ई.1875 में जब अजमेर में रेल पहुँची तो अजमेर नगर का चेहरा अचानक ही बहुत तेजी से बदलने लगा। ई.1878 में जब लोको मोटिव वर्कशॉप कार्य करने लगा तो अजमेर की जनसंख्या और तेजी से बढ़ने लगी। बी.बी.एण्डसी.आई. रेलवे कम्पनी ने वीसल झील तथा मदार पहाड़ी के बीच 52 बंगले बनाये। इस क्षेत्र को हजारी बाग कहा जाता था। यह क्षेत्र गवर्नमेंट कॉलेज के दक्षिण में स्थित था। आगरा एवं अन्य नगरों से बहुत से कर्मचारी अजमेर पहुँचने लगे। ई.1884 में अजमेर में रेलवे के सामान्य कार्यालयों की स्थापना की गयी।
गाड़ीवानों का रोजगार ठप्प
रेल आने से पहले अजमेर में सैंकड़ों तांगे वाले, ऊँट गाड़े वाले तथा बैल गाड़ियों वाले रोजगार कमाते थे किंतु रेल आने के बाद उनमें से अधिकांश लोग भूखे मरने लगे और धीरे-धीरे अजमेर शहर छोड़कर चले गये।
मकानों का किराया बढ़ा
रेल के आने के बाद अजमेर शहर की जनसंख्या तेजी से बढ़ने लगी और लगभग तीन गुनी हो गई। बाहर से बड़ी संख्या में मनुष्यों के आने से जिन लोगों के पास पक्के भवन थे, वे तेजी से मालदार हो गये। घरों तथा रिक्त भूमि का किराया भी आठ गुना तक बढ़ गया। रिक्त भूमि पर अस्थाई शौचालय बनाकर जिसने छप्पर डाल लिया, वह भी दो रुपये महीना कमाने लगा।
नगर विस्तार योजनाएँ
जनसंख्या वृद्धि के साथ ही अजमेर नगर के विस्तार की योजनाएं आरंभ की गईं। साण्डर्स ने पहली नगर विस्तार योजना अजमेर नगर के दक्षिण में कैसर गंज के रूप में आरम्भ की। कैसरगंज की स्थापना ब्रिटिश साम्राज्ञी विक्टोरिया के दिल्ली दरबार आयोजन एवं कैसरे हिन्द की उपाधि धारण करने की स्मृति में की गई। अजमेर के लोग इसे केसरगंज कहकर पुकारते हैं।
ई.1884-85 में केसरगंज बनकर तैयार हुआ। इसके केन्द्र में एक गोलाकार पार्क था। इस गोलाकार पार्क से सात सड़कें विभिन्न दिशाओं को जाती थीं। पूरा नियोजन बहुत सुंदर विधि से किया गया था। शीघ्र ही यह पूरा क्षेत्र दुकानों एवं घरों से भर गया। ई.1880 के दशक में नगरा, जोंसगंज, रामगंज, नारायण गंज आदि मौहल्ले बसने लगे। जोंसगंज की स्थापना ई.1880 में रेलवे ने उस समय की जब अजमेर में रेलवे शॉप्स की स्थापना हुई। इस कॉलोनी को बसाने के लिये रेलवे ने अपने कर्मचारियों को भूमि एवं अन्य सुविधायें उपलब्ध करवाईं।
ई.1890 में पाल बीसला पर एक कॉलोनी विकसित हुई। इन्हीं दिनों में नसीराबाद रोड तथा श्रीनगर रोड के बीच पुराना जादूघर मौहल्ला विकसित हुआ। जब अजमेर की जनंसख्या काफी बढ़ गई तो आगरा गेट के बाहर गंज में भी बहुत भीड़-भाड़ हो गई जिससे इस क्षेत्र में लूंगिया तथा बापूगढ़ नामक मौहल्ले बस गये। इम्पीरियल रोड से लेकर दौलतबाग तक का क्षेत्र एवं जयपुर सड़क से लेकर कचहरी सड़क तक का क्षेत्र जो प्राचीन समय में सब्जियों एवं फलों के बगीचों से भरा हुआ था, वहाँ पर हाथी भाटा नाम से काफी भीड़भाड़ वाला मौहल्ला बस गया। बीसवीं सदी के आरंभ में ब्रह्ममपुरी नामक मौहल्ला बसा। कुछ ही दिनों में ये सारे क्षेत्र परकोटे के भीतर के मौहल्लों की भांति भीड़-भाड़ वाले हो गये।
इसके बाद अजमेर के दक्षिण में, रेलवे शॉप्स के पास, जनसंख्या का विस्तार होना आरंभ हुआ। भगवानगंज, आसागंज(ट्रामवे स्टेशन के पास), भैरूगंज (नसीराबाद रोड के निकट), लोको शॉप तथा मेयो कॉलेज के बीच रबद्या बसा। नसीराबाद रोड पर उदयगंज एवं भजनगंज, जोन्सगंज के दक्षिण में गणेशगंज तथा आसागंज के दक्षिण में पहाड़गंज बसा। रेलवे लाइन एवं गवर्नमेंट हाईस्कूल के बीच में तोपदड़ा बसा। दौलतबाग के निकट पूर्व में लगे हुए कालाबाग तथा अन्य बागीचे लुप्त हो गये। वहाँ सिविल लाइन्स बनी जिसमें उच्च वर्ग के लोगों ने अपने निवास बनाये।
अजमेर में महत्त्वपूर्ण भवनों का निर्माण
अजमेर नगर में जब नई कॉलोनियां का विकास हो रहा था, तब उन दिनों में अजमेर में कई विशाल एवं महत्त्वपूर्ण भवनों का निर्माण हुआ। इनमें कैसरगंज क्षेत्र में दयानंद आश्रम, रेलवे हॉस्पीटल, रेलवे इंस्टीट्यूट, रोमन कैथोलिक कैथेड्रल, पुराना विक्टोरिया हॉस्पीटल, नया कचहरी भवन, जनरल पोस्ट एण्ड टेलिग्राफ ऑफिस, किंग एडवर्ड मेमोरियल, द गवर्नमेंट हाईस्कूल नया विक्टोरिया हॉस्पीटल रेलेव बिसेट इंस्टीट्यूट प्रमुख हैं।
आगरा से आये सर्वाधिक लोग
रेल आ जाने के कारण ई.1894 तक अजमेर शहर की जनसंख्या दो गुनी बढ़ गई। बाहर से आने वालों में आगरा के लोग सबसे अधिक थे।
वेश्याओं का बोलबाला
अजमेर शहर में व्यभिचार तो पहले से ही चला आ रहा था किंतु रेल के आने के बाद और भी बढ़ गया। अंतर केवल इतना आया कि पहले अजमेर में राजपूताना और अजमेर की औरतें उपलब्ध थीं, अब कहीं की भी औरतें मिलने लगीं। अजमेर में इतनी बड़ी संख्या में वेश्याओं के आने का कारण यह भी था कि अजमेर के चारों तरफ राजपूत रियासतें थीं जहाँ बदचलन औरतों को घर में ही मार दिया जाता था। राजा के कोप से डरने के कारण व्यभिचार से दूर रहते थे किंतु अजमेर में राजा का राज न था, अंग्रेजी कानून हर व्यक्ति की सहायता के लिये उपलब्ध था। इस कारण अजमेर में व्यभिचारी औरतों का जमावड़ा हो गया। अजमेर में आने वाली औरतें आसपास की रियासतों से आती थीं जो अपने घर, परिवार और समाज के अत्याचारों से दुखी होकर आती थीं। वे लौटकर अपने घरों को नहीं जाती थीं। इन्हें ढूंढने भी कोई नहीं आता था। ई.1870 के आसपास अजमेर में वेश्याओं के 11 ठिकाने थे किंतु ई.1897 में इनकी संख्या 20-21 हो गई। इन अड्डों पर कुटनियां भी रहती थीं जो हर वेश्या से अपना कमीशन पच्चीस पैसे लेती थीं।
किरायेदारों ने बढ़ाया व्यभिचार
रेल के आने के बाद बहुत से लोगों ने बाहर से आये लोगों को किरायेदार बनाकर अपने घरों में रखा। इन घरों में जवान बहू बेटियों ने अवैध बच्चों को जन्म दिया जिससे उन परिवारों को बहुत शर्मिंदगी झेलनी पड़ी।
भिखारियों की भीड़
रेल के आने से पहले ख्वाजा की दरगाह पर खादिमों के अतिरिक्त कुछ भिखारी भी दिखाई देते थे। इसी प्रकार पुष्कर में भी पण्डों के अतिरिक्त कुछ भिखारी दिखाई देते थे किंतु रेल के आने के बाद पूरे देश के भिखारी अजमेर के धार्मिक महत्त्व के कारण अजमेर और पुष्कर में आकर रहने लगे। ये दोनों शहर भिखारियों से भर गये। इनमें कुछ बदमाश एवं चोर आदि भी सम्मिलित रहते थे।
कुंजड़ों की चांदी
रेलवे के आने के बाद अजमेर में निचले तबके के लोगों की दौलत में अधिक तरक्की हुई। कुंजड़े, माली तथा मेवा बेचने वाले मालामाल होने लगे। रेल के आने से पहले एक रुपये में कई मन तरकारी मिलती थी किंतु रेल के आने के बाद तरकारी का भाव एक रुपये की आठ सेर हो गया। शहर में मिलावटी घी बिकने लगा।
शराब का ठेका
रेल के चलते ही अजमेर में बहुत से अंग्रेजों, पारसियों एवं हिन्दुस्तानी व्यापारियों ने बड़ी संख्या में अपनी दुकानें लगा लीं। इन लोगों ने अच्छा पैसा कमाया। रेल के आने से पहले ई.1870 में अजमेर का देशी शराब का ठेका दस-ग्यारह हजार रुपये में उठता था किंतु रेल आरंभ होने के बाद ई.1886 में एक लाख सत्तर हजार रुपये का ठेका उठा। अजमेर शहर में शराब का पहला ठेका दादाभाई पेस्तमजी नामक पारसी ने लिया किंतु चार साल में उन्हें बीस से तीस हजार रुपये का घाटा उठाना पड़ा क्योंकि ठेके की पूरी राशि वूसल नहीं हो पाती थी।
चण्डू का चलन
रेल के आने से पहले शहर में एक भी दुकान पर चण्डू नहीं बिकता था। चण्डू अफीम से बनने वाला मादक पदार्थ है जिसके सेवन से नशा होता है। इसकी लत वाले व्यक्ति को समय पर चण्डू नहीं मिलने से उसकी हालत खराब हो जाती है।रेल आरंभ होने के बाद अजमेर में चण्डू की कई दुकानें खुल गईं। मुराद अली के अनुसार मुरादाबाद का रहने वाला रहीम बख्श नामक एक बदमाश अजमेर में चण्डू लेकर आया। उसी ने अजमेर के नौजवानों को चण्डू पीना सिखाया। रेल के आने के बाद अजमेर में चण्डू का भी ठेका उठने लगा। मदार गेट के अंदर वेश्याओं के मौहल्ले में उसकी दुकान थी।
वह किसी भी मालदार नौजवान से दोस्ती गांठता, फिर उसे अपनी दुकान में ले जाकर बिना पैसा लिये चण्डू के छर्रे पिलाता। हर रोज दोस्ती के नाम पर छर्रों की संख्या बढ़ा देता। इस प्रकार उस नौजवान को चण्डू की लत लग जाती। धीरे-धीरे सैंकड़ों बदमाश, उचक्के और जुआरी उसकी दुकान से चण्डू पीने लगे। रहीम बख्श चण्डू बेचकर प्रतिदिन 15-16 रुपये कमाने लगा। उसे देखकर अजमेर में और भी बहुत से लोगों ने चण्डू की दुकानें खोल लीं। यहाँ तक कि अजमेर में चण्डू की 32 दुकानें खुल गईं।
जब यह संख्या समाचार पत्रों में छपी तो सरकार ने चण्डू की दुकानों के लिये लाइसेंस की व्यवस्था की। इसके बाद से मदक, चण्डू तथा अफीम का ठेका साथ ही छूटने लगा। अजमेर की सरकार ने अजमेर में केवल तीन दुकानों को ही चण्डू के लाइसेंस दिये। कुछ समय बाद अजमेर रेलवे के खलासी माल गोदाम से सामान चुराकर रहीम बख्श की दुकान पर बेचने लगे। ई.1890-91 तथा 1892 में पादरियों ने अफीम की खेती एवं सेवन का विरोध किया।
पादरियों ने चण्डूबाजों के किस्से और चित्र लंदन के समाचार पत्रों- सेन्टीनल, बेनर और एशिया, मुम्बई के समचार पत्र- गारजियन आदि में छपवाये। इस आलोचना के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत के शहरों में चण्डू के लाइसेंस देने की प्रथा बंद कर दी। उस समय कर्नल ट्रेवर अजमेर का कमिश्नर था। उसने भी अजमेर में चण्डूखाने के लाइसेंस देने बंद कर दिये।
अफीम बेचने के लाइसेंस भी बंद कर दिये गये किंतु मदक का ठेका जारी रहा। इसके बाद अजमेर शहर में चण्डू की दुकानें चोरी-छिपे चलने लगीं। इसके बाद कानून लागू हुआ कि कोई भी व्यक्ति ढाई तोला चाण्डू तथा पांच तोला अफीम अपने साथ रख सकता है। इसलिये अफीम और चण्डू के लाइसेंस बंद करने का परिणाम केवल इतना हुआ कि सरकार को राजस्व की हानि हुई। इन दोनों चीजों का उपयोग वैसे ही होता रहा।
अजमेर के जुआघर
रेल के आने से पहले अजमेर शहर में तीन जुआघर थे। इन तीनों जुआघरों का मालिक झूंथाराम जौहरी था। रेल आने के बाद मदार गेट के बाहर पाचं नये जुआघर खुल गये। पुलिसकर्मियों ने भी इन जुआघरों के कर्मचारियों से मिली भगत कर ली। धड़ल्ले से जुआ खिलवाया जाने लगा। जब पुलिस इंस्पेक्टर ब्लांचट को इन जुआघरों के बारे में ज्ञात हुआ तो उसने भेस बदल कर जुआरियों एवं जुआघरों के कर्मचारियों को पकड़ा। जिससे सारे जुआघर बंद हो गये।
पत्तेबाजों के गिरोह
शहर में 15-20 पत्तेबाजों का एक गिरोह था जिनमें पन्नालाल और कल्लन आदि बदमाश अधिक कुख्यात थे। ये लोग तड़के सवेरे ही शहर से बाहर निकल जाते और खुल्लमखुल्ला मुसाफिरों को जुए से लूटा करते थे। पुष्कर, नसीराबाद और किशनगढ़ की सड़कों पर हर समय ये लोग मुसाफिरों की ताक में लगे रहते थे तथा प्रतिदिन सौ-सौ रुपये तक कमाकर आपस में बांट लेते। एक दिन इन जुआरियों ने एक फकीर को अपने जाल में फंसाकर उसके सारे कपड़े जीत लिये। सर्दियों का समय था। इसलिये फकीर ने कहा कि कम्बल छोड़ दो किंतु जुआरी न माने उन्होंने फकीर से कम्बल भी छीन लिया।
इस पर दुखी होकर फकीर ने मदार गेट के बाहर स्थित डिक्सन कुण्ड में कूदकर आत्महत्या कर ली। इसके बावजूद लम्बे समय तक अजमेर में पत्तेबाजों का बाजार उसी तरह गर्म रहा। गंज के बाहर स्थित आगरा दरवाजे के जुलाहों और चटाईवालों का गिरोह तथा मदार गेट के बाहर के बदमाशों के गिरोह भी जबर्दस्त थे। ये कोसों दूर तक मुसाफिर का पीछा करते थे। पहले उसको अनजान बनकर दो तीन रुपये जितवा देते थे। फिर एक ही दांव में उसका सारा माल छीन लेते थे।
उनका तरीका यह रहता था कि जब ये लोग जुआ खेल रहे होते तब जुआरियों के गिरोह का एक आदमी पास की झाड़ियों में छिपा रहता था और वह अचानक सामने आता और यह कहकर इन पर धावा बोल देता कि मैं पुलिस वाला हूँ और कई दिनों से तुम्हें ही खोज रहा हूँ। तुम सब कोतवाली चलो। यह सुनकर गिरोह के सदस्य भाग खड़े होते तथा मुसाफिर पकड़ लिया जाता। इस तरह उसका सब माल लूट लिया जाता। कुछ समय बाद पुलिस कार्यवाही की गई और कई जुआरी पकड़ लिये गये और उन्हें सजा दी गई।
बादाम फोड़ने वाले बदमाश
जब पत्तेबाजी का धंधा मंदा पड़ गया तो इनमें से कुछ लोगों ने बादाम फोड़ने का जुआ खेलना आरंभ किया। ये लोग अपनी जेब में ऐसे बादाम रखते थे जिनमें से कुछ में एक गिरी तथा कुछ में दो गिरी होती थी। ये बदमाश शर्त लगाकर बादाम फोड़ते कि इस बादाम में कितनी गिरी हैं। शर्त जीतने वाले को पैसे मिलते। इन बदमाशों को अच्छी तरह पहचान होती थी कि किस बादाम में कितनी गिरी है। ये लोग रास्ता चलते व्यक्ति को अपने खेल में शामिल कर लेते और उसका सारा माल लूट लेते।
जब रेल आई तो बादाम का खेल भी बंद हो गया और उसका स्थान पटका ने ले लिया। एक बदमाश कुछ खोटा जेवर लेकर मुसाफिर के सामने चलता और उसके कुछ साथी, मुसाफिर के पीछे चलते। आगे चलने वाला बदश्माश अपना खोटा जेवर रास्ते में गिरा देता। जब मुसाफिर उसे उठाता तो मुसाफिर के पीछे चल रहे बदमाश मुसाफिर को पकड़ लेते और कहते कि इसमें हमारा भी हिस्सा है। जब ये लोग झगड़ा कर ही रहे होते कि आगे चलने वाला बदमाश रोता हुआ आता और कहता कि मेरा सौ-सवा सौ रुपये का कड़ा कहीं गिर गया। तुम्हें मिला हो तो बताओ। इस पर दूसरे बदमाश कड़ा मिलने से मना कर देते। जब पहले वाला बदमाश रोता हुआ चला जाता तो बाकी के बदमाश मुसाफिर से उस कड़े के बदले में बीस-पच्चीस रुपये ले लेते और कड़ा मुसाफिर को दे देते। इस कड़े की वास्तविक कीमत दो आने होती थी।
गौमांस की दुकानें
अजमेर में अंग्रेजों के आने से पहले गाय का मांस नहीं मिलता था। यहाँ तक कि मुगल बादशाहों ने भी अजमेर में गाय काटने तथा उसके मांस की बिक्री करने पर प्रतिबंध लगा रखा था। रेल के आने के बाद अजमेर में यूरोपियन्स ने गौमांस खाना आरंभ किया। नसीराबाद छावनी से गौमांस लाकर अजमेर में बेचा जाने लगा। मदार गेट के बाहर मोरी दरवाजे पर गौमांस की चार दुकानें खुल गईं।
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : राजस्थान के क्रांतिकारी - नृसिंह दास (बाबाजी)
22.12.2021
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी - 172
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : राजस्थान के क्रांतिकारी - नृसिंह दास (बाबाजी)
1. प्रश्न - नृसिंह दास (बाबाजी) का जन्म कहाँ हुआ था?
उतर - 31 जुलाई 1890 को नागौर के प्रतिष्ठित अग्रवाल परिवार में।
2. प्रश्न - नृसिंह दास, बाबाजी क्यों कहलाये?
उतर - नृसिंहदास ने लाखों रुपये के कारोबार को छोड़ दिया तथा अपने और अपनी पत्नी के विदेशी कपड़ों की होली जलाकर बाबाजी बन गये।
3. प्रश्न - नृसिंह दास (बाबाजी) ने क्या काम हाथ में लिया?
उतर - उन्होंने स्वतंत्रता सेनानियों तथा क्रांतिकारियों के परिवारों एवं उनके बालकों की देखभाल, शिक्षा-दीक्षा और शादी विवाह करवाने का कार्य हाथ में लिया। बाबाजी ने कई बार बम्बई से हथियार खरीद कर क्रांतिकारियों तक पहुँचाये।
'राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति' ग्रंथ के लेखन का उद्देश्य राजस्थान प्रदेश में विगत हजारों वर्षों से पल्लवित एवं पुष्पित मानव सभ्यता द्वारा विकसित एवं स्थापित परम्पराओं, सिद्धांतों एवं व्यवहार में लाई जाने वाली बातों में से उन गूढ़ तथ्यों को रेखांकित करना है जिनके द्वारा राजस्थान की संस्कृति ने पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए मानव को आनंददायी जीवन की ओर अग्रसर किया है।
मानव सभ्यता प्रकृति की कोख से प्रकट होती है तथा उसी के अंक में पल कर विकसित होती है। मानव सभ्यता को जो कुछ भी मिलता है, प्रकृति से ही मिलता है। इस कारण किसी भी प्रदेश की सभ्यता को, प्रकृति के अनुकूल ही आचरण करना होता है। प्रकृति के विपरीत किया गया आचरण, अंततः मानव सभ्यता के विनाश का कारण बनता है। प्रकृति ने अपनी सुरक्षा के लिये जिस आवरण का निर्माण किया है, वह है धरती का पर्यावरण।
धरती का पर्यावरण ही सम्पूर्ण प्रकृति को जीवन रूपी तत्व से समृद्ध एवं परिपूर्ण रखने में सक्षम बनाता है। धरती का पर्यावरण बहुत सी वेगवान शक्तियों का समूह है जो एक-दूसरे के अनुकूल आचरण करती हैं, एक-दूसरे को गति देती हैं और एक दूसरी को सार्थकता प्रदान करती हैं। ठीक इसी तरह अपने पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिये सम्पूर्ण धरती एक जीवित कोशिका की तरह कार्य करती है। जिस तरह एक कोशिका में स्थित समस्त अवयव एक दूसरे के अनुकूल रहकर, कोशिका को जीवित रखने, स्वस्थ रखने और कार्य करने की क्षमता प्रदान करते हैं, ठीक उसी तरह धरती पर मौजूद प्रत्येक तत्व को एक दूसरे के अनुकूल आचरण करना होता है, अन्यथा धरती का अस्तित्त्व ही खतरे में पड़ सकता है।
पर्यावरणीय संस्कृति से आशय मानव द्वारा प्राकृतिक शक्तियों के दोहन में संतुलन एवं अनुशासन स्थापित करने से है। इस अनुशासन के भंग होने पर प्रकृति कठोर होकर मानव सभ्यता को दण्डित करती है। उदाहरण के लिये यदि मानव अपनी काष्ठ सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये समस्त वनों को एक साथ काट ले तो मानसून नामक शक्ति हमसे बदला लेती है। वर्षा या तो होती ही नहीं और यदि होती है तो बाढ़ को जन्म देती है। इसके विपरीत, यदि मानव अपनी काष्ठ सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये सीमित मात्रा में पेड़ों को काटे तथा साथ-साथ नये पेड़ लगाना जारी रखे तो प्रकृति का संतुलन बना रहेगा।
इस प्रकार पर्यावरणीय संस्कृति से आशय एक ऐसी सरल जीवन शैली से है जो मानव जीवन को सुखद एवं आराम दायक बनाती है तथा पर्यावरण को भी नष्ट नहीं होने देती। राजस्थान की संस्कृति के विभिन्न आयाम इसी गहन तत्व को ध्यान में रखकर स्थापित किये गये हैं जिनका विवेचन इस पुस्तक में करने का प्रयास किया गया है। राजस्थान की संस्कृति में ऐसे बहुत से बारीक एवं गहन गम्भीर तत्व उपस्थित हैं जो मानव को यह चेतना प्रदान करते हैं कि प्रकृति का उपयोग कबीर की चद्दर की तरह किया जाये- दास कबीर जतन कर ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीन्ह चदरिया।
आशा है यह पुस्तक हमारी नई पीढ़ी का ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित करने का सफल प्रयास करेगी कि मानव प्रकृति का पुत्र है, पर्यावरण प्रकृति की चद्दर है तथा हमें प्रकृति रूपी माँ की इस चद्दर को सुरक्षित रखना है। यह तभी संभव है जब हम अपने पुरखों द्वारा विकसित की गई सांस्कृतिक चेतना को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये अपने प्रयास निरंतर जारी रखें। -डॉ. मोहनलाल गुप्ता
उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में अजमेर नगर का चेहरा एक बार फिर बदलने लगा। उस समय आनासागर पानी से इस तरह भरा रहता था कि शाहजहानी बाग तथा पुष्करजी के रास्ते तक पानी ही पानी दिखाई देता था। पूरे नगर के कुण्ड मदार के पहाड़ तक आनासागर के पानी से लबालब रहते थे। बीसला तालाब सूखा हुआ होने के उपरांत भी उसके पूर्व की तरफ पक्की सीढ़ियों के पास दूर तक पानी जमा रहता था। मदार दरवाजे के सामने डिक्सन साहब का कुण्ड और सूरज कुण्ड जो दौलतबाग और शहर के बीच में थे, भरे रहते थे। इसी तरह ऊसरी दरवाजे की डिग्गी बारह महीने भरी हुई रहती थी। पूरा शहर इन कुण्डों का ही पानी पीता था। वन विभाग के अधिकारी पेड़ों पर लोहे की प्लेट चिपकवाते थे।
अजमेर के निकट बजरंगनाग पहाड़ पर एक भी वृक्ष नहीं था। जिला कार्यालय, ऑनरेरी मजिस्ट्रेटों की कचहरियां, तहसीलदार कार्यालय, सैटलमेंट विभाग तथा पुलिस विभाग मैगजीन में स्थित थे। मैगजीन का मुख्य दरवाजा बंद रहता था, दूसरा दरवाजा खुला रहता था। मैगजीन के पूर्व तथा दक्षिण में वीराना था। डिप्टी कंजरवेटर फॉरेस्ट मुंशी अनवर खान, स्थान-स्थान पर सफाचट मैदानों को जंगल बनाने के लिये घेरते फिरते थे।
उन्नीसवीं शती के नब्बे के दशक में अजमेर में नया चिकित्सालय बना जिसे ई.1892 में सेठ मूलचंद सोनी ने खरीद लिया। इसमें शेख मोहम्मद इलाही बख्श को चिकित्सक नियुक्त किया गया। धानमण्डी में पादरियों का चिकित्सालय था जिसमें पीरुलाल बाबर नियुक्त थे। दरगाह मीरां सैयद हुसैन खुनग (घोड़ासवार) तारागढ़ का प्रबंधन कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अधीन था। अजमेर की जनसंख्या 25 से 30 हजार थी। विदेशी कर्मचारियों में सैटलमेंट विभाग के पंजाबी बड़ी संख्या में थे। शेष शहर एक ही ढंग का था। जनजातियां बहुत ही बुरे हाल में थीं। विशेषतः कुंजड़े बहुत गरीब और कंगले थे। शहर में टके धड़ी तरकारी और अमरूद आदि मिलते थे। न पेट भर रोटी मिलती थी और न तन ढंकने को कपड़ा। अंदरकोट के रहने वालों का खूब जोर था। इन्हें अंदरकोटी कहते थे। ये लोग लड़ाकों के रूप में विख्यात थे तथा बगीचों के ठेके लिया करते थे। तमाम फल-फूल के मालिक यही थे। कुंजड़े और कुंजड़ियां उनकी गुलाम हुआ करती थीं। मालियों की हालत भी अच्छी नहीं थी।
मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर उर्स के समय प्रतिवर्ष एक बड़ा शामियाना लगाया जाता था। बाद में उस स्थान पर पत्थरों से महफिल खाना बना दिया गया। इसमें लोहे की तीलियों पर बारीक लाल रंग का कपड़ा लगी फानूस रोशन की जाती थी। महफिल के दिन अव्वल मुतवल्ली दो चौबदारों एवं अर्दली को साथ में लेकर, महफिल में आकर बैठते थे। इसके बाद सज्जादा नशीन या उसका एक रिश्तेदार आता था। तब फातेहा ख्वानी होकर कव्वालियों के समारोह तथा सरोद की शुरुआत होती थी। अंतिम दिन पगड़ियां बंटती थीं। खादिम लोग एक के बदले बीस-बीस पगड़ियां मार लेते थे। लंगर और देगों का खाना बांटने में छूट रखी जाती थी। ये खाने अजमेर शहर में हर कहीं बिकते हुए दिखाई देते थे। उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में भी यह प्रथा जारी थी।
आम तौर पर शहर के लोगों का व्यवहार शरीफाना था। कोई शख्स दगाबाजी करना नहीं जानता था। बिना लिखा पढ़ी के हर साहूकार विश्वसनीय आदमी को रुपया देता था। मकानों का कियारा बहुत सस्ता था। मकान भी हजारों सूने पड़े थे और दो-दो रुपये में अच्छी भली हवेली किराए पर मिलती थी। दो ढाई सौ रुपये में खासी जायदाद आदमी खरीद सकता था। शहर में हजारों बीघा जमीन वीरान पड़ी थी। सौ-डेढ़ सौ मकानों के अतिरिक्त समस्त मकान एक मंजिला थे। पक्की इमारतें बहुत कम थीं। (यादगार-ए-मुराद अली, 03.05.1998; मुराद अली द्वारा दिया गया यह विवरण सही नहीं जान पड़ता। एक ओर तो वह लिखता है कि शहर में व्यभिचार का बोलबाला था और रास्तों पर खतरा ही खतरा था। दूसरी ओर लिखता है कि कोई शख्स दगाबाजी करना नहीं जानता था। एक ओर वह लिखता है कि शहर में हजारों हवेलियां सूनी पड़ी थीं और उसी केसाथ लिखता है कि पक्की इमारतें बहुत कम थीं।)
घी शुद्ध मिलता था। अनाज भी बहुत था। रुपये के पंद्रह सेर गेहूं, एक मन जौ, तीन सेर घी बिकता था। मिट्टी के तेल से कोई भी परिचित नहीं था। न उसकी बिक्री होती थी। सब तिल्ली का तेल ही जलाते थे। आर्यसमाज को कोई जानता न था। हिन्दू सनातन धर्म के पाबंद थे। संदेश वाहकों का बाजार गर्म था। बीकानेर, ब्यावर, उदयपुर आदि समस्त शहरों में पत्र संदेशवाहक ही पहुँचाते थे। बड़े शहरों के सिवाय डाकखाना कहीं नहीं था। जयपुर से अजमेर और अजमेर से पाली और पाली से आबू तक तार जाते थे। ब्यावर के लोग ऊपर की ओर मुंह उठाकार तार को देखा करते थे।
लोहागल के रास्ते से अजमेर शहर की तरफ जाने पर एक नहर दिखाई देने लगी जो पादरी ग्रे के बंगले की तरफ से आनासागर की तरफ खोदी गई। हाजी मोहम्मद खान का हरा-भरा बगीचा उजड़ गया और वहाँ पर केवल एक कब्र बची। ऊँचे टीलों पर कोठियां दिखाई देने लगीं। आनासागर के पूर्वी कोने वाली बड़ी टेकड़ी पर एजेंट टू दी गवर्नर जनरल फॉर राजपूताना व चीफ कमिश्नर अजमेर-मेरवाड़ा का भव्य भवन दिखाई देने लगा। उस पर लाल सफेद पट्टियों वाला यूनियन जैक दूर से ही उड़ता हुआ दिखाई देता था।
राय बंसीलाल का बगीचा भी अब शेष नहीं रहा था। महवेबाग वाली कोठी जहाँ एक्स्ट्रा असिस्टेंट कमिश्नर सैटलमेंट बैठते थे, वीरान हो गई। दूधिया कुएं के पास होकर आनासागर की जो चादर चलती थी, वह भी लुप्त हो गई। मछलियों के रहने के स्थान की जगह अब सड़कें बन गईं। सैलानी पीर की पूर्व वाली जमीन में दौलत बाग का विस्तार हो गया। बाग की पुरानी दीवार गायब हो गई।
नगर की तरफ सूरजकुण्ड तक बाग फैल गया। वहाँ से पश्चिम में पहाड़ के नीचे बरगद के तले की कब्रें गायब हो गईं और उनके स्थान पर कनेर की झाड़ियां नजर आने लगीं। बाग के दरवाजों पर लोहे के फाटक लग गये जिन पर मसूदा के जागीरदार का नाम खुदा हुआ था। यह बाग सन् 1877 के कैसरे हिन्द दरबार की स्मृति में बनाया गया था। इस दरबार को अजमेर के लोग केसरी दरबार भी कहते थे। दिल्ली दरवाजे से एक सड़क सीधी दूधिया कुएं के पूर्व में होकर बाग वाली सड़क से जा मिली। अंधेरिया बाग से लेकर डॉक्टर हस्बैण्ड साहब की कोठी तक जो बाड़ियां और खेत थे, तथा जहाँ घने वृक्ष थे, वहाँ कैसर बाग लग गया।
जहाँ डाक बंगला और पीली बंगलिया के बीच में वीराना हुआ करता था, वहाँ जिला कचहरी बन गई। पीली बंगलिया में नजारत का कार्यालय और डाक बंगले में कोर्ट ऑफ वार्ड्स का कार्यालय बन गया। आगरा गेट के बाहर गंज में जहाँ दो तीन कसाई और चटाई वाले थे, वहाँ पर हजारों पक्के मकान बन गये तथा तिल धरने को भी जगह नहीं रही।
राय बहादुर मूल चंद सोनी के मंदिर का काम पूरा हो गया था तथा उसके दरवाजे लग गये थे। उसमें सोने चांदी और मीनाकारी की मूर्तियाँ लग गईं। मंदिर इतना भव्य था कि उसकी छत की लाल बुर्जियां आकाश से बातें करती थीं। आगरा दरवाजे से घूघरा घाटी तक, मदार दरवाजे से मदार के पहाड़ तक और मेयो कॉलेज से मोडिया भैंरू स्थित सड़क नसीराबाद तक 114 बंगले, 115 छोटी कोठियां और 109 सड़कें निकल गईं। मदार दरवाजे और मैगजीन के बीच तार बंगला बन गया। हाथी भाटा की जगह सवाईजी का मंदिर और धर्मशाला तैयार हो गये।
मदार दरवाजे के बाहर बीसला को जाते हुए जो पुराने बाग का दरवाजा और कब्रिस्तान थे वे नष्ट होकर उन पर रेलवे कर्मचारियों के क्वार्टर बन गये। यहीं से मालपुए में होकर एक सड़क कचहरी जिला को गई जिसके दोनों तरफ सैंकड़ों मकान बन गये। मुंशी घासीराम की धर्मशाला बन गई। जहाँ मैदान था, वहाँ बबूल आदि के सैंकड़ों नए वृक्ष उग गए। सड़क के किनारे-किनारे हजारों मकान और बंगले बन गये। तालाब बीसला सुखा दिया गया। उसमें खेत बोये जाने लगे और घुड़दौड़ होने लगी।
अजमेर के धोबी पहले आनासागर में कपड़े धोते थे, उन्नीसवीं सदी के अंत में धोबियों ने अपना जमावड़ा बीसला तालाब पर लगाया। मदार गेट के बाहर सैंकड़ों दुकानें बन गईं। जहाँ कुंजड़े बाजार लगाते थे। डिक्सन कुण्ड के दक्षिण में गंदा नाला और कांटों की झाड़ियों के स्थान पर दरगाह की चिश्ती चमन सराय बन गई। इस सराय के सामने मस्जिद के पास भटियारे और व्यापारी बैठते थे, उनकी जगह नगर निगम का मैदान बन गया। उसके पूर्वी कोने में घण्टाघर बन गया।
पुख्ता सराय और इमलियों के पेड़ों की जगह रेलवे स्टेशन बन गया जिससे लगती हुई रेल की पटरियां बिछ गईं। कैवेण्डिशपुरा में सैंकड़ों पक्के मकान बन गये तथा वेश्याओं का चकला लग गया। मदार गेट से ऊसरी दरवाजे तक जहाँ मदार गेट से ऊसरी गेट तक, जहाँ खाइयां थी और दिन में भी डर लगता था, बहुत सारे घर बन गये।
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : राजस्थान में प्रजामण्डल आंदोलन की पृष्ठभूमि
21.12.2021
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी - 173
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : राजस्थान में प्रजामण्डल आंदोलन की पृष्ठभूमि
1. प्रश्न - राजस्थान में आजादी की असली लड़ाई किस रूप में चली?
उतर - राजस्थान में आजादी की असली लड़ाई प्रजामण्डल आंदोलन के रूप में चली।
2. प्रश्न - राजपूताना मध्य भारत सभा की स्थापना कब हुई?
उतर - 29 दिसम्बर 1919 को।
3. प्रश्न - राजपूताना मध्य भारत सभा का प्रथम अधिवेशन कहाँ हुआ?
उतर - मारवाड़ी पुस्तकालय, चांदनी चौक नई दिल्ली में।
4. प्रश्न - राजस्थान सेवा संघ तथा मारवाड़ सेवा संघ की स्थापना कब हुई?
उतर - ई.1920 में।
5. प्रश्न - अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद की स्थापना कब एवं किसने की?
उतर - ई. 1927 में दीवान बहादुर रामचंद्र राव, सी. वाई. चिंतामणि तथा एन.सी. केलकर आदि नेताओं ने।
6. प्रश्न - अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद की स्थापना का क्या उद्देश्य था?
उतर - देशी रियासतों की प्रजा के अधिकारों की रक्षार्थ संघर्ष करने के उद्देश्य से।
7. प्रश्न - देशी राज्यों के बारे में कांग्रेस की क्या नीति थी?
उतर - कांग्रेस की नीति थी कि वह देशी राज्यों के मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगी।
8. प्रश्न - कांग्रेस ने देशी राज्यों के प्रति अहस्तक्षेप की नीति का त्याग कब किया?
उतर - ई.1928 में।
9. प्रश्न - ई.1928 में कांग्रेस ने भारतीय राजाओं से क्या अनुरोध किया?
उतर - ई.1928 में कांग्रेस ने प्रस्तावित भारतीय संघ के लिये एक संविधान का प्रारूप तैयार किया तथा भारतीय राज्यों के शासकों से उत्तरदायी शासन स्थापित करने का अनुरोध किया और नागरिकता के मौलिक अधिकारों की उचित सुरक्षा व्यवस्था करने का सुझाव दिया।
10. प्रश्न - ई.1928 में कांग्रेस ने राज्यों की जनता द्वारा उत्तरदायी शासन के लिये किये जा रहे संघर्ष के प्रति क्या रुख अपनाया?
उतर - कांग्रेस ने राज्यों की जनता के उत्तरदायी शासन के लिये किये जा रहे शांतिपूर्ण और उचित संघर्ष में अपनी सहानुभूति भी प्रकट की।
11. प्रश्न - इण्डियन स्टेट्स पीपुल्स कांफ्रेंस ने ई.1929 के अधिवेशन में अपनी क्या मांगें रखीं?
उतर - राज्यों के लिये पृथक स्वतंत्र न्यायपालिका बनाने, राजाओं के व्यक्तिगत व्यय को प्रशासनिक व्यय से पृथक करने और प्रतिनिधि संस्थाओं की स्थापना करने पर बल दिया।
12. प्रश्न - अखिल भारतीय देशी राज्य परिषद के अध्यक्ष एन.सी. केलकर ने ई.1933 में कांग्रेस से क्या मांग की?
उतर - केलकर ने मांग की कि कांग्रेस देशी राज्यों में उत्तरदायी शासन की स्थापना को अपने कार्यक्रम में सम्मिलित करे किंतु कांग्रेस ने इसे स्वीकार नहीं किया।
13. प्रश्न - देशी राज्यों में उत्तरदायी शासन की मांग के सम्बन्ध में भारत सरकार के पोलिटिकल विभाग का क्या रुख था?
उतर - पोलिटिकल विभाग ने राजाओं को प्रेरित किया कि वे रियासतों में प्रशासनिक सुधार करें और प्रशासन में लोकप्रिय सरकार के तत्वों को शामिल करें।
14. प्रश्न - कांग्र्रेस ने किस अधिवेशन में देशी राज्यों में स्वतंत्रता आंदोलन की घोषणा की?
उतर - ई. 1938 में आयोजित हरिपुरा अधिवेशन में।
15. प्रश्न - ई.1938 में नवसारी में आयोजित कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में देशी राज्यों के प्रति कांग्रेस के रुख में क्या परिवर्तन आया?
उतर - कांग्रेस ने हरिपुरा अधिवेशन में भारतीय राज्यों के सम्बन्ध में एक विस्तृत प्रस्ताव पारित किया कि भारतीय राज्यों की जनता के लिये सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक क्षेत्रों में भी वैसी ही स्वतंत्रता होनी चाहिये जैसी अंग्रेजी भारत में उपलब्ध है। इस सम्मेलन में भारतीय राज्यों को भारत का अभिन्न अंग घोषित किया गया।
16. प्रश्न - कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन के निर्णय से स्थानीय नेतृत्व को क्या सहायता मिली?
उतर - इस निर्णय ने विभिन्न राज्यों में स्थानीय नेतृत्व के लिये मार्ग खोल दिये। विभिन्न राज्यों में 1938 के पश्चात् प्रजा मण्डलों अथवा प्रजा परिषदों की स्थापना हुई जिससे स्वतंत्रता संघर्ष को व्यापक होने में बड़ी सहायता मिली।
17. प्रश्न - 7 और 8 अगस्त 1942 को बम्बई में ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव के साथ-साथ देशी राज्यों के लिये क्या नारा दिया गया?
उतर - गांधीजी ने रियासतों के प्रतिनिधियों को स्पष्ट किया कि ब्रिटिश भारत में भावी संघर्ष का नारा ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ होगा तथा देशी राज्यों में ‘राजाओं अंग्रेजों का साथ छोड़ो’ होगा।
18. प्रश्न - कांग्रेस के बम्बई अधिवेशन में प्रजामण्डलों को क्या निर्देश दिया गया?
उतर - अगर शासक अंग्रेजों से सम्बंध विच्छेद करने की मांग न मानें तो प्रजामंडल आंदोलन आरंभ कर दें।
19. प्रश्न - डूंगरपुर प्रजामण्डल की स्थापना कब एवं किसने की?
उतर - ई.1944 में भोगीलाल पण्ड्या ने।
20. प्रश्न - 1930 के दशक में भरतपुर राज्य में राजनीतिक जगजागरण का श्रेय किसे है?
उतर - युगलकिशोर चतुर्वेदी को।
21. प्रश्न - अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद ने 6 से 8 अगस्त 1945 को श्रीनगर में हुई स्थायी समिति की बैठक में कौनसे दो निर्णय लिये?
उत्तर - (1) राज्यों के जन आंदोलन का लक्ष्य भारत के अभिन्न अंग के रूप में राज्यों में पूर्ण उत्तरदायी शासन की स्थापना करना है। (2) उन सब छोटे राज्यों को जिनकी जनसंख्या और आय लुधियाना अधिवेशन में पारित प्रस्ताव के अनुरूप नहीं थी, को या तो प्रांतों में मिल जाना चाहिये अथवा आपस में मिलकर भारतीय संघ की एक इकाई के रूप में गठित हो जाना चाहिये।
22. प्रश्न- राजस्थान में प्रजामंडल आंदोलनों के सामाजिक प्रभाव का मूल्यांकन कीजिये।
उत्तर - राजस्थान के प्रजामण्डल आंदोलनों का राजनीतिक एवं सामाजिक परिदृश्य पर व्यापक प्रभाव हुआ। लोगों में शिक्षा के प्रति चेतना आयी। उनका ध्यान कुरीतियों को मिटाने की तरफ गया। इन आंदोलनों के दौरान समाचार पत्रों के माध्यम से लोगों में राष्ट्रीय भावना का विकास हुआ तथा रजवाड़ी संस्कृति के अभ्यस्त लोगों में प्रजातांत्रिक संस्थाओं के विकास की ओर ध्यान गया। महाजनों और जागीरदारों के शोषण के खिलाफ उठ खड़े होने से लोगों को सामाजिक न्याय प्राप्त हुआ तथा उन्हें लाग, बाग, डाट तथा बेगारी से निजात मिलने लगी। लोगों में स्वदेशी तथा खादी अपनाने की ओर रुझान विकसित हुआ। भारतीय समाज के ग्रामीण क्षेत्रों तक बाल विवाह, मृत्यु भोज तथा पर्दा प्रथा जैसी कुरीतियों के विरुद्ध आवाज बुलंद हुई। कई लोगों ने इन आंदोलनों से प्रभावित होकर अपनी कन्याओं को पढ़ने के लिये पाठशालाओं में भेजना आरंभ किया।
मैगजीन के चारों ओर खाई भरकर उस पर घर बना दिये गये। दक्षिणी और पूर्वी बुर्ज की तरफ शहर का परकोटा तोड़कर वहाँ आधुनिक चिकित्सालय की नींव रखी गई। यह चिकित्सालय 16 जुलाई 1894 को बनकर पूरा हुआ। कर्नल ट्रेवर ने इसका उद्घाटन किया। इस चिकित्सालय के लिये सेठ मूलचंद सोनी और सौभाग ढढ्ढा ने सात-सात हजार रुपये चंदा दिया। इस चिकित्सालय के निकट से होकर एक सड़क निकाली गई। मैगजीन की जड़ में लड़कों का सरकारी स्कूल बन गया। मैगजीन का अस्थायी दरवाजा बंद होकर स्थायी वाला वास्तविक दरवाजा खुल गया। ऊसरी दरवाजे का नामोनिशान भी शेष न रहा।
दरवाजे के पश्चिमी हिस्से में हलवाई की दुकान खुल गई। उधर का परकोटा भी तोड़ दिया गया। रिसाले का पूरा मैदान, अब्दुल्लाहपुरा की सराय तक आबाद हो गया। अब्दुल्लाहपुरा और मस्जिद की बाईं तरफ डाक बंगला रेवले से दक्षिण में जो कब्रिस्तन था, उसके मुर्दों की मिट्टी पलीद हुई। आधा रेल की पटरियों के नीचे और आधा स्टेशन की चाहरदीवारी में मालगोदाम के पास आ गया। सराय अब्दुल्लापुरा आधी नष्ट हो गई। अब्दुल्लाह खान की बीवी का मकबरा रेल के अहाते में चला गया और खुद नवाब अब्दुल्लाह की कब्र सराय में ही रह गई। उनके बीच से रेल की पटरी निकल गई।
कच्ची कोठरियों के स्थान पर पक्की कोठरियां बन गईं। सराय के चारों तरफ जहाँ थोहर और गधे दिखाई देते थे, वहाँ सन् 1877 में कैसरगंज बसाया गया। ऊँचे टीलों पर सिरकी बंध कुंजड़ों की जगह पुतलीघर बन गया। उसके चारों तरफ कोठियां और बंगले खड़े हो गये। उसके पास ही गवर्नमेंट कॉलेज भी बन गया। ब्यावर और नसीराबाद की सड़कों के दोनों तरफ जहाँ तक दृष्टि जाती थी, बंगले ही बंगले बन गये। मेयो कॉलेज अपनी शैक्षणिक भव्यता के साथ दिखता था।
पुरानी रेजीडेंसी के बंगले का नाम मिट गया। वहाँ रईसों की कोठियां बन गईं। श्रीनगर की सड़क के दोनों तरफ भी बंगले दिखाई देने लगे। नवाब कुम्हारबाय के कब्रिस्तान स्थित बीसला तालाब की पाल के निकट गिर्जाघर और रेल का तार लगा हुआ है। कैवेण्डिशपुरा की झौंपड़ियों में महल बन गये। शहर में सड़कें बन गईं। हर गली कूंचे में लालटेनें लग गईं। शहर में हजारों की संख्या में दो-तीन मंजिला पक्के मकान बन गये। नया बाजार में आटा पीसने वालों की दुकानों में कपड़ा बाजार लग गया।
दूसरे राज्यों से हजारों लोग अजमेर में आकर बस गये। घर-घर में रेल कर्मचारी और सरकारी बाबू दिखाई देने लगे। दो रुपये मासिक का किराया अब दस रुपये मासिक हो गया। मकानों का किराया पेशगी देना पड़ता था। शहर के हर गली कूंचे में मद्रासी, गुजराती, काठियावाड़ी और पंजाबी दिखाई देने लगे। ख्वाजा साहब की कमेटी कुप्रबंधन के कारण टूट गई। दरगाह पर सरकारी प्रबंधन हो गया। मुंशी अल्लाह नूर खां टॉडगढ़ की नायब तहसीलदारी से तहसीलदार हो गये और दरगाह के प्रबंधक बन गये।
ई.1870 में अजमेर शहर में पांच बग्घियां थीं। ई.1894 के आते-आते घर-घर गाड़ियां हो गईं। मुराद अली ने लिखा है- कुछ सेठों को छोड़ दें तो अजमेर के शेष रईस नीबू निचोड़ और भूखे हैं। सेठ मूलचंद सोनी को उसने दानवीर मर्द तथा रहमदिल साहूकार बताया है। दरगाह के दलबदल शामियाने की जगह नवाब इकबालउद्दौला वजीर हैदराबाद ने पत्थर का महफिलखाना बना दिया। ई.1896 के आसपास आनासागर में पानी कम हो गया और फॉयसागर में पानी की मात्रा काफी हो गई। अब फॉयसागर का पानी शहर के नलों में आने लगा। इस सागर का निर्माण फाई नामक इंजीनयिर ने नगरपालिका कमेटी के रुपयों से करवाया और अपने नाम पर इसका नामकरण किया।
अंदरकोटी मुसलमान
शहर के बाहर पुरानी आबादी में अंदर कोट था। इसमें मुस्लिम जनसंख्या रहती थी जिन्हें अंदरकोटी मुसलमान कहा जाता था। इसमें सब कौमों के मुसलमान रहते थे। सेठ-साहूकार, मालदार और सरदार लोग अपनी सुरक्षा के लिये अंदरकोटियों को नौकर रखते थे। लोग अपने दुश्मनों से बदला लेने के लिये भी किसी अंदरकोटी को दो-चार रुपये देकर उनको जूते पड़वाते थे। ख्वाजा साहब की देग को भी रस्म के रूप में अंदरकोटी मुसलमान लूटा करते थे। जब ताजिये निकलते थे तो अंदरकोटी लोग अखाड़ेबाजी और तलवार घुमाने का प्रदर्शन भी करते थे। उस समय नगर परकोटे का मुख्य द्वार बंद कर दिया जाता था। इस अखाड़ेबाजी और तलवार बाजी के कारण यदि कोई आम आदमी घायल हो जाता था तो भी वह शिकायत नहीं करता था।
देसवाली मुसलमान
ई.1894 के आसपास अजमेर में देसवाली लोगों के आठ मुहल्ले थे। देसवाली मूल रूप से राजपूत थे इनके पूर्वजों ने ई.1202 में तारागढ़ पर स्थित मीरान सैयद खनग सवार की दरगाह पर रात में धावा मारा था। इसके बदले में इन्हें पकड़कर मुसलमान बनाया गया। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में अजमेर के चारों ओर देसवाली मुसलमानों की संख्या पचास हजार से ऊपर हो गई। ये अपने गोत्र खीची, चौहान, सांखला आदि लिखते रहे। ये बहुत गरीब थे। मेहनत मजदूरी करके तथा लकड़ियां बेचकर जीवन निर्वाह करते थे।
इनके घरों में बात-बात पर झगड़ा होता था। उस समय में मुसलमानों की एक बड़ी आबादी ख्वाजा की दरगाह के खादिमों की भी खड़ी हो चुकी थी। अजमेर में मुसलमान जागीरदारों के पुराने घर भी बड़ी संख्या में थे जिनके पुरखों की जागीरें अजमेर के आसपास हुआ करती थीं। वे अब इतनी छोटी-छोटी रह गई थीं कि कई परिवारों के हिस्से में साल भर में तीन से चार सेर अनाज की आय ही रह गई थी।
जागीरों की आय
उस काल में बड़ी जागीरों के स्वामी बहुत कम रह गये थे। जिनमें ख्वाजा साहब की जागीर की आय 40 हजार रुपये वार्षिक, दरगाह मीरान सैयद हुसैन (तारागढ़) की आय 4400 रुपये वार्षिक, चिल्ला पीर दस्तगीर (तारागढ़) की आय 1800 रुपये वार्षिक, मंदिरों की जागीर आय 4000 रुपये वार्षिक, दीवान गयासुद्दीन अली खान शखुलमशाही दरगाह सज्जादा नशीन की आय लगभग 5000 रुपये वार्षिक, नवाब शम्सुद्दीन खां महावत खानी की आय 10,000 रुपये वार्षिक, राजा देवीसिंह गौड़ की आय 4500 रुपये वार्षिक, राजा विजयसिंह, जागीरदार गंगवाना की आय लगभग 5000 रुपये वार्षिक, सैयद इनायतुल्लाह शाह आय लगभग 4300 रुपये वार्षिक, खानदान मेहरबान अली की आय 5600 रुपये वार्षिक थी।
उस समय अजमेर जिले में 32 ताजीमी पट्टेदार ठिकाने थे- 1. भिनाय, 2. मसूदा, 3. जूनिया, सावर, खरवा, पीसांगन, बांधनवाड़ा, देवलिया कलां, महरुलकलां, आदि प्रमुख थे। इनमें से भिनाय ठिकाना सबसे बड़ा था। राजा मंगल सिंह इसके जागीरदार थे। वे दानवीर और प्रजापालक माने जाते थे। ई.1877 में उन्हें दिल्ली के दरबार में सी.आई.ए. की उपाधि मिली थी। पीसांगन का नौजवान राजा और बासोढ़ी का बड़ा ठाकुर नाहरसिंह ई.1897 में नाबालिगी में ही चल बसे थे। उसके बाद उसका छोटा भाई ठाकुर हुआ। देवलिया का ठाकुमर हरिसिंह भी ई.1897 से पहले मर गया।
अपराधियों का बोलबाला
उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों का वर्णन करते हुए मुराद अली ने लिखा है- देशी रजवाड़ों की अपेक्षा ब्रिटिश शासित क्षेत्र अजमेर में चोरी, डकैती, हत्या, बलात्कार, जालसाजी, दगाबाजी की वारदातें अधिक हो रही हैं। यद्यपि आरंभ में अंग्रेजी शासन की बड़ी प्रशंसा हुई तथा यह कहा गया कि अंग्रेज के शासन में शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते हैं किंतु अब यह बात नहीं रही। मुजरिमों की रक्षा के लिये कानून बनाया गया है जिससे हजारों अपराधी बच जाते हैं। अपराधी को पकड़ लिये जाने पर वह तुरंत वकील करता है, वकील के सवालों से गवाह घबरा जाता है और अपराधी छूट जाता है। इससे अपराधियों के हौंसले बुंलद होते जा रहे हैं।
वकीलों की मौज
साण्डर्स के आने से पहले अजमेर में वकील बहुत ही कम थे। जब साण्डर्स अजमेर आया तो अजमेर-मेरवाड़ा विदेश विभाग के अधीन था। इसलिये साण्डर्स ने विदेश विभाग से अजमेर के लिये विशेष कानून बनवाया जिसे अजमेर रेगूलेशन एक्ट कहते थे। इसकी धारा 28 के अंतर्गत यह प्रावधान किया गया कि अजमेर से बाहर का वकील बिना किसी विशेष परिस्थिति के, अजमेर की न्यायालयों में मुकदमे की पैरवी नहीं कर सकता था। इस कारण साण्डर्स के समय में भी वकीलों की संख्या बहुत कम थी। इससे न्यायालयों में बहस बहुत कम होती थी और मुकदमों का निस्तारण बहुत कम समय में हो जाता था।
बाद में धारा 28 का प्रावधान हट जाने से पूरे देश से वकील अजमेर आने लगे जिससे बहसें लम्बी हो गईं और मुकदमों के फैसले विलम्ब से होने लगे। वकीलों की लम्बी बहसों का परिणाम यह हुआ कि अपराधी छूटने लगे और बेगुनाह सजा पाने लगे। मुराद अली लिखता है- जब कोई मालदार व्यक्ति मुकदमे बाजी में फंस जाता है तो न्यायालयों के कर्मचारियों तथा वकीलों की बांछें खिल जाती हैं।
वकील और रीडर मन ही मन पुलाव पकाने लगते हैं। चपरासी भी इनाम की इच्छा से पूंछ हिलाने लगता है। न्यायाधिकारी यदि डिक्री दे भी दे तो वसूल कहां से हो। डिक्री को लेकर चाटते फिरो। ऐसी तकलीफों के कारण अजमेर के लोगों ने आपस में लेन देन बंद कर दिया। पहले लोग कच्चे कागज पर लिखवाकर रुपया उधार देते थे किंतु अब प्रोनोट लिखवाने लगे। बहुत से लोग मकान का किराया चुकाये बिना ही गायब हो गये थे इसलिये मकान मालिक भी किराया एडवांस मांगने लगे। झूठ, फरेब और दगाबाजी सीमा से अधिक बढ़ गई।
बोहरों की मनमानी
अजमेर नगर के आसपास के गांवों के किसान और निर्धन लोग अजमेर में आकर बोहरों से नमक, तेल, शक्कर, कपड़ा, गुड़, आदि उधार खरीदते थे। बोहरे इन्हें बहुत महंगा सामान देते थे। तोलते भी कम थे। फिर नगद पर सूद अलग वसूल करते थे। इस प्रकार उधार लेने वाले को हर सामान डेढ़ से दो गुनी कीमत पर मिलता था। फसल पकने पर बोहरे स्वयं ही किसान के खेत पर चले जाते। वे बाजार कीमत से कम दर पर अनाज लेते और तोलने में भी एक मन की जगह सवा मन तोल लेते। यदि किसान किसी तरह की आपत्ति करता तो बोहरे न्यायालय में मुकदमा ठोककर सूद पर सूद चढ़ाकर डिक्री करा लेते।
दरगाह का प्रबंध सरकार के हाथों में
ख्वाजा की दरगाह के सामने खड़े होकर प्रार्थना करने वालों के पास चिट्ठियां उतरा करती थीं। जिनमें सफेद कागज पर सुनहरी स्याही से बहुत ही खराब हस्तलेख से याचक की इच्छा पूरी होने की बात लिखी होती थी। ये इच्छायें धन एवं औरत मिलने की होती थीं। कुछ ही दिनों में उस याचक की इच्छा पूरी हो जाती थी। जब दरगाह का प्रबंध अंग्रेज सरकार ने अपने हाथ में ले लिया तो ये चिट्ठियां उतरनी बंद हो गईं।
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : बीकानेर में प्रजा मण्डल आंदोलन
21.12.2021
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी - 174
राजस्थान ज्ञानकोश प्रश्नोत्तरी : बीकानेर में प्रजा मण्डल आंदोलन
1. प्रश्न - बीकानेर राज्य में नागरिक अधिकारों की क्या स्थिति थी?
उत्तर - रियासत में जनता को अपने विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता बहुत कम थी। मौलिक अधिकारों की मांग करना अपराध माना जाता था। महाराजा ने 4 जुलाई 1932 से बीकानेर सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम लागू किया जो मार्शल लॉ की भांति कठोर था। राज्य का प्रेस एक्ट बड़ा कठोर था, जो समाचार पत्रों तथा पुस्तकों के प्रकाशन पर काफी प्रतिबंध लगाता था। रजिस्ट्रेशन अधिनियम में अनाथालयों, विधवाश्रमों आदि का भी पंजीयन करवाना अनिवार्य था जबकि राजनैतिक संस्थाओं के पंजीयन का कोई प्रावधान नहीं था। महाराजा ने अनेक लोगों को सरकारी नौकरी से निकाल दिया क्योंकि उन लोगों ने राष्ट्रीय सप्ताह में कुछ चन्दा तिलक स्वराज्य फण्ड के लिये जमा करवाया था। बीकानेर जन सुरक्षा अधिनियम ने बीकानेर में पुलिस का आतंक स्थापित कर रखा था। बीकानेर में आने वाले हर आगंतुक से पूछताछ की जाती थी।
2. प्रश्न - बीकानेर राज्य में हुए राजनीतिक आंदोलन के प्रति महाराजा गंगासिंह का क्या रुख था?
उत्तर - आधुनिक विचारधारा का राजा होते हुए भी महाराजा गंगासिंह ने अपने राज्य में राजनैतिक आंदोलनों को बुरी तरह कुचला।
3. प्रश्न - बीकानेर राज्य में सर्वप्रथम सर्वहितकारिणी सभा की स्थापना कहाँ की गयी थी?
उत्तर - ई.1907 में चूरू में।
4. प्रश्न - सर्वहितकारिणी सभा किस प्रकार की संस्था थी?
उत्तर - यह एक सामाजिक, शैक्षणिक तथा अर्द्ध राजनैतिक संस्था थी।
5. प्रश्न - सद्विद्या प्रचारिणी सभा की स्थापना कब एवं कहाँ हुई?
उत्तर - ई.1920 में, बीकानेर में।
6. प्रश्न - सद्विद्या प्रचारिणी सभा का क्या उद्देश्य था?
उत्तर - रिश्वतखोरी और अन्याय के विरुद्ध अभियान चलाना।
7. प्रश्न - सद्विद्या प्रचारिणी सभा ने राज्य में कौनसे नाटक मंचित किये जिनसे समस्त सरकारी क्षेत्र में हलचल मच गयी?
उत्तर - 1. धर्मविजय 2. सत्यविजय।
8. प्रश्न - इन नाटकों के मंचन के बाद बीकानेर सरकार ने क्या कदम उठाया?
उत्तर - बीकानेर सरकार ने तुरंत ही सभायें आयोजित करने, भाषण करने तथा बाहरी व्यक्ति के रियासत में प्रवेश करने पर रोक लगा दी। सरकार ने लगभग 100 पुस्तकें जब्त कर लीं।
9. प्रश्न - बीकानेर महाराजा ने चूरू के महंत से मंदिर क्यों जब्त कर लिया?
उत्तर - 26 जनवरी 1930 को चूरू में धर्मस्तूप पर तिरंगा फहराने पर महाराजा ने महंत से मंदिर ही जब्त कर लिया।
10. प्रश्न - किन नेताओं के हस्तक्षेप पर मंदिर पुनः खोला गया?
उत्तर - मदनमोहन मालवीय तथा घनश्यामदास बिड़ला।
11. प्रश्न - गंगासिंह ने प्रथम गोल सम्मेलन में अखिल भारतीय संघ योजना पर क्या प्रतिक्रिया दी?
उत्तर - गंगासिंह ने अखिल भारतीय संघ के निर्माण की योजना का स्वागत किया तथा कहा कि राजाओं को इसमें शामिल होकर प्रसन्नता होगी।
12. प्रश्न- गंगासिंह द्वितीय गोलमेज सम्मेलन को बीच में छोड़कर ही क्यों लौट आये?
उत्तर - अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद के क्षेत्रीय मंत्री जयनारायण व्यास ने बीकानेर और चूरू के कार्यकर्त्ताओं से बीकानेर नरेश के निरंकुशतापूर्ण आचरण, दमन, आतंक तथा मनमानी पर 18 पृष्ठों की एक साइक्लोस्टाइल पुस्तिका तैयार करवाई और जन्मभूमि अखबार के संपादक अमृतलाल सेठ, सौराष्ट्र के बैरिस्टर चूडगर और पूना के प्रो. अभ्यंकर को गोलमेज सम्मेलन में भेजा। उन्होंने यह पुस्तिका गोलमेज सम्मेलन के सदस्यों में बांट दी। सम्मेलन के अध्यक्ष लार्ड सेंकी ने वह पुस्तिका महाराजा के सामने ठीक उस समय प्रस्तुत की जिस समय वे देशी राज्यों के भारतीय संघ में शामिल होने की ब्रिटिश सरकार की योजना के समर्थन और निजाम हैदराबाद के विरोध में जोशीला भाषण दे रहे थे। लार्ड सेंकी ने उस पर यह भी लिख दिया कि बीकानेर शासक को इसमें लिखी बातों का जवाब देना चाहिये। उस पुस्तिका को थोड़ा सा अंश पढ़ते ही महाराजा तबीयत खराब हो जाने के बहाने भाषण वहीं खत्म करके भारत के लिये रवाना हो गये।
13. प्रश्न - बीकानेर प्रजामण्डल की स्थापना कब एवं किसकी अध्यक्षता में हुई?
उत्तर - 4 अक्टूबर 1936 को मघाराम वैद्य की अध्यक्षता में।
14. प्रश्न - बीकानेर प्रजामण्डल ने क्या कार्यक्रम चलाये?
उत्तर - इस संस्था ने किसानों पर होने वाले अत्याचार, लाग-बाग, हरिजन समस्यायें तथा पुलिस द्वारा जनता पर किये जाने वाले अत्याचार के विरुद्ध अपने कार्यक्रम चलाये।
15. प्रश्न - बीकानेर महाराजा ने प्रजामण्डल के नेताओं को क्या दण्ड दिया?
उत्तर - प्रजामण्डल के नेताओं को बीकानेर राज्य से निर्वासित कर दिया गया।
16. प्रश्न - अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद ने महाराजा द्वारा की गई कार्यवाही पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की?
उत्तर - 22 मार्च 1937 को अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद ने दिल्ली स्थित मारवाड़ी लाइब्रेरी में एक सभा का आयोजन करके बीकानेर राज्य की निष्कासन नीति की निंदा की।
17. प्रश्न - बीकानेर से निष्कासित लोगों ने कलकत्ता में किस संस्था की स्थापना की?
उत्तर - कलकत्ता में निवास कर रहे प्रवासी राजस्थानियों के सहयोग से कलकत्ता में बीकानेर राज्य प्रजामंडल की स्थापना की।
18. प्रश्न - बीकानेर राज्य प्रजामंडल ने किस पुस्तिका का प्रकाशन करवाया?
उत्तर - बीकानेर की थोथी पोथी का।
19. प्रश्न - बीकानेर राज्य प्रजामंडल की संस्थाएं कहाँ खोली गईं?
उत्तर - चूरू, राजगढ़, सुजानगढ़ तथा रतनगढ़ में।
20. प्रश्न - बीकानेर राज्य में प्रजा परिषद् की स्थापना किसके नेतृत्व में हुई?
उत्तर - 22 जुलाई 1942 को रघुवरदयाल गोयल के नेतृत्व में।
21. प्रश्न - प्रजा परिषद ने बीकानेर में कौनसा आंदोलन चलाने का निर्णय लिया?
उत्तर - उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिये।
22. प्रश्न - महाराजा ने रघुवरदयाल गोयल के विरुद्ध क्या कार्यवाही की?
उत्तर - जिस दिन प्रजा परिषद की स्थापना हुई उसी दिन रघुवरदयाल गोयल को बीकानेर से बाहर निकाल दिया।
23. प्रश्न - रघुवरदयाल गोयल को क्यों गिरफ्तार किया गया?
उत्तर - 29 सितम्बर 1942 को गोयल के बीकानेर लौटने पर सरकार ने गोयल तथा उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया।
24. प्रश्न - महाराजा गंगासिंह का निधन कब हुआ?
उत्तर - 3 फरवरी 1943 को।
25. प्रश्न - गंगासिंह के बाद बीकानेर का राजा कौन हुआ?
उत्तर - सादूलसिंह।
26. प्रश्न - रघुवरदयाल गोयल को कब रिहा किया गया?
उत्तर - बीकानेर के नये महाराजा सादुलसिंह ने 17 फरवरी 1943 को रघुबर दयाल गोयल और उनके साथियों को रिहा कर दिया।
27. प्रश्न - जयपुर में बीकानेर दमन विरोधी दिवस कब मनाया गया?
उत्तर - 25 अक्टूबर 1944 को।
28. प्रश्न - बीकानेर नरेश ने उत्तरदायी शासन की विधिवत् घोषणा कब की?
उत्तर - 31 अगस्त 1946 को।
29. प्रश्न - बीकानेर संविधान एक्ट 1947 कब प्रकाशित किया गया?
उत्तर - दिसम्बर 1947 में।
30. प्रश्न - इस एक्ट में क्या व्यवस्था दी गई थी?
उत्तर - इसके अनुसार महाराजा के संरक्षण में कार्य करते हुए जनता के प्रति उत्तरदायी सरकार बननी थी। उसी क्रम में व्यापक मताधिकार पर आधारित दो सदनों वाली व्यवस्थापिका अस्तित्व में आई। कुछ बातों को छोड़कर सारा शासन एक परिषद को सौंप दिया जो व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी था। महाराजा ने घोषणा की कि दो वर्षों में उनके संरक्षण में पूर्ण उत्तरदायी सरकार बनायी जायेगी।
31. प्रश्न - महाराजा ने अपनी मंत्री परिषद् के स्थान पर एक मिला-जुला अंतरिम मंत्रिमण्डल बनाने की घोषणा कब की?
उत्तर - 18 मार्च 1948 को।
32. प्रश्न - बीकानेर का खोखला संविधान शीर्षक से लेख किसने छपवाया?
उत्तर - बीकानेर राज्य प्रजा परिषद के मंत्री ने।
33. प्रश्न - राज्य प्रजा परिषद को कब से कांग्रेस कहा जाने लगा?
उत्तर - 22 जुलाई 1948 से।
34. प्रश्न - बीकानेर रियासत में उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिये कब तक संघर्ष चला?
उत्तर - महाराजा ने उत्तरदायी शासन के नाम पर जो भी सरकारें स्थापित कीं, वे जनआकांक्षाओं के अनुरूप नहीं थीं। इसलिये बीकानेर रियासत के राजस्थान में मिलने तक आंदोलन चलता रहा।
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राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति-3
01.06.2020
राजस्थान में मानव सभ्यता का उदय एवं पुरा-संस्कृतियों का विकास(1)
राजस्थान में आदि मानव द्वारा प्रयुक्त लगभग डेढ़ लाख वर्ष पुराने प्राचीनतम पाषाण उपकरण उपलब्ध हुए हैं। इस भू-प्रदेश में मानव सभ्यता उससे भी पुरानी हो सकती है। राजस्थान में मानव सभ्यता पुरा-पाषाण, मध्य-पाषाण तथा उत्तर-पाषाण युग से होकर गुजरी। अतः राजस्थान में मानव अधिवास उस समय से है जब सभ्यता अपने प्रारम्भिक चरण धरना सीख रही थी। पुरा-पाषाण युग डेढ़ लाख वर्ष पूर्व से पचास हजार वर्ष पूर्व तक का काल समेटे हुए है। इस काल में हैण्ड एक्स, क्लीवर तथा चॉपर आदि का प्रयोग करने वाला मानव बनास, गंभीरी, बेड़च, बाधन तथा चम्बल नदियों की घाटियों (बांसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर, भीलवाड़ा, बूंदी, कोटा, झालावाड़ तथा जयपुर जिले) में रहता था। इस युग के भद्दे तथा भौंडे हथियार अनेक स्थानों से मिले हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि इस युग का मानव लगभग पूरे प्रदेश में फैल गया था।
पुरा पाषाण युग का मनुष्य, सभ्यता के उषा काल पर खड़ा था। उसका आहार शिकार से प्राप्त वन्य पशु, प्राकृतिक रूप से प्राप्त कन्द, मूल, फल, पक्षी, मछली आदि थे। नगरी, खोर, ब्यावर, खेड़ा, बड़ी, अनचर, ऊणचा, देवड़ी, हीराजी का खेड़ा, बल्लू खेड़ा (चित्तौड़ जिले में गंभीरी नदी के तट पर), भैंसरोड़गढ़, नगघाट (चम्बल और बामनी के तट पर) हमीरगढ़, सरूपगंज, बीगोद, जहाजपुर, खुरियास, देवली, मंगरोप, दुरिया, गोगाखेड़ा, पुर, पटला, संद, कुंवारिया, गिलूंड (भीलवाड़ा जिले में बनास के तट पर), लूणी (जोधपुर जिले में लूनी के तट पर), सिंगारी और पाली (गुड़िया और बांडी नदी की घाटी में), समदड़ी, शिकारपुरा, भावल, पीचक, भांडेल, धनवासनी, सोजत, धनेरी, भेटान्दा, धुंधाड़ा, गोलियो, पीपाड़, खींवसर, उम्मेदनगर (मारवाड़ में), गागरोन (झालवाड़), गोविंदगढ़ (अजमेर जिले में सागरमती के तट पर), कोकानी, (कोटा जिले में परवानी नदी के तट पर), भुवाणा, हीरो, जगन्नाथपुरा, सियालपुरा, पच्चर, तारावट, गोगासला, भरनी (टोंक जिले में बनास तट पर) आदि स्थानों से उस काल के पत्थर के हथियार प्राप्त हुए हैं।
मध्य-पाषाण युग लगभग 50 हजार वर्ष पूर्व आरंभ हुआ। इस काल के उपकरणों में स्क्रैपर तथा पाइंट विशेष उल्लेखनीय हैं। ये औजार लूनी और उसकी सहायक नदियों की घाटियों में, चित्तौड़गढ़ जिले की बेड़च नदी की घाटी में और विराटनगर में भी प्राप्त हुए हैं। इस समय तक भी मानव को पशुपालन तथा कृषि का ज्ञान नहीं था। उत्तर-पाषाण काल का आरंभ लगभग 10 हजार वर्ष पूर्व हुआ। इस काल में पहले हाथ से और फिर से चाक से बर्तन बनाये गये। इस युग के औजार चित्तौड़गढ़ जिले में बेड़च व गंभीरी नदियों के तट पर, चम्बल और वामनी नदी के तट पर भैंसरोड़गढ़ व नवाघाट, बनास के तट पर हमीरगढ़, जहाजपुर, देवली व गिलूंड, लूनी नदी के तट पर पाली, समदड़ी, बनास नदी के तट पर टौंक जिले में भरनी, उदयपुर के बागोर तथा मारवाड़ के तिलवाड़ा आदि अनेक स्थानों से मिले हैं। इस काल में कपास की खेती होने लगी थी। समाज का वर्गीकरण आरंभ हो गया था तथा व्यवसायों के आधार पर जाति व्यवस्था का सूत्रपात हो गया था।
ताम्र, कांस्य एवं लौह युगीन सभ्यताएँ
राज्य में गणेश्वर (सीकर), आहड़ (उदयपुर), गिलूण्ड (राजसमंद), बागोर (भीलवाड़ा) तथा कालीबंगा (हनुमानगढ़) से ताम्र-पाषाण कालीन, ताम्रयुगीन एवं कांस्य कालीन सभ्यताएं प्रकाश में आयी हैं। ताम्रयुगीन प्राचीन स्थलों में पिण्डपाड़लिया (चित्तौड़), बालाथल एवं झाड़ौल (उदयपुर), कुराड़ा (नागौर), साबणिया एवं पूगल (बीकानेर), नन्दलालपुरा, किराड़ोत व चीथवाड़ी (जयपुर), ऐलाना (जालोर), बूढ़ा पुष्कर (अजमेर), कोल- माहोली (सवाईमाधोपुर) तथा मलाह (भरतपुर) विशेष उल्लेखनीय हैं। इन सभी स्थलों पर ताम्र उपकरणों के भण्डार मिले हैं। लौह युगीन सभ्यताओं में नोह (भरतपुर), जोधपुरा (जयपुर) एवं सुनारी (झुंझुनूं) प्रमुख हैं।
सरस्वती नदी सभ्यता
वैदिक काल में तथा उससे भी पूर्व के काल-खण्ड में इस प्रदेश में सरस्वती नदी प्रवाहित होती थी जिसके किनारे पर आर्यों ने अनेक यज्ञ व युद्ध किये। सरस्वती नदी की उत्त्पत्ति तुषार क्षेत्र से मानी गयी है। यह स्थान मीरपुर पर्वत है जिसे ऋग्वेद में सारस्वान क्षेत्र कहा गया है। ऋग्वेद के 10वें मण्डल में सूत्र 53 के मंत्र 8 में दृषद्वती तथा अश्वन्वती नदियों का उल्लेख है। माना जाता है कि सरस्वती एवं दृषद्वती का प्रवाह क्षेत्र आज के मरू प्रदेश में था। दसवीं सदी के आसपास दक्षिणी-पश्चिमी राजस्थान की गणना सारस्वत मण्डल में की जाती थी। यह पूरा क्षेत्र लूणी नदी बेसिन का एक भाग है। लूनी नदी सरस्वती की सहायक नदी थी। सरस्वती आज भी राजस्थान में भूमिगत होकर बह रही है। कुछ विद्वान घग्घर (हनुमानगढ़-सूरतगढ़ क्षेत्र में बहने वाली नदी) को भी सरस्वती का परवर्ती रूप मानते हैं।
हनुमानगढ़ जिले में घग्घर को नाली कहा जाता है। यहाँ पर एक दूसरी धारा जिसे नाईवाला कहते हैं, घग्घर में मिलती है, जो सतलज का प्राचीन बहाव क्षेत्र है। यह सरस्वती नदी का पुराना हिस्सा था। तब तक सिंधु में मिलने के लिये सतलज में व्यास का समावेश नहीं हो पाया था। हनुमानगढ़ के दक्षिण पूर्व की ओर नाली के दोनों किनारे ऊंचे-ऊंचे दिखायी देते हैं। सूरतगढ़ से तीन मील पहले एक और सूखी धारा घग्घर में मिलती है। यह सूखी धारा वास्तव में दृशद्वती है। सूरतगढ़ से आगे अनूपगढ़ तक तीन मील की चौड़ाई रखते हुए नदी के दोनों किनारे और भी ऊंचे दिखायी देते हैं जिनके बीच में गंगनहर की सिंचाई से खूब हरा-भरा भाग है। यहीं पर अनेक गाँव बसे हैं। बीकानेर जिले में पहुँच कर घग्घर जल रहित हो जाती है। दृशद्वती, हिमालय की निचली पहाड़ियों से कुछ दक्षिण से निकलती है। पंजाब में इसे चितांग कहते हैं। भादरा में फिरोजशाह की बनवाई हुई पश्चिमी यमुना नहर, दृशद्वती के कुछ भाग में दिखायी पड़ती है। भादरा के आगे नोहर तथा दक्षिण में रावतसर के पास इसके रेतीले किनारे दिखते हैं।
सिंधु घाटी सभ्यता
सिंधु नदी हिमालय पर्वत से निकल कर पंजाब तथा सिंध प्रदेशों में बहती हुई अरब सागर में मिलती है। इस नदी के दोनों तटों पर तथा इसकी सहायक नदियों के तटों पर जो सभ्यता विकसित हुई उसे सिंधु सभ्यता, हड़प्पा सभ्यता एवं मोहेनजोदड़ो सभ्यता कहा जाता है। यह तृतीय कांस्यकालीन सभ्यता थी तथा इसका काल ईसा से 5000 वर्ष पूर्व से लेकर ईसा से 1750 वर्ष पूर्व तक माना जाता है। इस सभ्यता की दो प्रमुख राजधानियां हड़प्पा (पंजाब में) तथा मोहेनजोदड़ो (सिंध में) मानी जाती हैं। अब ये दोनों स्थल पाकिस्तान में हैं। मोहेनजोदड़ो शब्द का निर्माण सिन्धी भाषा के 'मुएन जो दड़ो' शब्दों से हुआ है जिनका अर्थ है- मृतकों का टीला।
राजस्थान में इस सभ्यता के अवशेष कालीबंगा एवं रंगमहल आदि में प्राप्त हुए हैं। गंगानगर जिले में रायसिंहनगर से अनूपगढ़ के दक्षिण का भाग तथा हनुमानगढ़ से हरियाणा की सीमा तक के सर्वेक्षण में पाया गया है कि नाईवाला की सूखी धारा में स्थित 4-5 टीलों के नीचे सिंधु घाटी सभ्यता की बस्तियां दबी हुई हैं। इन टीलों पर अब नये गाँव बस चुके हैं। दृषद्वती के सूखे तल में काफी दूर तक टीले स्थित हैं। इस तल में स्थित 7-8 थेड़ों में हड़प्पाकालीन किंतु खुरदरे व कलात्मक कारीगरी रहित मिट्टी के बरतन के टुकड़ों की बहुतायत थी। सरस्वती तल में हड़प्पाकालीन छोटे-छोटे व उन्हीं के पास स्लेटी मिट्टी के बरतनों वाले उतने ही थेड़ मौजूद थे। हरियाणा की सीमा पर ऐसे थेड़ भी पाये गये जिन पर रोपड़ की तरह दोनों प्रकार के हड़प्पा व स्लेटी मिट्टी के ठीकरे मौजूद थे। हनुमानगढ़ किले की दीवार के पास खुदाई करने पर रंगमहल जैसे ठीकरों के साथ कुषाण राजा हुविश्क का तांबे का सिक्का भी मिला है जो इस बात की पुष्टि करता है कि भाटियों का यह किला व अंदर का नगर कुषाण कालीन टीले पर बना है। बीकानेर के उत्तरी भाग की सूखी नदियों के तल में 4-5 तरह के थेड़ पाये गये।