एक जमाने में कासिम खाँ बहुत छोटा सा सिपाही हुआ करता था किंतु शहजादे दारा की मेहरबानियों से तरक्की करता हुआ अच्छा खासा मनसब पा गया था। दारा ने अपना विश्वसनीय आदमी जानकर ही उसे औरंगज़ेब और मुराद की संयुक्त सेनाओं का रास्ता रोकने के लिए महाराजा जसवंतसिंह का साथ देने भेजा था। कुछ ही दिनों में कासिम खाँ, शाही सेना लेकर महाराजा जसवंतसिंह की सेनाओं से जा मिला।
महाराजा को स्पष्ट आदेश दिया गया था कि उसे क्षिप्रा के उत्तरी तट पर टिके रहना है, क्षिप्रा पार नहीं करती है तथा कासिम खाँ को आदेश दिया गया था कि उसे महाराजा जसवंतसिंह के कहने के मुताबिक रहकर लड़ाई लड़नी है।
हालांकि कासिम खाँ पर दारा के बहुत अहसान थे तथा उन अहसानों के बदले में यदि कासिम खाँ अपनी खाल उतरवाकर दारा के लिए जूतियां बनवाता तो भी कम था किंतु कासिम खाँ नमक हराम किस्म का आदमी था। भाग्य का साथ मिलने से तथा निरंतर तरक्की करते रहने से उसके हौंसले जरूरत से ज्यादा बुलंद हो गए थे। उसे शहजादे दारा का यह आदेश पसंद नहीं आया कि वह महाराजा जसवंतसिंह के मुताबिक रहकर लड़ाई लड़े।
कासिम खाँ चाहता था कि जीत का सेहरा हर हाल में कासिम खाँ के सिर पर ही बंधे इसलिए महाराजा जसवंतसिंह को चाहिए था कि महाराजा, कासिम खाँ के नियंत्रण में रहकर लड़ाई लड़ता लेकिन शाही आदेश जारी होने के कारण कासिम खाँ इन आदेशों में बदलाव नहीं कर सकता था। इसलिए कासिम खाँ ने महाराजा से झगड़ा करने की योजना बनाई ताकि असफलता का ठीकरा महाराजा जसवंतसिंह के सिर पर फोड़ा जा सके।
कासिम खाँ ने शाही सेना का असला-बारूद क्षिप्रा के रेतीले तट पर अपने शिविर के पीछे की धरती में छिपा दिया तथा महाराजा को सुझाव दिया कि अभी औरंगज़ेब तथा मुरादबक्श की सेनाएं क्षिप्रा के उस पार नहीं आई हैं, इसलिए हम नदी पार करके वहाँ मोर्चा बांधते हैं। कासिम खाँ की योजना थी कि महाराजा को बहला-फुसला कर नदी के उस पार ले जाया जाए तथा ऐन वक्त पर पाला बदल कर औरंगज़ेब से मेल कर लिया जाए। तब महाराजा को कैद करने में आसानी रहेगी।
महाराजा जसवंतसिंह अनुशासन पसंद व्यक्ति थे। उन्होंने शाही आदेशों के खिलाफ जाने तथा कासिम खाँ के सुझाव को मानने से इन्कार कर दिया। इस पर दुष्ट कासिम खाँ ने मन ही मन एक योजना बनाई जिससे दारा शिकोह तथा महाराजा जसवंतसिंह दोनों से एक साथ पीछा छूट जाए।
आखिर औरंगज़ेब तथा मुरादबक्श की सेनाएं क्षिप्रा के उस तट पर आ पहुँचीं। महाराजा जसवंतसिंह तथा कासिम खाँ की सेनाओं को देखकर औरंगज़ेब को पसीने आ गए।
औरंगज़ेब ने महाराजा को अपने पक्ष में आने का निमंत्रण भिजवाया। महाराजा किसी भी कीमत पर बादशाह से नमक हरामी नहीं करना चाहता था। बादशाह शाहजहाँ तथा वली-ए-अहद दारा शिकोह ने जीवन भर महाराजा से मित्रता निभाई थी तथा सम्मानपूर्वक व्यवहार किया था जबकि धूर्त औरंगज़ेब का व्यवहार और उसके इरादे किसी भी तरह महाराजा से छिपे हुए नहीं थे। इसलिए महाराजा ने औरंगज़ेब के पक्ष में जाने से इन्कार कर दिया।
तीसरी रात जब कासिम खाँ, अमावस्या के अंधेरे का लाभ उठाकर चुपचाप क्षिप्रा नदी पार करके औरंगज़ेब से मिला तो औरंगज़ेब की बांछें खिल गईं। उसे उम्मीद था कि महाराजा जसवंतसिंह औरंगज़ेब का प्रस्ताव स्वीकार कर लेगा तथा दारा की रहमतों पर पला-बढ़ा कासिम खाँ कभी भी औरंगज़ेब के पक्ष में नहीं आएगा किंतु हुआ बिल्कुल उलटा ही था। महाराजा अपनी जगह पर अडिग था और नमक हराम कासिम खाँ, औरंगज़ेब के खेमे में था।
कासिम खाँ ने औरंगज़ेब को बताया कि क्षिप्रा के उस तट पर महाराजा अपनी सेनाओं के साथ अकेला पड़ा है तथा शाही सेना का असला-बारूद रेत में दबा हुआ है। अतः जब इस ओर से तोपें छोड़ी जाएंगी तो वे रेत में दबे हुए असले बारूद को भी सुलगा कर दोगुना विध्वंस मचाएंगी। औरंगज़ेब ने मुराद को बुलाया और उसी समय कूच की तैयारियां शुरू हो गईं।
अगली सुबह भगवान सूर्य के क्षितिज पर प्रकट होने से पहले ही औरंगज़ेब और मुराद की सेनाओं ने नावों में बैठकर क्षिप्रा नदी पार कर ली। चूंकि महाराजा के शिविर तथा क्षिप्रा के बीच में कासिम खाँ ने शिविर लगा रखा था और महाराजा को उसकी गद्दारी के बारे में जानकारी नहीं मिल पाई थी, इसलिए महाराजा की सेनाएं तैयार नहीं थीं।
महाराजा ने जहाँ शिविर लगा रखा था, उसके ठीक पीछे धरमत गांव स्थित था। जब शाही सेना की कुछ टुकड़ियों ने धरमत गांव में घुसकर महाराजा की सेना की घेराबंदी आरम्भ की तो महाराजा जसवंतसिंह के आदमियों को उन पर बिल्कुल भी शक नहीं हुआ।
इस प्रकार महाराजा और उसके राजपूत, मुगलिया राजनीति की खूनी चौसर में ऐसे स्थान पर घेर लिए गए जहाँ से न तो महाराजा जसवंतसिंह के लिए और न उसके राजपूतों के लिए बचकर निकल पाना संभव था। देखते ही देखते दोनों पक्षों में भीषण संग्राम आरम्भ हो गया। महाराजा जसवन्तसिंह तथा उसके राजपूत बड़ी वीरता के साथ लड़े किंतु आगे से औरंगज़ेब तथा मुराद की सेना ने और पीछे से दुष्ट कासिम खाँ की शाही सेना ने महाराजा की सेना को ऐसे पीस दिया जैसे दो पाटों के बीच अनाज पीसा जाता है।
जब महाराजा के सिपाही आगे की ओर भागने का प्रयास करते थे तो औरंगज़ेब की तोपों की मार में आ जाते थे, साथ ही धरती में दबा हुआ असला-बारूद भी फट जाता था। इस पर भी महाराजा तथा उसके राठौड़ सदार पूरी जी-जान लगाकर लड़ते रहे। अंत में जब महाराजा बुरी तरह घायल हो गया तथा किसी अनहोनी की आशंका होने लगी तब महाराजा के सामंत, जबर्दस्ती अपने महाराजा को युद्ध क्षेत्र से बाहर ले गए।
युद्ध आरम्भ होने से पहले, महाराजा के साथ अठारह हजार राजपूत योद्धा थे जिनमें से अब केवल छः सौ जीवित बचे थे और उनमें से भी अधिकांश घायल तथा बीमार थे। औरंगज़ेब चाहता था कि महाराजा को जीवित ही पकड़ लिया जाए किंतु महाराजा के राजपूत, महाराजा को लेकर मारवाड़ की तरफ भाग लिए। स्थान-स्थान पर राजपूत योद्धा, मुगलों से लड़कर गाजर-मूली की तरह कटते रहे। अंत में जब महाराजा अपनी राजधानी जोधपुर पहुँचा तो उसके साथ केवल पंद्रह रापजूत सिपाही जीवित बचे थे। जब बादशाह ने ये समाचार सुने तो वह दुःख और हताशा से बेहोश हो गया।
होश आने पर उसने अपने बड़े बेटे दारा शिकोह को अपने पास बुलाया जो कहने को तो वली-ए-अहद था किंतु अपने साथ दस से ज्यादा आदमी लेकर राजधानी आगरा में नहीं घुस सकता था और जो एक रात भी लाल किले में नहीं गुजार सकता था। बादशाह ने दारा शिकोह पर लगीं समस्त पाबंदियां हटा दीं तथा महाराजा रूपसिंह को अपनी सेवा में से हटाकर वली-ए-अहद का संरक्षक नियुक्त कर दिया।
ई.1873 में राजस्थान की पहली रेल लाइन आगरा से भरतपुर तक बिछाई गई। 1 अगस्त 1875 को आगरा-भरतपुर रेल लाइन को अजमेर तक तथा 14 फरवरी 1876 को नसीराबाद तक बढ़ाया गया। राजपूताना-मालवा रेलवे के अन्तर्गत अजमेर में एक विशाल लोको कारखाना एवं कैरिज वर्कशॉप की स्थापना आरंभ की गई। यह वर्कशॉप अजमेर रेलवे स्टेशन से डेढ़ किलोमीटर दूर है। यह वर्कशॉप ई.1879 के अन्त तक बनकर पूरा हो गया।
जब यह वर्कशॉप बना तो इसमें शंटिंग के लिये इंगलैण्ड में बना एक भाप का इंजन लाया गया। यह देश में आयातित प्रथम शंटिंग ईंजन था जो ई.1873 में इंगलैण्ड में बना था। इस इंजन ने 50 वर्ष तक अजमेर कार्यशाला में शंटिंग की। यह ईंजन आज भी दिल्ली रेल संग्रहालय में सुरक्षित है। इस वर्कशॉप में इंजिनों, डिब्बों और गाड़ियों की मरम्मत तथा नवीनीकरण का कार्य होता था। ई.1881 में भण्डार विभाग को अलग स्थान पर स्थानान्तरित किया गया। ई.1884 में गाड़ी तथा डिब्बा विभाग अलग करके वर्तमान स्थान पर लाये गये। 1 जनवरी 1885 को अजमेर में बम्बई-बड़ौदा एण्ड सेन्ट्रल इण्डिया रेलवे का मीटरगेज मुख्यालय खोला गया। ई.1885 में कुछ परिवर्तनों के साथ कार्यशाला में नये भवन बनाये गये तथा फाउण्ड्री, लुहारी कार्य, व्हील तथा बॉयलर शॉप के साथ कई अन्य कार्यशाला में स्थापित की गईं।
यह भारत का अकेला ऐसा रेलवे वर्कशॉप था जहाँ उन्नीसवीं सदी में भाप के इंजन बनते थे। अजमेर कार्यशाला में ई.1895 में बना भारत का पहला रेल इंजन एफ/1 क्लास ऑफ 6-0 टाईप था जो अब रेल संग्रहालय दिल्ली में रखा है। इस लोकोमोटिव पर पीले रंग के बड़े अक्षरों से आर एम आर लिखा हुआ है जो 'राजपूताना मालवा रेलवे' के संकेताक्षर हैं। ई.1896 से नवम्बर 1937 तक इस कार्यशाल में 375 रेल इंजनों का निर्माण किया गया। इस प्रकार रेल, अजमेर की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी बन गया।
इस वर्कशॉप में सिगनल और इंजीनियरिंग विभाग में काम आने वाले कलपुर्जे भी बनाये गये और दूसरी रेलों के लिये भी कार्य किया गया। अजमेर की लोकोमोटिव वर्कशॉप में प्रति वर्ष 15 नये इंजन और बॉयलर वर्कशॉप में 20 बॉयलर बनाये गये। अजमेर कार्यशाला के बने इंजन यूरोप के इंजनों से अच्छे तथा सस्ते होते थे। यहाँ मीटरगेज के साथ ब्रॉडगेज के डिब्बे भी बनाये जाते थे। इस वर्कशॉप की एक विशेषता यह थी कि यहाँ रसायन और धातु प्रयोगशाला एवं परीक्षागृह भी स्थित था। यह प्रयोगशाला ई.1903 में हरबर्ट के निर्देशन में स्टील फाउण्ड्री कार्य के लिये स्थापित की गई। इस प्रकार भारत का सबसे पहला स्टील कारखाना अजमेर में स्थापित हुआ। बाद में टाटा ने स्टील के क्षेत्र में प्रवेश किया। विश्वयुद्ध के समय अजमेर के रेल कारखाने में युद्ध के हथियार एवं गोले बनाने का काम भी हुआ।
अजमेर कार्यशाला में ई.1923 में देश का पहला 'जॉय की गियर' वाला इंजन बना था, अब यह इंजन भी रेल संग्रहालय दिल्ली में सुरक्षित है। भारत की स्वतन्त्रता की लड़ाई में 15 अगस्त 1941 को अजमेर कार्यशाला के दस हजार कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी। ब्रिटिश सरकार इस हड़ताल से घबरा गई तथा सेना को बुलाना पड़ा। 3 सितम्बर 1941 को यह हड़ताल समाप्त हुई।
ई.1956 में रेलवे का पुर्नगठन किया गया और अजमेर को पश्चिम रेलवे में सम्मिलित किया गया तथा अजमेर संभाग का निर्माण हुआ। अजमेर रेलवे के सम्बन्ध में एक रोचक तथ्य यह है कि प्रारंभ में यात्री शुल्क दूरी के आधार पर न लेकर स्टेशनों की संख्या के आधार पर लिया जाता था। उस समय प्रथम श्रेणी में एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन तक जाने के लिये आठ आना, द्वितीय श्रेणी का चार आना तथा तृतीय श्रेणी का डेढ़ आना यात्री शुल्क था।
इस प्रकार आगरा से अजमेर तक कुल 27 स्टेशन पड़ने के कारण आगरा से अजमेर तक का प्रथम श्रेणी का शुल्क 13 रुपये 8 आने तथा तृतीय श्रेणी के लिये 2 रुपये 8 आने 6 पाई लिये जाते थे।
धरमत से औरंगज़ेब और मुराद की विजयी सेनाएँ आगे बढ़ीं। धरमत की पराजय के समाचार आगरा में पहुँचने पर शाही दरबार में खलबली मच गई। आगरा से बहुत से अमीर-उमराव भागकर औरंगजेब के खेमे में पहुंचने लगे। शहजादी जहाँआरा ने शाही प्रतिष्ठा बचाने के लिए मुराद तथा औरंगज़ेब को बादशाह की तरफ से तथा स्वयं अपनी ओर से बहुत मधुर भाषा में चिट्ठियां भेजकर उनसे समझौता करने के प्रयास किए परन्तु दोनों ही शहजादों ने न तो बादशाह की चिट्ठियों के कोई जवाब दिए और न जहांआरा की चिट्ठियों के।
बंगाल की तरफ बढ़ते हुए शाहशुजा को यह जानकर हैरानी हुई कि शहजादा सुलेमान शिकोह शाही सेना को लेकर ताबड़तोड़ आगरा की ओर भागा जा रहा था। शाहशुजा को लगा कि आगरा में कुछ अनहोनी हुई है। इसलिए शाहशुजा ने बंगाल की तरफ बढ़ना छोड़कर पटना में ही अपने डेरे लगा दिए। इस पर सुलेमान और मिर्जा राजा जयसिंह भी अपनी सेना के साथ मार्ग में ही ठहर गए, उन्हें आशंका हुई कि कहीं शाहशुजा ने अपना इरादा तो नहीं बदल लिया और वह फिर से आगरा की तरफ बढ़ने की तो नहीं सोच रहा है। इधर दारा और शाहजहाँ की बेचैनी बढ़ती जा रही थी और वह बार-बार सुलेमान को तत्काल आगरा लौटने के फरमान दोहराने लगा।
इसी बीच दारा ने सल्तनत के तमाम विश्वसनीय दोस्तों से सम्पर्क किया और उनकी सेनाओं को आगरा से साठ मील दूर चम्बल नदी के किनारे एकत्रित होने के संदेश भिजवाए। आगरा में घुसने के लिए औरंगज़ेब को हर हाल में चम्बल नदी पार करनी ही थी तथा दारा की योजना थी कि उसे चम्बल पार नहीं करने दी जाए।
दारा के निमंत्रण पर एक लाख घुड़सवार, बीस हजार पैदल सेना तथा अस्सी तोपें चम्बल के किनारे एकत्रित हो गईं। इस विशाल सैन्य समूह के सामने औरंगज़ेब और मुराद के पास कुल मिलाकर चालीस हजार घुड़सवार ही थे जो धरमत का युद्ध करने और लगातार चलते रहने के कारण थक कर चूर हो रहे थे। उनकी सेना का एक बड़ा हिस्सा महाराजा जसवंतसिंह से हुई लड़ाई में नष्ट हो गया था।
सुलेमान शिकोह और मिर्जाराजा जयसिंह अब भी आगरा नहीं पहुँचे थे और दारा शिकोह की हताशा बढ़ती जा रही थी। दारा को भय होने लगा कि कहीं सुलेमान तथा जयसिंह से पहले औरंगज़ेब और मुराद चम्बल नदी तक न पहुंच जाएं। इसलिए वह हाथी पर बैठकर युद्ध क्षेत्र के लिए रवाना हो गया।
शाहजहाँ ने उसे मशवरा दिया कि वह सुलेमान के लौट आने तक इंतजार करे किंतु दारा किसी तरह का खतरा मोल लेने को तैयार नहीं था। उसे भय था कि जिस तरह नमकहराम कासिम खाँ, धोखा देकर औरंगज़ेब की तरफ हो गया था, उसी तरह कुछ और मुस्लिम सरदार भी ऐसा न कर बैठें। इसलिए दारा सेनाओं के साथ मौजूद रहकर ही अपनी पकड़ को मजबूत बनाए रख सकता था।
मई के महीने में जब उत्तर भारत में गर्मियां अपने चरम पर थीं, दारा शिकोह आगरा से निकला और तेजी से चलता हुआ कुछ ही दिनों में अपने दोस्तों की सेनाओं से जा मिला। औरंगजेब, दारा की हर गतिविधि पर दृष्टि रखे हुए था। उसने अपनी सेना का बहुत थोड़ा हिस्सा उस तरफ बढ़ाया जिस तरफ दारा की सेनाओं का शिविर था तथा स्वयं अपनी सेना के बड़े हिस्से को साथ लेकर राजा चम्पतराय की सहायता से बीहड़ जंगल में चम्बल के पार उतर कर तेजी से आगरा की तरफ बढ़ा।
इस समय गर्मियां इतनी तेज थीं कि औरंगज़ेब अपनी सेनाओं को लेकर नर्बदा, क्षिप्रा, चम्बल और यमुना नदियों का सहारा लेकर ही आगे बढ़ पाया था। इस बार भी जब उसने चम्बल का किनारा छोड़ा तो सीधा यमुना के किनारे जाकर दम लिया।
जब दारा को औरंगज़ेब के इस छल के बारे में मालूम हुआ तब तक बहुत देर हो चुकी थी। फिर भी दारा ने अपने ऊंटों को औरंगज़ेब के पीछे दौड़ाया जिनकी पीठों पर छोटी तोपें बंधी थीं। दारा की पैदल सेना भी पंक्ति बांधकर हाथों में बंदूकें थामे, औरंगज़ेब के शिविर की तरफ बढ़ने लगी। हाथियों की गति तो और भी मंथर थी। फिर भी रूपसिंह को उजबेकों के साथ छापामारी का लम्बा युद्ध था, इसलिए कुछ देर की अव्यवस्था के बाद दारा और महाराजा रूपसिंह की सेनाएं संभल गईं।
जब तक दारा की सेनाएं औरंगज़ेब के निकट पहुँचीं तब तक औरंगज़ेब शामूगढ़ तक पहुँच गया था। यहाँ से आगरा केवल आठ मील दूर था। एक ऊबड़-खाबड़ सी जगह देखकर औरंगज़ेब ने अपनी सेनाओं के डेरे गढ़वा दिए। इस समय औरंगज़ेब की सेनाओं की स्थिति ऐसी थी कि औरंगज़ेब की पीठ की तरफ आगरा था और औरंगजेब के सामने की ओर दारा की सेनाएं। औरंगज़ेब की कुटिल चाल के आगे दारा तथा महाराजा रूपसिंह की समस्त योजनाएं धरी रह गई थीं तथा अब उन्हें औरंगज़ेब की योजना के अनुसार ही लड़ाई करनी थी।
बादशाह ने महाराजा रूपसिंह को दारा षिकोह का सरंक्षक नियुक्त किया था। इसलिए सेना का संचालन मुख्य रूप से महाराजा रूपसिंह के ही हाथों में था। उसने दारा को सलाह दी कि दारा का सैन्य शिविर, औरंगज़ेब के शिविर के इतनी पास लगना चाहिए कि यदि औरंगज़ेब चकमा देकर आगरा में घुसने का प्रयास करे तो हमारी सेनाएं बिना कोई समय गंवाए, उसका पीछा कर सकें। हालांकि ऐसा करने में कई खतरे थे किंतु दारा के पास महाराजा की सलाह मानने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं था।
औरंगज़ेब ने भी घनघोर आश्चर्य से देखा कि महाराजा रूपसिंह अपनी सेनाओं को औरंगज़ेब के सैन्य शिविर के इतनी निकट ले आया था कि जहाँ से वह तोप के गोलों की सीमा से कुछ ही दूर रह गया था। औरंगज़ेब राठौड़ राजाओं से बहुत डरता था। हालांकि वह जोधपुर के राजा जसवंतसिंह की पूरी सेना को नष्ट करके युद्ध के मैदान से भगा चुका था फिर भी किशनगढ़ नरेश रूपसिंह का भय अब भी उसके मस्तिष्क में बना हुआ था।
वह जानता था कि रूपसिंह तलवार का जादूगर है। जाने कब वह कौनसा चमत्कार कर बैठे। बलख और बदखशां की पहाड़ियों पर बिखरा हुआ उजबेकों का खून आज भी रूपसिंह राठौड़ के नाम को याद करके सिहर उठता था।
30 मई 1658 को सूरज निकलते ही महाराजा रूपसिंह ने दारा के पक्ष की विशाल सेनाओं को योजनाबद्ध तरीके से सजाया। महाराजा रूपसिंह तथा महाराजा छत्रसाल के राजपूत सिपाही इस युद्ध का मुख्य आधार थे किंतु कठिनाई यह थी कि औरंगज़ेब और मुराद के पास मुगलों का सधा हुआ तोपखाना था। जबकि राजपूत सिपाही अब भी हाथों में बर्छियां और तलवारें लेकर लड़ते थे तथा राजपूत घुड़सवार अब भी धनुषों पर तीर रखकर फैंकते थे।
उनके पास मुगलों जैसी बंदूकें और तोपें नहीं थीं। इसलिए महाराजा ने योजना बनाई कि दारा का तोपाखाना और शाही सेना की बंदूकें आगे की ओर रहें तथा राजपूत सेनाएं युद्ध के मैदान में तब तक दुश्मन के सामने न पड़ें, जब तक कि औरंगज़ेब की तोपों का बारूद खत्म न हो जाए।
महाराजा ने सबसे आगे ऊंटों पर बंधी हुई तोपों वाली सेना को तैनात किया, जिन्हें सबसे पहले आगे बढ़कर धावा बोलना था। ऊँटों की तोपसेना के ठीक पीछे दारा की शाही सेना नियुक्त की गई जिसका नेतृत्व स्वयं वली-ए-अहद दारा कर रहा था। दारा की पीठ पर स्वंय महाराजा रूपसिंह और छत्रसाल अपनी-अपनी सेनाएं लेकर सन्नद्ध हुए। राजपूतों की सेना के एक ओर खलीलुल्ला खाँ को तैनात किया जिसके अधीन तीन हजार घुड़सवार थे तथा बायीं ओर रुस्तम खाँ को उसकी विशाल सेना के साथ रखा गया।
इस समय दारा षिकोह का सबसे बड़ा सहयोगी महाराजा रूपसिंह ही था। उसे बादशाह ने दारा शिकोह का संरक्षक नियुक्त किया था तो स्वयं दारा ने उसे अपनी सेना का प्रधान सेनापति नियुक्त कर रखा था। इसलिए रणभूमि में जो कुछ भी हो रहा था, उसकी सारी योजना महाराजा रूपसिंह ने स्वयं तैयार की थी।
रूपसिंह नहीं चाहता था कि युद्ध के मैदान में दारा शिकोह पल भर के लिए भी महाराजा रूपसिंह की आँखों से ओझल हो। इसलिए वह अपने घोड़े पर सवार होकर दारा की हथिनी के ठीक पीछे तलवार सूंतकर खड़ा हुआ। महाराजा रूपसिंह के सिर पर आज जैसे रणदेवी स्वयं आकर सवार हो गई थी। इसलिए महाराजा रूपसिंह का अप्रतिम रूप, युद्ध के उन्माद से ओत-प्रोत होकर और भी गर्वीला दिखाई देता था।
महाराजा ने दारा को सलाह दी कि वह युद्ध क्षेत्र में प्रत्यक्ष लड़ाई न करे अपितु अपना ध्यान औरंगज़ेब पर केन्द्रित रखे तथा उसके निकट जाकर उसे पकड़ ले। मैं अपने राजपूतों सहित आपकी पीठ दबाए हुए बढ़ता रहूंगा। मेरे पीछे राजा छत्रसाल रहेंगे। यदि भाग्य लक्ष्मी ने साथ दिया तो दुष्ट औरंगज़ेब का खेल आज शाम से पहले ही खत्म हो जाएगा।
दारा ने बलख और बदखषां में महाराजा की तलवार के जलवे देखे थे। इसलिए वह दूने उत्साह में भरकर एक ऊँची सी सिंहलद्वीपी हथिनी पर सवार हो गया जो हर प्रकार की बाधा के बावजूद भागने में बहुत तेज थी तथा दुश्मन के घोड़ों के पैर, अपने पैरों में बंधी तलवारों से गाजर-मूली की तहर काट देती थी।
ज्यों ही युद्ध शुरू हुआ, दोनों तरफ की मुगल सेनाओं ने आग बरसानी शुरू कर दी। राजपूत सेनाओं को इसीलिए शाही सेनाओं के बीच मेें रखा गया था ताकि वे तोपों की मार से दूर रहें। थोड़ी ही देर में मैदान में बारूद का धुआं छा गया और कुछ भी दिखाई देना मुश्किल हो गया। ठीक इसी समय महाराजा रूपसिंह ने दारा शिकोह को आगे बढ़ने का संकेत किया और दारा शिकोह पहले से ही तय योजना के अनुसार औरंगज़ेब के हाथी की दिशा को अनुमानित करके उसी तरफ बढ़ने लगा। महाराजा रूपसिंह उसकी पीठ दबाए हुए दारा के पीछे-पीछे काल बना हुआ चल रहा था।
बारूद के धुंए के कारण कोई नहीं जान पाया कि कब और कैसे दारा की हथिनी, औरंगज़ेब के हाथी के काफी निकट पहुँच गई। सब कुछ योजना के अनुसार हुआ था। इस समय औरंगज़ेब के चारों ओर उसके सिपाहियों की संख्या कम थी और दारा शिकोह तथा महाराजा रूपसिंह थोड़े सी हिम्मत और प्रयास से औरंगज़ेब पर काबू पा सकते थे किंतु विधाता को यह मंजूर नहीं था। उसने औरंगज़ेब के भाग्य में दूसरी ही तरह के अंक लिखे थे।
दारा और रूपसिंह अपनी योजना को कार्यान्वित कर पाते, उससे पहले ही आकाश से बारिश शुरू हो गई और मोटी-मोटी बूंदें गिरने लगी। इस बारिश का परिणाम यह हुआ कि धुंआ हट गया और मैदान में सारे हाथी-घोड़े तथा सिपाही साफ दिखने लगा। औरंगज़ेब ने दारा की हथिनी को बिल्कुल अपने सिर पर देखा तो घबरा गया लेकिन औरंगज़ेब के आदमियों ने औरंगज़ेब पर आए संकट को भांप लिया और वे भी तेजी से औरंगज़ेब के हाथी की ओर लपके।
उधर जब औरंगज़ेब के तोपखाने के मुखिया ने देखा कि बारिश के कारण उसकी तोपें बेकार हो गई हैं, तो उसने तोपखाने के हाथी खोलकर दारा की सेना पर हूल दिए। इससे दारा की सेना में भगदड़ मच गई। बहुत से सिपाही हाथियों की रेलमपेल में फंसकर कुचल गए।
इधर महाराजा रूपसिंह हाथ आए इस मौके को गंवाना नहीं चाहता था। इसलिए जब उसने देखा कि दारा अपनी हथिनी को आगे बढ़ाने में संकोच कर रहा है तो महाराजा अपने घोड़े से कूद गया और हाथ में नंगी तलवार लिए हुए औरंगजेब की तरफ दौड़ा। दारा ने महाराजा रूपसिंह को तलवार लेकर पैदल ही औरंगज़ेब के हाथी की तरफ दौड़ते हुए देखा तो दारा की सांसें थम सी गईं। उसे इस प्रकार युद्ध लड़ने का अनुभव नहीं था।
रूपसिंह तीर की तेजी से बढ़ता जा रहा था और दारा कुछ भी निर्णय नहीं ले पा रहा था। इससे पहले कि औरंगज़ेब का रक्षक दल कुछ समझ पाता महाराजा उन्हें चीरकर औरंगज़ेब के हाथी के बिल्कुल निकट पहुँच गया। महाराजा ने बिना कोई क्षण गंवाए औरंगज़ेब के हाथी के पेट पर बंधी रस्सी को अपनी तलवार से काट डाला। यह औरंगज़ेब की अम्बारी की मुख्य रस्सी थी जिसके कटने से औरंगज़ेब नीचे की ओर गिरने लगा। महाराजा ने चाहा कि औरंगज़ेब के धरती पर गिरकर संभलने से पहले ही वह औरंगज़ेब का सिर भुट्टे की तरह उड़ा दे किंतु तब तक औरंगज़ेब के सिपाही, महाराजा रूपसिंह के निकट पहुँच चुके थे।
उधर औरंगज़ेब हाथी से नीचे गिर रहा था और इधर महाराजा रूपसिंह का ध्यान भटककर उन सिपाहियों की तलवारों की ओर चला गया जो रूपसिंह के प्राण लेने के लिए हवा में जोरों से लपलपा रही थीं। महाराजा ने चीते की सी फुर्ती से उछलकर एक मुगल सिपाही की गर्दन उड़ा दी। फिर दूसरी, फिर तीसरी और इस तरह से महाराजा, औरंगज़ेब के अंगरक्षकों के सिर काटता रहा किंतु उनकी संख्या खत्म होने में ही नहीं आती थी।
दारा यह सब हाथी पर बैठा हुआ देखता रहा, उसकी हिम्मत नहीं हुई कि वह अपनी हथिनी औरंगज़ेब के हाथी पर हूल दे। महाराजा, औरंगज़ेब के अंगरक्षकों के सिर काटता जा रहा था और उसका सारा ध्यान अपने सामने लपक रही तलवारों पर था किंतु अचानक औरंगज़ेब के एक अंगरक्षक ने महाराजा की गर्दन पर पीछे से वार किया। खून का एक फव्वारा छूटा और महाराजा रूपसिंह का सिर भुट्टे की तरह कटकर दूर जा गिरा। तब तक औरंगज़ेब के बहुत से अंगरक्षकों ने हाथी से गिरते हुए अपने मालिक को हाथों में ही संभाल लिया, उसे धरती का स्पर्श नहीं करने दिया।
महाराजा का सिर कटकर गिर गया था किंतु उसका धड़ अब भी तलवार चला रहा था। महाराजा की तलवार ने दो-चार मुगल सैनिकों के सिर और काटे तथा फिर स्वयं भी एक ओर का लुढ़क गया। ठीक इसी समय दारा की हथिनी का महावत, अपनी हथिनी को दूर भगा ले गया। दुश्मन की निगाहों से छिपने के लिए दारा थोड़ी ही दूर जाकर हथिनी से उतर गया। दारा की हथिनी का हौदा खाली देखकर, उसके सिपाहियों ने सोचा कि दारा मर गया और वे सिर पर पैर रखकर भाग लिए। युद्ध का निर्णय हो चुका था।
महाराजा का कटा हुआ सिर और धड़ एक-दूसरे से दूर पड़े थे जिन्हें उठाने वाला कोई नहीं था। अपने भक्त के देहोत्सर्ग का यह दृश्य देखकर आकाश में स्थित भगवान कल्याणराय की आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। न केवल शामूगढ़ का मैदान अपितु दूर-दूर तक पसरे हुए यमुना के तट भी बारिश की तेज बौछारों में खो से गए। भक्त तो भगवान के लिए नित्य ही रोते थे किंतु भक्तों के लिए भगवान को रोने का आज जैसा अवसर कम ही मिलता था। आज भगवान की यह इच्छा एक बार फिर से पूरी हो रही थी।
महाराजा के राठौड़ों को मुगल सेनाओं की अंधी रेलमपेल में पता ही नहीं चल सका कि महाराजा के साथ क्या हुआ और वह कहाँ गया! जब शामूगढ़ के समाचार आगरा के लाल किले में पहुँचे तो शाहजहाँ एक बार फिर से बेहोश हो गया। शहजादी जहांआरा ने बादशाह की ख्वाबगाह के फानूस बुझाकर स्वयं भी काले कपड़े पहन लिए। फिर जाने क्या सोचकर उसने फिर से रंगीन कपड़े पहने और औरंगजेब के लिए आरती का थाल सजाने लगी। अब बीमार और बूढ़े बादशाह तथा स्वयं जहांआरा का भविष्य औरंगज़ेब के रहमोकरम पर टिक गया था।
मिर्जाराजा जयसिंह और सुलेमान शिकोह अब भी आगरा की तरफ दौड़े चले आ रहे थे किंतु उनके आगरा पहुंचने से पहले ही शामूगढ़ में हुई दारा की पराजय के समाचार उन तक पहुंच गए। महाराजा रूपसिंह और दारा शिकोह शामूगढ़ का मैदान हार चुके हैं, यह सुनते ही मिर्जाराजा जससिंह ने औरंगजेब के शिविर की राह ली। उसे अब औरंगजेब में ही अपना भविष्य दिखाई दे रहा था। अपने पिता की पराजय के समाचार से दुःखी सुलेमान किसी तरह अपने पिता दारा को ढूंढता हुआ आगरा पहुंचा किंतु तब तब तक दारा शिकोह अपने हरम के साथ लाल किला छोड़ चुका था। सुलेमान ने भी उसी समय अपने पिता की दिशा में गमन किया।
कुछ ही दिनों में महाराजा रूपसिंह के बलिदान के समाचार किशनगढ़ भी जा पहुंचे। महाराजा रूपसिंह की रानियों ने महाराजा की वीरगति के समाचार उत्साह के साथ ग्रहण किए और वे अग्निरथ पर आरूढ़ होकर फिर से महाराजा रूपसिंह का वरण करने स्वर्गलोक में जा पहुँचीं।
जिस समय महाराजा रूपसिंह मुगलों की खूनी चौसर पर बलिदान हुआ, उस समय रूपसिंह के कुल में उसका तीन साल का पुत्र मानसिंह ही अकेले दिए की तरह टिमटमा रहा था और आगरा में औरंगज़ेब नामक आंधी बड़ी जोरों से उत्पात मचा रही थी। राजकुमारी चारुमती के कोमल हाथों को ही अब न केवल इस टिमटिमाते हुए दिए की रक्षा करनी थी अपितु स्वयं को भी औरंगज़ेब के क्रूर थपेड़ों से बचाना था।
ई.1875 में जब अजमेर में रेल पहुँची तो अजमेर नगर का चेहरा अचानक ही बहुत तेजी से बदलने लगा। ई.1878 में जब लोको मोटिव वर्कशॉप कार्य करने लगा तो अजमेर की जनसंख्या और तेजी से बढ़ने लगी। बी.बी.एण्डसी.आई. रेलवे कम्पनी ने वीसल झील तथा मदार पहाड़ी के बीच 52 बंगले बनाये। इस क्षेत्र को हजारी बाग कहा जाता था। यह क्षेत्र गवर्नमेंट कॉलेज के दक्षिण में स्थित था। आगरा एवं अन्य नगरों से बहुत से कर्मचारी अजमेर पहुँचने लगे। ई.1884 में अजमेर में रेलवे के सामान्य कार्यालयों की स्थापना की गयी।
गाड़ीवानों का रोजगार ठप्प
रेल आने से पहले अजमेर में सैंकड़ों तांगे वाले, ऊँट गाड़े वाले तथा बैल गाड़ियों वाले रोजगार कमाते थे किंतु रेल आने के बाद उनमें से अधिकांश लोग भूखे मरने लगे और धीरे-धीरे अजमेर शहर छोड़कर चले गये।
मकानों का किराया बढ़ा
रेल के आने के बाद अजमेर शहर की जनसंख्या तेजी से बढ़ने लगी और लगभग तीन गुनी हो गई। बाहर से बड़ी संख्या में मनुष्यों के आने से जिन लोगों के पास पक्के भवन थे, वे तेजी से मालदार हो गये। घरों तथा रिक्त भूमि का किराया भी आठ गुना तक बढ़ गया। रिक्त भूमि पर अस्थाई शौचालय बनाकर जिसने छप्पर डाल लिया, वह भी दो रुपये महीना कमाने लगा।
नगर विस्तार योजनाएँ
जनसंख्या वृद्धि के साथ ही अजमेर नगर के विस्तार की योजनाएं आरंभ की गईं। साण्डर्स ने पहली नगर विस्तार योजना अजमेर नगर के दक्षिण में कैसर गंज के रूप में आरम्भ की। कैसरगंज की स्थापना ब्रिटिश साम्राज्ञी विक्टोरिया के दिल्ली दरबार आयोजन एवं कैसरे हिन्द की उपाधि धारण करने की स्मृति में की गई। अजमेर के लोग इसे केसरगंज कहकर पुकारते हैं।
ई.1884-85 में केसरगंज बनकर तैयार हुआ। इसके केन्द्र में एक गोलाकार पार्क था। इस गोलाकार पार्क से सात सड़कें विभिन्न दिशाओं को जाती थीं। पूरा नियोजन बहुत सुंदर विधि से किया गया था। शीघ्र ही यह पूरा क्षेत्र दुकानों एवं घरों से भर गया। ई.1880 के दशक में नगरा, जोंसगंज, रामगंज, नारायण गंज आदि मौहल्ले बसने लगे। जोंसगंज की स्थापना ई.1880 में रेलवे ने उस समय की जब अजमेर में रेलवे शॉप्स की स्थापना हुई। इस कॉलोनी को बसाने के लिये रेलवे ने अपने कर्मचारियों को भूमि एवं अन्य सुविधायें उपलब्ध करवाईं।
ई.1890 में पाल बीसला पर एक कॉलोनी विकसित हुई। इन्हीं दिनों में नसीराबाद रोड तथा श्रीनगर रोड के बीच पुराना जादूघर मौहल्ला विकसित हुआ। जब अजमेर की जनंसख्या काफी बढ़ गई तो आगरा गेट के बाहर गंज में भी बहुत भीड़-भाड़ हो गई जिससे इस क्षेत्र में लूंगिया तथा बापूगढ़ नामक मौहल्ले बस गये। इम्पीरियल रोड से लेकर दौलतबाग तक का क्षेत्र एवं जयपुर सड़क से लेकर कचहरी सड़क तक का क्षेत्र जो प्राचीन समय में सब्जियों एवं फलों के बगीचों से भरा हुआ था, वहाँ पर हाथी भाटा नाम से काफी भीड़भाड़ वाला मौहल्ला बस गया। बीसवीं सदी के आरंभ में ब्रह्ममपुरी नामक मौहल्ला बसा। कुछ ही दिनों में ये सारे क्षेत्र परकोटे के भीतर के मौहल्लों की भांति भीड़-भाड़ वाले हो गये।
इसके बाद अजमेर के दक्षिण में, रेलवे शॉप्स के पास, जनसंख्या का विस्तार होना आरंभ हुआ। भगवानगंज, आसागंज(ट्रामवे स्टेशन के पास), भैरूगंज (नसीराबाद रोड के निकट), लोको शॉप तथा मेयो कॉलेज के बीच रबद्या बसा। नसीराबाद रोड पर उदयगंज एवं भजनगंज, जोन्सगंज के दक्षिण में गणेशगंज तथा आसागंज के दक्षिण में पहाड़गंज बसा। रेलवे लाइन एवं गवर्नमेंट हाईस्कूल के बीच में तोपदड़ा बसा। दौलतबाग के निकट पूर्व में लगे हुए कालाबाग तथा अन्य बागीचे लुप्त हो गये। वहाँ सिविल लाइन्स बनी जिसमें उच्च वर्ग के लोगों ने अपने निवास बनाये।
अजमेर में महत्त्वपूर्ण भवनों का निर्माण
अजमेर नगर में जब नई कॉलोनियां का विकास हो रहा था, तब उन दिनों में अजमेर में कई विशाल एवं महत्त्वपूर्ण भवनों का निर्माण हुआ। इनमें कैसरगंज क्षेत्र में दयानंद आश्रम, रेलवे हॉस्पीटल, रेलवे इंस्टीट्यूट, रोमन कैथोलिक कैथेड्रल, पुराना विक्टोरिया हॉस्पीटल, नया कचहरी भवन, जनरल पोस्ट एण्ड टेलिग्राफ ऑफिस, किंग एडवर्ड मेमोरियल, द गवर्नमेंट हाईस्कूल नया विक्टोरिया हॉस्पीटल रेलेव बिसेट इंस्टीट्यूट प्रमुख हैं।
आगरा से आये सर्वाधिक लोग
रेल आ जाने के कारण ई.1894 तक अजमेर शहर की जनसंख्या दो गुनी बढ़ गई। बाहर से आने वालों में आगरा के लोग सबसे अधिक थे।
वेश्याओं का बोलबाला
अजमेर शहर में व्यभिचार तो पहले से ही चला आ रहा था किंतु रेल के आने के बाद और भी बढ़ गया। अंतर केवल इतना आया कि पहले अजमेर में राजपूताना और अजमेर की औरतें उपलब्ध थीं, अब कहीं की भी औरतें मिलने लगीं। अजमेर में इतनी बड़ी संख्या में वेश्याओं के आने का कारण यह भी था कि अजमेर के चारों तरफ राजपूत रियासतें थीं जहाँ बदचलन औरतों को घर में ही मार दिया जाता था। राजा के कोप से डरने के कारण व्यभिचार से दूर रहते थे किंतु अजमेर में राजा का राज न था, अंग्रेजी कानून हर व्यक्ति की सहायता के लिये उपलब्ध था। इस कारण अजमेर में व्यभिचारी औरतों का जमावड़ा हो गया। अजमेर में आने वाली औरतें आसपास की रियासतों से आती थीं जो अपने घर, परिवार और समाज के अत्याचारों से दुखी होकर आती थीं। वे लौटकर अपने घरों को नहीं जाती थीं। इन्हें ढूंढने भी कोई नहीं आता था। ई.1870 के आसपास अजमेर में वेश्याओं के 11 ठिकाने थे किंतु ई.1897 में इनकी संख्या 20-21 हो गई। इन अड्डों पर कुटनियां भी रहती थीं जो हर वेश्या से अपना कमीशन पच्चीस पैसे लेती थीं।
किरायेदारों ने बढ़ाया व्यभिचार
रेल के आने के बाद बहुत से लोगों ने बाहर से आये लोगों को किरायेदार बनाकर अपने घरों में रखा। इन घरों में जवान बहू बेटियों ने अवैध बच्चों को जन्म दिया जिससे उन परिवारों को बहुत शर्मिंदगी झेलनी पड़ी।
भिखारियों की भीड़
रेल के आने से पहले ख्वाजा की दरगाह पर खादिमों के अतिरिक्त कुछ भिखारी भी दिखाई देते थे। इसी प्रकार पुष्कर में भी पण्डों के अतिरिक्त कुछ भिखारी दिखाई देते थे किंतु रेल के आने के बाद पूरे देश के भिखारी अजमेर के धार्मिक महत्त्व के कारण अजमेर और पुष्कर में आकर रहने लगे। ये दोनों शहर भिखारियों से भर गये। इनमें कुछ बदमाश एवं चोर आदि भी सम्मिलित रहते थे।
कुंजड़ों की चांदी
रेलवे के आने के बाद अजमेर में निचले तबके के लोगों की दौलत में अधिक तरक्की हुई। कुंजड़े, माली तथा मेवा बेचने वाले मालामाल होने लगे। रेल के आने से पहले एक रुपये में कई मन तरकारी मिलती थी किंतु रेल के आने के बाद तरकारी का भाव एक रुपये की आठ सेर हो गया। शहर में मिलावटी घी बिकने लगा।
शराब का ठेका
रेल के चलते ही अजमेर में बहुत से अंग्रेजों, पारसियों एवं हिन्दुस्तानी व्यापारियों ने बड़ी संख्या में अपनी दुकानें लगा लीं। इन लोगों ने अच्छा पैसा कमाया। रेल के आने से पहले ई.1870 में अजमेर का देशी शराब का ठेका दस-ग्यारह हजार रुपये में उठता था किंतु रेल आरंभ होने के बाद ई.1886 में एक लाख सत्तर हजार रुपये का ठेका उठा। अजमेर शहर में शराब का पहला ठेका दादाभाई पेस्तमजी नामक पारसी ने लिया किंतु चार साल में उन्हें बीस से तीस हजार रुपये का घाटा उठाना पड़ा क्योंकि ठेके की पूरी राशि वूसल नहीं हो पाती थी।
चण्डू का चलन
रेल के आने से पहले शहर में एक भी दुकान पर चण्डू नहीं बिकता था। चण्डू अफीम से बनने वाला मादक पदार्थ है जिसके सेवन से नशा होता है। इसकी लत वाले व्यक्ति को समय पर चण्डू नहीं मिलने से उसकी हालत खराब हो जाती है।रेल आरंभ होने के बाद अजमेर में चण्डू की कई दुकानें खुल गईं। मुराद अली के अनुसार मुरादाबाद का रहने वाला रहीम बख्श नामक एक बदमाश अजमेर में चण्डू लेकर आया। उसी ने अजमेर के नौजवानों को चण्डू पीना सिखाया। रेल के आने के बाद अजमेर में चण्डू का भी ठेका उठने लगा। मदार गेट के अंदर वेश्याओं के मौहल्ले में उसकी दुकान थी।
वह किसी भी मालदार नौजवान से दोस्ती गांठता, फिर उसे अपनी दुकान में ले जाकर बिना पैसा लिये चण्डू के छर्रे पिलाता। हर रोज दोस्ती के नाम पर छर्रों की संख्या बढ़ा देता। इस प्रकार उस नौजवान को चण्डू की लत लग जाती। धीरे-धीरे सैंकड़ों बदमाश, उचक्के और जुआरी उसकी दुकान से चण्डू पीने लगे। रहीम बख्श चण्डू बेचकर प्रतिदिन 15-16 रुपये कमाने लगा। उसे देखकर अजमेर में और भी बहुत से लोगों ने चण्डू की दुकानें खोल लीं। यहाँ तक कि अजमेर में चण्डू की 32 दुकानें खुल गईं।
जब यह संख्या समाचार पत्रों में छपी तो सरकार ने चण्डू की दुकानों के लिये लाइसेंस की व्यवस्था की। इसके बाद से मदक, चण्डू तथा अफीम का ठेका साथ ही छूटने लगा। अजमेर की सरकार ने अजमेर में केवल तीन दुकानों को ही चण्डू के लाइसेंस दिये। कुछ समय बाद अजमेर रेलवे के खलासी माल गोदाम से सामान चुराकर रहीम बख्श की दुकान पर बेचने लगे। ई.1890-91 तथा 1892 में पादरियों ने अफीम की खेती एवं सेवन का विरोध किया।
पादरियों ने चण्डूबाजों के किस्से और चित्र लंदन के समाचार पत्रों- सेन्टीनल, बेनर और एशिया, मुम्बई के समचार पत्र- गारजियन आदि में छपवाये। इस आलोचना के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत के शहरों में चण्डू के लाइसेंस देने की प्रथा बंद कर दी। उस समय कर्नल ट्रेवर अजमेर का कमिश्नर था। उसने भी अजमेर में चण्डूखाने के लाइसेंस देने बंद कर दिये।
अफीम बेचने के लाइसेंस भी बंद कर दिये गये किंतु मदक का ठेका जारी रहा। इसके बाद अजमेर शहर में चण्डू की दुकानें चोरी-छिपे चलने लगीं। इसके बाद कानून लागू हुआ कि कोई भी व्यक्ति ढाई तोला चाण्डू तथा पांच तोला अफीम अपने साथ रख सकता है। इसलिये अफीम और चण्डू के लाइसेंस बंद करने का परिणाम केवल इतना हुआ कि सरकार को राजस्व की हानि हुई। इन दोनों चीजों का उपयोग वैसे ही होता रहा।
अजमेर के जुआघर
रेल के आने से पहले अजमेर शहर में तीन जुआघर थे। इन तीनों जुआघरों का मालिक झूंथाराम जौहरी था। रेल आने के बाद मदार गेट के बाहर पाचं नये जुआघर खुल गये। पुलिसकर्मियों ने भी इन जुआघरों के कर्मचारियों से मिली भगत कर ली। धड़ल्ले से जुआ खिलवाया जाने लगा। जब पुलिस इंस्पेक्टर ब्लांचट को इन जुआघरों के बारे में ज्ञात हुआ तो उसने भेस बदल कर जुआरियों एवं जुआघरों के कर्मचारियों को पकड़ा। जिससे सारे जुआघर बंद हो गये।
पत्तेबाजों के गिरोह
शहर में 15-20 पत्तेबाजों का एक गिरोह था जिनमें पन्नालाल और कल्लन आदि बदमाश अधिक कुख्यात थे। ये लोग तड़के सवेरे ही शहर से बाहर निकल जाते और खुल्लमखुल्ला मुसाफिरों को जुए से लूटा करते थे। पुष्कर, नसीराबाद और किशनगढ़ की सड़कों पर हर समय ये लोग मुसाफिरों की ताक में लगे रहते थे तथा प्रतिदिन सौ-सौ रुपये तक कमाकर आपस में बांट लेते। एक दिन इन जुआरियों ने एक फकीर को अपने जाल में फंसाकर उसके सारे कपड़े जीत लिये। सर्दियों का समय था। इसलिये फकीर ने कहा कि कम्बल छोड़ दो किंतु जुआरी न माने उन्होंने फकीर से कम्बल भी छीन लिया।
इस पर दुखी होकर फकीर ने मदार गेट के बाहर स्थित डिक्सन कुण्ड में कूदकर आत्महत्या कर ली। इसके बावजूद लम्बे समय तक अजमेर में पत्तेबाजों का बाजार उसी तरह गर्म रहा। गंज के बाहर स्थित आगरा दरवाजे के जुलाहों और चटाईवालों का गिरोह तथा मदार गेट के बाहर के बदमाशों के गिरोह भी जबर्दस्त थे। ये कोसों दूर तक मुसाफिर का पीछा करते थे। पहले उसको अनजान बनकर दो तीन रुपये जितवा देते थे। फिर एक ही दांव में उसका सारा माल छीन लेते थे।
उनका तरीका यह रहता था कि जब ये लोग जुआ खेल रहे होते तब जुआरियों के गिरोह का एक आदमी पास की झाड़ियों में छिपा रहता था और वह अचानक सामने आता और यह कहकर इन पर धावा बोल देता कि मैं पुलिस वाला हूँ और कई दिनों से तुम्हें ही खोज रहा हूँ। तुम सब कोतवाली चलो। यह सुनकर गिरोह के सदस्य भाग खड़े होते तथा मुसाफिर पकड़ लिया जाता। इस तरह उसका सब माल लूट लिया जाता। कुछ समय बाद पुलिस कार्यवाही की गई और कई जुआरी पकड़ लिये गये और उन्हें सजा दी गई।
बादाम फोड़ने वाले बदमाश
जब पत्तेबाजी का धंधा मंदा पड़ गया तो इनमें से कुछ लोगों ने बादाम फोड़ने का जुआ खेलना आरंभ किया। ये लोग अपनी जेब में ऐसे बादाम रखते थे जिनमें से कुछ में एक गिरी तथा कुछ में दो गिरी होती थी। ये बदमाश शर्त लगाकर बादाम फोड़ते कि इस बादाम में कितनी गिरी हैं। शर्त जीतने वाले को पैसे मिलते। इन बदमाशों को अच्छी तरह पहचान होती थी कि किस बादाम में कितनी गिरी है। ये लोग रास्ता चलते व्यक्ति को अपने खेल में शामिल कर लेते और उसका सारा माल लूट लेते।
जब रेल आई तो बादाम का खेल भी बंद हो गया और उसका स्थान पटका ने ले लिया। एक बदमाश कुछ खोटा जेवर लेकर मुसाफिर के सामने चलता और उसके कुछ साथी, मुसाफिर के पीछे चलते। आगे चलने वाला बदश्माश अपना खोटा जेवर रास्ते में गिरा देता। जब मुसाफिर उसे उठाता तो मुसाफिर के पीछे चल रहे बदमाश मुसाफिर को पकड़ लेते और कहते कि इसमें हमारा भी हिस्सा है। जब ये लोग झगड़ा कर ही रहे होते कि आगे चलने वाला बदमाश रोता हुआ आता और कहता कि मेरा सौ-सवा सौ रुपये का कड़ा कहीं गिर गया। तुम्हें मिला हो तो बताओ। इस पर दूसरे बदमाश कड़ा मिलने से मना कर देते। जब पहले वाला बदमाश रोता हुआ चला जाता तो बाकी के बदमाश मुसाफिर से उस कड़े के बदले में बीस-पच्चीस रुपये ले लेते और कड़ा मुसाफिर को दे देते। इस कड़े की वास्तविक कीमत दो आने होती थी।
गौमांस की दुकानें
अजमेर में अंग्रेजों के आने से पहले गाय का मांस नहीं मिलता था। यहाँ तक कि मुगल बादशाहों ने भी अजमेर में गाय काटने तथा उसके मांस की बिक्री करने पर प्रतिबंध लगा रखा था। रेल के आने के बाद अजमेर में यूरोपियन्स ने गौमांस खाना आरंभ किया। नसीराबाद छावनी से गौमांस लाकर अजमेर में बेचा जाने लगा। मदार गेट के बाहर मोरी दरवाजे पर गौमांस की चार दुकानें खुल गईं।
'राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति' ग्रंथ के लेखन का उद्देश्य राजस्थान प्रदेश में विगत हजारों वर्षों से पल्लवित एवं पुष्पित मानव सभ्यता द्वारा विकसित एवं स्थापित परम्पराओं, सिद्धांतों एवं व्यवहार में लाई जाने वाली बातों में से उन गूढ़ तथ्यों को रेखांकित करना है जिनके द्वारा राजस्थान की संस्कृति ने पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए मानव को आनंददायी जीवन की ओर अग्रसर किया है।
मानव सभ्यता प्रकृति की कोख से प्रकट होती है तथा उसी के अंक में पल कर विकसित होती है। मानव सभ्यता को जो कुछ भी मिलता है, प्रकृति से ही मिलता है। इस कारण किसी भी प्रदेश की सभ्यता को, प्रकृति के अनुकूल ही आचरण करना होता है। प्रकृति के विपरीत किया गया आचरण, अंततः मानव सभ्यता के विनाश का कारण बनता है। प्रकृति ने अपनी सुरक्षा के लिये जिस आवरण का निर्माण किया है, वह है धरती का पर्यावरण।
धरती का पर्यावरण ही सम्पूर्ण प्रकृति को जीवन रूपी तत्व से समृद्ध एवं परिपूर्ण रखने में सक्षम बनाता है। धरती का पर्यावरण बहुत सी वेगवान शक्तियों का समूह है जो एक-दूसरे के अनुकूल आचरण करती हैं, एक-दूसरे को गति देती हैं और एक दूसरी को सार्थकता प्रदान करती हैं। ठीक इसी तरह अपने पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिये सम्पूर्ण धरती एक जीवित कोशिका की तरह कार्य करती है। जिस तरह एक कोशिका में स्थित समस्त अवयव एक दूसरे के अनुकूल रहकर, कोशिका को जीवित रखने, स्वस्थ रखने और कार्य करने की क्षमता प्रदान करते हैं, ठीक उसी तरह धरती पर मौजूद प्रत्येक तत्व को एक दूसरे के अनुकूल आचरण करना होता है, अन्यथा धरती का अस्तित्त्व ही खतरे में पड़ सकता है।
पर्यावरणीय संस्कृति से आशय मानव द्वारा प्राकृतिक शक्तियों के दोहन में संतुलन एवं अनुशासन स्थापित करने से है। इस अनुशासन के भंग होने पर प्रकृति कठोर होकर मानव सभ्यता को दण्डित करती है। उदाहरण के लिये यदि मानव अपनी काष्ठ सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये समस्त वनों को एक साथ काट ले तो मानसून नामक शक्ति हमसे बदला लेती है। वर्षा या तो होती ही नहीं और यदि होती है तो बाढ़ को जन्म देती है। इसके विपरीत, यदि मानव अपनी काष्ठ सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये सीमित मात्रा में पेड़ों को काटे तथा साथ-साथ नये पेड़ लगाना जारी रखे तो प्रकृति का संतुलन बना रहेगा।
इस प्रकार पर्यावरणीय संस्कृति से आशय एक ऐसी सरल जीवन शैली से है जो मानव जीवन को सुखद एवं आराम दायक बनाती है तथा पर्यावरण को भी नष्ट नहीं होने देती। राजस्थान की संस्कृति के विभिन्न आयाम इसी गहन तत्व को ध्यान में रखकर स्थापित किये गये हैं जिनका विवेचन इस पुस्तक में करने का प्रयास किया गया है। राजस्थान की संस्कृति में ऐसे बहुत से बारीक एवं गहन गम्भीर तत्व उपस्थित हैं जो मानव को यह चेतना प्रदान करते हैं कि प्रकृति का उपयोग कबीर की चद्दर की तरह किया जाये- दास कबीर जतन कर ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीन्ह चदरिया।
आशा है यह पुस्तक हमारी नई पीढ़ी का ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित करने का सफल प्रयास करेगी कि मानव प्रकृति का पुत्र है, पर्यावरण प्रकृति की चद्दर है तथा हमें प्रकृति रूपी माँ की इस चद्दर को सुरक्षित रखना है। यह तभी संभव है जब हम अपने पुरखों द्वारा विकसित की गई सांस्कृतिक चेतना को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये अपने प्रयास निरंतर जारी रखें। -डॉ. मोहनलाल गुप्ता
उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में अजमेर नगर का चेहरा एक बार फिर बदलने लगा। उस समय आनासागर पानी से इस तरह भरा रहता था कि शाहजहानी बाग तथा पुष्करजी के रास्ते तक पानी ही पानी दिखाई देता था। पूरे नगर के कुण्ड मदार के पहाड़ तक आनासागर के पानी से लबालब रहते थे। बीसला तालाब सूखा हुआ होने के उपरांत भी उसके पूर्व की तरफ पक्की सीढ़ियों के पास दूर तक पानी जमा रहता था। मदार दरवाजे के सामने डिक्सन साहब का कुण्ड और सूरज कुण्ड जो दौलतबाग और शहर के बीच में थे, भरे रहते थे। इसी तरह ऊसरी दरवाजे की डिग्गी बारह महीने भरी हुई रहती थी। पूरा शहर इन कुण्डों का ही पानी पीता था। वन विभाग के अधिकारी पेड़ों पर लोहे की प्लेट चिपकवाते थे।
अजमेर के निकट बजरंगनाग पहाड़ पर एक भी वृक्ष नहीं था। जिला कार्यालय, ऑनरेरी मजिस्ट्रेटों की कचहरियां, तहसीलदार कार्यालय, सैटलमेंट विभाग तथा पुलिस विभाग मैगजीन में स्थित थे। मैगजीन का मुख्य दरवाजा बंद रहता था, दूसरा दरवाजा खुला रहता था। मैगजीन के पूर्व तथा दक्षिण में वीराना था। डिप्टी कंजरवेटर फॉरेस्ट मुंशी अनवर खान, स्थान-स्थान पर सफाचट मैदानों को जंगल बनाने के लिये घेरते फिरते थे।
उन्नीसवीं शती के नब्बे के दशक में अजमेर में नया चिकित्सालय बना जिसे ई.1892 में सेठ मूलचंद सोनी ने खरीद लिया। इसमें शेख मोहम्मद इलाही बख्श को चिकित्सक नियुक्त किया गया। धानमण्डी में पादरियों का चिकित्सालय था जिसमें पीरुलाल बाबर नियुक्त थे। दरगाह मीरां सैयद हुसैन खुनग (घोड़ासवार) तारागढ़ का प्रबंधन कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अधीन था। अजमेर की जनसंख्या 25 से 30 हजार थी। विदेशी कर्मचारियों में सैटलमेंट विभाग के पंजाबी बड़ी संख्या में थे। शेष शहर एक ही ढंग का था। जनजातियां बहुत ही बुरे हाल में थीं। विशेषतः कुंजड़े बहुत गरीब और कंगले थे। शहर में टके धड़ी तरकारी और अमरूद आदि मिलते थे। न पेट भर रोटी मिलती थी और न तन ढंकने को कपड़ा। अंदरकोट के रहने वालों का खूब जोर था। इन्हें अंदरकोटी कहते थे। ये लोग लड़ाकों के रूप में विख्यात थे तथा बगीचों के ठेके लिया करते थे। तमाम फल-फूल के मालिक यही थे। कुंजड़े और कुंजड़ियां उनकी गुलाम हुआ करती थीं। मालियों की हालत भी अच्छी नहीं थी।
मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर उर्स के समय प्रतिवर्ष एक बड़ा शामियाना लगाया जाता था। बाद में उस स्थान पर पत्थरों से महफिल खाना बना दिया गया। इसमें लोहे की तीलियों पर बारीक लाल रंग का कपड़ा लगी फानूस रोशन की जाती थी। महफिल के दिन अव्वल मुतवल्ली दो चौबदारों एवं अर्दली को साथ में लेकर, महफिल में आकर बैठते थे। इसके बाद सज्जादा नशीन या उसका एक रिश्तेदार आता था। तब फातेहा ख्वानी होकर कव्वालियों के समारोह तथा सरोद की शुरुआत होती थी। अंतिम दिन पगड़ियां बंटती थीं। खादिम लोग एक के बदले बीस-बीस पगड़ियां मार लेते थे। लंगर और देगों का खाना बांटने में छूट रखी जाती थी। ये खाने अजमेर शहर में हर कहीं बिकते हुए दिखाई देते थे। उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में भी यह प्रथा जारी थी।
आम तौर पर शहर के लोगों का व्यवहार शरीफाना था। कोई शख्स दगाबाजी करना नहीं जानता था। बिना लिखा पढ़ी के हर साहूकार विश्वसनीय आदमी को रुपया देता था। मकानों का कियारा बहुत सस्ता था। मकान भी हजारों सूने पड़े थे और दो-दो रुपये में अच्छी भली हवेली किराए पर मिलती थी। दो ढाई सौ रुपये में खासी जायदाद आदमी खरीद सकता था। शहर में हजारों बीघा जमीन वीरान पड़ी थी। सौ-डेढ़ सौ मकानों के अतिरिक्त समस्त मकान एक मंजिला थे। पक्की इमारतें बहुत कम थीं। (यादगार-ए-मुराद अली, 03.05.1998; मुराद अली द्वारा दिया गया यह विवरण सही नहीं जान पड़ता। एक ओर तो वह लिखता है कि शहर में व्यभिचार का बोलबाला था और रास्तों पर खतरा ही खतरा था। दूसरी ओर लिखता है कि कोई शख्स दगाबाजी करना नहीं जानता था। एक ओर वह लिखता है कि शहर में हजारों हवेलियां सूनी पड़ी थीं और उसी केसाथ लिखता है कि पक्की इमारतें बहुत कम थीं।)
घी शुद्ध मिलता था। अनाज भी बहुत था। रुपये के पंद्रह सेर गेहूं, एक मन जौ, तीन सेर घी बिकता था। मिट्टी के तेल से कोई भी परिचित नहीं था। न उसकी बिक्री होती थी। सब तिल्ली का तेल ही जलाते थे। आर्यसमाज को कोई जानता न था। हिन्दू सनातन धर्म के पाबंद थे। संदेश वाहकों का बाजार गर्म था। बीकानेर, ब्यावर, उदयपुर आदि समस्त शहरों में पत्र संदेशवाहक ही पहुँचाते थे। बड़े शहरों के सिवाय डाकखाना कहीं नहीं था। जयपुर से अजमेर और अजमेर से पाली और पाली से आबू तक तार जाते थे। ब्यावर के लोग ऊपर की ओर मुंह उठाकार तार को देखा करते थे।
लोहागल के रास्ते से अजमेर शहर की तरफ जाने पर एक नहर दिखाई देने लगी जो पादरी ग्रे के बंगले की तरफ से आनासागर की तरफ खोदी गई। हाजी मोहम्मद खान का हरा-भरा बगीचा उजड़ गया और वहाँ पर केवल एक कब्र बची। ऊँचे टीलों पर कोठियां दिखाई देने लगीं। आनासागर के पूर्वी कोने वाली बड़ी टेकड़ी पर एजेंट टू दी गवर्नर जनरल फॉर राजपूताना व चीफ कमिश्नर अजमेर-मेरवाड़ा का भव्य भवन दिखाई देने लगा। उस पर लाल सफेद पट्टियों वाला यूनियन जैक दूर से ही उड़ता हुआ दिखाई देता था।
राय बंसीलाल का बगीचा भी अब शेष नहीं रहा था। महवेबाग वाली कोठी जहाँ एक्स्ट्रा असिस्टेंट कमिश्नर सैटलमेंट बैठते थे, वीरान हो गई। दूधिया कुएं के पास होकर आनासागर की जो चादर चलती थी, वह भी लुप्त हो गई। मछलियों के रहने के स्थान की जगह अब सड़कें बन गईं। सैलानी पीर की पूर्व वाली जमीन में दौलत बाग का विस्तार हो गया। बाग की पुरानी दीवार गायब हो गई।
नगर की तरफ सूरजकुण्ड तक बाग फैल गया। वहाँ से पश्चिम में पहाड़ के नीचे बरगद के तले की कब्रें गायब हो गईं और उनके स्थान पर कनेर की झाड़ियां नजर आने लगीं। बाग के दरवाजों पर लोहे के फाटक लग गये जिन पर मसूदा के जागीरदार का नाम खुदा हुआ था। यह बाग सन् 1877 के कैसरे हिन्द दरबार की स्मृति में बनाया गया था। इस दरबार को अजमेर के लोग केसरी दरबार भी कहते थे। दिल्ली दरवाजे से एक सड़क सीधी दूधिया कुएं के पूर्व में होकर बाग वाली सड़क से जा मिली। अंधेरिया बाग से लेकर डॉक्टर हस्बैण्ड साहब की कोठी तक जो बाड़ियां और खेत थे, तथा जहाँ घने वृक्ष थे, वहाँ कैसर बाग लग गया।
जहाँ डाक बंगला और पीली बंगलिया के बीच में वीराना हुआ करता था, वहाँ जिला कचहरी बन गई। पीली बंगलिया में नजारत का कार्यालय और डाक बंगले में कोर्ट ऑफ वार्ड्स का कार्यालय बन गया। आगरा गेट के बाहर गंज में जहाँ दो तीन कसाई और चटाई वाले थे, वहाँ पर हजारों पक्के मकान बन गये तथा तिल धरने को भी जगह नहीं रही।
राय बहादुर मूल चंद सोनी के मंदिर का काम पूरा हो गया था तथा उसके दरवाजे लग गये थे। उसमें सोने चांदी और मीनाकारी की मूर्तियाँ लग गईं। मंदिर इतना भव्य था कि उसकी छत की लाल बुर्जियां आकाश से बातें करती थीं। आगरा दरवाजे से घूघरा घाटी तक, मदार दरवाजे से मदार के पहाड़ तक और मेयो कॉलेज से मोडिया भैंरू स्थित सड़क नसीराबाद तक 114 बंगले, 115 छोटी कोठियां और 109 सड़कें निकल गईं। मदार दरवाजे और मैगजीन के बीच तार बंगला बन गया। हाथी भाटा की जगह सवाईजी का मंदिर और धर्मशाला तैयार हो गये।
मदार दरवाजे के बाहर बीसला को जाते हुए जो पुराने बाग का दरवाजा और कब्रिस्तान थे वे नष्ट होकर उन पर रेलवे कर्मचारियों के क्वार्टर बन गये। यहीं से मालपुए में होकर एक सड़क कचहरी जिला को गई जिसके दोनों तरफ सैंकड़ों मकान बन गये। मुंशी घासीराम की धर्मशाला बन गई। जहाँ मैदान था, वहाँ बबूल आदि के सैंकड़ों नए वृक्ष उग गए। सड़क के किनारे-किनारे हजारों मकान और बंगले बन गये। तालाब बीसला सुखा दिया गया। उसमें खेत बोये जाने लगे और घुड़दौड़ होने लगी।
अजमेर के धोबी पहले आनासागर में कपड़े धोते थे, उन्नीसवीं सदी के अंत में धोबियों ने अपना जमावड़ा बीसला तालाब पर लगाया। मदार गेट के बाहर सैंकड़ों दुकानें बन गईं। जहाँ कुंजड़े बाजार लगाते थे। डिक्सन कुण्ड के दक्षिण में गंदा नाला और कांटों की झाड़ियों के स्थान पर दरगाह की चिश्ती चमन सराय बन गई। इस सराय के सामने मस्जिद के पास भटियारे और व्यापारी बैठते थे, उनकी जगह नगर निगम का मैदान बन गया। उसके पूर्वी कोने में घण्टाघर बन गया।
पुख्ता सराय और इमलियों के पेड़ों की जगह रेलवे स्टेशन बन गया जिससे लगती हुई रेल की पटरियां बिछ गईं। कैवेण्डिशपुरा में सैंकड़ों पक्के मकान बन गये तथा वेश्याओं का चकला लग गया। मदार गेट से ऊसरी दरवाजे तक जहाँ मदार गेट से ऊसरी गेट तक, जहाँ खाइयां थी और दिन में भी डर लगता था, बहुत सारे घर बन गये।
मैगजीन के चारों ओर खाई भरकर उस पर घर बना दिये गये। दक्षिणी और पूर्वी बुर्ज की तरफ शहर का परकोटा तोड़कर वहाँ आधुनिक चिकित्सालय की नींव रखी गई। यह चिकित्सालय 16 जुलाई 1894 को बनकर पूरा हुआ। कर्नल ट्रेवर ने इसका उद्घाटन किया। इस चिकित्सालय के लिये सेठ मूलचंद सोनी और सौभाग ढढ्ढा ने सात-सात हजार रुपये चंदा दिया। इस चिकित्सालय के निकट से होकर एक सड़क निकाली गई। मैगजीन की जड़ में लड़कों का सरकारी स्कूल बन गया। मैगजीन का अस्थायी दरवाजा बंद होकर स्थायी वाला वास्तविक दरवाजा खुल गया। ऊसरी दरवाजे का नामोनिशान भी शेष न रहा।
दरवाजे के पश्चिमी हिस्से में हलवाई की दुकान खुल गई। उधर का परकोटा भी तोड़ दिया गया। रिसाले का पूरा मैदान, अब्दुल्लाहपुरा की सराय तक आबाद हो गया। अब्दुल्लाहपुरा और मस्जिद की बाईं तरफ डाक बंगला रेवले से दक्षिण में जो कब्रिस्तन था, उसके मुर्दों की मिट्टी पलीद हुई। आधा रेल की पटरियों के नीचे और आधा स्टेशन की चाहरदीवारी में मालगोदाम के पास आ गया। सराय अब्दुल्लापुरा आधी नष्ट हो गई। अब्दुल्लाह खान की बीवी का मकबरा रेल के अहाते में चला गया और खुद नवाब अब्दुल्लाह की कब्र सराय में ही रह गई। उनके बीच से रेल की पटरी निकल गई।
कच्ची कोठरियों के स्थान पर पक्की कोठरियां बन गईं। सराय के चारों तरफ जहाँ थोहर और गधे दिखाई देते थे, वहाँ सन् 1877 में कैसरगंज बसाया गया। ऊँचे टीलों पर सिरकी बंध कुंजड़ों की जगह पुतलीघर बन गया। उसके चारों तरफ कोठियां और बंगले खड़े हो गये। उसके पास ही गवर्नमेंट कॉलेज भी बन गया। ब्यावर और नसीराबाद की सड़कों के दोनों तरफ जहाँ तक दृष्टि जाती थी, बंगले ही बंगले बन गये। मेयो कॉलेज अपनी शैक्षणिक भव्यता के साथ दिखता था।
पुरानी रेजीडेंसी के बंगले का नाम मिट गया। वहाँ रईसों की कोठियां बन गईं। श्रीनगर की सड़क के दोनों तरफ भी बंगले दिखाई देने लगे। नवाब कुम्हारबाय के कब्रिस्तान स्थित बीसला तालाब की पाल के निकट गिर्जाघर और रेल का तार लगा हुआ है। कैवेण्डिशपुरा की झौंपड़ियों में महल बन गये। शहर में सड़कें बन गईं। हर गली कूंचे में लालटेनें लग गईं। शहर में हजारों की संख्या में दो-तीन मंजिला पक्के मकान बन गये। नया बाजार में आटा पीसने वालों की दुकानों में कपड़ा बाजार लग गया।
दूसरे राज्यों से हजारों लोग अजमेर में आकर बस गये। घर-घर में रेल कर्मचारी और सरकारी बाबू दिखाई देने लगे। दो रुपये मासिक का किराया अब दस रुपये मासिक हो गया। मकानों का किराया पेशगी देना पड़ता था। शहर के हर गली कूंचे में मद्रासी, गुजराती, काठियावाड़ी और पंजाबी दिखाई देने लगे। ख्वाजा साहब की कमेटी कुप्रबंधन के कारण टूट गई। दरगाह पर सरकारी प्रबंधन हो गया। मुंशी अल्लाह नूर खां टॉडगढ़ की नायब तहसीलदारी से तहसीलदार हो गये और दरगाह के प्रबंधक बन गये।
ई.1870 में अजमेर शहर में पांच बग्घियां थीं। ई.1894 के आते-आते घर-घर गाड़ियां हो गईं। मुराद अली ने लिखा है- कुछ सेठों को छोड़ दें तो अजमेर के शेष रईस नीबू निचोड़ और भूखे हैं। सेठ मूलचंद सोनी को उसने दानवीर मर्द तथा रहमदिल साहूकार बताया है। दरगाह के दलबदल शामियाने की जगह नवाब इकबालउद्दौला वजीर हैदराबाद ने पत्थर का महफिलखाना बना दिया। ई.1896 के आसपास आनासागर में पानी कम हो गया और फॉयसागर में पानी की मात्रा काफी हो गई। अब फॉयसागर का पानी शहर के नलों में आने लगा। इस सागर का निर्माण फाई नामक इंजीनयिर ने नगरपालिका कमेटी के रुपयों से करवाया और अपने नाम पर इसका नामकरण किया।
अंदरकोटी मुसलमान
शहर के बाहर पुरानी आबादी में अंदर कोट था। इसमें मुस्लिम जनसंख्या रहती थी जिन्हें अंदरकोटी मुसलमान कहा जाता था। इसमें सब कौमों के मुसलमान रहते थे। सेठ-साहूकार, मालदार और सरदार लोग अपनी सुरक्षा के लिये अंदरकोटियों को नौकर रखते थे। लोग अपने दुश्मनों से बदला लेने के लिये भी किसी अंदरकोटी को दो-चार रुपये देकर उनको जूते पड़वाते थे। ख्वाजा साहब की देग को भी रस्म के रूप में अंदरकोटी मुसलमान लूटा करते थे। जब ताजिये निकलते थे तो अंदरकोटी लोग अखाड़ेबाजी और तलवार घुमाने का प्रदर्शन भी करते थे। उस समय नगर परकोटे का मुख्य द्वार बंद कर दिया जाता था। इस अखाड़ेबाजी और तलवार बाजी के कारण यदि कोई आम आदमी घायल हो जाता था तो भी वह शिकायत नहीं करता था।
देसवाली मुसलमान
ई.1894 के आसपास अजमेर में देसवाली लोगों के आठ मुहल्ले थे। देसवाली मूल रूप से राजपूत थे इनके पूर्वजों ने ई.1202 में तारागढ़ पर स्थित मीरान सैयद खनग सवार की दरगाह पर रात में धावा मारा था। इसके बदले में इन्हें पकड़कर मुसलमान बनाया गया। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में अजमेर के चारों ओर देसवाली मुसलमानों की संख्या पचास हजार से ऊपर हो गई। ये अपने गोत्र खीची, चौहान, सांखला आदि लिखते रहे। ये बहुत गरीब थे। मेहनत मजदूरी करके तथा लकड़ियां बेचकर जीवन निर्वाह करते थे।
इनके घरों में बात-बात पर झगड़ा होता था। उस समय में मुसलमानों की एक बड़ी आबादी ख्वाजा की दरगाह के खादिमों की भी खड़ी हो चुकी थी। अजमेर में मुसलमान जागीरदारों के पुराने घर भी बड़ी संख्या में थे जिनके पुरखों की जागीरें अजमेर के आसपास हुआ करती थीं। वे अब इतनी छोटी-छोटी रह गई थीं कि कई परिवारों के हिस्से में साल भर में तीन से चार सेर अनाज की आय ही रह गई थी।
जागीरों की आय
उस काल में बड़ी जागीरों के स्वामी बहुत कम रह गये थे। जिनमें ख्वाजा साहब की जागीर की आय 40 हजार रुपये वार्षिक, दरगाह मीरान सैयद हुसैन (तारागढ़) की आय 4400 रुपये वार्षिक, चिल्ला पीर दस्तगीर (तारागढ़) की आय 1800 रुपये वार्षिक, मंदिरों की जागीर आय 4000 रुपये वार्षिक, दीवान गयासुद्दीन अली खान शखुलमशाही दरगाह सज्जादा नशीन की आय लगभग 5000 रुपये वार्षिक, नवाब शम्सुद्दीन खां महावत खानी की आय 10,000 रुपये वार्षिक, राजा देवीसिंह गौड़ की आय 4500 रुपये वार्षिक, राजा विजयसिंह, जागीरदार गंगवाना की आय लगभग 5000 रुपये वार्षिक, सैयद इनायतुल्लाह शाह आय लगभग 4300 रुपये वार्षिक, खानदान मेहरबान अली की आय 5600 रुपये वार्षिक थी।
उस समय अजमेर जिले में 32 ताजीमी पट्टेदार ठिकाने थे- 1. भिनाय, 2. मसूदा, 3. जूनिया, सावर, खरवा, पीसांगन, बांधनवाड़ा, देवलिया कलां, महरुलकलां, आदि प्रमुख थे। इनमें से भिनाय ठिकाना सबसे बड़ा था। राजा मंगल सिंह इसके जागीरदार थे। वे दानवीर और प्रजापालक माने जाते थे। ई.1877 में उन्हें दिल्ली के दरबार में सी.आई.ए. की उपाधि मिली थी। पीसांगन का नौजवान राजा और बासोढ़ी का बड़ा ठाकुर नाहरसिंह ई.1897 में नाबालिगी में ही चल बसे थे। उसके बाद उसका छोटा भाई ठाकुर हुआ। देवलिया का ठाकुमर हरिसिंह भी ई.1897 से पहले मर गया।
अपराधियों का बोलबाला
उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों का वर्णन करते हुए मुराद अली ने लिखा है- देशी रजवाड़ों की अपेक्षा ब्रिटिश शासित क्षेत्र अजमेर में चोरी, डकैती, हत्या, बलात्कार, जालसाजी, दगाबाजी की वारदातें अधिक हो रही हैं। यद्यपि आरंभ में अंग्रेजी शासन की बड़ी प्रशंसा हुई तथा यह कहा गया कि अंग्रेज के शासन में शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते हैं किंतु अब यह बात नहीं रही। मुजरिमों की रक्षा के लिये कानून बनाया गया है जिससे हजारों अपराधी बच जाते हैं। अपराधी को पकड़ लिये जाने पर वह तुरंत वकील करता है, वकील के सवालों से गवाह घबरा जाता है और अपराधी छूट जाता है। इससे अपराधियों के हौंसले बुंलद होते जा रहे हैं।
वकीलों की मौज
साण्डर्स के आने से पहले अजमेर में वकील बहुत ही कम थे। जब साण्डर्स अजमेर आया तो अजमेर-मेरवाड़ा विदेश विभाग के अधीन था। इसलिये साण्डर्स ने विदेश विभाग से अजमेर के लिये विशेष कानून बनवाया जिसे अजमेर रेगूलेशन एक्ट कहते थे। इसकी धारा 28 के अंतर्गत यह प्रावधान किया गया कि अजमेर से बाहर का वकील बिना किसी विशेष परिस्थिति के, अजमेर की न्यायालयों में मुकदमे की पैरवी नहीं कर सकता था। इस कारण साण्डर्स के समय में भी वकीलों की संख्या बहुत कम थी। इससे न्यायालयों में बहस बहुत कम होती थी और मुकदमों का निस्तारण बहुत कम समय में हो जाता था।
बाद में धारा 28 का प्रावधान हट जाने से पूरे देश से वकील अजमेर आने लगे जिससे बहसें लम्बी हो गईं और मुकदमों के फैसले विलम्ब से होने लगे। वकीलों की लम्बी बहसों का परिणाम यह हुआ कि अपराधी छूटने लगे और बेगुनाह सजा पाने लगे। मुराद अली लिखता है- जब कोई मालदार व्यक्ति मुकदमे बाजी में फंस जाता है तो न्यायालयों के कर्मचारियों तथा वकीलों की बांछें खिल जाती हैं।
वकील और रीडर मन ही मन पुलाव पकाने लगते हैं। चपरासी भी इनाम की इच्छा से पूंछ हिलाने लगता है। न्यायाधिकारी यदि डिक्री दे भी दे तो वसूल कहां से हो। डिक्री को लेकर चाटते फिरो। ऐसी तकलीफों के कारण अजमेर के लोगों ने आपस में लेन देन बंद कर दिया। पहले लोग कच्चे कागज पर लिखवाकर रुपया उधार देते थे किंतु अब प्रोनोट लिखवाने लगे। बहुत से लोग मकान का किराया चुकाये बिना ही गायब हो गये थे इसलिये मकान मालिक भी किराया एडवांस मांगने लगे। झूठ, फरेब और दगाबाजी सीमा से अधिक बढ़ गई।
बोहरों की मनमानी
अजमेर नगर के आसपास के गांवों के किसान और निर्धन लोग अजमेर में आकर बोहरों से नमक, तेल, शक्कर, कपड़ा, गुड़, आदि उधार खरीदते थे। बोहरे इन्हें बहुत महंगा सामान देते थे। तोलते भी कम थे। फिर नगद पर सूद अलग वसूल करते थे। इस प्रकार उधार लेने वाले को हर सामान डेढ़ से दो गुनी कीमत पर मिलता था। फसल पकने पर बोहरे स्वयं ही किसान के खेत पर चले जाते। वे बाजार कीमत से कम दर पर अनाज लेते और तोलने में भी एक मन की जगह सवा मन तोल लेते। यदि किसान किसी तरह की आपत्ति करता तो बोहरे न्यायालय में मुकदमा ठोककर सूद पर सूद चढ़ाकर डिक्री करा लेते।
दरगाह का प्रबंध सरकार के हाथों में
ख्वाजा की दरगाह के सामने खड़े होकर प्रार्थना करने वालों के पास चिट्ठियां उतरा करती थीं। जिनमें सफेद कागज पर सुनहरी स्याही से बहुत ही खराब हस्तलेख से याचक की इच्छा पूरी होने की बात लिखी होती थी। ये इच्छायें धन एवं औरत मिलने की होती थीं। कुछ ही दिनों में उस याचक की इच्छा पूरी हो जाती थी। जब दरगाह का प्रबंध अंग्रेज सरकार ने अपने हाथ में ले लिया तो ये चिट्ठियां उतरनी बंद हो गईं।
राजस्थान में आदि मानव द्वारा प्रयुक्त लगभग डेढ़ लाख वर्ष पुराने प्राचीनतम पाषाण उपकरण उपलब्ध हुए हैं। इस भू-प्रदेश में मानव सभ्यता उससे भी पुरानी हो सकती है। राजस्थान में मानव सभ्यता पुरा-पाषाण, मध्य-पाषाण तथा उत्तर-पाषाण युग से होकर गुजरी। अतः राजस्थान में मानव अधिवास उस समय से है जब सभ्यता अपने प्रारम्भिक चरण धरना सीख रही थी। पुरा-पाषाण युग डेढ़ लाख वर्ष पूर्व से पचास हजार वर्ष पूर्व तक का काल समेटे हुए है। इस काल में हैण्ड एक्स, क्लीवर तथा चॉपर आदि का प्रयोग करने वाला मानव बनास, गंभीरी, बेड़च, बाधन तथा चम्बल नदियों की घाटियों (बांसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर, भीलवाड़ा, बूंदी, कोटा, झालावाड़ तथा जयपुर जिले) में रहता था। इस युग के भद्दे तथा भौंडे हथियार अनेक स्थानों से मिले हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि इस युग का मानव लगभग पूरे प्रदेश में फैल गया था।
पुरा पाषाण युग का मनुष्य, सभ्यता के उषा काल पर खड़ा था। उसका आहार शिकार से प्राप्त वन्य पशु, प्राकृतिक रूप से प्राप्त कन्द, मूल, फल, पक्षी, मछली आदि थे। नगरी, खोर, ब्यावर, खेड़ा, बड़ी, अनचर, ऊणचा, देवड़ी, हीराजी का खेड़ा, बल्लू खेड़ा (चित्तौड़ जिले में गंभीरी नदी के तट पर), भैंसरोड़गढ़, नगघाट (चम्बल और बामनी के तट पर) हमीरगढ़, सरूपगंज, बीगोद, जहाजपुर, खुरियास, देवली, मंगरोप, दुरिया, गोगाखेड़ा, पुर, पटला, संद, कुंवारिया, गिलूंड (भीलवाड़ा जिले में बनास के तट पर), लूणी (जोधपुर जिले में लूनी के तट पर), सिंगारी और पाली (गुड़िया और बांडी नदी की घाटी में), समदड़ी, शिकारपुरा, भावल, पीचक, भांडेल, धनवासनी, सोजत, धनेरी, भेटान्दा, धुंधाड़ा, गोलियो, पीपाड़, खींवसर, उम्मेदनगर (मारवाड़ में), गागरोन (झालवाड़), गोविंदगढ़ (अजमेर जिले में सागरमती के तट पर), कोकानी, (कोटा जिले में परवानी नदी के तट पर), भुवाणा, हीरो, जगन्नाथपुरा, सियालपुरा, पच्चर, तारावट, गोगासला, भरनी (टोंक जिले में बनास तट पर) आदि स्थानों से उस काल के पत्थर के हथियार प्राप्त हुए हैं।
मध्य-पाषाण युग लगभग 50 हजार वर्ष पूर्व आरंभ हुआ। इस काल के उपकरणों में स्क्रैपर तथा पाइंट विशेष उल्लेखनीय हैं। ये औजार लूनी और उसकी सहायक नदियों की घाटियों में, चित्तौड़गढ़ जिले की बेड़च नदी की घाटी में और विराटनगर में भी प्राप्त हुए हैं। इस समय तक भी मानव को पशुपालन तथा कृषि का ज्ञान नहीं था। उत्तर-पाषाण काल का आरंभ लगभग 10 हजार वर्ष पूर्व हुआ। इस काल में पहले हाथ से और फिर से चाक से बर्तन बनाये गये। इस युग के औजार चित्तौड़गढ़ जिले में बेड़च व गंभीरी नदियों के तट पर, चम्बल और वामनी नदी के तट पर भैंसरोड़गढ़ व नवाघाट, बनास के तट पर हमीरगढ़, जहाजपुर, देवली व गिलूंड, लूनी नदी के तट पर पाली, समदड़ी, बनास नदी के तट पर टौंक जिले में भरनी, उदयपुर के बागोर तथा मारवाड़ के तिलवाड़ा आदि अनेक स्थानों से मिले हैं। इस काल में कपास की खेती होने लगी थी। समाज का वर्गीकरण आरंभ हो गया था तथा व्यवसायों के आधार पर जाति व्यवस्था का सूत्रपात हो गया था।
ताम्र, कांस्य एवं लौह युगीन सभ्यताएँ
राज्य में गणेश्वर (सीकर), आहड़ (उदयपुर), गिलूण्ड (राजसमंद), बागोर (भीलवाड़ा) तथा कालीबंगा (हनुमानगढ़) से ताम्र-पाषाण कालीन, ताम्रयुगीन एवं कांस्य कालीन सभ्यताएं प्रकाश में आयी हैं। ताम्रयुगीन प्राचीन स्थलों में पिण्डपाड़लिया (चित्तौड़), बालाथल एवं झाड़ौल (उदयपुर), कुराड़ा (नागौर), साबणिया एवं पूगल (बीकानेर), नन्दलालपुरा, किराड़ोत व चीथवाड़ी (जयपुर), ऐलाना (जालोर), बूढ़ा पुष्कर (अजमेर), कोल- माहोली (सवाईमाधोपुर) तथा मलाह (भरतपुर) विशेष उल्लेखनीय हैं। इन सभी स्थलों पर ताम्र उपकरणों के भण्डार मिले हैं। लौह युगीन सभ्यताओं में नोह (भरतपुर), जोधपुरा (जयपुर) एवं सुनारी (झुंझुनूं) प्रमुख हैं।
सरस्वती नदी सभ्यता
वैदिक काल में तथा उससे भी पूर्व के काल-खण्ड में इस प्रदेश में सरस्वती नदी प्रवाहित होती थी जिसके किनारे पर आर्यों ने अनेक यज्ञ व युद्ध किये। सरस्वती नदी की उत्त्पत्ति तुषार क्षेत्र से मानी गयी है। यह स्थान मीरपुर पर्वत है जिसे ऋग्वेद में सारस्वान क्षेत्र कहा गया है। ऋग्वेद के 10वें मण्डल में सूत्र 53 के मंत्र 8 में दृषद्वती तथा अश्वन्वती नदियों का उल्लेख है। माना जाता है कि सरस्वती एवं दृषद्वती का प्रवाह क्षेत्र आज के मरू प्रदेश में था। दसवीं सदी के आसपास दक्षिणी-पश्चिमी राजस्थान की गणना सारस्वत मण्डल में की जाती थी। यह पूरा क्षेत्र लूणी नदी बेसिन का एक भाग है। लूनी नदी सरस्वती की सहायक नदी थी। सरस्वती आज भी राजस्थान में भूमिगत होकर बह रही है। कुछ विद्वान घग्घर (हनुमानगढ़-सूरतगढ़ क्षेत्र में बहने वाली नदी) को भी सरस्वती का परवर्ती रूप मानते हैं।
हनुमानगढ़ जिले में घग्घर को नाली कहा जाता है। यहाँ पर एक दूसरी धारा जिसे नाईवाला कहते हैं, घग्घर में मिलती है, जो सतलज का प्राचीन बहाव क्षेत्र है। यह सरस्वती नदी का पुराना हिस्सा था। तब तक सिंधु में मिलने के लिये सतलज में व्यास का समावेश नहीं हो पाया था। हनुमानगढ़ के दक्षिण पूर्व की ओर नाली के दोनों किनारे ऊंचे-ऊंचे दिखायी देते हैं। सूरतगढ़ से तीन मील पहले एक और सूखी धारा घग्घर में मिलती है। यह सूखी धारा वास्तव में दृशद्वती है। सूरतगढ़ से आगे अनूपगढ़ तक तीन मील की चौड़ाई रखते हुए नदी के दोनों किनारे और भी ऊंचे दिखायी देते हैं जिनके बीच में गंगनहर की सिंचाई से खूब हरा-भरा भाग है। यहीं पर अनेक गाँव बसे हैं। बीकानेर जिले में पहुँच कर घग्घर जल रहित हो जाती है। दृशद्वती, हिमालय की निचली पहाड़ियों से कुछ दक्षिण से निकलती है। पंजाब में इसे चितांग कहते हैं। भादरा में फिरोजशाह की बनवाई हुई पश्चिमी यमुना नहर, दृशद्वती के कुछ भाग में दिखायी पड़ती है। भादरा के आगे नोहर तथा दक्षिण में रावतसर के पास इसके रेतीले किनारे दिखते हैं।
सिंधु घाटी सभ्यता
सिंधु नदी हिमालय पर्वत से निकल कर पंजाब तथा सिंध प्रदेशों में बहती हुई अरब सागर में मिलती है। इस नदी के दोनों तटों पर तथा इसकी सहायक नदियों के तटों पर जो सभ्यता विकसित हुई उसे सिंधु सभ्यता, हड़प्पा सभ्यता एवं मोहेनजोदड़ो सभ्यता कहा जाता है। यह तृतीय कांस्यकालीन सभ्यता थी तथा इसका काल ईसा से 5000 वर्ष पूर्व से लेकर ईसा से 1750 वर्ष पूर्व तक माना जाता है। इस सभ्यता की दो प्रमुख राजधानियां हड़प्पा (पंजाब में) तथा मोहेनजोदड़ो (सिंध में) मानी जाती हैं। अब ये दोनों स्थल पाकिस्तान में हैं। मोहेनजोदड़ो शब्द का निर्माण सिन्धी भाषा के 'मुएन जो दड़ो' शब्दों से हुआ है जिनका अर्थ है- मृतकों का टीला।
राजस्थान में इस सभ्यता के अवशेष कालीबंगा एवं रंगमहल आदि में प्राप्त हुए हैं। गंगानगर जिले में रायसिंहनगर से अनूपगढ़ के दक्षिण का भाग तथा हनुमानगढ़ से हरियाणा की सीमा तक के सर्वेक्षण में पाया गया है कि नाईवाला की सूखी धारा में स्थित 4-5 टीलों के नीचे सिंधु घाटी सभ्यता की बस्तियां दबी हुई हैं। इन टीलों पर अब नये गाँव बस चुके हैं। दृषद्वती के सूखे तल में काफी दूर तक टीले स्थित हैं। इस तल में स्थित 7-8 थेड़ों में हड़प्पाकालीन किंतु खुरदरे व कलात्मक कारीगरी रहित मिट्टी के बरतन के टुकड़ों की बहुतायत थी। सरस्वती तल में हड़प्पाकालीन छोटे-छोटे व उन्हीं के पास स्लेटी मिट्टी के बरतनों वाले उतने ही थेड़ मौजूद थे। हरियाणा की सीमा पर ऐसे थेड़ भी पाये गये जिन पर रोपड़ की तरह दोनों प्रकार के हड़प्पा व स्लेटी मिट्टी के ठीकरे मौजूद थे। हनुमानगढ़ किले की दीवार के पास खुदाई करने पर रंगमहल जैसे ठीकरों के साथ कुषाण राजा हुविश्क का तांबे का सिक्का भी मिला है जो इस बात की पुष्टि करता है कि भाटियों का यह किला व अंदर का नगर कुषाण कालीन टीले पर बना है। बीकानेर के उत्तरी भाग की सूखी नदियों के तल में 4-5 तरह के थेड़ पाये गये।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन के दौरान यह माना जाता था कि भारतीय नरेशों के अशिक्षित होने के कारण उन्हें नियंत्रण में रखना सरल है। इसलिये उनकी शिक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया गया तथा इसे राजाओं का आंतरिक मामला कहकर उपेक्षित किया गया। ई.1830 से इस नीति में बदलाव आना आरंभ हुआ तथा नरेशों एवं राजकुमारों के शिक्षण के लिये निजी शिक्षक नियुक्त किये जाने लगे।
ई.1858 में महारानी विक्टोरिया की घोषणा के बाद राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य का सहयोगी घोषित किया गया। ब्रिटिश साम्राज्य के काम में भारतीय नरेशों का सहयोग लेने के उद्देश्य से नरेशों एवं राजकुमारों की अंग्रेजी शिक्षा की आवश्यकता अनुभव की गई। महलों एवं रजवाड़ों में इनकी शिक्षा के लिये समुचित वातावरण उपलब्ध नहीं था। उन्हें साधारण स्कूलों में भी पढ़ने के लिये नहीं भेजा जा सकता था क्योंकि उन स्कूलों का स्तर बहुत नीचा था।
ई.1869 में भरतपुर के पोलिटिकल एजेंट कर्नल सी. के. एम. वॉल्टर ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की कि भारतीय युवा पीढ़ी, विशेषकर राजपुत्रों में, बदलते विश्व परिवेश के अनुरूप भावनाएँ जाग्रत करने एवं उन्हें एक श्रेष्ठ व्यक्ति बनाने के लिए इस देश में भी 'ईटन' जैसी एक संस्था अपरिहार्य है। राजपूताना के एजीजी कर्नल कीटिंग्स ने वॉल्टर के सुझाव को महत्त्वपूर्ण माना तथा लॉर्ड मेयो ने भी इस सुझाव को महत्त्व प्रदान किया।
ई.1870 में लॉर्ड मेयो ने अजमेर में आयोजित हुए राजपूताना शासकों के दरबार में लम्बा भाषण दिया जिसमें उन्होंने इच्छा व्यक्त की कि वे राजकुमारों के लिये एक कॉलेज खोलना चाहते हैं। कलकत्ता लौटकर भी लॉर्ड मेयो ने इस योजना पर काम करना जारी रखा तथा राजाओं से कहा कि वे प्रस्तावित कॉलेज के लिये धन दें। (भारत सरकार ने इस अवधि में भारतीय राजकुमारों की शिक्षा के लिए राजकोट में राजकोट कॉलेज, अजमेर में मेयो कॉलेज, इन्दौर में डेली कॉलेज और कुछ समय बाद लाहौर में एचिसन कॉलेज के नाम से विशेष विद्यालय खोले।)
मेयो ने राजाओं को विश्वास दिलाया कि ब्रिटिश सरकार भी इस कार्य के लिये पर्याप्त धन देगी। देशी राजाओं ने वायसराय के इस प्रस्ताव का उत्साह से समर्थन किया। प्रारंभ में कॉलेज की स्थापना के लिये चार लाख रुपये की आवश्यकता अनुभव की गई किंतु एजीजी कर्नल ब्रुक ने इसे बढ़ाकर छः लाख रुपया कर दिया जिसमें से आधी राशि ई.1871 में, चौथाई राशि ई.1872 में तथा शेष चौथाई राशि ई.1873 में देने की आवश्यकता जताई गई। मेयो कॉलेज की स्थापना के लिये भारत सरकार ने 6 लाख रुपये का अंशदान दिया।
ब्रिटिश अधिकारियों की मांग पर राजपूताने के 18 में से 15 राजाओं ने भी मेयो कॉलेज के लिये 6,26,000 रुपये उपलब्ध करवाये। इनमें से उदयपुर महाराणा ने एक लाख रुपये, जयपुर महाराजा ने सवा लाख रुपये, जोधपुर महाराजा ने एक लाख रुपये, कोटा महाराव ने 70 हजार रुपये, भरतपुर महाराजा ने 50 हजार रुपये, बीकानेर महाराजा ने 50 हजार रुपये, झालावाड़ महाराजराणा ने 40 हजार रुपये, अलवर महाराव ने 35 हजार रुपये, करौली महाराजा ने 15 हजार रुपये, बूंदी महाराव राजा ने 10 हजार रुपये, प्रतापगढ़ महारावल ने 10 हजार रुपये, किशनगढ़ महाराजा ने 6 हजार रुपये, टोंक नवाब ने 5 हजार रुपये, बांसवाड़ा महारावल ने 4 हजार रुपये तथा सिरोही महाराव ने 3,750 रुपये उपलब्ध करवाये।
शाहपुरा के राजाधिराज ने कोई राशि उपलब्ध नहीं करवाई। इस सहायता के अतिरिक्त कई राजाओं ने यह आश्वासन भी दिया के वे इस कॉलेज में पढ़ने वाले अपनी रियासत के लड़कों के लिये हॉस्टल भी बनायेंगे। इस कॉलेज की योजना पर महाराणा उदयपुर ने कहा कि यह एक अच्छा कार्य है। जयपुर महाराजा रामसिंह ने कहा कि वॉयसराय के मन में जिन राजकुमारों की भलाई के लिये रुचि है, यह कॉलेज उन राजकुमारों के मनोबल तथा बौद्धिक स्तर को काफी ऊँचा बढ़ायेगा तथा इससे अगणनीय लाभ होगा।
टोंक नवाब ने कहा कि यह आनंद का स्रोत है, उन्होंने इस कार्य के लिये अधिक राशि देने की इच्छा व्यक्त की किंतु अनेक कारणों से केवल 25 हजार रुपये ही देने का प्रस्ताव भिजवाया। वॉयसराय ने इसमें से केवल 5 हजार रुपये ही स्वीकार किये। वायसराय के इस कार्य को जोधपुर महाराजा ने उदारता का कार्य बताया। कोटा महाराव छित्तरसिंह ने वॉयसराय की इच्छा की प्रशंसा की तथा राजकुमारों के भविष्य के लिये कल्याणकारी बताया।
भरतपुर महाराजा जसवंतसिंह ने राशि भेजते समय सरकार के सदैव सहयोग की अपेक्षा की। बीकानेर महाराजा सरदारसिंह ने इस कार्य पर वास्तविक प्रसन्नता व्यक्त करते हुए आशा की कि उनकी रियासत में होने वाले दंगों पर सरकार अधिक अर्थदण्ड नहीं लगायेगी। झालावाड़ के महाराजाराणा पृथ्वीसिंह ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि कॉलेज का बहुत अच्छा प्रभाव होगा। अलवर महाराव ने इसे गर्व करने योग्य आवश्यक उद्देश्य बताया।
बूंदी महाराव राजा ने कहा कि सरकार की इच्छा इस कॉलेज को खोलकर हृदय से देशी राजाओं का भला करने की है। किशनगढ़ महाराजा पृथ्वीसिंह ने इस प्रस्ताव को अत्यंत प्रशंसनीय बताया। सिरोही के महाराव ने इसे राजपुत्रों की सम्पूर्ण भलाई वाली योजना बताया। जब विभिन्न रियासतों द्वारा भेजी गई राशि एजीजी को प्राप्त हो गई तो वायसराय ने एजीजी को निर्देश दिये कि जब तक कॉलेज प्रबंधन के न्यासी तय नहीं हो जाते तथा कॉलेज का संविधान पूरा नहीं हो जाता, तब तक के लिये इस राशि को अजमेर-मेरवाड़ा के चीफ कमिश्नर तथा भारत सरकार के सचिव के संयुक्त नाम से राजकीय प्रतिभूति में निवेश कर दिया जाये।
अजमेर के कमिश्नर को मेयो कॉलेज अजमेर की तरफ से राजकीय प्रतिभूति पर ब्याज लेने के लिये अटॉर्नी नियुक्त किया गया। जयपुर नरेश इस कॉलेज को जयपुर में बनवाना चाहते थे किंतु लॉर्ड मेयो ने इस कॉलेज के लिये अजमेर का चुनाव किया। ऐसा करने के तीन कारण थे- (1.) यह नगर, राजपूताने के केन्द्र में स्थित था। (2.) यह ब्रिटिश शासित क्षेत्र था जहाँ समस्त रियासतों के शासक बिना किसी भय के आपस में मिल सकते थे। (3.) यदि इस कॉलेज को किसी भी रियासत में बनाया जाता तो अन्य रियासतों के राजाओं के हृदय में ईर्ष्या उत्पन्न होती। भारत सरकार ने इस कॉलेज के मुख्य भवन तथा हॉस्टल के निर्माण के लिये भूमि उपलब्ध करवाई तथा छः लाख रुपयों की लागत से एक हॉस्टल भी बनवाया।
लॉर्ड मेयो का मूल विचार यह था कि इस कॉलेज को एक श्रेष्ठ उद्यान के मध्य में खड़ा किया जाये। मुख्य भवन के चारों ओर विद्यार्थियों के लिये बंगले बनाये जायें। बंगलों के पास ही घुड़शालायें तथा अनुचरों के क्वार्टर्स हों। यह अनुभव किया गया कि अजमेर में पेयजल की उपलब्धता एक कठिन कार्य होगा, इसलिये भवनों की छतों के जल को भूमिगत टांकों में एकत्रित किया जाये। इस कॉलेज के लिये चर्च की बगल में, जयपुर जाने वाली सड़क के बाईं ओर स्थान निर्धारित किया गया।
चूंकि उन्हीं दिनों में अजमेर में रेलवे लाइन तथा रेलवे स्टेशन के लिये भूमि का निर्धारण किया जाना था इसलिये मेयो कॉलेज के लिये स्थान का निर्धारण कुछ दिनों के लिये टाल दिया गया। अंत में मि. गोर्डन ने कॉलेज के लिये भूमि का चयन किया। यह एक पुरानी एजेंसी जागीर (ओल्ड रेजीडेंसी) थी जिसमें 88 एकड़ भूमि थी। इसके साथ ही 79 एकड़ भूमि कॉलेज पार्क के लिये और खरीदी गई। इस प्रकार कॉलेज के पास 167 एकड़ भूमि हो गई।
लॉर्ड मेयो इस कॉलेज का नक्शा इस प्रकार का बनाना चाहते थे जिसमें एक विशाल हॉल हो और उसके चारों ओर कक्षायें हों। उनके बाहर की तरफ सजावटी स्तम्भों पर बने हुए बरामदे हों जो काफी हवादार और सजावटी हों। उन्होंने केवल इतना ही सुझाव दिया, कोई निश्चित नक्शा नहीं दिया। राजपूताने के एजीजी कर्नल लेविस पेली को मेयो के विचार से प्रसन्नता नहीं हुई। उसे लगा कि यदि कॉलेज बिल्डिंग भव्य और आकर्षक नहीं हुई तो राजा लोग नाराज हो जायेंगे किंतु वह भी इस भवन को अधिक अलंकृत नहीं बनाना चाहता था।