षिक दृश्य देशी रियासतों की तुलना में काफी समृद्ध दिखाई पड़ता था।
भू-राजस्व प्रशासन
अजमेर मेरवाड़ा में ब्रिटिश भू-राजस्व प्रशासन के दो पक्ष थे- पहला, भूस्वामियों (इस्तिमरदारों) के प्रति ब्रिटिश अधिकारियों की प्रवृत्ति तथा दूसरा, प्रत्यक्ष ब्रिटिश नियंत्रण वाले क्षेत्रों में भू बंदोबस्त की नीति। ब्रिटिश अधिकारियों ने पहले पहल इस्तिमरारी जागीरों में काश्तकारों के अधिकारों की रक्षा के दायित्व को पूरा करने का काम किया किंतु बाद में इस्तिमरदारों का विश्वास जीतने के दृष्टिकोण से उन्होंने प्रत्यक्षतः इस्तिमरदारों का पक्ष लेने की नीति अपना ली किंतु इस नीति के कारण इस्तिमरारी जागीरों के किसानों में असंतोष पनप गया।
जब काश्तकारों ने भूस्वामियों के विरुद्ध शिकायतें कीं तो ब्रिटिश अधिकारियों ने उन शिकायतों को सुनने से मना कर दिया। इससे भूस्वामियों ने यह मान लिया कि काश्तकार अब भूस्वामियों की मर्जी पर छोड़ दिये गये हैं। इससे इस्तिमरदार जागीरों में काश्तकारों पर अत्याचार बढ़ गये और उनकी दुर्दशा होने लगी। अंग्रेज सरकार को काश्तकारों की इस दुर्दशा का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि अब किसान मानने लगे कि इस्तिमरदार जागीरों की बजाय अंग्रेजी नियंत्रण वाली जागीरों में प्रशासन अधिक अच्छा है। आम जनता में भूस्वामियों की प्रतिष्ठा गिर गई। इससे ब्र्रिटिश अधिकारियों को भूस्वामियों के आंतरिक मामलों में प्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप करने का अवसर मिल गया।
इस्तिमरदार जागीरों में काश्तकारों की दुर्दशा का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अजमेर-मेरवाड़ा प्रांत में इस्तिमरदार जागीरों के अधीन 61 प्रतिशत कृषि भूमि थी तथा ब्रिटिश अधिकारियों के प्रत्यक्ष नियंत्रण में 39 प्रतिशत कृषि भूमि ही थी फिर भी इस्तिमरदारी काश्तकारों की अपेक्षा ब्रिटिश नियंत्रण वाले काश्तकारों से 28 हजार रुपये का वार्षिक राजस्व अधिक प्राप्त होता था। अजमेर प्रांत में 1874, 1887 एवं 1910 में तीन भू बंदोबस्त हुए। तीनों ही बार राजस्व करों में वृद्धि की गई किंतु काश्तकारों के लिये सिंचाई आदि की सुविधाओं का विकास नहीं किया गया।
पुलिस प्रशासन
अजमेर-मेरवाड़ा प्रांत में पुलिस प्रशासन की भी हालत खराब थी। पुलिस कर्मियों के वेतन, भत्ते एवं सुविधायें बहुत कम थे जबकि काम की परिस्थितियां अत्यंत खराब थीं। 1871 ई. के बाद से अजमेर-मेरवाड़ा प्रांत में पुलिस विभाग में स्वीकृत पदों में से केवल 15 प्रतिशत पदों पर ही पुलिस कर्मियों की भर्ती की जाती थी। पुलिस में भर्ती के लिये योग्य युवक नहीं मिलते थे। लोगों की निर्धनता एवं रहन-सहन के निम्न स्तर के कारण अच्छे युवक उपलब्ध नहीं हो पाते थे।
इसके साथ ही पुलिस सेवा की परिस्थितियां अच्छी नहीं थीं तथा पुलिस में काम करने की बजाय अन्य जगह पर काम करने से अच्छा वेतन मिलता था। निम्न वेतन के चलते पुलिस कार्मिकों में भ्रष्टाचरण बढ़ गया था। कई बार जांच में यह भी पाया गया कि अजमेर शहर में हुई चोरी की वारदातों में स्वयं पुलिस भी शामिल थी। पुलिस कर्मियों द्वारा नौकरी छोड़ देना अथवा उनकी मौत हो जाना आम बात थी। अजमेर पुलिस अपने दक्ष कर्मियों को नौकरी के प्रति आकर्षित करने में पूरी तरह विफल थी।
पुलिस सुपरिंटेण्डेंट पर काम का अत्यधिक दबाव था। उसे निश्चित समयावधि में पुलिस थानों का निरीक्षण करना होता था तथा साथ ही अजमेर प्रांत के विशाल एवं असुरक्षित बॉर्डर की भी सुरक्षा करनी पड़ती थी। इस कारण वह सदैव व्यस्त रहत था जिससे उसके काम की गुणवत्ता काफी नीची थी और पुलिस कर्मियों को भ्रष्टाचार करने का पूरा अवसर प्राप्त हो जाता था। अजमेर में पुलिस कर्मियों की स्वीकृत संख्या से सदैव आधी संख्या ही उपलब्ध रहती थी।
लगभग 36 प्रतिशत अपराधों की जांच ही नहीं हो पाती थी। जांच विभाग में स्टाफ की कमी थी इसकारण बड़ी संख्या में अपराध, चोरी एवं सेंधमारी के प्रकरणों की जांच करने से मना कर दिया जाता था। जहाँ ब्रिटिश सरकार एक ओर अजमेर प्रांत को एक सभ्य और प्रगतिशील जिला कहने के लिये उत्सुक थी वहीं दूसरी ओर वास्तविकता यह थी कि बहुत से अंग्रेज अधिकारी अजमेर को अनुसूचित जिला अधिनियम (शिड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट एक्ट) के अंतर्गत शासित करने की बात करते थे।
यही कारण था कि ब्रिटिश सरकार ने अजमेर प्रांत में किसी तरह की लोकतांत्रिक संस्था की स्थापना नहीं की। बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में जब अजमेर में विधान सभा की स्थापना करने की मांग उठी तो सरकार ने यह कहकर इस मांग को अस्वीकार कर दिया कि अजमेर प्रांत में पर्याप्त संख्या में पढ़े-लिखे लोग नहीं हैं जो विधानसभा को चला सकें। जबकि कुर्ग जैसे छोटे प्रांत में भी तब विधान सभा का गठन हो चुका था।